‘तन मन जन’ – द थर्ड आई के इस ‘जन स्वास्थ्य व्यवस्था’ संस्करण में हम, भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के संभावित भविष्य पर स्वास्थ्य कर्मचारियों, अर्थशास्त्रियों, कम्यूनिटी लीडर और चिकित्सकों की व्यापक सोच एवं विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं.
रीतिका खेड़ा एक विकासवादी अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), खाद्य सुरक्षा और लोक कल्याण के कार्यों पर आधार (AADHAAR) के प्रभाव पर केंद्रित अपने शोध के माध्यम से देश में बेहतर कल्याणकारी प्रावधानों की लगातार वकालत की है. वर्तमान में वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), दिल्ली में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं. चूंकि पिछले एक दशक में उन्होंने यह बतलाने की कोशिश की है कि देश की शासन व्यवस्था को “कैसा होना चाहिए”, द थर्ड आई ने उनसे पूछा कि देश में समानता पर आधारित स्वास्थ्य सेवा के कौन से मॉडल संभव हैं?
(यह साक्षात्कार मई 2021 में लिया गया था. यहां हम इसका संपादित अंश साझा कर रहे हैं.)
हम जन स्वास्थ्य को एक विचार के रूप में समझने की कोशिश कर रहे हैं. अर्थशास्त्र के सिद्धांत के दृष्टिकोण से, वह विचार है क्या?
स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में मेरी अपनी समझ मेरे अर्थशास्त्र में प्रशिक्षित होने से जुड़ी है. अर्थशास्त्र में ही, 1963 में पथ-प्रदर्शक का काम केनेथ एरो; जिन्हें 1972 में जॉन हिक्स के साथ संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार दिया गया था, ने किया था. उन्होंने अर्थशास्त्र के भीतर अध्ययन के कई क्षेत्रों की शुरूआत की, जिसमें स्वास्थ्य भी शामिल है. एक बहुत ही उम्दा रिसर्च पेपर के ज़रिए उन्होंने समझाया कि कैसे
स्वास्थ्य के क्षेत्र को बाज़ार पर छोड़ने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि अनिश्चितता, ग़ैरबराबरी और जानकारी में विषमता बाज़ार की विफलता का कारण बनती है. और मुझे ऐसा लगता है कि यहीं पर अर्थशास्त्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण एक साथ आकर जुड़ जाते हैं. जैसा कि अर्थशास्त्री कहते भी हैं, स्वास्थ्य सेवा को केवल बाज़ार के हवाले कर देना कारगर नहीं होगा. और ऐसे में इसके न्यायसंगत होने की संभावना भी कम है.
अर्थशास्त्र को लेकर, मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि इसमें समानता के पहलू को प्राथमिकता नहीं दी जाती, और यह क्षेत्र इसी तरह विकसित हुआ है. इस विषय के उद्भव के काफ़ी समय के बाद लोक कल्याण, विकास और भलाई हमारे लिए अध्ययन क्षेत्र में तर्क संगत तरीके से शामिल हुए. एरो और अन्य लोगों ने महसूस किया कि बाज़ार के हवाले करने की दृष्टि से स्वास्थ्य एक अच्छा क्षेत्र नहीं है, क्योंकि जिन्हें हम “बाहरी तत्व” कहते हैं – मूल रूप से मेरा व्यवहार अकेले सिर्फ़ मुझे ही प्रभावित नहीं करता है, बल्कि कभी-कभी सकारात्मक और कभी-कभी नकारात्मक रूप से आपको भी प्रभावित करता है. और यही कारण है बाज़ार तंत्र के माध्यम से कुशल परिणाम देने वाली स्थितियों के बिखरने का…
स्वास्थ्य में बाज़ार की विफलता का एक अन्य पहलू अर्थव्यवस्था के साथ उसके आपसी समन्वय का न होना भी है. स्वच्छता को लेकर हमारी नीतियों को ही लें. सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण का लाभ तभी मिलेगा जब आप स्वच्छ तरीके से सीवेज से छुटकारा पाने के तरीके भी खोजेंगे. ये ऐसी जगह है जहां बहुत अधिक समन्वय की आवश्यकता होती है, ख़ासकर घनी आबादी वाले क्षेत्रों में. मेरे ख़्याल में
शौचालय लोगों की निजी इस्तेमाल की चीज़ है, इसलिए इसे उन्हें ख़ुद बनाने दिया जाना चाहिए. सरकार की कोशिश एवं पैसा सीवेज बनाने और उसकी सफ़ाई को लेकर बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर केंद्रित होनी चाहिए, जो कि सार्वजनिक भलाई के लिए बहुत ज़्यादा ज़रूरी है.
विश्व के उदाहरण में वो कौन से जन स्वास्थ्य के मॉडल हैं जिनसे हमें सीख लेनी चाहिए?
मुझे तीन का अनुभव है—एक भारत का, इंग्लैंड के एनएचएस (NHS) का और जब मैं अमेरिका में डॉक्टरेट करने के बाद शोधार्थी थी, तब का. इंगलैंड के एनएचएस (NHS) में सरकारी प्रावधान सीधे तौर पर शामिल है. एक विद्यार्थी के रूप में, मैं सीधे स्वास्थ्य केंद्र में जा सकती थी और मैं किसी भी डायग्नोस्टिक टेस्ट, किसी भी तरह की दवा, किसी भी तरह के जनरल फिज़िशियन या विशेषज्ञ के साथ परामर्श का हकदार हो सकती थी और इन सबका भुगतान लोगों द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे से किया जा सकता था.
भारतीय प्रणाली की कई विशेषताओं से मिलती-जुलती है अमेरिकी प्रणाली. यह प्रणाली विभाजित है: अस्पताल चलाने, डॉक्टरों को भुगतान करने, निदान और दवा आदि में सरकार की भागीदारी कम होती है. अमेरिका में लाभ के लिहाज़ से, निजी स्वास्थ्य बीमा बहुत बड़ा क्षेत्र है. ज़्यादातर बीमा आपके मालिकों (काम देने वाले) के माध्यम से होता है, इसलिए कई लोग स्वास्थ्य बीमा से वंचित रहते हैं. (हांलाकि “ओबामाकेयर” के आने के बाद से इसमें थोड़ा बदलाव आया है.)
भारतीय प्रणाली में भारी खर्च शामिल है—2018 के विश्व बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि कुल स्वास्थ्य खर्च का लगभग 60 फीसदी लोग अपनी जेब से खर्च करते हैं. जबकि उसी वर्ष (2018) में, अमेरिका में यह आंकड़ा केवल 10 फीसदी था. बेशक, उन्हें स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम का भुगतान करना होता है.
जापान और जर्मनी में एक और किस्म की प्रणाली है. यह सामाजिक बीमा की तरह है जहां राज्य द्वारा सीधे सेवाएं प्रदान नहीं की जाती हैं. जापान और जर्मनी में अधिकांश डॉक्टर निजी डॉक्टर हैं, लेकिन बीमा की लागत सरकार, कंपनी के मालिक और बीमा प्राप्त करने वाले व्यक्ति के बीच साझा की जाती है. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन स्वास्थ्य बीमा निधियों को लाभ कमाने की अनुमति नहीं है.
क्या आपको लगता है कि इन तीनों में से जापान/जर्मनी मॉडल भारत के लिए उपयोगी हो सकता है?
कौन सा मॉडल सही रहेगा, इसके बारे में बोलने में मुझे संकोच होगा. देखिए, भारत में पहले से ही निजी क्षेत्र की बहुत बड़ी उपस्थिति है. यहां तक कि जब यूके में एनएचएस (NHS) लाया गया था, तब भी [यूके के स्वास्थ्य मंत्री, एन्यूरिन] बेवन के लिए डॉक्टरों को सरकारी डॉक्टर बनने को राज़ी कराना आसान नहीं था. हमारी समस्या और भी विकराल हो जाएगी क्योंकि यहां तो बाज़ार के हित और भी गहरे हैं. मेरा मानना है कि कई राज्यों ने निजी स्वास्थ्य बीमा मॉडल को खारिज कर दिया, जिसे आयुष्मान भारत के माध्यम से सामाजिक बीमा जैसी किसी चीज़ के पक्ष में आगे बढ़ाया जा रहा था. यहां कुछ अस्थायी किस्म के विचार हैं जैसे:
एक तो यह है कि प्रत्यक्ष प्रावधान पर सरकार का ध्यान निवारक स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को बढ़ावा देगा ताकि छोटी-मोटी बीमारियां न बढ़ें और बड़े चिकित्सा खर्च का सबब न बन जाए. दूसरा, सरकार को प्राइवेट सेक्टर को नियंत्रित करना चाहिए. आप एक ऐसी व्यवस्था नहीं रख सकते, जहां एक अस्पताल आपसे तीन या चार हज़ार रुपए वसूले और दूसरा आपसे बीस हज़ार मांगे. बस इसे रोकना ही होगा. इस महामारी के दौरान, एक तरह का नियंत्रण जिसे कुछ राज्य सरकारों ने आज़माया, वह था प्राइवेट हॉस्पिटलस से बेड्स की मांग करना. इस तरह के कुछ उपायों के साथ, प्राइवेट सेक्टर के शोषणकारी एवं मुनाफ़ाख़ोरी जैसे व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है.
एक समस्या यह भी है कि ज्योंहि आप इस तरह के सरकारी हस्तक्षेप की बात करते हैं, लोग "कम्युनिस्ट हाय-हाय, सोशलिस्ट हाय-हाय" का नारा लगाने लगते हैं. लेकिन वास्तव में ये पूंजीवादी देशों में अच्छी तरह से स्थापित, व्यापक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले चलन हैं. हमने अभी उनके बारे में पर्याप्त रूप से नहीं सुना है.
चूंकि बीमा कंपनियां [इन प्रणालियों में] मात्रा का आश्वासन देती हैं, वे छोटे मार्जिन पर जीवित रह सकती हैं. लेकिन इसके लिए सरकार को दृढ़ रहने और अपनी बात पर अड़े रहने की ज़रूरत है.
अगर नियंत्रण की बात करें, तो पिछले साल राजस्थान में सरकार ने कोविड लैब टेस्ट की कीमतों को रेगुलेट करने की कोशिश की थी. लेकिन प्राइवेट लैब ने एक समय के बाद टेस्टिंग बंद कर दी क्योंकि यह अब उनके लिए फायदेमंद नहीं रहा. हम इस तरह की स्थिति से कैसे निपटें?
जापान जैसे देशों में, निजी सेवा प्रदाताओं के लिए क़ानून का पालन नहीं करने का कोई विकल्प नहीं है. रेगुलेशन, समस्या का सिर्फ़ एक हिस्सा है. आपको इस तथ्य को भी नियंत्रित करना होगा कि वे आपको चीज़ों पर अधिक खर्च करने के लिए मजबूर करते हैं. अगर मैं डॉक्टर के पास जाती हूं, तो उसे पता है कि मुझे एक साधारण एक्स-रे की ज़रूरत है या मुझे सीटी स्कैन की ज़रूरत है. लेकिन वह यह भी जानता है कि यह रोगी वही करेगी जो मैं इससे कहूंगा क्योंकि उसे कुछ ख़ास नहीं पता है और वह अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है. इसे ही हम भ्रामक जानकारी कहते हैं. जब समीकरण में मुनाफ़ा घुस जाता है, तो भरोसे को साफ़तौर पर नुकसान होने वाला है, है ना? अब कॉरपोरेट हित और राज्य हित एक हो रहे हैं. इस समस्या को हल करने के लिए हमें पेशेवर नैतिकता और ठोस सार्वजनिक कार्रवाई पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत होगी.
अगर हम इस तरह के आंदोलन के लिए एक कदम के बाद दूसरा कदम उठाने का दृष्टिकोण अपनाते हैं, तो समानता स्थापित करने के लिए सबसे पहले क्या करना होगा?
मुझे लगता है कि तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां से चीज़ें सीखने को मिलती हैं, ख़ासकर प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के मामले में. मैं तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में गई हूं, जहां आपके पास नर्सों के साथ चालू हालात में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) होगा, कम से कम एक डॉक्टर, एक एम्बुलेंस चालक, और कर्मचारियों के रहने के लिए क्वार्टर होंगे. इन छोटे-छोटे विवरणों ने पूरी व्यवस्था को एक साथ जोड़ दिया है. ऐसा लगता है कि उन्होंने इस पर कड़ी मेहनत की है. हिमाचल प्रदेश में, मैंने उप-केंद्रों (ग्राम पंचायत स्तर पर संचालित) को भी खुला पाया. दरअसल, आपका प्राथमिक राहत एवं बचाव सबसे ज़्यादा मज़बूत होना चाहिए. मतलब प्राथमिक स्वास्थ्य. एनएचएस (NHS) में भी, संपर्क का पहला बिंदु नर्स हैं. चाहे मामला दस्त का हो, बुखार का हो, सर्दी का हो, खांसी का हो, या सिर्फ़ अपने बीपी (ब्लड प्रेशर) आदि की नियमित निगरानी का हो, आपको सीधे अपने डॉक्टर के पास जाने की ज़रूरत नहीं है. प्रशिक्षित नर्सें वास्तव में ऐसी बहुत सी चीज़ों से निपट सकती हैं और यह भी लागतों को कम करने का एक तरीका है.
इसके बजाय, भारत अब तक आयुष्मान भारत या राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) के माध्यम से बड़ी बीमारियों के स्तर पर देखभाल पर ध्यान केंद्रित करता रहा है. मतलब आप रोगी को ये बता रहे हैं कि भले ही आपको अभी घाव है, लेकिन सरकार इसे ठीक करने के लिए भुगतान नहीं करेगी. पर अगर यह ज़हरीला हो जाता है और आपके अंग को काटने की ज़रुरत है, तो सरकार हस्तक्षेप करेगी और इसके लिए भुगतान करेगी.
यह काम करने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण तरीका है. स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बेकार है— मैं अपना हाथ गंवा देती हूं, और सरकार मेरे हाथ की सर्जरी के लिए पैसा देगी, जो कि काफी महंगा है. लेकिन, प्राथमिक इलाज, जहां कम खर्च होगा और जिससे मेरे हाथ को बचाया भी जा सकता था उसमें सहयोग न करके सरकार महंगी प्रक्रिया के लिए भुगतान करती है.
अगर, प्राथमिक स्वास्थ्य को देखें तो ये “वक़्त पर एक टांका बेवक़्त के सौ टांकों से बेहतर है” जैसे लॉजिक वाली प्रणाली है. कुल मिलाकर, एक अल्पकालिक स्वास्थ्य संबंधी रणनीति मज़बूत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल और निजी क्षेत्र के सख़्त रेगुलेशन का एक संयोजन हो सकती है ताकि विनाशकारी स्वास्थ्य संबंधी खर्चे को नियंत्रित किया जा सके.
आपने तमिलनाडु मॉडल के बारे में बात की है. दिलचस्प यह है कि बहुत से लोग इसका ज़िक्र ही नहीं करते हैं. क्या इसके अलावा और किसी राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था का उदाहरण देखा जा सकता है?
कुछ राज्यों द्वारा शुरुआती पहला कदम उठाया गया है—उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ ने आशा वर्कर, जिन्हें मितानिन कहकर भी पुकारा जाता है, के काम में भारी निवेश किया है और फिर अब वह एक राष्ट्रीय मॉडल बन गया है. एक और काम जो छत्तीसगढ़ ने पहले किया था, या शायद उससे पहले तमिलनाडु ने किया था वो था, जेनेरिक दवाएं और लगभग 30-35 डायग्नोस्टिक टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक केन्द्रों पर मुफ़्त उपलब्ध करवाना.
हालांकि, प्रशिक्षित नर्सों पर अधिक भरोसा किया जाना चाहिए क्योंकि उससे प्राथमिक स्तर पर ही निदान ज़्यादा संभव है, लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें उचित वेतन का भुगतान किया जाए. कुछ राज्यों में, आशा वर्कर को 2,000 रुपये का भुगतान किया जाता है.. उनके साथ वॉलिन्टियर जैसा व्यवहार किया जाता है.
इस तरह की स्वास्थ्य प्रणाली के कई महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, जो मुख्यधारा की खबरों में नहीं दिखाई देते हैं. अब भी, कोविड संकट का कवरेज बुनियादी ढांचे पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करता है, बेड की कमी, ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी, वेंटिलेटर की कमी और स्वस्थ रहने का सवाल प्राथमिकता में नहीं है.
इस बारे में मेरी सोच निकोलस टिमिन्स की किताब ‘द फाइव जायंट्स : ए बायोग्राफी ऑफ ए वेलफ़ेयर स्टेट’, से काफी प्रभावित है, जोकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड द्वारा की गई पांच बड़ी चीज़ों के बारे में है. पहली बार संपन्न ब्रिटिश लोगों ने देखा और इस बात से प्रभावित हुए कि उनके अपने देश में अन्य लोग कैसे जी रहे हैं. इसके अलावा, हम अमीर और गरीब के बीच अंतर नहीं कर रहे थे. पिछले साल, जब प्रवासी अपने घर वापस जा रहे थे, तो मैं आशावादी बनकर सोच रही थी कि क्या यह भारत की बेवरिज रिपोर्ट [1942 की वह सरकारी रिपोर्ट जिसकी वजह से यूनाईटेड किंगडम के कल्याणकारी राज्य का निर्माण हुआ] का मौका बन सकता है?
बातचीत सिर्फ स्वस्थ रहने या कल्याण के बारे में नहीं होनी चाहिए, बल्कि गरिमा के बारे में भी होनी चाहिए. उदाहरण के लिए, टीकाकरण कार्यक्रम में, हर किसी के मन में यह धारणा है कि आपको एक स्लॉट बुक करना होगा. लेकिन आधिकारिक नीति कहती है कि 18-44 वर्ष की आयु वर्ग के लोग वॉक-इन कर सकते हैं और टीकाकरण करवा सकते हैं, अगर वहां कोई खुली शीशी है जिसके लिए कोई बुकिंग नहीं है. इसलिए मूल रूप से, वे चाहते हैं कि जो लोग स्मार्टफोन के ज़रिए स्लॉट बुक नहीं कर सकते, वे बचे हुए टीके के लिए अपनी बारी के इंतज़ार में कतारों में खड़े हों. यह वाकई आपत्तिजनक है. कोई मान-सम्मान की बात ही नहीं कर रहा है.
इसके बजाय, अगर उनके पास एक उचित वॉक-इन पॉलिसी होती, तो मेरे टीकाकरण की संभावना उतनी ही होती जितनी की एक मज़दूर के टीकाकरण की, संभावना क्योंकि हम सभी एक ही कतार में खड़े होते. (यह मानना है कि टीकाकरण केंद्र भूगोल के लिहाज़ से तटस्थ हैं.) जैसे ही आप टीकाकरण के लिए को-विन के माध्यम से जाते हैं, इसी एक कदम से आपने ग़रीब नागरिकों को हज़ारों कदम पीछे धकेल दिया है.
आपको तो मालूम ही है कि कैसे हर कोई कहता है कि गांव में लोग अफवाहों में विश्वास करते हैं, लोग टीका नहीं लगाते हैं, आदि. इस सब के पीछे वास्तव में राज्य के प्रति पूरे तौर पर विश्वास की कमी है. यह कुछ ऐसा है जो हम यूपी, राजस्थान और झारखंड में देख रहे हैं. हमारे पास ऐसे लोगों की कई कहानियां हैं जो यह कहते हैं कि “मर जाएंगे लेकिन अस्पताल नहीं जाएंगे, मर जाएंगे लेकिन टीका नहीं लेंगे.” हमारे हिसाब से, यह राज्य द्वारा लंबे समय से ग़रीबों को कोई सम्मान नहीं दिए जाने का नतीजा है?
ग्रामीण क्षेत्रों में टीकों को लेकर झिझक पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है. जब हम जाकर उनसे बात करेंगे, तो वे हमें इसके बारे में सब कुछ बताएंगे. अन्यथा, उनकी बात तो बिल्कुल ही नहीं सुनी जाती है. भारतीय लोकतंत्र में, एक खास वर्ग है जो मायने रखता है और नीतियों का निर्माण और उनका कार्यान्वयन का बहुत कुछ मलाईदार हिस्सा ऊपरी 5-10 फीसदी आबादी, या शायद 15-20 फीसदी आबादी को संतुष्ट करने में लगा रहता है. शायद यही वजह है कि टीकाकरण को लेकर झिझक को कम करने के लिए जनशिक्षा और जागरूकता पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है.
क्या सूचना से संबंधित विषमता को दूर करना समानता की दिशा में पहला कदम हो सकता है?
बिल्कुल. यह एनएचएस (NHS) का भी बेहद महत्त्वपूर्ण स्तंभ है. निवारक स्वास्थ्य देखभाल आपकी आबादी को स्वस्थ रखने का एक सस्ता तरीका है और इसका एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा शिक्षा है. पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा. जहां तक कोविड-19 का संबंध है, हमारे पास राशन की दुकानों का यह अदभुत नेटवर्क है और सरकार सभी को [इनके माध्यम से] मास्क वितरित कर सकती थी. लोगों को मास्क पर खर्च नहीं करना पड़ता और अब तक सभी को मास्क मिल चुके होते. अगर उन्हें मास्क मिल जाते तो उन्हें पता होता कि यह गंभीर मामला है, इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए.
इसमें नागरिक क्या भूमिका निभा सकते हैं? उदाहरण के लिए, देशभर के कई ग्रामीण इलाकों में लोग वाकई शहरों में रहने वाले उन नागरिकों के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं जो स्लॉट का लाभ उठाने के लिए ग्रामीण टीकाकरण केंद्रों पर आ रहे हैं. स्थिति इतनी निराशाजनक नहीं हो गई है, आप क्या मानती हैं?
स्थिति हरगिज़ इतनी निराशाजनक नहीं है. शहरों में गरीब लोगों या ग्रामीण इलाकों में लोगों की पहुंच से जुड़े मुद्दे पर द हिंदू और द इंडियन एक्सप्रेस में हुई रिपोर्टिंग पर मुझे खुशी है. इस मुद्दे पर अधिक जागरूकता और दृश्यता से तकनीकी विशेषज्ञों, जो टीके की सभी स्लॉट हथियाने के लिए कोड का उपयोग कर रहे हैं, को यह समझने में मदद मिलेगी कि वे स्वार्थी हो रहे हैं. बेशक, हर कोई अपना व्यवहार नहीं बदलेगा; लेकिन उम्मीद है, वे समझेंगे कि भले ही वे खुद टीका लगा लें, वे तभी सुरक्षित हो सकते हैं जब हम 50 फीसदी से 80 फीसदी टीकाकरण दर तक पहुंच जाएं.
जॉर्ज ऑरवेल की एक पंक्ति है, “या तो हम सब सभी एक सभ्य दुनिया में रह सकते हैं, या फिर कोई भी नहीं रह सकता.” विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) इस टीके के संदर्भ में कुछ ऐसा ही कह रहा है ‘जब तक सभी सुरक्षित नहीं हैं तब तक कोई भी सुरक्षित नहीं है’ क्योंकि वायरस के ख़िलाफ़ कारगर होने से पहले आपको टीकाकरण की दर को बहुत उच्च स्तर तक लाने की ज़रुरत है. इसलिए, सरकार को हस्तक्षेप करने की ज़रुरत है. पिछले साल, जब मीडिया ने बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों और शहरी श्रमिकों के बारे में बताया, जो अपने घर जाने की कोशिश कर रहे थे, तो सरकार ने कार्रवाई की, है ना? इसलिए मुझे लगता है कि अगर पर्याप्त दबाव हो, तो उम्मीद है कि सरकार अपनी नीतियों को ठीक करने की कोशिश करेगी, चाहे वह टीकों की खरीद का मामला हो, या उत्पादन, या मूल्य निर्धारण, या समान वितरण का मामला हो. [वास्तव में, इस बातचीत को रिकॉर्ड किए जाने के कुछ सप्ताह बाद, इस दिशा में कुछ बदलाव आया है.] इसलिए हमें बोलना होगा और अपनी आवाज़ का इस्तेमाल हर तरह से करना होगा, जिसमें सोशल मीडिया भी शामिल है, क्योंकि वे सोशल मीडिया के प्रति बेहद संवेदनशील हैं.
मुझे लगता है कि एक कारण है जिसके चलते हम इन मुद्दों और नागरिक हस्तक्षेप के लिए आम सहमति नहीं बना पा रहे हैं. वह ये है कि अमीर भारतीय सोचते हैं कि वे मध्यम वर्ग हैं, जबकि वे वास्तव में शीर्ष के 1 फीसदी हैं. इसलिए इस धारणा को बदलने की ज़रुरत है. जिन लोगों की बात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुनी जाती है, उन्हें यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहां खड़े हैं [आय वितरण के पायदान पर] और उन्हें शेष 99 फीसदी आबादी की हकीकतों से भी रूबरू होने की ज़रुरत है.
ऐसा लगता है कि दो किस्म के तर्क हैं, एक दया और सहानुभूति का है जहां हम आशा करते हैं कि लोग यह महसूस करने वाले हैं कि उन्हें स्वार्थी नहीं होना चाहिए और दूसरा तर्क दक्षता का है जहां आपको एहसास होता है कि अगर कोई और टीका नहीं लगवाता है, तो इसका आपके लिए कोई मायने नहीं रह जाएगा.
दोनों वाजिब चिंताएं हैं, हैं या नहीं?
क्या आप यह कह रही हैं कि एकजुटता में भी स्वार्थ है?
मैं सिर्फ इतना कह रही हूं कि एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए हम सभी को सभ्य होने की ज़रूरत है. मुझे लगता है कि ऑरवेल का भी यही मतलब था जब उन्होंने कहा था, ‘या तो हम सब एक सभ्य दुनिया में रहते हैं, या फिर कोई भी नहीं रहता है.’
इस लेख का अनुवाद जितेन्द्र कुमार ने किया है.