थिएटर कार्यशाला

हमारी देह हिंसा को कैसे देखती और महसूस करती है?

साल 2021 का ग्यारहवां महीना यानी नवंबर. इंदौर, मध्य प्रदेश का शहर. इंदौर में किसी मकान के एक कमरे में साथ बैठीं ग्यारह महिलाएं. कमरे में जिज्ञासा और घबराहट का एक मिश्रण था जो कमरे में बैठी महिलाओं के चेहरों पर भी झलक रहा था.

मेरी कीमती चीज़

क्या आपने कभी ठहरकर उस कलम की ओर देखने की कोशिश की है जो किसी न किसी तरह से हर वक्त आपके आसपास होती है? कलम ही क्यों, कोई बैग, डायरी, झोला, दुपट्टा रोज़मर्रा की भाग-दौड़ में कभी ठहरकर देखें तो एक मीठा आश्चर्य होता है कि कैसे और कब कोई एक चीज़ इतनी खास हो जाती है कि वो हर वक्त हमारे पास होती है.

“हमें अपने शरीर को देखकर शर्म आती थी, इसलिए हम खुद को और अपनी देह को पसंद नहीं करते थे”

लेखिका, रंगकर्मी और दलित एक्टिविस्ट दू सरस्‍वती की निगाह में समुदाय और व्‍यक्ति एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए हैं. उनका रंगकर्म और कविकर्म व्‍यक्ति के निर्माण को ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक ताकतों की संयुक्‍त उपज मानता है.

छेड़खानी

हमारे पहले दो सत्र खेलकूद के साथ एक दूसरे को जानने की कोशिश थे. पहले सत्र में, बहुत सारे खेल खेलने के बाद जब हम बातचीत के लिए बैठे, तो टोली की एक 18 या उससे कम उम्र की लड़की ने झट से कहा कि इस सत्र ने उसे उसके बचपन की याद दिला दी.

खेलना भूलना मत! खेलना न भूलना.

खेल की अपनी ही एक अनोखी दुनिया है. यहां हार–जीत, उत्साह-निराशा, गुस्सा-ख़ुशी और तमाम तरह की चालाकियों का स्वागत है. और लक्ष्य सिर्फ एक, अपना सबसे बेहतरीन खेल खेलना.

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