एक ट्रांसजेंडर शिक्षक के शिक्षा के अनुभव

ट्रांसजेंडर किशोरों के शिक्षक की हैसियत से राजर्षि चक्रवर्ती बताते हैं कि कैसे स्कूल के भीतर नई संभावनाओं पर काम किया जा सकता है.

चित्रांकन: DALL·E द्वारा बनाया गया चित्र.

डॉ. राजर्षि चक्रवर्ती बर्द्धमान विश्वविद्यालय में इतिहास विषय पढ़ाते हैं और बतौर सहायक प्रोफेसर कार्यरत हैं. इतिहास के एक शिक्षक के रूप में उनकी यात्रा 1999 से शुरू होती है जब उन्होंने कलकत्ता के तिलजला ब्रजनाथ विद्यापीठ में पहली बार पढ़ाना शुरू किया था. राजर्षी 1997 से एलजीबीटीक्यूआई+(LGBTQIA+) आंदोलनों से भी जुड़े हैं और इन समुदायों खासकर किशोरों एवं कॉलेज स्टुडेंट्स की मदद के लिए कई सहायता समूहों के संस्थापकों में से एक रहे हैं.

अक्सर शिक्षा और यौनिकता पर बात करते ही ये सवाल सामने आता है कि यौनिकता के मुद्दे का शिक्षा के क्षेत्र से क्या लेना देना? लेकिन राजर्षि चक्रवर्ती का साक्षात्कार इस विचार पर असरदार चोट करता है. ट्रांसजेंडर व्यक्ति होने के नाते स्कूल में अपनी कोई छवि न पाकर किस कदर डर और चुप्पी का आलम था, इसको वे अपने अनुभवों के ज़रिए सामने लाते हैं. इससे उनका आत्मविश्वास डोल गया और फलस्वरूप उनकी पढ़ाई पर गहरा असर पड़ा. फिलहाल, ट्रांसजेंडर किशोरों के शिक्षक की हैसियत से राजर्षि इशारा करते हैं कि कैसे स्कूल के भीतर नई संभावनाओं पर काम किया जा सकता है. उनसे लिए साक्षात्कार का यह अंश निंरतर रीडर ‘जेंडर और शिक्षा भाग एक’ में प्रकाशित हुआ था. अपने शिक्षा अंक में हम इसे पाठकों के लिए ऑनलाइन साझा कर रहे हैं.

स्कूल के अपने अनुभवों के बारे में बताएं. 

मेरी ज़िदगी का अनुभव अच्छा नहीं रहा है. ऐसी कोई भावना नहीं रही है, जिसे मैं अच्छा कहूं. मेरी बहन मुझसे ढाई साल छोटी थी. वह जिस गुड़िया से खेलती थी, मैं भी उसी गुड़िया से खेलता था. मेरी इच्छा गुड़िया को खिलाने, पिलाने, नहलाने, सुलाने की होती थी. मेरी बहुत पिटाई होती रहती थी. मैं लड़कों के स्कूल में पढ़ता था. पढ़ाई में अच्छा था, पर मैं संकोची था. किसी से बोलता नहीं था. आम लड़के लड़कियों के बारे में बात करते थे. मैं उन्हें चुप रहने को कहता था. इन कारणों से मैं उन लड़कों का ‘टारगेट’ (निशाना) बनता. वे मुझे छिपकली देवी कहकर मजाक उड़ाते थे. वे सब पूछते थे कि तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड है? मैं के.जी. से सातवीं-आठवीं कक्षा तक लड़कों के साथ बड़ा हुआ. पर मैं कहीं छूट गया!

स्कूल में लड़के कहते कि ‘यह अभी छोटा है, हम लोग बड़े हैं. इसीलिए हम लोग सेक्स वगैरह की बात करते हैं. इसे इसके बारे में क्या पता…’ वह एक घातक अलगाव था. मैं सब से बिछुड़ता चला गया. मुझे खुद से बड़ी क्लास दसवीं- ग्यारहवीं क्लास के लड़के अच्छे लगते थे.

घर के लोगों को कैसे बताया? स्कूल की पढ़ाई पर इसका क्या असर हुआ?

मैं अपने पिता से उतना जुड़ा महसूस नहीं करता था, जितना मां से… जब मैंने मां को बताया कि मुझमें मेरे भीतर ऐसी भावनाएं उठती हैं तो उन्होंने कहा कि ‘क्यों परेशान होते हो. बड़े हो जाओगे, तो सब ठीक हो जाएगा. शादी की उम्र में सब कुछ ठीक हो जाएगा.’

एक बात और बताऊं… मैं गहने-ज़ेवर, खासकर कान की बालियां और नेकलेस पसंद करता था. मैं इन जेवरों की सुंदरता से प्रभावित था और उन्हें खरीद कर लाता था. लेकिन सिर्फ़ दो-तीन बार ही उन्हें पहन सका, वो भी जब मैं अकेला रहता था. जब बहन पूछती थी कि क्यों लाए हो? तो कहा करता था कि ‘तुम्हारे लिए लाया हूं.’ अगर मेरी मां को पता चल जाता कि मैंने गहने खरीदे हैं या उसका कपड़ा पहना है, तो वह घर से निकाल देती.

अगर मैंने झूठ नहीं रचा होता, तो मेरा जीना मुश्किल था.

मैं अपने दोस्तों से कट चुका था और परिवार में अकेला महसूस करता था. फिर परीक्षाओं में मुझे कम अंक आने लगे. माध्यमिक बोर्ड की परीक्षा में असंतोषजनक अंक आए.

चौदह साल की उम्र में मै हस्तमैथुन करने लगा. मुझे लगा कि कोई बीमारी हो गई है. उसे बंद करने के ख्याल दिमाग में कौंधने लगे. मैं लिंग के ऊपर के बालों को साफ़ किया करता था. मैं पवित्र बनना चाहता था. मेरे संगी-साथी का कोई समूह नहीं था. उस दौरान मैंने सोचा कि मुझे बीमारी हो गई है और मैं एक डॉक्टर के पास गया. उस डॉक्टर ने मुझे कोई दवा लेने से मना किया और एक मनोचिकित्सक के पास भेज दिया. मैंने उससे कहा कि ‘मैं लड़की की तरह फैंटेसी करना चाहता हूं.’ उसने कहा कि आपको ऐसा क्यों हुआ? यह तो बूढ़े मारवाड़ियों में होता है. उस मनो-चिकित्सक ने कहा कि आप हर दिन घंटे-दो घंटे लेट जाएं और किसी परिचित लड़की से सेक्स करने की बात सोचें. इससे आप ठीक हो जाएंगे. मैं दो वर्षों तक उस मनो-चिकित्सक के उपचार में रहा.

12वीं की परीक्षा में मेरा परिणाम अच्छा आया और मेरा नामांकन प्रेसिडेंसी कॉलेज में हो गया.

उन दिनों मैं एक मर्द बनने को बेताब था और किसी गर्लफ्रेंड को ढूंढ़ रहा था ताकि एक सफल आदमी' बन पाऊं.

पहली बार मैं किसी सह-शिक्षा केंद्र में पढ़ रहा था. मैंने सोचा कि लड़कों को नहीं, सिर्फ लड़कियों को ही देखेंगे. मैं चाह रहा था और सोच रहा था कि लड़कों के प्रति मन में आनेवाले ख्यालों को खत्म किया जाए. लेकिन वे ख्याल उतनी ही तीव्रता से आ रहे थे. एक बड़ी जटिल परिस्थिति बन गई थी मेरे सामने. मुझे एक गर्लफ्रेंड भी मिल गई थी और मेरा एक ब्वॉयफ्रेंड भी था. वह मेरे लिए भयानक परिस्थिति थी. ऐसे में मैं दूसरे साल की परीक्षा नहीं दे सका. उस वक्त मैं आत्महत्या करने की सोचने लगा.

उसी दरम्यान एक दिन मेरी नज़र ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ में छपे एक इश्तहार पर पड़ी, जिसमें एक ‘काउंसिल क्लब’ (दरअसल गे क्लब का) का ज़िक्र था. उसमें क्लब की पत्रिका ‘प्रवर्तक’ का नाम था. उस इश्तहार को देखने के बाद कम-से-कम एक सांत्वना मिली कि मेरे जैसे और भी लोग हैं. इसलिए मुझे आत्महत्या नहीं करनी चाहिए और जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए.

मैं सोचता रहा, सोचता रहा… एक दिन हिम्मत बांधकर ‘प्रवर्तक’ पत्रिका के बिक्री केंद्र गया. पसीने छूट रहे थे. बीस रुपए में पत्रिका ली और उल्टे पांव दौड़ कर भाग आया. उस पत्रिका में ‘काउंसिल क्लब’ का कोई पता या फोन नंबर नहीं था, केवल पोस्ट बॉक्स नंबर लिखा था. दिमाग में आया कि किसी दोस्त को जाकर कहूं कि किसी गर्लफ्रेंड का लेटर आनेवाला है, क्या तुम्हारा पता दे दूं. फिर सोचा कि घर का ही पता दूं और नाम बदल दूं.

हिम्मत करके मैंने एक पत्र उस पोस्ट बॉक्स नंबर के नाम भेजा और घर के पते के साथ शांतनु का नाम लिख दिया. शांतनु मेरे एक दोस्त का नाम था. एक तरह से मैंने शांतनु से बदला लिया था. काफी पहले जब मैंने उसे कहा था कि मैं एक मनो-चिकित्सक के पास जा रहा हूं, तो उसने कहा था कि ‘तुम ऐसे नहीं हो सकते. वे लोग बड़े आवारागर्द किस्म के होते हैं, जो डॉक्टरों के पास जाते हैं.’

मेरा घर तीन मंज़िला था. एक दिन काउंसिल क्लब से शांतनु के नाम एक पत्र आया. मां को वह पत्र मिला और वो हैरान होकर कहने लगी कि पता नहीं हमारे घर में किस-किस के नाम से पत्र आ जाते हैं! फिर किसी काम की वजह से वह बिस्तर पर पत्र को रखकर ऊपर चली गई. मेरा खून दौड़ने लगा और चुपके से उस पत्र को उठाकर छत की ओर भागा. उस दिन जब मैंने वह पत्र खोला, तो मेरे लिए एक नई दुनिया खुली. मां ने लौटकर कहा कि पत्र कहां रख दिया? मैंने कहा कि वह मेरा पत्र है. मैंने शांतनु के नाम से लिखना शुरू कर दिया है.

उस पत्र में लिखा था कि आप अकेले व्यक्ति नहीं हैं. इस तरह मैं काउंसिल क्लब के संपर्क में आया.

एक स्कूल शिक्षक के रूप में काम करने के अनुभव क्या-क्या रहे?

मैंने एम.ए. पूरा नहीं किया था. इसलिए पहले एक स्कूल में नौकरी मिली. मैं इतिहास पढ़ाता था. स्कूल में अभिभावक – शिक्षक मीटिंग होती थी और प्रिंसिपल उसमें उपस्थित रहते थे. एक मीटिंग में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले 15-16 साल के विद्यार्थी देवरास के पिता आए. उन्होंने कहा कि उनका लड़का घर में साड़ी पहनता है और अपने नेल पॉलिश करता है. उस छात्र के शिक्षक ने उसके पिता से कहा कि उसे हार्मोन थेरेपी दिलवाइए. बाद में उस शिक्षक ने मुझसे कहा कि थेरेपी से कुछ नहीं होगा, उसकी जमकर पिटाई करो, सब ठीक हो जाएगा.

उसी दिन लगा कि मुझे कुछ न कुछ करना है ताकि जो दर्द मैंने झेला, वह किसी और को नहीं झेलना पड़े. पर उस समय मेरे सामने कोई मार्गदर्शन या मॉड्यूल नहीं था. ना ही संवदेनशीलता पैदा करने से जुड़ा कोई कार्यक्रम ही था.

बहुत जल्द मुझे पता चल गया कि स्कूल की अन्य कक्षाओं और दूसरे स्कूलों में भी देवदास जैसे लड़के हैं.

मैंने कुछ संवेदनशील शिक्षकों के साथ जेंडर, यौनिकता, यौनिक शिक्षा विषयों पर बातचीत की.

इस स्थिति में आपने क्या किया?

मैंने स्कूल में एक मीटिंग बुलाई. उसमें छात्र और संवेदनशील शिक्षक – दोनों जुड़े. जहां छात्रों ने कहा कि उन्हें प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है, वहीं शिक्षकों ने कहा कि ये छात्र पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते हैं. मीटिंग के बाद उन शिक्षकों ने कोशिश की कि उन्हें कम परेशानी हो और छात्रों ने पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू किया. और इस तरह शुरुआत हुई एक सफ़र की.

हर पेशे की अपनी भाषा होती है. उसी भाषा से काम चलाना पड़ता है. शिक्षकों ने उन छात्रों का उत्पीड़न रोका. उनकी कोशिश रही कि ड्रॉप आउट रेट कम किया जाए और इस तरह छात्रों को तैयार किया जाए कि वे पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ कमा सकें. शिक्षकों द्वारा डांटे जाने की भाषा बदली. पहले वे उन्हें हिजड़ा/ हिजड़ी कहते थे, अब गधा/ गधी कहना शुरू किया. एकेडमिक काउंसिल में स्कूल के परिणामों का विश्लेषण होता था.

प्रिंसिपल मुझसे कहते थे कि तुम्हारे स्टुडेंडस फेल हुए हैं. लेकिन, महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि अब हर कोई किसी से बात कर सकता था.

स्कूल में शिक्षक के रूप में कुछ वर्ष गुज़ारने के बाद मैं एक डिग्री कॉलेज से जुड़ा. तब तक उस स्कूल में अनेक शिक्षक समर्थक बन गए थे. कॉलेज के शुरुआती दिनों का एक वाकया है, एक दिन एक लड़का घर से निकाल दिया गया और वह मेरे घर आ गया. उस समय उसकी स्कूल की परीक्षा चल रही थी. उसकी मां स्कूल पहुंची और वहां के शिक्षकों से मेरा टेलीफोन नंबर मांगने लगी. स्कूल के शिक्षकों ने नंबर देने के बजाय मां को समझाया और उस लड़के की अलग से परीक्षा की व्यवस्था की. बाद में स्कूल के शिक्षकों ने मुझको उस घटना के बारे में बताया. यहां कम से कम शिक्षकों ने पहल तो की. सच भी है कि हम-आप खुद ही सब कुछ नहीं कर देंगे न! बस इस नज़रिए को बदलना है कि – समलैंगिक महिलाएं या पुरुष या कोई भी ट्रांसजेंडर इंसान असमान्य किस्म के होते हैं!

क्या आप ट्रांसजेंडर को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं?

सच्चाई यह है कि पश्चिमी दुनिया में स्त्री-पुरुष का यौनिक विभाजन काफ़ी सख्त रहा है, पर भारत में ऐसा नहीं रहा है. महाभारत काल के अर्जुन के चरित्र तथा अर्धनारीश्वर की अवधारणा से यह बात प्रमाणित होती है कि हमारे यहां पहले से विविध यौन पहचानों पर बात होती रही है. अंग्रेज़ों के आने के पहले हम एक बड़े समावेशी माहौल में रहते थे. आज हम नव-औपनिवेशिक दौर में जी रहे हैं और हमें अपनी भारतीयता को फिर से हासिल करना है.

समलैंगिकों व ट्रांसजेंडरों की ज़िंदगी में आर्थिक स्वतंत्रता और वर्गीय पृष्ठभूमि का सवाल काफ़ी महत्त्व रखता है.

अफसोस की बात कि समलैंगिकता अथवा ट्रांसजेंडरों की वर्गीय व जातिगत स्थिति पर अब तक कोई अध्ययन नहीं हुआ है. इसकी सख्त कमी महसूस की जा रही है.

क्या कभी आपकी शादी की बात उठी?

मेरी मां और बहन ने शादी के लिए दबाव नहीं डाला. पिता ने कहा कि शादी कर लो और पुरुष साथी के साथ भी रहो, नहीं तो हिजड़ा बन जाओगे. भाई भी शादी करने के लिए दबाव डालता था और पिता की तरह ही बात करता था. पर मैंने शादी नहीं की. जहां तक हिजड़ा बनने की बात है, अभी तक नहीं बना हूं, भविष्य के बारे में नहीं जानता.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

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