“हमें अपने शरीर को देखकर शर्म आती थी, इसलिए हम खुद को और अपनी देह को पसंद नहीं करते थे”

लेखक, नाटककार एवं एक्टिविस्ट दू सरस्वती से बातचीत

लेखिका, रंगकर्मी और दलित एक्टिविस्ट दू सरस्‍वती की निगाह में समुदाय और व्‍यक्ति एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए हैं. उनका रंगकर्म और कविकर्म व्‍यक्ति के निर्माण को ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक ताकतों की संयुक्‍त उपज मानता है. पांच दशक से ज़्यादा समय से कर्नाटक में नारीवादी और दलित आंदोलन से जुड़ी दू सरस्‍वती जाति और जेंडर से जुड़े न्याय के क्षेत्र में एक प्रमुख स्‍वर हैं. इन्‍होंने हमेशा यह दिखाया है कि कैसे दलित और स्‍त्री आंदोलन एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं. वे कन्‍नड़ की शुरुआती स्‍त्रीवादी पत्रिकाओं में एक, ‘मानसा’ की संपादक भी रह चुकी हैं.

सरस्‍वती को हालांकि उनके नाटकों के लिए खासतौर से जाना जाता है. सन्‍नतिम्‍मी नाम की एक कन्‍नडिगा दलित महिला किरदार पर उनके द्वारा लिखित, निर्देशित और अभिनीत एकांकी का मंचन वे पूरे कर्नाटक में कर चुकी हैं. हाल ही में उन्होंने इसका मंचन देश के दूसरे हिस्‍सों और विदेशों में भी किया है. इसमें सन्‍नतिम्‍मी प्रमुख किरदार है, जो निरक्षर ग्रामीण स्‍त्री होते हुए भी दर्शकों के साथ रामायण पर नारीवादी नज़रिए से बात करने से लेकर वृहत् अर्थशास्‍त्र, जेंडर, यौनिकता आदि तमाम विषयों पर बात करती है. कन्‍नड़ की एक खास बोली में संवाद करने वाली सन्‍नतिम्‍मी एक आम ग्रामीण कन्‍नड़ महिला की समझदारी, चतुराई और हास्‍यबोध की नुमाइंदगी करती है, जो सहज रूप में उनके भीतर पाया जाता है और जिसके लिए वे जानी जाती हैं. सरस्वती कहती हैं, ‘’ऐसी कोई भी चीज़ नहीं जिसपर सन्‍नतिम्‍मी बात न कर सके. वह अर्थशास्‍त्र, विज्ञान, संस्‍कृति और समाज पर अपनी एक खास समझदारी रखती है. वह स्‍थानीय बोली में बोलती है, जो हमें सिखाता है कि ज्ञान के ऊपर समाज के खास तबके की ही मिल्कियत नहीं है. यह एकांकी स्त्रियों के भोगे हुए अनुभव की अहमियत को दर्शाता है.”

एक्टिविज़्म से लेकर रंगमंच और लेखन तक फैले इस लंबे रचनात्मक सफर पर उनसे बातचीत करने का मुझे एक मौका मिला – कि कैसे उन्होंने खुद के साथ-साथ दूसरों के साथ सामाजिक न्याय के मुद्दों पर सीखने-सिखाने का काम किया है और दोनों ने परस्‍पर कैसे एक-दूसरे को समृद्ध किया है. हमने खासतौर से उनके रचनाकर्म में देह, भाषा और आत्म की केंद्रीयता और इनके परस्पर जुड़ाव पर बात की.

उषा बी.एन.: हम देखते हैं कि एक्टिविज़्म, लेखन और रंगकर्म में आपके जुड़ाव ने तीनों विधाओं को परस्पर ताकत दी है. लेखन-कर्म तो आप अकेले करती हैं लेकिन रंगकर्म और एक्टिविज़्म सामूहिक कर्म हैं. ऐसे में एक्टिविज़्म और सृजनात्‍मकता का आपके लिए क्‍या अर्थ है? एक रंगकर्मी, लेखक और एक्टिविस्‍ट के रूप में देह का आपके खुद के सीखने की प्रक्रिया में क्या योगदान रहा है?

दू सरस्वती : अपने संदर्भ में मैं इसके तीन आयाम गिना सकती हूं. सत्‍तर और अस्‍सी के दशक के भारत में नारीवादी आंदोलन खड़ा हो चुका था और देह की राजनीति पर बात कर रहा था. एक स्‍त्री अपनी देह के चलते ही भेदभाव और हिंसा का निशाना बन जाती है. इसलिए स्‍वायत्‍तता पर मेरा पहला सबक यह था कि मैं अपने शरीर को समझूं. ऐसा कैसे हुआ? अपनी देह को खुद देखकर. मसलन, मेरी देह में जो कुछ भी हेय या कलंकित बताया जा रहा था, जैसे माहवारी, उसे मैंने करीब से समझा. मैंने समझने की कोशिश की कि महज़ मुट्ठी के आकार का एक गर्भाशय कैसे तीन किलो के बच्‍चे को धारण कर पाता है. मेरी योनि कैसी दिखती है?

हमें अपने शरीर को देखकर शर्म आती थी, इसलिए हम खुद को, अपनी देह को पसंद नहीं करते थे.

ईमानदारी से कहूं तो मैं अपनी देह से अनजान थी. उसे देखने में मुझे थोड़ा संकोच होता था. ऐसे में उस वक्‍त नारीवादी आंदोलन का हिस्सा रहे कई डॉक्टरों ने इसमें हमारी मदद की, खास तौर से मैं डॉ. शमा नारंग का नाम लेना चाहूंगी. योनि का रंग माहवारी के दौरान कैसे बदल जाता है? उसका तापमान कैसे बदलता है? योनि और गर्भाशय अन्‍य ग्रंथियों के साथ कैसे जुड़े हुए हैं… उस समय मैंने यह सब कुछ सीखा. मुझे समझ में आया कि मुझे अपने शरीर का सम्मान करना चाहिए क्‍योंकि मेरे भीतर जो घट रहा है वह हेय नहीं है, अशुद्ध और शर्मिंदगी भरा नहीं है. मेरे लिए यह बहुत खास सबक रहा.

1984 में मुझे एक बड़ा मौका मिला. मेरी मुलाकात बादल सरकार से हुई. उन्‍हें थर्ड थिएटर का आदिपुरुष माना जाता है. मैं उनकी एक वर्कशॉप में गई थी. हम लोगों ने जो कुछ सैद्धांतिक रूप से सीखा था, बादल सरकार ने हमें व्यवहारिक रूप से थिएटर में करना सिखाया. तब मैंने जाना कि यह शरीर कितनी भव्य और आश्चर्यजनक चीज़ है. वे रंगमंच पर बाहरी सामग्री का बहुत कम इस्‍तेमाल करते थे. उनका कहना था कि ‘तुम्हारा शरीर ही सबसे बढि़या माध्‍यम है.’ वे हमेशा कहते थे कि हमें अपने शरीर का अधिकतम संभव इस्‍तेमाल करना चाहिए और बाकी किसी भी बाहरी सामग्री का इस्‍तेमाल इस मुख्य सामाग्री – शरीर- के सहयोग तक सीमित रहना चाहिए.

मैंने इस बात को समझा और आज तक इस शरीर की असीमित संभावनाओं को तलाश रही हूं.

आज की तारीख में भी मुझे वो हफ्ते भर चली वर्कशॉप याद है. अकेले मेरे लिए ही नहीं, रंगकर्म को लेकर मेरे कई पुराने दोस्तों की समझदारी में भी वह वर्कशॉप एक निणर्नायक मोड़ रही. मैं कितनी खूबसूरती से अब शरीर की राजनीति को समझ पा रही थी जिसके बारे में नारीवाद बात करता था. उन्‍होंने हमें बताया कि आप काली चमड़ी के हो या पतले हो, मोटे हो, बहरे हो या अंधे, बस अपने शरीर को अभिव्यक्त करना सीखो. हम लोग उलटे अपने शरीर को लेकर ही शर्मिंदा हुए पड़े थे! हम सोचते थे कि अगर मैंने हाथ ऊपर उठाया और दर्शक ने मेरी छाती देख ली तो क्‍या होगा? नाचते समय मैं अच्‍छी नहीं दिखी तो क्‍या होगा? फिर हमने खुलकर हंसना शुरू किया. बिना किसी की परवाह और रूकावट के हमने अपने हाथ-पैर हिलाने शुरू किए. हमें एक मूक नाटक खेलने को कहा गया. मेरी बारी आई और मुझे एक ऐसा नाटक खेलने को कहा गया जिसमें कोई शब्‍द न हों. यह एक ज़रूरी अनुभव था.

मेरा तीसरा और सबसे अहम अनुभव है बौद्ध धर्म और जो शिक्षाएं मुझे इससे प्राप्त हुईं. पिछले बीस साल से ज़्यादा समय से मैं बौद्ध धर्म को पढ़ रही हूं और उसका पालन कर रही हूं. नब्‍बे के दशक में मैंने अपना बी.एड पूरा किया और रिसोर्स यूनिट के बतौर बौद्ध धर्म को चुना और उसे करीब से पढ़ा. फिर मैं धीरे-धीरे विपश्‍यना एवं ध्यान की ओर चली गई. हाल ही में मैंने कुछ बौद्ध शिक्षाओं के बारे में जाना है और असल में उसे अपने दैनिक जीवन में ढालने की कोशिश की. बुद्ध शरीर की उपेक्षा नहीं करते हैं. उनके यहां शरीर ही वह वाहन है जो आपको आपकी आखिरी मंजिल तक पहुंचाता है, वह मंजिल चाहे जो भी हो. उनके मुताबिक समूचा ब्रह्माण्‍ड मेरे भीतर है. मैं ब्रह्माण्‍ड का प्रतिरूप हूं. दोनों आपस में गूंथे हुए हैं. दोनों साथ धड़कते हैं और दोनों का वजूद एक-दूसरे से स्‍वायत्‍त नहीं है. यह दुनिया आपकी मुट्ठी में है तो आपकी मुट्ठी इस दुनिया में है. देह पर मेरी समझदारी को बौद्ध धर्म ने एक आध्यात्मिक नज़रिया मुहैया करवाया.

इस तरह कह सकती हूं कि स्त्री आंदोलन ने जहां अपनी देह को पहचानने और समझने की मुझे सलाहियत दी, वहीं थियेटर ने मेरे भीतर इसकी आंतरिक समझदारी विकसित की और बौद्ध धर्म ने इसे आध्यात्मिक नज़रिया दिया और मुझे समझाया कि मेरा शरीर इस ब्रह्माण्‍ड की तरह विस्तारित है.

मैंने वियतनाम के बौद्ध संत थिच ना हान को बहुत पढ़ा है. वे कामगारों के नज़रिए से बौद्ध धर्म को समझाते हैं. अपनी पुस्‍तक ओल्‍ड पाथ वाइट क्‍लाउड्स: वॉकिंग इन दि फुटस्‍टेप्‍स ऑफ बुद्ध में उन्‍होंने बुद्ध के जीवन और दर्शन को समझाया है. हाल ही में मैं उसे पढ़ रही थी और अनुवाद करने की कोशिश कर रही थी. जब बुद्ध को बोधित्तव प्राप्त हुआ था, तब उन्‍हें समझ आया कि ब्रह्माण्‍ड उनके भीतर है और वे खुद ब्रह्माण्‍ड में हैं. कोई भी चीज़ अलग से अस्तित्व में नहीं है. हर कुछ आपस में जुड़ा हुआ है और परस्पर निर्भर है. सब प्रतीत्‍यसमुत्‍पाद (बोद्ध दर्शन) है. वे आत्मा की अवधारणा को खारिज करते हैं. वे कहते हैं कि अंतरनिर्भरता और निरंतर परिवर्तन ही शाश्‍वत सत्‍य है. शरीर भी हमें यही बताता है. जिस सरस्‍वती से आप बात कर रही हैं और जिसकी बात आप सुन रही हैं वह अगले ही मिनट कुछ और होगी. करोड़ों कोशिकाएं मरती रहती हैं और इतनी ही पैदा होती रहती हैं. आप वही व्‍यक्ति नहीं रह जाते, बदल जाते हैं.

मेरे लिए आध्‍यात्मिकता का अर्थ यही तीन आयाम हैं- शरीर को कलाभिव्‍यक्ति के रूप में उपयोग करना, देह को अभिव्‍यक्ति के माध्‍यम के रूप में प्रयोग करना और खुद को ब्रह्माण्‍ड की अनुभूति के तौर पर प्रयोग करना. मैं जब कहती हूं कि मैं अपनी देह का सम्‍मान करती हूं तो ऐसा नहीं कि इसे मैं किसी ऊंचे पायदान पर रख रही हूं. शरीर अपने आप में इतनी खुबसूरत चीज है और यह ब्रह्माण्‍ड अद्भुत है! अपनी अज्ञानता की वजह से ही मैं नहीं जान पाई कि मैं इससे कितने गहरे रूप से जुड़ी हुई हूं. हमारा शरीर हमारे साथ हमेशा बना रहता है, फिर भी हम इस संबंध को अस्‍वीकार किए जीते जाते हैं. मैं इसी प्रस्‍थान-बिंदु से अपना काम करती हूं.

आपने अब तक जो कुछ भी कहा है, उसे सन्‍नतिम्‍मी वाले नाटक के मंचन के दौरान या कुछ लिखते वक्‍त कैसे बरतती हैं? आपका काम, आपकी रचनात्मकता, आपकी अस्मिता, हर जगह तो आपका शरीर उपस्थित रहता है. आपकी रचना-प्रक्रिया में वह कैसे आता है, इसे समझाएं.

लिखने का काम ऐसा नहीं है जो मैं किसी कोने में बैठकर करूं. यह तो सीधे मेरे अनुभवों से जुड़ा है. अपने शरीर के भीतर मैं जो कुछ भी अनुभव करती हूं – चाहे वह निजी काम हो, रसोई हो, सफाई हो या रोज़मर्रा के काम – या दूसरी तरफ मैं जिस भी आंदोलन का हिस्सा रही हूं, उन सब के केंद्र में मेरा शरीर ही है.

स्‍त्री आंदोलन से मुझे जो अनुभव मिलते हैं वे तमाम औरतों के जिए हुए अनुभव होते हैं.

नारीवादी स्त्रियों के श्रम को सभ्यता की जकड़नों से मुक्‍त करने की बात करता है और कैसे समाज ने उसे महत्तवहीन बनाने और उसकी उपेक्षा करने का काम किया है. दूसरे चाहे जिस तरह इसे देखते हों, लेकिन यह मेरा श्रम है, यह मेरे लिए मायने रखता है. इसीलिए मैं उसके बदले उचित प्रतिदान मांगती हूं.

इसी तर्ज़ पर, नगरपालिका कर्मचारी हों जिनके साथ मैंने काम किया है या कपड़ों की फैक्टरी में काम करने वाले मज़दूर या फिर पूरे मज़दूर आंदोलन को ही ले लीजिए, मैं एलजीबीटी समुदायों के साथ भी जुड़ी रही हूं, वहां भी उनके श्रम का अवमूल्‍यन किया जाता है. शहर के सेहत का ख्याल पौराकारमिकास (बैंगलोर नगरपालिका के कर्मचारी) रखते हैं. हम लोग उन्‍हें चाहते हैं लेकिन उनके काम का मूल्य नहीं समझते. इसलिए हम उनके काम को गंदा काम कहते हैं और उसे नीची नज़र से देखते हैं, उनके श्रम की उपेक्षा करते हैं. यह बदहाल परिस्थितियों में उनका काम करना और मामूली पारिश्रमिक से जाहिर होता है. इससे कहीं ज़्यादा बड़ी बात है एक मनुष्‍य के रूप में पहचान होना – यही मूल बात है. मैंने उनकी ज़िंदगी और उनका संघर्ष देखा है. उन्‍हें ऐसे देखा जाता है जैसे वे कुछ हों ही नहीं, लेकिन इसके बावजूद उनके भीतर जो जिजीविषा है, किसी भी तरह की कटुता का अभाव है, दुनिया के प्रति किसी विद्वेष का न होना – यह सब ऐसे अनुभवों का समृद्ध खज़ाना है जिसकी मैं प्रत्यक्ष गवाह हूं. यही सब कुछ मेरे काम में उतर आता है.

लेकिन अगर मैं लगातार आंदोलन में ही रहूं, नारे लगाती और रैली निकालती रहूं, तो भीतर सूखा महसूस करने लगती हूं. दूसरी तरफ़ अगर मैं केवल बैठ के लिख-पढ़ रही हूं तो सवाल खड़ा हो जाता है कि किस बारे में लिखा जाए? अपनी आराम कुर्सी में धंस कर आप आखिर कब तक और कितना कुछ लिख पाएंगे? इसीलिए दोनों मेरे लिए समृद्ध करने वाले अनुभव हैं. मैं अगर आंदोलनों से कट गई तो लिख नहीं पाऊंगी. आंदोलन मुझे वैधता देते हैं, मेरे लिखने का एक नज़रिया देते हैं. मेरा लेखन अपने भीतर की बेचैनी और टकराहटों को एक रास्‍ता देने का भी ज़रिया है. भीतर जाने कितना कुछ पक रहा है.

मैं ईमानदारी से आपसे कहती हूं, अगर मैं लिख नहीं रही होती तो मैं बहुत क्रूर व्‍यक्ति हो सकती थी. लिखने ने मुझे मनुष्‍य बनाया है.

लिखने की प्रक्रिया भीतर आलोड़न पैदा करती है, मंथन करने का मौका देती है. भीतर जो कुछ भी उठता है, मैं तुरंत बाहर नहीं उगल देती. मैं प्रतीक्षा करती हूं. जैसे नींबू के अचार को धीरे-धीरे पकाया जाता है, वैसे ही. सोचिए, नींबू का छिलका कितना कड़वा होता है. नमक और मिर्च के बीच कैसे यह सीझ जाता है. जैसे-जैसे नींबू की हर एक कोशिका के भीतर नमक और मसाले अपनी जगह बनाते जाते हैं, छिलके का जायका बढ़ता ही जाता है. अंत में हम इसी का तो सुख पाते हैं. भीतर की रचना-प्रक्रिया मल को खाद बनाने जैसी है, जिसमें आगे खूबसूरत फूल उग सकें. मेरे लिए लेखन ऐसा ही है. यह मेरा अपना साथी है.

इस प्रक्रिया में आपके शरीर पर बहुत दबाव पड़ता होगा, या नहीं?

हां, काफी. वास्तव में शरीर और दिमाग दोनों पर ही बहुत ज़्यादा दबाव होता है. मैं जब अपने भीतरी संघर्षों के बारे में लिखती हूं, लगभग रो पड़ती हूं. लिखना जब अपने अंत की ओर होता है, ऐसा लगता है गोया शरीर की नस-नस मुझमें धड़क रही हो. कोई कविता जब मुझमें उमड़ती है, मेरी धमनियां मानो हल्की हो जाती हैं.

यहां शरीर ही मेज़बान है और माध्‍यम भी – क्‍या यह दोतरफा प्रक्रिया नहीं है?

हां, मस्तिष्क और अहसास इसके अलावा और कहां रहेंगे? बिना शरीर के मैं कैसे बाहर की गति को पकड़ूंगी? लेखन भले ही एकांत की चीज़ है लेकिन रंगकर्म में आप सशरीर उपस्थित होते हैं और दूसरों से अपने शरीर के माध्‍यम से ही जुड़ते हैं. मैं जब नाटक कर रही होती हूं, तो अपनी ऊर्जा दर्शकों से खींचती हूं. जब कोई बहुत गौर से मुझे देख रहा होता है, तो मैं खुद से कहती हूं, ‘’सावधान, तुम्हें कोई गौर से देख रहा है. अपन सारा ध्यान अपने काम में लगाओ.‘’ मेरी देह उनकी देह से ऊर्जा लेती है और मेरी देह की तीव्रता उन तक पहुंचती है. इसीलिए मुझे लगता है कि बुद्ध जो कह रहे हैं वो कितनी सटीक बात है, कि ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसका अस्तित्व स्वतंत्र रूप से हो, कुछ भी नहीं. हर चीज़ आपस में जुड़ी हुई है और एक-दूसरे पर निर्भर है. ईश्‍वर कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व रखने वाली इकाई नहीं है जो कहीं बैठा हो. आपके बगैर मेरा अस्तित्‍व नहीं है. आप किसी और के अस्तित्‍व के बगैर नहीं हो सकते. यह अंतरसंबंध भले न दिखे, लेकिन वह है. आप अलग नहीं हैं.

आप जब अपने अनुभवों को सामने रखती हैं तो उनसे समाज में व्‍याप्‍त धारणाएं कैसे प्रभावित होती हैं? आपको कैसी प्रतिक्रियाएं मिलीं?

इसमें कोई दो राय नहीं कि मैं व्‍याप्‍त धारणाओं पर सवाल उठाना चाहती थी, लेकिन इससे भी कहीं ज़्यादा मैं उन धारणाओं से संवाद चाहती थी. मेरा अस्तित्व अलग नहीं है: मैं उसका हिस्सा हूं. मुझे उसे चुनौती देनी है, कभी-कभार सवाल भी उठाने हैं, तो कभी मुझे उससे संवाद भी कायम करना है. यह बात हमेशा मेरे काम का हिस्सा रही है. मैंने बुरी चीज़ों पर बहुत ज़्यादा आक्रोश के साथ भी लिखा है. मेरी एक कविता की पंक्ति कुछ यूं है, ‘ज़िंदगी अपने हांड़ मांस के साथ घिसटती चली जाती है जबकि मेरी ठीक बगल में घात लगाए एक गिद्ध बैठा है’. किसी ने इस पर प्रतिक्रिया दी थी, ‘ओह, कितना भयावह है.’

लिखना भले अकेले में होता हो लेकिन अंततः वह लोगों तक पहुंचता है. इसलिए यह बहुत ज़िम्‍मेदारी वाला काम है. आपके मन में जो आए उसे आप बेपरवाही से यूं ही नहीं उगलते जा सकते.

मेरे दिमाग में भी तमाम सड़ी गली, बदबूदार चीज़ें आती हैं लेकिन बिना ज़िम्मेदारी उठाए मैं उसे यूं ही ज़ाहिर नहीं कर सकती हूं!

वह ज़िम्मेदारी का भाव है जो मेरे भीतर है और जो कच्चे विचारों को स्‍वस्‍थ संवाद में तब्‍दील करने का काम करता है. यही दिखाता है कि मेरी दिलचस्पी आपसे वाकई संवाद करने की है या बस आप पर हमला करने में.

मैंने अपने माहवारी के अनुभवों के बारे में ‘ईगेन मादीरी’ (वॉट विल यू डू नाउ) में लिखा था. उस डर के बारे में जब पहली बार मैंने अपने भीतर से खून रिसता हुआ पाया था, और यह – जो भीतर से खून निकलने की प्रक्रिया है – क्या यह मुझे किसी के हमले का शिकार बना सकती है? यह भी पहली बार जाना कि मेरा शरीर उत्तेजना और अनुभूति का एक ठिकाना बेशक है लेकिन यह किसी की हिंसा का निशाना भी बन सकता है. तमाम औरतों ने ऐसी अनुभूति की होगी. उन्‍होंने मुझे बताया कि मेरे लिखे को वे करीब से महसूस कर पा रही हैं. मेरी एक दोस्त जो जेंडर पर कार्यशालाएं करती हैं, किताब के उस हिस्से का इस्‍तेमाल महिलाओं को उनके शरीर के बारे में समझाने के लिए करती हैं.

मेरी एक कविता को स्‍कूली के कोर्स में लगाया गया था. उसका नाम था ओडाला संकटक्‍के गाडियी इल्‍ल. ये कविता कारगिल की जंग के संदर्भ में लिखी गई थी. वह कहती है, “जो सरहद पार मरे वे शहीद कहलाए, लेकिन जो अपनी देह से जूझ रहे हैं उनकी तो कोई सीमा ही नहीं है, न भीतर न बाहर.” इसे मैंने एक परचे के लिए लिखा था, जो बाद में किताब का हिस्सा बना ली गई. मेरा नाटक ‘रेक्‍के कट्टुवीरा’ (विल यु टाई विंग्‍स टू मी?) हिरोशिमा पर बमबारी के बारे में है. इसमें एक मां है जो अपनी बेटी को खो देती है. उसका बेटा फौजी है लेकिन उसे वह खोज नहीं पा रही. जब वह जंग से अंत में लौटकर आता है, मां उसे स्‍वीकार नहीं करती क्‍योंकि उसने कई लोगों की जान ली है.

बाद में कहानी में लड़का मर जाता है. अंत में उसकी मां अकेले वृद्धा आश्रम में बुढ़ापा काट रही है. मैंने जब स्‍कूल में यह नाटक खेला तो बच्‍चों ने मुझसे पूछा, “आप देशभक्‍त नहीं हैं? मातृभूमि की रक्षा करने में क्‍या गलत है?” मैंने उन्‍हें बताया कि मैं अपनी मातृभूमि की पूजा करती हूं ओर मेरे लिए अगाध प्रेम ही पूजा के समान है. मैं अपने देश और यहां के लोगों से बहुत प्यार करती हूं. पर अपने देश को प्यार करने के लिए क्‍या ज़रूरी है कि मैं दूसरे देश से नफरत करूं? मैं एक औरत हूं. मेरे बच्‍चे ठीक से बड़े हो जाएं, स्वस्थ रहें और काम करें, न कि उनके हाथ-पांव कट जाएं, वे अपाहिज हो जाएं और मर जाएं. अगर कोई किसी देश के नाम पर बम गिरा दे और मेरे बच्‍चे अपंग पैदा हों, तो मैं किसको दोष दूं, बताओ? बच्‍चों ने ध्यान से मेरी बात सुनी. नाटक को भी अच्‍छी प्रतिक्रिया मिली.

‘रेक्‍के कट्टुवीरा’ से चित्र. साभार: mpucmanipal.com
हाल ही में एक बहस चली थी मंदिरों में पुजारियों के लिए आरक्षण को लेकर, उसपर काफी बातें हो रही थीं कि कैसे कुछ मुट्ठी भर लोग ही पुजारी बनने के काबिल होते हैं और श्‍लोकों के उच्‍चारण करने का एक खास तरीका होता है जो सबके बस की बात नहीं होती… उसके लिए खास गुण की ज़रूरत पड़ती है. तब मैंने प्रजावाणी में एक लेख लिखा था कि

मुझे ईश्‍वर तक पहुंचने के लिए किसी बिचौलिये की ज़रूरत नहीं है.

कहीं से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने मुझे कॉल करके बताया कि उनके विचार मेरा लेख पढ़ने के बाद कैसे बदल गए हैं. नास्तिकों को भी यह लेख पसंद आया था. पहले मुझे पूजा करना अच्छा लगता था पर अब उसकी ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. इसके बावजूद दोनों के अस्तित्व के लिए बराबर की जगह होनी चाहिए. हर किसी के पास इस जगत के साथ करुणा पैदा करने का अपना ढंग होता है. ज़रूरी यह है कि वो जगह बची रहे.

ऐसा ही एक और मसला कश्‍मीर में एक लड़की के साथ एक मंदिर में हुए बलात्कार का था. मैं उससे बहुत ज़्यादा परेशान हो गई थी. इतना निस्सहाय और हताश महसूस कर रही थी कि मन कर रहा था अपराधियों को सीधे गोली मार दूं क्‍योंकि कुछ भी बदलने की गुंजाइश मुझे नहीं दिख रही थी. मुझे अपने भीतर की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. अपनी मां का कहा याद आया. गांधी याद आए, बुद्ध याद आए. कई पत्रकारों ने अखबारों और टीवी पर मुझसे प्रतिक्रिया मांगी. मैंने किसी से बात ही नहीं की. मेरे भीतर आग धधकती रही. एक दिन पक्षी पुराण कविता सामने आई और मैंने एक लेख लिख डाला – एल्‍ले हूदवु एडेया गूडिना हक्किगल उ (वेयर डि द बर्ड्स ऑफ माय हार्ट गो).

पक्षियों के जगत में नर पक्षी बहुत खूबसूरत होता है. वह रचनात्‍मक और कलात्‍मक भी होते है. मादा पक्षी को लुभाने के लिए वह कई तरीके अपनाता है. कोई सुंदर आवाज़ निकालता है तो कोई खूबसूरत घोंसले बनाता है. मैंने हिंसा और पौरुष के संदर्भ में इन पक्षियों का उदाहरण लिया. मैंने लिखा कि कई पुरुष भूल गए हैं कि ऐसा एक पक्षी उनके भीतर भी वास करता है. वे अपने भीतर के पक्षी को खो चुके हैं. अक्सर मैं जब दोस्‍तों के बीच होती हूं या किसी बैठक में जाती हूं तो लोग मुझसे ये पक्षी वाली कहनी सुनाने को कहते हैं. मैं बस एक दुपट्टा ओढ़ के उनके लिए ये पंक्तियां अभिनय के साथ पढ़ देती हूं. इसे सुनकर बहुत से पुरुष रोए हैं. मेरा हाथ पकड़ कर उन्‍होंने मुझे शुक्रिया अदा किया है. वे कहते हैं, ‘आपने इन शब्‍दों से मुझे कितने प्‍यार से तमाचा रसीद दिया है.’

पितृसत्‍ता यही करती है, वह पुरुषों की संवेदना का हरण कर लेती है.

पुरुष इस संवेदना को वापस पा सकते हैं. अगर उन्‍हें इसका अहसास हो गया तो हम लोग चैन से जी सकते हैं. असली चुनौती है कि गलत करने वाले को उसका अहसास दिलाना कि वे अपने भीतर झांकें. जो व्‍यक्ति हत्‍या या बलात्‍कार कर रहा है क्‍या वह स्‍वीकार करेगा कि वह अज्ञानी या मूर्ख था? दरअसल, मेरे अंदर इतना प्‍यार हो और उस प्‍यार पर इतनी आस्‍था हो कि मैं उससे इस बारे में बात कर सकूं. ईसा मसीह को जब सूली पर चढ़ाया जा रहा था तब उन्‍होंने कहा था, ‘’उन्‍हें माफ करना क्‍योंकि वे नहीं जानते वे क्‍या कर रहे हैं’. ऐसी करुणा थी उनके भीतर. वे करुणा का उत्‍कर्ष थे. ऐसे ही बुद्ध भी थे.

अपने गुस्‍से को हमें रूपांतरित करना होगा, उसमें ऊर्जा है. उसे दिशा देने की ज़रूरत है. गुस्‍से के साथ करुणा का भी होना ज़रूरी है. ये दोनों तत्‍व रोज़मर्रा के जीवन में पाए जाते हैं. ये सिर्फ़ मेरे लेखन या नाटकों में नहीं हैं. आखिर ऐसी चीज़ के बारे में लिखने का क्‍या मतलब जो मेरे दैनिक जीवन का हिस्सा ही न हो?

पीछे देखने पर आपको सबसे बड़े सबक के मौके अपनी ज़िंदगी में कौन से दिखाई देते हैं? अपने सफर पर नज़र डालने पर आप किस बारे में दोबारा सोचना चाहेंगी?

दो तरह के सबक हैं: एक, जो आपको ज्ञान दे और दूसरा समझ.

कुछ ज्ञान आपको ताकत और योग्यता देते हैं, लेकिन दूसरे ऐसे होते हैं जो चीज़ों की समझदारी पैदा करते हैं.

वास्‍तव में, आपको यह समझ आता है कि इस विराट व्यवस्था में आप एक छोटा सा कण हैं जो अपने इर्द-गिर्द की हर चीज़ के साथ जुड़े हुए हैं. यह अहसास आपको विनम्र बनाता है, भीतर से परिपक्व बनाता है. मैंने अपने अनुभवों से अब तक यही सीखा है. आप अपनी निजी ज़िंदगी के अनुभवों से भी सीखते हैं. आप तमाम लोगों से तमाम चीज़ें सीखते हैं, उसे आत्मसात करते हैं. मैं दावा नहीं कर सकती कि मैंने जो कुछ सीखा है सब मेरा है. सामूहिक प्रक्रिया में सीखना ऐसा ही होता है. यह पूरी तरह दूसरों से जुड़ी हुई है. आखिर किसी चीज़ पर मैं अपना होने का दावा कैसे कर सकती हूं. इस सफर की यही खासियत है. किसी दूसरे की ऊर्जा या दुख मेरे भीतर कुछ जगा देता हैं. या फिर किसी वर्कशॉप में मेरा साझा किया ज्ञान किसी को मंच पर कम वर्जनाओं के साथ अभिनय करने में मदद करता है. इससे पलट के मुझे ऊर्जा मिलती है. तो. इस तरह के बहुत सारे लेने-देने होते हैं. इसमें मेरा अपना विशिष्‍ट कुछ भी नहीं है. मैंने यही सीखा है कि यह सब एक चक्र में घूमता है. जहां तक मेरा सवाल है, कुछ भी छोटा या बड़ा नहीं है.

आज बहुत से बदलाव हो रहे हैं. हर चीज़ डिजिटल हो रही है. क्या आपको लगता है कि आप जिस तरह के सीखने के जो अनुभवों के बारे में बात कर रही हैं, उसके लिए ये यह सब नुकसानदेह है? खासकर बाहरी चीज़ों का अहसास जो इतना अहम है, क्‍या हम उसे गंवा रहे हैं?

बुद्ध का मध्‍यम मार्ग बहुत प्रासंगिक है. डिजिटलीकरण को हमें अपने तरीकों का पूरक मानना चाहिए. मसलन, हाल ही में बैंगलोर नगरपालिका कर्मचारियों के मुद्दे पर हम लोगों ने सरकारी महकमे के सामने जाकर विरोध प्रदर्शन किया था. सब कुछ तो ऑनलाइन नहीं किया जा सकता.

अपनी तमाम आपत्तियों के बावजूद मैं उस मूल्‍य को स्‍वीकार करती हूं जो इसके साथ आते हैं. डिजिटल तकनीक का इस्‍तेमाल करने के कितने सारे तरीके हैं. हाल ही में अपने एक नाटक ‘लव पुराण’ में मेरे सहयोगी दीपक ने मेरे प्रदर्शन के दौरान मंच पर वीडियो क्लिपिंग चलाई थी. नाटक में मैं भौतिक प्रेम की बात कर रही हूं. वह मंच पर जो वीडियो चलाता है उसमें दिखाई जाने वाली छवियां बाहर से एक-दूसरे से जुड़ी हुई नहीं लगती हैं लेकिन आप करीब से देखें, तो ऐसा लगेगा गोया वे किसी ऐसी चीज़ के बारे में बोल रही हैं जिसकी आकृति स्‍थाई नहीं है. वह ब्रह्माण्‍ड है, जो लगातार निर्मित और विखंडित हो रहा है.

एक ओर सन्‍नतिम्‍मी नाटक स्‍थानीय बोली में हो रहा है ओर दूसरी ओर आपस में गुंथी हुई छवियां दिखाई जा रही हैं. पटना में जब हमने हाल ही में इस तकनीक का प्रयोग किया तो हमें शानदार प्रतिक्रिया मिली. हमने अकेले डिजिटल छवियों का प्रयोग नहीं किया था, न ही मैं अकेले बोल रही थी. दोनों साथ चल रहे थे. अभिनय के दौरान मैं खुद उन छवियों से इतना प्रभावित हो गई कि मैंने उनसे मेल बैठाने के लिए अपनी शारीरिक मुद्राओं का प्रयोग किया. सतर्कतापूर्ण विवेक के साथ डिजिटल तरीके का प्रयोग सही है. सामंजस्‍य बैठाने में यह मदद करता है.

कई लोगों ने मुझसे सन्‍नतिम्‍मी वाला नाटक यूट्यूब पर डालने को कहा है. मैं अब तक इसके लिए राज़ी नहीं हूं लेकिन एक न एक दिन मैं मान ही जाऊंगी. किसी दिन मैं कायदे से उसका मंचन करूंगी, वे इसे रिकॉर्ड कर लेंगे और परफेक्ट तरह से तैयार कर उसे पोस्‍ट कर दूंगी. फिर हर कोई देख सकेगा. बेशक, सन्‍नतिम्‍मी की केवल एक ही छवि को वे देख सकेंगे क्‍योंकि मैं पटना में जिस सन्‍नतिम्‍मी का किरदार करती हूं वह गांव में निभाए किरदार से भिन्‍न होता है. हर जगह मैं एक जैसा किरदार नहीं निभा सकती. पटना में नाटक खेलने के लिए मुझे कन्‍नड़ का हिंदी में अनुवाद करना पड़ा था. लोगों ने उसे बहुत प्‍यार दिया. अब आप मुझसे वही दुहराने को कहें तो मेरे पास पटना जितनी ऊर्जा नहीं होगी.

मुझे लगता है कि मैं कुछ खास नया नहीं कर पा रही हूं. आज हर गली सड़क पर कला फैली हुई है. लोग गा रहे हैं, पेंट कर रहे हैं, चित्रकारी कर रहे हैं. हमारे चारों ओर सांस्कृतिक कर्म हो रहे हैं. दारोजी इरम्‍मा लिखना पढ़ना नहीं जानती थीं लेकिन वे लगातार छह दिनों तक 6000 पंक्तियों वाली एक कविता बिना किसी गलती के गाया करती थीं. आपके कंप्‍यूटर को बरबाद करने के लिए बस एक ही वायरस काफी है! उनके ऊपर हालांकि कोई भी वायरस काम नहीं करता था. हमारी ज़मीन में ही यह बात है. मैं कुछ नया नहीं कर रही. ऐसी

कहानियां और कलाएं तो लोगों की ज़िंदगी का हिस्‍सा हैं.

थियेटर और लेखन करते हुए बीते दशकों में आपके लिए क्‍या बदला है?

एक व्‍यक्ति के रूप में मैं खुद को विकसित पाती हूं. बुद्ध कहते हैं कि यदि तुम वास्‍तव में प्रेम करना चाहते हो तो असल में उसके लिए जानना ज़रूरी है. जाने-समझे बगैर प्रेम संभव नहीं है. मैं इसके लिए उन तमाम औरतों का धन्यवाद करना चाहती हूं जिनके साथ मैंने काम किया है- यौनकर्मी, कपड़ा कारखाने की श्रमिक और नगरपालिका की कर्मचारी. कामगार तबके के नज़रिए एवं समझ ने मुझे सच में बहुत बदलने का काम किया है. इसने मुझे संतुष्टि दी है. मुझे लगता है कि अब मैं चैन से मर सकती हूं क्योंकि मैंने उनके साथ वक्‍त गुजारा है.

दू सरस्वती परिचय विस्तार से

दू सरस्वती ने उर्मिला पवार और मीनाक्षी मून द्वारा लिखित आमहीही इतिहास घाडवला (वी आलसो मेड हिस्‍ट्री, जुबान बुक्‍स) का हाल ही में कन्‍नड़ में अनुवाद किया है जिसका शीर्षक है नावु इतिहास कट्टिदेवु. यह पुस्‍तक आम्बेडकर की अगुवाई में चले दलित आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी को दर्ज करती है, साथ ही बीसवीं सदी के आरंभ में दलितों के अन्‍य अहम संघर्षों पर बात करती है. दू सरस्‍वती कहती हैं, “यह पुस्‍तक महिला समूहों से जाति के बारे में और जाति-विरोधी समूहों से जेंडर के बारे में बात करने के मेरे द्वारा जारी प्रयासों का ही विस्‍तार है.”

सन्‍नतिम्‍मी पर केंद्रित ऐसे छह नाटकों का संग्रह सन्‍नतिम्‍मी पुराण नाम से 2018 में प्रकाशित हुआ था.

सरस्‍वती को बी. सुरेश के लिखे नाटक ‘रेक्‍के कट्टुवीरा’ के लिए भी जाना जाता है. यह नाटक द्वितीय विश्‍व युद्ध के दौरान हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम से पीड़ित एक परिवार के दुख-दर्द बयान करता है. सरस्‍वती और चित्रा मिलकर इस नाटक को खेलती हैं. समूचे कर्नाटक में अब तक इसका 80 से ज़्यादा बार मंचन हो चुका है. नाटकों के अलावा उनके दो काव्‍य संग्रह भी छप कर आ चुके हैं – हेनेदारे जेदनंते और जीवा सम्पिगे. 

बच्‍ची सू नाम से उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित है. उनके निबंधों का एक संग्रह नीरा डारी के नाम से है. इसके अलावा एक आत्‍मकथ्‍य भी है जिसक नाम है ईगेन मादीरी. उन्‍होंने ए. रेवती की पुस्‍तक द ट्रुथ अबाउट मी: ए हिजड़ा लाइफ स्‍टोरी का कन्‍नड़ में अनुवाद किया है जिसका नाम है बादुकु बायालू.

इस लेख का अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है. 

अनुवादक, शिक्षक और छायाकार उषा बी. एन. पिछले 15 वर्षों से बेंगलुरु में स्त्री अधिकार समूहों के साथ जुड़ी हुई हैं. फिलहाल वे स्‍नातक स्‍तर पर अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं.

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