“हिंसा की तलाश थी और प्यार मिल गया.”

जेल में बंद महिला कैदियों, उनके जीवन के विविध पहलुओं और जेल की आंतरिक संरचनाओं के साथ जद्दोजहद की कहानियों को बयान करती किताब 'विमेन इनकार्सरेटेड' पर एक बातचीत

चित्रांकन: उमा केथा

महिला कैदियों की ज़िंदगी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं. लोक कल्पनाओं और कहानियों में या तो वे सिरे से गायब होती हैं या सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाली, असाधारण, बिगड़ी हुई महिला के रूप में उनका चित्रण किया जाता है. पर, एक आम महिला कैदी का जीवन कैसा है? उसकी आपराधिकता क्या है? इसकी जड़ में क्या छिपा होता है? उस महिला कैदी के डर, सपने और चाहतें क्या हैं? उसके लिए जेल के बाद की दुनिया कैसी होती है?

शिक्षाविद, लेखक एवं शोधकर्ता रिम्पल मेहता और महुआ बंदोपाध्याय की हाल ही में प्रकाशित किताब विमेन इनकार्सरेटेड: नरेटिव्ज़ फ्रॉम इंडिया जेल में बंद महिला कैदियों, उनके जीवन के विविध पहलुओं और जेल की आंतरिक संरचनाओं के साथ उनकी जद्दोजहद की कहानियों को बयान करती है. यह किताब इसलिए भी खास है क्योंकि ये आकादमिक बहसों से बाहर निकलकर जेल के भीतर काम करने वालों, कार्यकर्ताओं एवं शोधकर्ताओं के अलग-अलग नज़रिए से जेल को देखने का काम करती है. महुआ और रिम्पल, जेल को एक गहरे राजनैतिक स्थान के साथ-साथ समाज की निरंतरता के रूप में देखती हैं. वे राजनैतिक कैदियों को मानक के रूप में देखने से पैदा होने वाली समस्याओं और सीमबद्ध तरीकों से अलग, एक नई व्यवस्था की कल्पना की बात करती है.

द थर्ड आई के साथ उन्होंने अपनी संपादित किताब ‘विमेन इनकार्सरेटेड: नरेटिव्ज़ फ्रॉम इंडिया’ को तैयार करने के विचारों पर विस्तार से बातचीत की है. पढ़िए, रिम्पल मेहता और महुआ बंदोपाध्याय के साथ यह बातचीत.

किताब 'विमेन इनकार्सरेटेड: नरेटिव्ज़ फ्रॉम इंडिया' का कवर

टीटीई: आपकी किताब ‘विमेन इनकार्सरेटेड: नरेटिव्ज़ फ्रॉम इंडिया‘ (कैद में बंद महिलाएं: भारतीय आख्यान) में आपने महिलाओं, कैद और इसके विविध आयामों पर अलग-अलग लेखों के ज़रिए बात की है. इस किताब को संपादित करते हुए केवल जेल ही नहीं बल्कि महिलाओं के जीवन के विविध पहलुओं को इसमें शामिल करना पड़ा होगा. इसके बारे में आप कुछ बताएं.

महुआ बंधोपाध्याय: सबसे पहले, भारतीय जेलों पर इतनी कम शोधपरक सामग्री होने का एक कारण पहुंच की कठिनाइयां हैं. इसलिए, हम चाहते थे कि हमारा काम सिर्फ़ अकादमिक क्षेत्र से आगे बढ़े, जिसमें पेशेवर, अन्य विषयों के लोगों को शामिल किया जाए जिनकी जेल तक पहुंच हो और जो हमें जेल के बारे में ज़्यादा बता सकें. तो, मुझे लगता है कि संकलन की पहली प्रेरणा वहीं से आई. दूसरे, रिम्पल और मैं इस सवाल पर भी सोच रहे थे कि अलग-अलग तरह के ज्ञान का क्या महत्त्व है. 

रिम्पल मेहता: मेरा पढ़ाई का क्षेत्र सामाजिक कार्य रहा है और महुआ समाजशास्त्र-मानवविज्ञान से थीं. इसलिए, हम इन नज़रियों को एक साथ लाए. हमारी भी चिंताएं थीं – क्या किसी ऐसे व्यक्ति को बोर्ड पर लाना ठीक है जो अनिवार्य रूप से सिस्टम का हिस्सा रहा है? इसकी राजनीति क्या है? लेकिन हम इस बात पर सहमत हुए कि सिस्टम के भीतर के लोगों को भी इसमें शामिल होना चाहिए क्योंकि भिन्न-भिन्न तरह के नज़रियों को सामने लाना ज़रूरी है.

जब हमने 2017 में शुरुआत की थी, तब शुरूआती बिंदू पर हम दो ही लोग थे. जेल से संबंधित साहित्य के बारे में कहें तो, हमें एक ऐसी जगह पर ज्ञान निमार्ण की राजनीति के बारे में बहुत ज़्यादा सोचना पड़ा जहां वंचितों के नज़रिए से एकदम ही नहीं या बहुत ही कम सामग्री उपलब्ध थी. ज़ाहिर तौर पर जेल में सामाजिक कार्य चल रहा था, खासकर टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस) के प्रोजेक्ट प्रयास के द्वारा, लेकिन साहित्य सृजन के मामले में, हमारे पास बहुत कम था, इसलिए हमने इसे संकलित करने और संपादित करने का फैसला लिया.

जब आप इस संग्रह पर काम कर रही थीं तो आपकी पड़ताल की बुनियाद क्या थी?

रिम्पल: एक चीज़ जिसे मैंने और महुआ ने सबसे ज़्यादा तरजीह दी या जिसे हम अपने काम के अलग-अलग क्षेत्रों में भी सबसे अधिक महत्त्व देते हैं वह है, आम महिला कैदियों की कहानियों को उजागर करना, उन्हें सामने लाना. ये हमारे लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि हमें लगता है कि पॉपुलर मीडिया या मुख्यधारा के मीडिया में राजनीतिक कैदियों पर बहुत बातें होती हैं. और देश के कुछ खास तबके के लोगों के मन में उन्हें लेकर एक सहानुभूति भी होती है. पर, असल में ये आम महिला कैदी हैं जो हर तरह के विमर्शों से बाहर रहती हैं. और हमारे शोध का दूसरा महत्तवपूर्ण स्तंभ है – एक महिला के रूप में बाहर और भीतर के जीवन के बीच की निरंतरता. यही इस किताब का मूल आधार है.

महुआ: हां, और हमारी कोशिश यही है कि हम जेल को एक अलग किस्म के संस्थान के रूप में न देखें. अपने एक दूसरे शोध में मेरा तर्क यही है कि

अगर आप बाहर सड़कों पर होने वाली हिंसा को देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि राज्य को अपनी ताकत बरकरार रखने के लिए जेलों की ज़रूरत ही नहीं है.

मैंने और रिम्पल ने अपनी डॉक्टोरल रिसर्च के दौरान कोलकाता की उसी एक जेल पर काम किया है. मेरे ख्याल से हम दोनों के शोध में कोई 10 या 15 साल का अंतराल होगा. उस शोध के दौरान हमने जिन युवा पुरुष कैदियों से बात की उन्होंने अपने आस-पड़ोस, जहां के वे रहने वाले हैं उसकी तुलना जेल के साथ करते हुए जेल को ज़्यादा बेहतर जगह बताया. तो तुलनात्मक रूप में जेल में कुछ कारक ऐसे हैं जिसकी वजह से वे इसे अपने घरों और पड़ोस के माहौल से बेहतर मानते हैं.

जेल के भीतर और बाहर, दोनों ही जगहों पर महिलाओं के अनुभवों में खास फ़र्क नहीं है. यह इस तथ्य से भी निकलता है कि जेल के भीतर की व्यवस्था भी वैसी ही है जैसी बाहर की सामाजिक व्यवस्था है. जेल उस समाज का ही आईना है जहां से वह उत्पन्न होती है. क्या आप इस निरंतरता के बारे में थोड़ा बता सकती हैं?

महुआ: इसे मैं एक उदाहरण के साथ समझाना चाहूंगी जो किताब में मेरे लिखे निबंध में भी शामिल है. यह 70 के दशक में एक बंगाली राजनीतिक महिला कैदी, मीनाक्षी सेन की किताब से प्रेरित है. मीनाक्षी, बांग्लादेश की चंपारानी नाम की एक युवा महिला कैदी के बारे में बताती हैं. चंपारानी अपने गांव से निकलती है, बांग्लादेश की सीमा को पार करती है और अंतत: उसे एक कोठे पर पहुंचा दिया जाता है. पारिवारिक मित्र जिसपर ज़िम्मेदारी थी कि वो चंपारानी को सही सलामत उसकी मौसी के घर पहुंचा देगा, असल में वो उसे कोठे पर ले जाता है. तो, चंपारानी पहली बार बांग्लादेश में अपने एक छोटे से गांव से निकली और एक कोठे पर जा पहुंची. उसे कुछ समझ भी नहीं आता कि उसके साथ क्या हो रहा है. वह खुदखुशी करने की कोशिश करती है, वह कोठे से अस्पताल पहुंचती है और वहां से जेल.

तो, ये चंपारानी की कहानी है. आप जब इस कहानी को लेखक के नज़रिए से पढ़ते हैं तो आपको पता चलेगा कि कैसे एक लड़की जिसे अपने गांव के अलावा कुछ नहीं पता था, कुछ ही महीने में उसे कितने अलग-अलग तरह के संस्थानों के बारे में पता चल जाता है. और उसकी नज़र में – कोठा, अस्पताल और जेल – इन तीनों जगहों में कोई खास अंतर नहीं है. इसलिए जब जेल से बाहर जाने का समय आता है तो उसे बहुत घबराहट होती है और वो परेशान हो जाती है. वह लेखक से कहती है, “देखो, ये सब उन्हीं के लोग हैं.” मतलब कोठे के प्रतिनिधि जेल के भीतर भी हैं और वॉर्डन भी उन्हीं लोगों के साथ मिली हुई है. और अगर वो जेल से बाहर निकलती है तो उसे वापस से कोठे पर ही जाना होगा. तो एक आम कैदी जो पहले कभी अपने गांव से बाहर तक नहीं निकली, वो इन सारे संस्थानों के बीच के गठजोड़ को समझ जाती है.

तो, कैद में होने का जो मानसिक और शारीरिक अनुभव है, वो इसे समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है कि ये सारे ढांचे कैसे एक ही प्रवाह में बहते हैं… निर्बाध रूप से. हम अगर जेल पर काम नहीं कर रहे होते तो शायद हम भी इन संबंधों के बारे में नहीं जान पाते या इन्हें नहीं देख पाते. इसे आप अपनी अंतड़ियों में महसूस करते हैं.

रिम्पल: मुझे लगता है महिलाओं के संबंध में सामाजिक नियंत्रण, निगरानी और उन्हें घर के भीतर कैद रखना, ये वही निरंतरता है जो दोनों जगहों पर काम करती है. घर पर रहते हुए बड़ी हो रही लड़की हो – जिस तरह की रोक-टोक, नियंत्रण और निगरानी से उसे गुज़रना पड़ता है – आगे चलकर अलग-अलग जगहों पर भी यही सब उसका पीछा करते है. इसलिए जब लड़कियां पुलिस थाने में घरेलू हिंसा के खिलाफ़ शिकायत दर्ज कराने जाती हैं या किसी और तरह की परेशानी में मदद के लिए जाती हैं, वहां भी उन्हें ऐसे ही अनुभवों को झेलना पड़ता है. यह एक ही चक्र है जो बार-बार घूमता रहता है.

शुरुआत में मैंने एक आम कैदी और एक राजनीतिक कैदी की बात की थी और कैसे हम राजनीतिक कैदियों को एक बंधे-बंधाए रूप में देखते हैं. पर, वास्तव में वे सभी राजनीतिक कैदी हैं. मेरा काम विदेशी कैदियों या खासकर बांग्लादेशी महिला कैदियों के साथ ज़्यादा है. जेल में बंद इन कैदियों के ऊपर अपने देश की सीमा-रेखा को पार करने का आरोप है. वे भी राजनीतिक कैदी मानी जाएंगी. वहीं, एक आम महिला कैदी जो भारत देश की नागरिक है और उसने भी राज्य या घर-परिवार या समुदाय के कायदों को तोड़ा है. तो, एक तरह से ये दोनों ही तरह की महिलाएं राजनीतिक कैदी ही हुईं, उन्हें भी राजनीतिक कैदी के रूप में ही देखना चाहिए.

जब हम महिलाओं के बारे में लिखते हैं तो एक कठिन संतुलन बनाना पड़ता है – यह दर्ज करते हुए कि कैसे महिलाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सिस्टम को चुनौती दे रही हैं, बिना उन्हें महानता के पायदान पर चढ़ाए हुए. आपकी किताब ‘विमेन इनकारसरेटेड’ इस संतुलन को बनाए रखती है. क्या आप इस बारे में थोड़ी और बात कर सकती हैं कि आपने यह कैसे किया?

महुआ: मेरी समझ में रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ध्यान देने से ऐसा करने में मदद मिलती है क्योंकि हर दिन एक जैसा है उसमें कुछ बदलता नहीं है. रोज़मर्रा में कोई वीरता नहीं है, इसलिए इसमें किए गए कामों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता. पर, वास्तव में यह उनके ‘रोज़मर्रा’ के बारे में ही है, वे इसमें क्या कर रही हैं? किस तरह के रिश्ते बना रही हैं? और कैसे बना रही हैं? उदाहरण के लिए, एक कहानी जो हमें पता चली कि जब किसी एक महिला को पूछताछ के लिए जाना होता था तो बाकी सभी औरतें उसे अपना पेटीकोट पहनने के लिए दे देती हैं. वह महिला तीन-चार पेटीकोट पहन कर जाती है ताकि पूछताछ (पिटाई) के दौरान दर्द कम हो.

लेकिन अगर किसी को यह लगता है कि इसका दस्तावेज़ीकरण करना किसी तरह की… पता नहीं विलक्षणता को दर्शाना है या प्रतिरोध का महिमामंडन है… तो हमें इससे कोई परेशानी नहीं हैं क्योंकि इस तरह की कहानियों को बाहर लाने की ज़रूरत है, इन्हें सभी को बताने की ज़रूरत है कि वास्तव में प्रतिरोध इन छोटी-छोटी घटनाओं में शामिल है.

जब हम कैद या कारावास कहते हैं तो इसे लेकर एक चर्चित विचार है कि – हम क्या तोड़ रहे हैं (कैद के माध्यम से)? और इन कैदियों के संदर्भ में उन्हें अच्छी तरह पता है कि वो जो तोड़ रहे हैं (शारीरिक यातना के माध्यम से) वह उनकी हिम्म्त है. उनकी अंतरात्मा को तोड़ने के लिए शरीर को तोड़ रहे हैं. और राजनीतिक अपराधी बार-बार आपको यह बताएंगे कि वे उन्हें तोड़ नही पाते हैं. और इसका कारण उनकी एकजुटता है. हो सकता है कि यह एकजुटता उनकी कल्पना में हो, यह आंदोलन की एकजुटता हो, या किसी समूह का हिस्सा होने से आई हो, लेकिन इन सबसे कहीं अधिक जो एकजुटता है वो ‘यहां’ और ‘इस उस पल में’ में है जो जेल में इन महिला कैदियों द्वारा व्यक्त की जा रही है.

1993 में प्रकाशित 'जेलर भेटोर जेल' नाम की ये किताब मीनाक्षी सेन ने जेल में बिताए अपने दिनों पर लिखी थी.

यहां, यह भी ध्यान देने की बात है कि यह एकजुटता बहुत अनियमित होती है. आपको नहीं पता कि ये कब होगा. इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता पर ये एक जादू है.

जब होता है तो वो इतना जादूई होता है कि अचानक से आप कैद की चार-दीवारी से निकलकर किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते हैं, कुछ ऐसा जो बहुत ही खूबसूरत और संवेदनशील है.

रिम्पल: इसीलिए इस प्रतिरोध को सामने लाने का यही एक कारण हमारे पास है, जितना संभव हो सके हमें उतना ऐसा करना चाहिए क्योंकि अव्वल तो यह हमें संरचना के बारे में बताता है, फिर, यह उसमें पड़ी दरारों को दिखाता है (जो आमतौर पर दिखाई नहीं देती), यह हमें दिखाता है कि लोग किस चीज़ का विरोध कर रहे हैं, साथ ही यह हमें उन पर पड़ रहे संरचना के असर को भी दिखाता है.

और एकजुटता मेरी नज़र में जेल के भीतर प्रतिरोध का एक रूप है क्योंकि जिस तरह से आप वहां कैद में रहते हैं, आपसे उम्मीद ही यही की जाती है कि आप अकेले हो जाएं. आप किसी भी तरह की एकजुटता कायम न करें क्योंकि यही तो संस्थाओं का सबसे बड़ा डर है.

जैसे, बांग्लादेशी औरत की कहानी के संदर्भ में बात करें जिसे मछली का एक अतिरिक्त पीस चाहिए. अगर, किसी एक महिला को मछली का एक अतिरिक्त पीस चाहिए तो 10 महिलाएं उस एक अतिरिक्त पीस के लिए उस महिला का साथ देने के लिए खड़ी हो जाएंगी. तो, एकजुटता यह भी बताती है कि वो किसके खिलाफ़ लड़ रही हैं इस तरह की संस्थागत जगहों पर उनका मुकाबला किससे है.

लेकिन, जैसा महुआ ने कहा, यह आकस्मिक है. एक ऐसा भी समय होगा जब वे साबुन के एक और टुकड़े के लिए एक साथ नहीं आएंगी क्योंकि वो तो किसी एक महिला को ही मिलेगा. तो, संसाधनों तक पहुंच और जेल में व्यक्ति बनाम समूह को लेकर निरंतर मंथन जारी रहता है.

आपने जो उदाहरण बताए ये बहुत ही मार्मिक हैं. यह तो बिलकुल ऐसा है कि आप हिंसा की कहानियां तलाश करने गए और आपको प्यार मिल गया. आपकी किताब में औरतों के प्रति कुछ खराब या बुरा के बरक्स एक प्रकार का रचनात्मक पूर्वाग्रह है, क्या ऐसा आपका खुद महिला होना है या सच में जेल के भीतर आपने ऐसा ही पाया है.

रिम्पल: मैं इस सवाल के पहले हिस्से – हिंसा की तलाश थी और प्यार मिल गया के बारे में कहना चाहूंगी. इसे लेकर मेरा तर्क हमेशा यही रहा है और मैंने दूसरी जगहों पर भी इसके बारे में बात की है कि फ़ील्ड पर या अपने काम की जगह पर, हम अपने ही अस्तित्व का विस्तार पाते हैं.

इसलिए, जब हम दूसरे लोगों के अनुभवों को देखने-समझने के लिए जाते हैं, तो जो उसकी रूपरेखा होती है, जो नज़रिया होता है जिसके माध्यम से हम देखने की कोशिश करते हैं, वह हमारे खुद के अनुभवों और दुनिया को देखने के नज़रिए से आकार लेता है. इसके साथ ही मुझे लगता है कि यह आपकी अपनी सीख, प्रशिक्षण के बारे में है और खुद की भावनाओं को लेकर भी खुले विचार रखने के बारे में; कि ज़रूर हम कुछ तलाश करने के लिए जा रहे हैं लेकिन वह जो भी है उसे चुनौती भी दी जा सकती है. आपको आलोचना और सवालों के लिए तैयार रहना चाहिए और वह भी न सिर्फ़ अकादमिक समूहों बल्कि उन लोगों के द्वारा भी जिनका साक्षात्कार करने के लिए आप जा रहे हैं. मैदान में आपको खुद को बेनकाब करना होता है.

महुआ: हिंसा की तलाश में, प्यार का मिल जाना, ये जो सवाल है, यह इस बारे में भी है कि आप किस तरह चीज़ों को पेश कर रहे हैं. हमें प्यार मिला, लेकिन प्यार की ये कहानियां हिंसा की ही बात करती हैं. मैं जानती हूं कि [जेलों में बंद व्यक्तियों के] अमानवीयकरण के बारे में बात न करने के कारण हमारे काम की आलोचना की गई है क्योंकि हम प्रतिरोध के बारे में बहुत अधिक बात कर रहे हैं.

मुझे लगता है कि जो हम कहना चाह रहे हैं कि आपकी पृष्ठभूमि में अमानवीयकरण और हिंसा की कहानियां तो हैं ही, इसके उलट हम जो लेकर आए हैं वह प्यार, दोस्ती और प्रतिरोध की कहानियां हैं. वास्तव में ये कहानियां हमें अमानवीयकरण की हदों के बारे में ही बताती हैं. जेल के भीतर आपको कहां रखा गया है और वे कौन से अनुभव हैं जो इस प्रकार की एकजुटता के अनुभवों की ओर ले जाते हैं?

आपने चंपारानी के भीतर उस अनहोनी की बेचैनी की बात की, जो उसकी ज़िंदगी के हर मोड़ पर रही, जिसने इस ज्ञान को पा लिया कि समाज, राज्य और जेल के बीच खास कोई फ़र्क नहीं है. तो, महिलाओं के इस अंतर्निहित ज्ञान की पहचान कैसे हो सकती है?

महुआ: मुझे लगता है कि यह इस बारे में अधिक है कि कोई इस अंतर्निहित ज्ञान तक कैसे पहुंच पाता है? इस ज्ञान तक पहुंचना बहुत मुश्किल है. एक तो जेल तक पहुंचना ही बहुत मुश्किल है, दूसरा कि लोग आपको क्या बताएंगें? और किस तरह वे आपको बताते हैं? और इससे आपको क्या मिल रहा है? ज़्यादातर मामलों में, शुरुआत में, इस बात की कठिनाई होती है कि जिनसे हम बात करते हैं वो सोचते हैं, “हम क्या कहें? यह तो आम है, इसमें क्या खास है.”

लेकिन इसी आम बात को जब आप समझने की कोशिश करते हैं और उसके भीतर जाते हैं तब आप इसके अंतर के पहलूओं को समझ पाते हैं. क्योंकि यही वो निरंतरता है – समाज, राज्य और जेल के बीच की निरंतरता – जिसके बारे में लोग बात नहीं करते, जो कहीं दिखाई नहीं देती. जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं जो उभर कर सामने आती हैं ये निरंतरताएं किसी एक आकार में नहीं होतीं.

तो, कोई इस अंतर्निहित ज्ञान को कैसे देखे? यह उन तरीकों में भी देखा जा सकता है जिस तरह कोई इन ढांचों के भीतर अपनी स्वतंत्रता, अपनी आज़ादी, स्वायत्तता का इस्तेमाल करता है. और निश्चित रूप से इसका मतलब यह भी है कि यहां कुछ मात्रा में हिंसा होगी, कुछ मात्रा में नियंत्रण होगा. उदाहरण के लिए किसी विवाद में आप महिला कैदी को यह बोलते हुए सुन सकती हैं, “हर समय मेरे साथ ऐसा ही होता है, मैं अब इसको नहीं सहूंगी, अब तो मैं अपनी बात कह कर रहूंगी.” तो आप देखेंगे कि उनकी यह प्रतिक्रिया उस वक्त की घटना के आधार पर नहीं है बल्कि उसका संबंध अतीत से है, और इससे एक तरह की अभिव्यक्ति और अंतर्दृष्टि निकलकर आ रही है.

मुझे लगता है कि यह किताब इसलिए भी ज़रूरी है कि इसके माध्यम से कहीं न कहीं हम महिला कैदियों की कहानियों के ज़रिए उन निरंतरताओं को खोदकर बाहर लाने, उन्हें उभारने का काम कर रहे हैं क्योंकि यह आपको कहीं आसानी से नहीं परोसा जाएगा.

अन्य शोध पद्धतियों की तुलना में जो आपने अपनी किताब में जिन पद्धतियों को इस्तेमाल किया है, यह जो अंतर्निहित ज्ञान है जो हम शरीर और मन से गढ़ते हैं, यह हमारे सामने किन नए पहलूओं को खोलता है?

रिम्पल: मैं कल ही किसी से बात कर रही थी. नीतियों में बदलाव के लिए वे आंकड़ों और संख्याओं की ज़रूरत के बारे में बात कर रहे थे. साथ ही यह भी कि नीतियों में बदलाव के लिए क्या ज़रूरी हैं. पर, यहां मेरा तर्क यह है कि जो भावनात्मकता इन कहानियों से पैदा होती है वह हर पाठक को छू जाती है. जेंडर आधारित हिंसा हो या गरीबी या मजबूरन पलायन, हमारे पास इन सभी को लेकर ढेरों आंकड़े हैं. लेकिन, भारत का ही उदाहरण लें तो कानून या नीति में बदलाव उस एक कहानी, एक घटना या एक आख्यान के कारण ही हुए हैं. इस दृष्टिकोण से इन औरतों के जेल के भीतर के अनुभवों को जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है. इसका उद्देश्य भावनाओं को जगाना और उस दर्द को महसूस करना है जो ये औरतें भीतर और बाहर महसूस करती हैं.

ये लिखने का एक तरीका भी हो सकता है, जैसे कुछ लेखक, पाठकों के भीतर दर्द की भावना को जगाते हुए लिखते हैं, “आइए दर्द के माध्यम से इसे समझें” और दर्द की यह राजनीति कैसे सामाजिक बदलाव में बदलती है. जैसे, किताब में जो मेरा निबंध है वो समय के परिपेक्ष्य में इसे देखने की कोशिश करता है. इनमें से

कुछ औरतें जब एक देश से दूसरे देश में होती हैं, एक संस्था से दूसरे ढांचे की ओर जाती हैं या फिर जब वे जेल के भीतर होती हैं तो समय को कैसे महसूस करती हैं?

इसके बारे में हमारे पास हर तरह के आंकड़े हैं, पर प्रयास यही है कि हम उन्हें एक भावनात्मक जगह से देखें. और इसके लिए हमें तार्किकता और भावनाओं के बीच की दीवार को तोड़ना होगा. यह दीवार जो समाजशास्त्र या मानवविज्ञान के कामों में निहित है.

आपके विचार में जेल प्रणाली को लेकर भविष्य की कल्पनाएं क्या हो सकती हैं, फिर वे सुधारवादी हों या उन्मूलनवादी हों? वर्तमान समय में लोग कैसे इसे देख सकते हैं या इसमें शामिल हो सकते हैं?

रिम्पल: अगर हम कल्पना की बात करें तो ऐसी दुनिया हो जहां न जेल की ज़रूरत हो और न ही सीमा-रेखाएं हों क्योंकि इन दोनों की संरचना जिस तरह से की जाती है, ये आपस में जुड़े होते हैं. यही है जिसे पाने की चाहत होनी चाहिए. और हम यह भी चाहते हैं कि हमें इस तरह की किताबों को छापने की ज़रूरत न पड़े, या ऐसी परिस्थितियां और जीवन जीने की ये मजबूरियां पैदा ही न हों. लेकिन फिलहाल, हमें अपनी इन आकांक्षाओं को अपने भीतर रखकर ही व्यवस्था के साथ और उसके भीतर काम करना होगा. कल तो हम जेलों को खत्म नहीं कर रहे इसलिए साथ काम करने की सोच का आधार वह हो सकता है जो इस किताब का है. इस किताब में शामिल निबंध लेखकों में इस व्यवस्था में काम करने वाले, कार्यकर्ता, शोधकर्ता और सामाजिक कार्यों से जुड़े लोग हैं. ये सभी अपनी क्षमताओं के अनुसार विभिन्न तरह के काम कर रहे हैं.

महुआ: हां. मैं भी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं, पर साथ में मेरा मानना यह भी है कि उन्मूलनवादी कल्पना हमारे भीतर से नहीं निकली, ये कहीं बाहर से आई है और एक थोपी हुई कल्पना है. और अब हम इसे इसी तरह मानकर इसके बारे में सोच रहे हैं या इसकी कल्पना कर रहे हैं. उदाहरण के लिए मुझे नहीं लगता की भारत में अभी हम इसके बारे में सोचने के लिए भी तैयार हैं क्योंकि हमारे पास (जेलों तक) पहुंच ही नहीं है.

ब्रिटेन की जेल प्रणाली में बहुत तरह का काम चल रहा है. वहां, जेल अधिकारी, कैदी और शोधकर्ता सभी एकसाथ मिलकर काम कर रहे हैं, लिख रहे हैं. जेलों तक इन सभी की समान पहुंच है, वे एक साथ जेल में काम कर रहे हैं. लेकिन, भारत में तो पहुंच भी अभी बहुत मुश्किल है. हमारे यहां एक नया नियम आया है कि अगर आप शोध के लिए जेल तक पहुंचना चाहते हैं तो आपको पहले 1 लाख रुपए जमा कराने होंगे इसलिए मुझे लगता नहीं कि भारत में सामूहिक कल्पना करना आसान है. तो, जेल को लेकर मेरी आकांक्षाएं यही हैं कि वहां तक पहुंच बढ़े और कैसे नागरिक समाज की पहुंच वहां तक हो सके ताकि वे इसमें हस्तक्षेप कर सकें. जेल के भीतर जो हो रहा है उसके लिए राज्य की जवाबदेही का काम तो कम से कम नागरिक समाज कर सकता है.

हमें लड़कों और लड़कियों के लिए बनाए गए सुरक्षाघरों और ऑब्ज़र्वेशन सेंटर तक पहुंचना ज़्यादा आसान लगा. जेल को लेकर मैंने 30 साल पहले फील्डवर्क किया था और मैं अभी एक और कारावास में जा रही हूं और कहीं कुछ नहीं बदला है. अगर कहीं कुछ बदलावा आया है तो वह है निगरानी करने के तरीकों और अधिक नियंत्रण हासिल करने में.

रिम्पल: मुझे लगता है कि जेल और जेलों के खिलाफ़ या कैद के विरोध में जो आंदोलन हुए हैं, उन्हें और सामाजिक आंदोलनों को जोड़कर देखा जाना चाहिए.

मिशेल मिल्देनबर्ग द्वारा बनाया गया चित्र, न्यू यॉर्कर में प्रकाशित  

हम जेल को एक एकाकी के रूप में नहीं देख सकते क्योंकि आखिरकार जो लोग जेल जाते हैं वास्तव में वे कौन है? वे हाशिए पर धकेल दिए गए और अति वंचित लोग हैं.

इसलिए जेल को इन सारे विमर्शों में बार-बार लाना मेरे लिए बहुत ज़रूरी है. यही वजह है कि उन्मूलन का तर्क नस्ल से जुड़ा है और अमरिका में जेल जाने वालों में सबसे ज़्यादा काली नस्ल के लोग हैं. भारत के संदर्भ में अगर आंकड़ों को देखें तो सबसे अधिक अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग जेल के भीतर हैं – शायद 67 फीसदी से भी अधिक. तो, ये जेल किसके लिए है? मेरे लिए, जेल को लेकर जो कल्पना है इन सभी सामूहिक आंदोलनों को साथ लाने से जुड़ी है. हमें यहीं , जेल के भीतर से शुरुआत करने की ज़रूत है. ये वो जगह है जिसके भीतर की आबादी को आम लोगों की नज़रों से छिपाकर रखा जाता है.

आपने जो “राजनीतिक कैदियों” की श्रेणी के असाधारणकरण के बारे में कहा. तो, वैचारिक आधार पर एक नारीवादी आंदोलन या भारतीय महिलाओं द्वारा स्वायत्त आंदोलन उन्मूलन की कल्पना किस तरह से कर सकते हैं?

रिम्पल: इस किताब के विमोचन के दौरान भी इसे लेकर असहमति थी कि हमें जेलों की ज़रूरत है या नहीं. मुझे लगता है फिलहाल तो [महिला] आंदोलन इस बात पर दो भागों में विभाजित है. और मेरे ख्याल से लंबे समय तक महिला आंदोलनों ने वास्तव में जेलों के बारे में नहीं सोचा था, या इस बारे में ही कि आखिर जेल तक कौन पहुंचता है? जब से मैंने काम करना शुरू किया है, तब से यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि जब हम घरेलू हिंसा के खिलाफ़ आपराधिक कानून का इस्तेमाल करते हैं तो असल में जेल कौन जाता है? ऐसी बहुत सारी महिलाएं हैं जो इस कानून के अंतर्गत जेल पहुंच जाती हैं. और मुझे नहीं लगता कि नारीवादी आंदोलनों में सुधार बनाम उन्मूलन की बहस इतनी मज़बूती से शामिल है जितना उसे होना चाहिए. एक बड़ा और मज़बूत समूह है जो आज भी जेलों की ज़रूरत और ऐसे कानूनों में विश्वास रखता है जो लोगों को अपराधी बताएं. मुझे लगता है कि लोगों का एक बहुत ही छोटा, एकदम छोटा सा समूह है जो शायद यह महूसस करता है कि हमें इससे आगे देखने की ज़रूरत है क्योंकि अंतत: जेल जाने वालों में बहुत सारी महिलाएं और हाशिए की पहचानों से आने वाले लोग होते हैं.

महुआ: लेकिन, मुझे लगता है हम इस तरह की बहस की शुरुआत से भी बहुत दूर हैं. जाति, हाशिए की पहचानों से आने वाले लोग, विकलांगता इत्यादि जैसे बहिष्करण के मुद्दों और ये नारीवादी दृष्टिकोण के साथ कैसे जुड़ते हैं, इसपर नारीवादी आंदोलनों में चर्चाओं की ज़रूरत है.

जेल के संदर्भ में भी, हम यह जानते हैं कि कुछ श्रेणी के लोगों की अधिकता है, इसके साथ हमें अधिक शोध, अधिक समझ की आवश्यकता है कि ये बहिष्करण कैसे काम करते हैं.

और इसके लिए हमें जेलों पर शोध के लिए वहां तक पहुंच सुनिश्चित करने की ज़रूरत है, शोधकर्ताओं के लिए समर्थन और जेल को समझने में रुचि रखने वाले विभिन्न प्रकार के पेशेवरों और श्रमिकों के बीच सहयोग को सक्षम करने के माध्यम से जेल अनुसंधान को सक्षम करने की आवश्यकता है.

रिम्पल: उन्मूलनवाद के विचार से जुड़े तर्कों को लेकर मेरा एक प्रतिवाद यह है कि इसे सामान्य के उलट रूप में ही देखा या समझा जाता है. असल में उन्मूलन के तर्क के साथ एक अधिक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज की कल्पना जुड़ी है, एक ऐसा समाज जिसका सिद्धांत, वर्तमान में व्याप्त संप्रभुता और सुरक्षा के विचारों को अलग नज़र से देखता है क्योंकि संप्रभुता और सुरक्षा के जिन सिद्धांतों पर राज्यों का निर्माण किया जाता है उसके मूल में ‘दूसरे’ की कल्पना कर उनके प्रति डर पैदा करना है. ये दूसरा व्यक्ति गैर नागरिक हो सकता है. वह नागरिकता के पायदान पर सबसे नीचे खड़ा व्यक्ति हो सकता है. वर्तमान में हम देख रहे हैं कि भारत में ये कैसे काम कर रहा है. यहां तर्क हमेशा सुरक्षा को लेकर ही दिया जाता है. एक तरफ आप हैं और दूसरी तरफ सब हैं जिन्हें जेल में होना चाहिए. तो, उन्मूलन का विचार वास्तव में एक कल्पना से आता है जहां हम समाज को देखते हैं और उस समय बनाई गई सीमाबद्ध व्यवस्था से एक अलग तरह की व्यवस्था की सामूहिक रूप से कल्पना करते हैं. हमें अपने लिए एक अलग व्यवस्था तलाश करनी चाहिए.

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है. 

महुआ बंद्योपाध्याय ने कैदियों के रोज़मर्रा के जीवन पर ध्यान केंद्रित करते हुए भारतीय जेल प्रणाली पर मौलिक शोध किया है. अक्सर जेलों को लेकर होने वाले अध्ययन या तो ऊपर से नीचे प्रबंधकीय या समस्या-समाधान के नज़रीये से किए जाने वाले सामाजिक कार्यों के दृष्टिकोण से किए जाते हैं. इसके बरक्स महुआ अपने काम के ज़रिए एक संगठन के रूप में जेल की प्रकृति और कार्यप्रणाली पर महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक प्रश्न उठाती है. उनका काम संगठनों के समाजशास्त्र, कानून के समाजशास्त्र, अपराध एवं सजा, जेंडर और मैस्क्युलिनिटी के अलग-अलग नज़रीये पर स्थित है. महुआ का काम समाजशास्त्र से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाओं (कंट्रीब्यूशन टू इंडियन सोशियोलॉजी, मेन एंड मैस्क्युलिनिटी, कैम्ब्रिज जर्नल ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी) में प्रकाशित हो चुका है. महुआ ने दिल्ली विश्वविद्यालय और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस),मुंबई में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर कई वर्षों तक शिक्षण का अनुभव है.

रिम्पल मेहता, पश्चिमी सिडनी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में वरिष्ठ लेकचरर हैं. इससे पहले वह टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस), मुम्बई के स्कूल ऑफ सोशल वर्क और स्कूल ऑफ विमेन स्टडीज, जादवपुर यूनिवर्सिटी, कोलकाता में काम कर चुकी हैं. उनके शोध एवं फ़ील्ड से जुड़ाव के विषयों में शामिल हैं -जेल में कैद महिलाएं, शरणार्थी महिलाएं और मानव तस्करी. वह सीमाओं, नागरिकता और गतिशीलता से जुड़े अपराध विज्ञान के सवालों पर काम करती हैं. रिम्पल द्वारा लिखित शोध लेखों को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है और यह लेख इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ फेमिनिस्ट पॉलिटिक्स में प्रकाशित हो चुके हैं. उनके निबंधों का एक संकलन ‘विमेल, मोबिलिटी और इनकारसिरेशन’ (महिलाएं, गतिशीलता और कैद) 2018 में रूटलेज प्रकाशन से प्रकाशित है. रिम्पल ने मुंबई, कोलकाता, सिडनी और नीदरलैंड की जेलों/नजरबंद महिलाओं के साथ काम किया है.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

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