द लर्निंग लैब में जब हमने क्राइम पर चर्चा शुरू की तो एक ख्याल बार-बार आता रहा. किसी इंसान के साथ कुछ गलत करो तो वह अपराध कहलाता है, पर अगर प्रकृति के साथ कुछ गलत करो, तो क्या वो भी अपराध माना जाएगा? इस सवाल की पेचीदगी को समझने के लिए पिछले दिनों कुछ लिखित और विज़ुअल नोट्स बनाए हैं जिन्हें हम आपके साथ साझा कर रहे हैं.
कैमरा: अशरफ हुसैन. आवाज़: अजफरुल शेख. संपादन: शिवम रस्तोगी.
हम दोनों झारखंड के पाकुर ज़िले से हैं. पाकुर का काला पत्थर एशियाई बाज़ार में बहुत मशहूर है. यही वजह है कि इसे ‘पत्थर नगरी’ के नाम से भी जाना जाता है. शुरुआती दौर में छोटी-छोटी कंपनियों ने खदानों पर काम शुरू किया. उनके उपकरण छोटे स्तर के थे, जैसे – घन हथौड़ी, जिससे पत्थर को तोड़ा जाता था. खदानों से पत्थर को निकालने के लिए सामान्य रूप से बारूद और अन्य रसायनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता था. भूमिगत खनन यानी ज़मीन की गहराई से पत्थर निकालने की वजह से विशाल खुले गड्ढे पीछे छूट जाते हैं.
जैसे-जैसे पाकुर का काला पत्थर मशहूर होता गया, बड़ी-बड़ी कंपनियां यहां आकर बसने लगीं और पत्थर ज़्यादा मात्रा में एक्सपोर्ट होने लगा. बड़ी कंपनियों के साथ नई तकनीक आई. अब कॉम्प्रेसर मशीन से पत्थर खदानों में ड्रिलिंग करके ब्लास्टिंग करना शुरू किया गया, जिसमें भारी मात्रा में डोलोमाइट (एक प्रकार का खनिज) का इस्तेमाल बारूद के रूप में किया जाता है. इसका उपयोग किए जाने से ब्लास्ट होते वक्त भयंकर कंपन और आवाज़ होती है. इस कंपन से खदान के आस-पास बसे घर-द्वार हिलने लगते हैं. खदान कुली के लाल झंडा दिखाते ही लोगों में अफरा-तफरी मच जाती है. “सावधान रहो …सावधान रहो” की आवाज़ आते ही गाय, बकरी और अन्य जानवरों को भी दौड़ा देते हैं. पर खदान के व्यापार से पाकुर के मलपहारी, सालबनी, पीपल जोड़ी और आस-पास के क्षेत्र के लोगों को रोज़गार मिला. इसमें जोखिम तो है, पर चाहे हल्के और सस्ते दाम ही सही, काम तो मिला.
वैध की आड़ में अवैध तरीके से कंपनियां बहुत फली-फूलीं. प्रशासन ने भी कभी आंखें दिखाई तो कभी फेर लीं. राजनैतिक गलियारों में टेलीफोन की घंटी का खेल, तो कुछ ऑफिसर की जेब गर्म रखने का खेल चलता रहा. पर ज़ाहिर है कि पत्थर खत्म होते ही सब भाग खड़े होते हैं, और दूसरे कारोबार में लग जाते हैं.
पीछे रह जाता है ज़मीन में बस एक बड़ा सा गड्ढा. और एक चिंता कि आसपास खेलते हुए बच्चे हैं, बकरी जो किनारे-किनारे घास चरती रहती है, कहीं इसमें गिर न जाएं? यहां काम करते हुए हम सोचने लगे कि क्या ये ज़मीन न्याय की गुहार लगा रही है? पर यह ज़मीन, यह गड्ढे, या कंपनियां न हों तो गुज़ारा कैसे चलेगा? जैसे-जैसे हमने यहां आकर लोगों से बात करनी शुरू की, आसपास के काम को देखा, वैसे-वैसे यह लगने लगा कि इस संदर्भ को – अपराध और अपराधी – के सरल विभाजन में देखना सोच को संकुचित करना है.
चाहे गर्मी हो या सर्दी, इन इलाकों में धूल का कोहरा पूरे समय छाया रहता है. जब भरी बरसात होती है तो धूल बैठ जाती है. पर बरसात के मौसम में इंडस्ट्री बंद हो जाती हैं. मज़दूर की रसोई ठंडी पड़ जाती है. वैसे भी आधुनिक मशीनीकरण (जैसे जेसीबी) के ज़्यादा इस्तेमाल से मज़दूरों की मांग में कमी आई है. पत्थर के व्यापार में बढ़ोतरी हुई है पर लोक रोज़गार दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है. मालपहाड़ी, खपराजोला, सुंदरपहाड़ी की अधिकांश ज़मीन से पत्थर समाप्त हो चुका है. पर, अब अधिकतर ज़मीन खदान में तब्दील हो जाने के कारण धान की खेती करना न के बराबर रह गया है.
सालबनी में पत्थर खदान, लोगों के घरों से सटी हुई है. खदान और गांव के छोर पर खड़े रहकर ऐसा लगता है कि किसी असीम खतरे की छांव में खड़े हुए हैं.
पत्थर खदान के छोर पर जुबा मरांडी की नाश्ते की दुकान है. एक समय था जब जुबा, सामने वाले प्राथमिक विद्यालय की रसोई में काम किया करती थी. पति, पत्थर खदानों में ट्रक ड्राइवर का काम करता था. कोरोना के समय कालाजार ने उसके पति की जान ले ली (कालाजार, बालू मक्खी के द्वारा फैलता है. बालू मक्खी कम रोशनी वाली जगह और मिट्टी की फटी दीवारों पर पनपती है. मालपहाड़ी, सालबनी, खपराजोला में कालाजार से ग्रसित मरीज़ सदर अस्पताल में देखने को मिलते हैं). लॉकडाउन के चलते, जुबा का स्कूल भी बंद रहा. जुबा सोच में पड़ गई अब वो क्या करे? उसकी दो बेटियां और एक बेटा शहर के विद्यालय में पढ़ रहे हैं. इन सबका गुज़ारा कैसे चलेगा?
अपने घर के आगे वाली सड़क पर कोने की दीवार से सटकर उसने चाय-नाश्ते की दुकान लगा दी. पर उसकी कोई खास बिकरी नहीं हुई. खदानों में काम फीका पड़ने से सब लोग बेरोज़गार बैठे हैं. दुकान के आगे कुछ आदमी दिनभर ताश खेलते हुए नज़र आते हैं. अब कोई नौकरी नहीं हैं. खदानों के ट्रक के चक्के रुके तो गराज वाले, टायर पंचर वाले, मिस्त्री, लोडिंग-अनलोड़िंग करने वाले मज़दूर, होटल, चाय-नाश्ते की दुकान सब जगह खामोशी छा गई.
तो, एक तरफ तो पत्थर खदानों के वैध-अवैध व्यापार से प्रकृति के संसाधनों की लूट-मार मची है, पर अगर यह न करें, तो रोज़ी-रोटी कैसे कमाएंगे? यह बड़ी-बड़ी कम्पनियों की बात नहीं, उनको शायद व्यापार के और कई स्रोत और संसाधन मिल जाएंगे पर लोकल कामगार लोग कहां जाएं? पाकुर ज़िले से काफी भारी स्तर पर पलायन होता है. लोग और राज्यों में काम की तलाश में भटकते हैं. खदानों के होने से कुछ हद तक इससे राहत मिलती है.
शायद पाकुर के संदर्भ में अपराध, ज़रूरत और मजबूरी, यह सब एक-दूसके के पूरक बन चुके हैं.