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स्कूल परिसर, अमानवीयता और क्रूरता का भी पर्याय हो सकते हैं, एक ट्रांस जेंडर व्यक्ति की नज़र से

इस लेख के सभी चित्र बायोस्कोप फ़िल्म से लिए गए हैं.

सन् 2013 में निरंतर संस्था ने एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म का निर्माण किया था. यह फ़िल्म उन लोगों के स्कूली अनुभवों पर आधारित थी जो स्त्री-पुरुष बाइनरी में खुद को अनफिट महसूस करते थे. नृप, सुनील और राजर्षि इस फ़िल्म के केंद्रीय पात्र हैं जो क्रमशः ठाणे, बेंगलुरु और कोलकाता में रहते हैं. इस तरह, उन लोगों से मिलने और उनके अनुभवों से गुज़रने के लिए यह फ़िल्म तीन अलग-अलग शहरों की यात्रा करती है, जिनके लिए स्कूल उनके बचपन का बड़ा ही क्रूर और अमानवीय हिस्सा था.

लेखक जो कि पेशे से शोधकर्ता और प्रशिक्षक हैं, ने इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म को इसके निर्माण के लगभग एक दशक बाद देखा है. फ़िल्म देखने के बाद उन्होंने वैसे लोगों के खिलाफ़ होने वाली हिंसा में कमी लाने और समाज की मुख्यधारा में उनकी स्वीकार्यता और समावेश को बढ़ावा देने के लिए की जाने वाली कोशिशों की दृश्यता या विज़बिलिटी पर विचार किया है जो स्त्री-पुरुष के खांचे में खुद को फिट नहीं पाते. लेखक का मानना है कि ऐसी कोशिशों की अपनी सीमाएं होती हैं. उनका प्रस्ताव है कि इस प्रकार की कोशिशों के बजाय अगर हम प्राक्सिमिटी यानी नज़दीकी बढ़ाने पर फोकस करें तो परिणाम ज़्यादा बेहतर हो सकते हैं.

पाठकों की सुविधा के लिए डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म का लिंक:

बायोस्कोप फ़िल्म के एक दृश्य में, बेंगलुरु के सुनील याद करते हुए बताते हैं कि कैसे उन्हें हमेशा लड़कों की तरह चलने को लेकर ताना मारा जाता था. “मैं सोचा करता कि इसमें लड़कों जैसा क्या है?”

मुझे अच्छी तरह से पता है कि सुनील किस बारे में बात कर रहे थे. यह एक जाना-पहचाना अनजानापन था.

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पहले लड़कियों के साथ मेरी अच्छी दोस्ती हुआ करती थी, लेकिन जब मैंने सीनियर सेकेंडरी की पढ़ाई के लिए हाई स्कूल में प्रवेश लिया तो मैंने उनसे बात करना बिल्कुल बंद कर दिया. मेरे व्यवहार में अचानक आए इस बदलाव से लोगों को हैरत होती, वह अक्सर पूछा करते कि जिन लड़कियों के साथ मैंने नौ साल तक पढ़ाई की, उनसे मैं बातचीत क्यों नहीं करता तो मैं हमेशा यही जवाब देता कि “मैं नहीं चाहता कि मेरा नाम किसी भी लड़की के साथ जुड़े.” मैंने इस बारे में बार-बार सोचा है. जितना अधिक मैं इसके बारे में सोचता हूं, जवाब उतना ही स्पष्ट होता चला गया. वह जवाब था – डर. यह डर ही था जिसके कारण मैं लड़कियों से दूरी बनाने पर मजबूर हुआ.

शिक्षण संस्थानों के अंदर किसी को डर और खौफ़ के साए में रखने के सौ तरीके हैं जो न सिर्फ़ बहुत ही बारीक बल्की गहरे होते हैं.

अव्वल तो आपको एक ट्रांस व्यक्ति के रूप में किसी शैक्षिक स्थान (चाहे वह स्कूल हो, कॉलेज या कि विश्वविद्यालय) में प्रवेश ही नहीं मिलेगा और अगर मिल भी गया तो यहां प्रवेश करते ही आपको अलगाव का अनुभव होगा. इसकी शुरुआत सुबह के प्रार्थना सत्र की कतारों से होकर कक्षा में बैठने की व्यवस्था तक जाती है. स्कूल में आयोजित होने वाले उत्सवों और समारोहों के मौके पर छात्र-छात्राओं के बीच काम और ज़िम्मेदारियों के बंटवारे के दौरान अलगाव की यह खाई और अधिक चौड़ी हो जाती है. सच तो यह है कि स्कूलों के यूनिफॉर्म, शौचालय और छात्रावास की व्यवस्था में यह कुछ इस तरह गढ़ा और तराशा गया है कि उनका अतिक्रमण या उल्लंघन नहीं किया जा सकता.

लड़कों का व्यवहार लड़का-जैसा और लड़कियों का व्यवहार लड़की-जैसा होना ही चाहिए. इससे थोड़ा सा भी दाएं-बाएं होना आपको सज़ा का हक़दार बना देता है. जब कोई ऐसा व्यक्ति (कथित ज़नाना व्यवहार करने वाला लड़का या कथित पुरुषों जैसा व्यवहार करने वाली लड़की) पास से गुज़रता है तो लोगों की भौंहें चढ़ जाती हैं और उनके चेहरों पर भद्दी-कुटिल मुस्कान रेंगने लगती है. वे उस पर हंसते हैं, कुछ इस तरह से रिएक्ट करते हैं जैसे कि वह नॉर्मल नहीं है, उसके साथ कुछ समस्या है, उसमें कुछ कमी है, और फिर वे उसको एक ‘नॉर्मल’ या सामान्य स्त्री या पुरुष बनाने की कोशिशों में जुट जाते हैं. जो उनकी नज़र में निसंदेह ‘भलाई’ के लिए होता है जबकि उसका मुख्य उद्देश्य बेइज़्ज़त करना या मज़ाक बनाना ही होता हैं. सज़ा के तौर पर उसको बुरी तरह से तंग किया जाता है, सताया जाता है, और अंततः यही सज़ा शारीरिक और यौन हिंसा का रूप ले लेती है.

मुझे डर था कि अगर मैंने लड़कियों से नज़दीकी बढ़ाई तो मेरे अंदर जो ज़नानापन है, वह प्रत्यक्ष हो उठेगी और लोगों की नज़र में आ जाएगा. इसलिए मैं उनसे दूर ही रहा.

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यह उस समय की बात है जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था. तब मैं दूसरी कक्षा में था. मेरी टीचर ने एक बार क्लास के दौरान हम सभी स्टुडेंट्स के चलने के अंदाज़ की नकल करके दिखाई थी. जब वह ऐसा कर रही थीं तो हमलोग आश्चर्यचकित हो उठे थे. हम हैरत में थे कि वह इतना सटीक ढंग से हमारी चाल-ढाल की नकल कैसे कर रही हैं. यह अलग बात है कि वह सबकुछ इतना फनी लग रहा था कि बीच-बीच में हमारे ठहाके भी फूट पड़ते थे. लेकिन ठीक उस वक्त जब वह मेरे चलने के अंदाज़ की नकल करने वाली थीं, मुझे ऐसा महसूस हुआ गोया मेरे कानों की लौ गर्म हो उठी हो. जैसे ही मेरे अंदाज़ में उन्होंने क्लासरूम के एक छोर से दूसरे छोर तक की दूरी तय की, पूरी क्लास का हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया. सब लोटपोट होने लगे. उन ठहाकों में मेरी हंसी भी शामिल थी. मैं भी उनके साथ हंसा था.

उस दिन मैंने तीन अहम बातें सीखीं. मुझमें ऐसा क्या है जो मुझे हंसी का पात्र बना सकता है, उस हंसी को रोकने के लिए मुझे क्या करने या छोड़ने की ज़रूरत है, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो मैंने सीखी वह यह कि हमेशा गुस्सा या आक्रमक रवैए के ज़रिए ही आपको शर्म का अहसास नहीं करवाया जाता, ऐसा करने के और भी तरीके या स्तर हो सकते हैं : सहज हंसी-मज़ाक से लेकर कड़ी डांट-फटकार तक.

इंसान, खुद के साथ होने वाली शर्म का अनुमान लगाना सीख जाता है. जो धीरे-धीरे उसकी अनचाही सजगता में बदलता चला जाता है. जैसे, सही बातचीत में चुप रहना, सही जगहों से अनुपस्थित रहना और कथित ‘सही’ व्यवहार अपनाने की कोशिश करना. बचे रहने के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-पुरुष के जो तय खांचे हैं उससे आपका जो विचलन हुआ है उसे या तो आप कम करें या फिर इसे स्वीकार करते हुए हर मुमकिन तरीके से खुद को इसके अनुरूप ढालें. ध्यान रहे कि जेंडर बाइनरी के मानदंडों का पालन न करना शिक्षण संस्थानों से बाहर किए जाने का कारण भी बन सकता है. स्कूलों में प्रवेश पाना या बने रहना – जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार एक मौलिक और सार्वभौमिक अधिकार है – वैसे छात्रों के लिए एक निरंतर चलने वाली सौदेबाज़ी और संघर्ष बन जाता है जो स्त्री-पुरुष के खांचे में फिट नहीं होते या फिर ट्रांसजेंडर होते हैं.

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हाई स्कूल में आने के बाद मैंने दाढ़ी बनाना बंद कर दिया. पैर पर पैर चढ़ाकर बैठना बंद कर दिया. मैं चलते वक्त हमेशा इस बात को लेकर सचेत रहा करता कि मेरी चाल मर्दों जैसी रहे. मैंने बोलते वक्त हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि वैसे शब्दों और भावों का इस्तेमाल न करूं जिन्हें लोग लड़कियों की तरह या ज़नाना समझते हैं.

मैं अपने ज़नानापन यानी फेमनिनिटी से मुक्ति पाने के लिए दृढ़संकल्पित था. मैं जानता था कि यह पहाड़ को हिलाने जैसा असम्भव काम था, लेकिन मुझे करना था.

इस तरह स्कूल ने मुझे छल करना सिखाया. यह सिखाया कि जो आप नहीं हैं, दुनिया को वही कैसे नज़र आना है.

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बायोस्कोप फ़िल्म में ठाणे के रहने वाले ट्रांस मैन नृप बताते हैं कि “जब वॉशरूम की बात आती है, तो वहां भी यही स्थिति होती है. एक बार जब मैं लड़कियों के टॉइलेट में जाने लगा तो लड़कियों ने मुझे रोक दिया. उन्होंने कहा कि ‘मैं यहां नहीं जा सकता, मुझे लड़कों के टॉइलेट में जाना चाहिए’, क्योंकि वे समझ ही नहीं पाईं कि मैं लड़की हूं. मैंने उनको समझाने की कोशिश की तो वे झगड़ा करने पर उतर आईं. फिर मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ प्रिंसिपल के पास गया. प्रिंसिपल बहुत सपोर्टिव थीं. उन्होंने उन लड़कियों को समझाया कि जब यह बोल रही हैं तो आपको इनकी बात माननी चाहिए और आपको इनकी पर्सनल या निज़ी ज़िंदगी और चॉइस में कुछ इंटरफेयर या हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. लेकिन मेरे अंदर हमेशा डर बना रहता था. कई बार मैंने लड़कों के टॉइलेट का भी इस्तेमाल किया है. लेकिन इसे इस्तेमाल करने के लिए मुझे कॉलेज के खत्म होने तक, पूरे दिन इंतज़ार करना पड़ता था.”

मेरे हाई स्कूल में लड़कों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं थी इसलिए लड़के पेशाब करने के लिए पास की झाड़ियों में जाया करते थे. मैं शुरू के दो पीरीअड खत्म होते-होते बेचैन हो जाया करता था क्योंकि उसके बाद जो टॉइलेट ब्रेक यानी शौचालय जाने के लिए जो अवकाश मिलता था, वह बहुत कम समय का होता था. ऐसी परिस्थिति में एक अजीब किस्म की बेचैनी हावी हो जाती थी. तब मैं किसी ऐसे दोस्त की तलाश में रहा करता जो मेरे साथ चल सके या फिर मैं सही समय की ताक में रहता ताकि भीड़ की नज़रों से बचकर पेशाब कर सकूं.

अपने-अपने स्कूल में सुनील और नृप का बचपन जिस तरह से बीता, उसको बयान करने के दौरान दोनों जिन शब्दों का बार-बार इस्तेमाल करते हैं, उनमें अलगाव, अकेलापन और चुप्पी जैसे शब्द प्रमुख हैं. स्कूल में पढ़ने वाला हर शख्स जो स्त्री-पुरुष के खांचे में खुद को फिट नहीं पाता, वह अपनी आपबीती में कमोबेश इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करता है.

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मेरा एक जिगरी दोस्त, जो मेरा सहपाठी भी था, चाहता था कि स्कूल में मैं उससे थोड़ी दूरी बना कर रखूं ताकि लोग हमारी नज़दीकी का गलत मतलब न निकाल सकें. अपने दोस्त के ऐसा कहने के बाद, स्कूल परिसर में जानबूझ कर मेरी यह कोशिश रहा करती थी कि मैं उसके आसपास न दिखूं. इस तरह हमारी दोस्ती और नज़दीकी तो बनी रही, लेकिन स्कूल में हम दूर-दूर ही रहे.

स्कूल में – खासतौर से इस तरह के मामले में, चाहे वह कोई भी शैक्षिक स्थान हो – सिर्फ़ मैं ही नहीं था जो किसी जगह में दाखिल होने, बातचीत शुरू करने, या दोस्त बनाने की कोशिश करने से पहले कई बार सोचता था, बल्कि वह भी जो स्त्री-पुरुष के खांचे में बिल्कुल फिट बैठते थे, वैसे लोग भी खांचों से अलग दिखने वाले लड़के-लड़कियों से दोस्ती करने से पहले सौ बार सोचा करते थे.

जब मैं कहता हूं कि स्कूल स्थानिक रूप से हमें स्त्री-पुरुष के बाइनरी का अभ्यस्त बनाते हैं, तो मेरा यही मतलब होता है. शैक्षिक संस्थान आपको अलग-थलग करने के लिए जिन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, वे बड़े ही महीन हुआ करते हैं. वह आपके बीच अलगाव को इस होशियारी से बढ़ावा देते हैं कि आपको पता भी नहीं चलता और आप इसके आदी हो जाते हैं. वह ऐसा करने के लिए पहले पहचान का व्यूह रचते हैं और फिर ऐसे तंत्र स्थापित करते हैं जो वैसे लोगों के बीच नज़दीकी का निषेध करते हैं या इसे ग़लत करार देते हैं जो उनके द्वारा निर्मित पहचान के अनुरूप नहीं हैं. ये तंत्र ट्रांस लोगों की किसी भी अन्य सोच या कल्पना के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ते, कि हमारे भी अपने शौक हो सकते हैं, कि हमारे भी पसंदीदा गाने हो सकते हैं, कि हम भी गॉसिप कर सकते हैं, कि हम भी अपनी सोच में गुम सड़कों पर यूं ही टहल सकते हैं. कि हमारे पास भी खुशियां हैं, उमंग हैं.

हमारी त्रासदियों को, हमारे दुखों को तो खूब महिमामंडित किया जाता है, लेकिन हमारा जीवन भी सांसारिक और सहज हो सकता है, ऐसा सोचने या कल्पना करने की हमें इजाज़त ही नहीं है.

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सन् 2015 की बात है, तब मैं भुवनेश्वर के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में स्नातक का छात्र था. उसी वर्ष, मानोबी बंद्योपाध्याय ने बतौर प्रिंसिपल पश्चिम बंगाल के कृष्णा नगर महिला कॉलेज में कार्यभार सम्भाला था. अगले दिन यह खबर तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार पत्रों में छपी थी और हमेशा की तरह शीर्षक था – “पहली ट्रांसजेंडर महिला जो…” मुझे पढ़ाने वाले प्रोफेसरों में से एक, जो अपने विनोदी स्वभाव और छात्रों के साथ दोस्ताना रवैये के लिए प्रसिद्ध थे, ने मेरा मज़ाक उड़ाते हुए कहा था कि देखो, “आजकल तो तुम्हारी बिरादरी के लोग भी डीन बनने लगे हैं.”

बेशक, यह खबर कई ट्रांस लोगों के लिए सुकून देने वाली थी, आश्वस्त करने वाली थी. लेकिन उस दृश्यता या विज़बिलिटी का प्रभाव एकसमान नहीं था. वर्तमान समय में, जब मैं शैक्षिक स्थानों को समावेशी बनाने वाली ट्रांस-राजनीतिक कल्पना के केन्द्र में ‘दृश्यता’ को देखता हूं तो मैं अक्सर इस ढांचे (फ्रेमवर्क) की सीमाओं के बारे में सोचता हूं. मेरे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि उस खबर का मुझ पर और भारत के तमाम दूसरे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे मेरे जैसे बहुत से लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा है. क्योंकि उनके लिए यह एक वास्तविकता तो थी, लेकिन दूर की, जिसमें नज़दीकी का अभाव था.

जेंडर स्टडीज़ में पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान मैं अपनी क्लास में सभी के बीच एकमात्र ट्रांसजेंडर व्यक्ति था. मेरी दृश्यता ने मुझे एक ‘ट्रांस-लाइफ जर्नी’ विशेषज्ञ बना दिया, जिसको हर कोई ध्यान से सुनना चाहता था. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इससे एक झटके में सबकुछ बदल गया और कैम्पस ट्रांसजेंडर-समावेशी हो गया. हां, इससे कुछ चीज़ें ज़रूर बदलीं; मसलन कैम्पस में मेरी मौजूदगी को लेकर जो हैरानी और असहजता का भाव था उसमें कमी आई थी. लेकिन मुझे नहीं लगता कि बाद के वर्षों में संस्थान में दाखिला लेने वाले वैसे ही दूसरे ट्रांसजेंडर या जेंडर के खांचे में फिट न होने वाले छात्रों के लिए कुछ भी आसान रहा होगा. अगर वे एक ही तरह के ट्रांस नहीं रहे होंगे तो यकीनन मेरी ही तरह उन्होंने भी उसी दृश्यता दिनचर्या (विज़बिलिटी रूटीन) को दोहराया होगा.

समय के साथ, मैंने यह महसूस किया है कि शैक्षिक संस्थानों में ट्रांस व्यक्तियों की दृश्यता अथवा मौजूदगी निश्चित रूप से जेंडर बाइनरी के दृश्य व्याकरण में ठीक वैसे ही तोड़फोड़ करती है जैसे किसी भी अन्य स्थान पर होता है जब वे अपनी लैंगिक अभिव्यक्तियों को उन तरीकों से मुखर करते है जो खांचे के अनुरूप नहीं होते हैं. लेकिन स्त्री-पुरुष के खांचे वाली तथाकथित सामान्य और सहज दुनिया और इस बाइनरी से बाहर की दुनिया के बीच जो अजनबीयत की दीवार है, उसको इस दृश्यता के माध्यम से ध्वस्त नहीं किया जा सकता.

इस तरीके की दृश्यता देखने के नज़रिए, शब्द और प्रमाण का मोहताज बन जाती है.

क्योंकि एक ट्रांस व्यक्ति के रूप में आपके कपड़े और पहनावा अलग ढंग के होने चाहिए.

क्योंकि एक ट्रांस व्यक्ति के रूप में ज़रूरी है कि आप खुलकर अपनी पहचान बताएं.

क्योंकि एक ट्रांस व्यक्ति होने का प्रमाण पत्र आपके पास होना चाहिए.

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दशकों से नारीवादी चिंतन ने जो काम किया है उसकी बदौलत हमारे लिए यह पता लगाना अब मुश्किल नहीं रहा कि शैक्षिक स्थल जेंडर बाइनरी के मानदंडों का न सिर्फ निर्माण करते हैं, बल्कि उनको खाद-पानी भी मुहैया कराते हैं और इस तरह उन्हें बरकरार रखते हैं. ऐतिहासिक रूप से देखें तो पाठ्यक्रम, शिक्षाशास्त्र और शिक्षाविदों तथा सहकर्मियों के दृष्टिकोण नारीवादी हस्तक्षेप के प्राथमिक स्थल रहे हैं. इन तीनों क्षेत्रों में सुधार और बदलाव की हिमायत करना जेंडर अधिकार समूहों (जेंडर राइट्स ग्रुप्स) का मुख्य एजेंडा रहा है. जेंडर रूप से संवेदनशील पाठ्यक्रमों और शैक्षणिक उपकरणों का निर्माण करने के साथ-साथ जेंडर संवेदीकरण प्रशिक्षण (जेंडर सेंसिटाइज़ेशन ट्रेनिंग) के माध्यम से शिक्षकों और साथियों में जेंडर संवेदनशीलता पैदा करना, जेंडर के संरचनात्मक आधार पर आघात करने की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है.

लेकिन दिक्कत यह है कि स्कूलों में जो जेंडर बाइनरी सिखाई जाती है, वह महज़ पाठ्यक्रम और क्लासरूम में दी जाने वाली शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, और न ही यह शिक्षकों और साथियों या सहपाठियों के व्यक्तिगत व्यवहार तक ही सीमित है. बल्कि स्कूल, सक्रिय रूप से जेंडर, या खासतौर से जेंडर बाइनरी को स्थानिक रूप से भी बनाए रखता है.

ट्रांस जेंडर लोगों के लिए शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेना और वहां बने रहना आसान नहीं है, इसमें सौ क़िस्म की बाधाएं हैं. ‘डॉक्यूमेंट ब्यूरोक्रेसी’ (हर एक जानकारी का सरकारी दस्तावेज़ीकरण) का हस्तक्षेप भी एक बड़ी बाधा है क्योंकि स्कूल में दाखिले के लिए फॉर्म भरते समय आपको ‘जेंडर कॉलम’ में यह दर्ज करना ही पड़ता है कि आप स्त्री हैं या पुरुष. ‘जेंडर कॉलम’ में ट्रांसजेंडर के लिए जब कोई विकल्प ही नहीं दिया गया है तो फिर वह अपना सही जेंडर दर्ज कैसे करेंगे! इस प्रकार देखें तो यह शैक्षिक जगहों में ट्रांसजेंडर के प्रवेश को प्रभावित करता है, रोकता है.

इसलिए, क्लासरूम और कैम्पस को समावेशी बनाने का मतलब सिर्फ व्यवहार में बदलाव की बात करना नहीं है. ऐसा कोई भी मॉडल जो सिर्फ व्यवहार में बदलाव पर आधारित हो और जिसमें नज़दीकी या प्रॉक्सिमिटी को शामिल नहीं किया गया हो, मेरी नज़र में पर्याप्त नहीं है. ऐसा इसलिए कि पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और साथियों और शिक्षकों के दृष्टिकोण में हस्तक्षेप मात्र से ही मुकम्मल बदलाव मुमकिन नहीं है क्योंकि इस तरह के हस्तक्षेप से सिर्फ़ इतना हो सकता है कि वैसे लोग जो स्त्री-पुरुष बाइनरी में नहीं आते, उन्हें महज़ छात्र के रूप में स्वीकार कर लिया जाए. सच कहूं तो व्यवहार में बदलाव का यह जो मॉडल है, रचनात्मक दिवालियापन को दर्शाता है. ज़रा सोचकर देखिए कि क्या किसी शिक्षण संस्थान में ट्रांस लोग केवल छात्र बनकर रह सकते हैं?

मुझे नहीं लगता कि ऐसा ज़रूरी है,

हम शिक्षक हो सकते हैं.

हम प्रशासन में हो सकते हैं.

हम सपोर्ट स्टाफ या सहयोगी कर्मचारी भी हो सकते हैं.

पहुंच की समस्या का समाधान किए बिना व्यवहार में बदलाव और पाठ्यचर्या में सुधार जैसे एकांगी हस्तक्षेप प्रभावी नहीं हो सकते क्योंकि ऐसी स्थिति में बदलाव के सारे दावे हमारे साथ होनेवाले भेदभाव और हमारी राह में आनेवाली बाधाओं के ईर्दगिर्द ही झूलते रहेंगे और यहीं तक सीमित होकर रह जाएंगे. इस तरह, हमारा भेदभाव हमसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है.

दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी त्रासदी ही हम बन जाते हैं.

एक ऐसी जगह के बिना जिसके मूल में दो अलग-अलग प्रतीत होने वाली दुनिया के बीच नज़दीकी पैदा करने की प्रेरणा अंतर्निहित हो, दृश्यता या, इस मामले में, स्कूलों में स्त्री-पुरुष बाइनरी से बाहर के लोगों के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए किया गया कोई भी हस्तक्षेप एक अधूरा प्रयास बन कर रह जाता है. लेकिन यह तभी सम्भव हो सकता है जब हममें से बहुत से लोग एक ही सामाजिक परिवेश में अलग-अलग काम करते हुए अलग-अलग तरीकों से अपनी मौजूदगी दर्ज कराएं.
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डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में एक जगह पर अपने छात्र देवदास के बारे में बात करते हुए राजर्षि बताते हैं कि “जब मैं एक स्कूल में पढ़ाने गया तो उधर जाकर हमने देखा कि वहां देवदास और उसके साथ सात-आठ बच्चों का एक ग्रूप था. उनको आपस में बातचीत करते हम दूर से देखा करते थे. उनको देख कर ही पता चल जाता था कि ये भी (मेरी तरह) कोती हैं. उनके साथ भी बहुत भेदभाव होता था…तो यह देखकर हमने सोचा कि कुछ तो करना चाहिए. तो मेरा पहला कदम यही था कि उनको सहज किया जाए कि तुम जैसे भी हो, तुम ठीक हो.” अपने शिक्षक राजर्षि के बारे में बात करते वक्त देवदास के चेहरे पर चमक आ जाती है, वह मुस्कराते हुए कहता है कि “उनके साथ जब हमारा रिलेशन क्लोज़ होने लगा तो उन्होंने हमको बेटी बना लिया, हम भी उसको मां बोलते हैं.”

देवदास के चेहरे पर खेलती यह मुस्कान, और इस मुस्कान से भी ज़्यादा एक शैक्षिक जगह पर राजर्षि और देवदास के बीच पनपा और फलाफूला यह रिश्ता, मुझ जैसे रूखे इंसान को भी एक शैक्षणिक और स्थानिक हस्तक्षेप के रूप में ‘नज़दीकी’ के विचार को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित कर रहा है. मैं मानता हूं कि नज़दीकी के माध्यम से जेंडर बाइनरी को खत्म नहीं किया जा सकता है, लेकिन इससे उन लोगों के सांसारिक अस्तित्व को समझने और साझा करने की सम्भावना ज़रूर मज़बूत हो सकती है जो स्त्री-पुरुष खांचे में नहीं आते.

यह खांचों की संरचनाओं के लिए भी एक तरह का उकसावा हो सकता है जिससे मुमकिन है कि हमारे राजनीतिक विचार में समान बाइनरी को बनाए रखने की जो बचकानी ज़िद और अधकचरापन है, उसपर बातचीत का मार्ग प्रशस्त हो सके. यह एक ऐसे स्थान का सृजन कर सकता है जहां पर स्त्री-पुरुष बाइनरी से बाहर के लोग सहज ही प्रवेश पा सकें, जहां हमें दृश्यता के नुक्ते-नज़र से न देखा जाए, जहां पर हमारे साथ ऐसा बर्ताव न हो कि हमें यह लगे कि अरे हम तो महज़ उनके इंक्लूज़न के एजेंडा भर हैं, जहां पर हमें लगे कि हम भी आम इंसान हैं, हमारी ज़िंदगी भी सामान्य है और जहां पर हमें एक पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाए.

इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.

बिरजा, एक शोधकर्ता हैं और निरंतर संस्था के ‘लर्निंग एंड रिसोर्स सेंटर’ प्रोग्राम के साथ बतौर प्रशिक्षक जुड़े हैं. उनके पास डिजिटल मीडिया, कम्युनिटी मीडिया और क्वीयर अधिकारों जैसे विषयों पर काम करने का अनुभव है. वे, जेंडर एवं यौनिकता के रास्ते प्रजनन अधिकार जैसे विषयों पर भी काम कर चुके हैं. ओडिसा के ट्रांसजेंडर समुदायों के साथ उनके अधिकारों की वकालत से जुड़े मसलों पर बिरजा सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं. अपने खाली समय में उन्हें दोस्तों के साथ जेंडर रहित यूटोपियन दुनिया की बातें करते देखा जा सकता है.

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