जेल के भीतर मानसिक विकलांगता से जूझ रहे कैदियों की देखभाल का मकसद आखिर क्या है?

अपने शोध के ज़रिए प्रोजेक्ट 39A से जुड़ी मैत्रेयी मिसरा जेल में मानसिक स्वास्थ्य सेवा और इलाज के लिए उपलब्ध बुनियादी ढांचे की जांच-पड़ताल एवं बारीकियों के बारे में विस्तार से बता रही हैं.

कैदियों का मानसिक स्वास्थ्य
चित्रांकन: देविका सुंदर

मैत्रेयी, जेल में बंद कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य पर पिछले 10 सालों से काम कर रही हैं. उन्होंने उन कैदियों के साथ काम किया है, जिन्हें मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है. ज़मीनी हकीकत पर आधारित अपने शोध के दौरान वे जिन कैदियों से मिलीं उनमें से ज़्यादातर कैदियों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी तरह-तरह की समस्याओं से जूझता पाया. इन कैदियों से उनका पहला व्यापक जुड़ाव दरअसल प्रोजेक्ट 39A की वजह से हुआ था, जिसे वे लीड कर रही थीं. इसी प्रोजेक्ट की रिपोर्ट है जो डेथवर्दी के नाम से प्रकाशित हुई है. डेथवर्दी का मतलब है – मृत्युयोग्य. इसमें मृत्युदंड (कानून, मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद का अनुभव और मानसिक स्वास्थ्य के नज़रिए से मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों का जीवन) पर विचार किया गया था.

क्या होता है जब देखभाल पितृवाद की शक्ल ले ले? क्या ‘जेल से छूट जाने’ का वादा मोल-भाव के एक हथियार के रूप में किया जा सकता है? क्या हम जो इस सिस्टम के विकल्प की कल्पना करते हैं, वे सच में बेहतर हैं? जेल के भीतर मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से जूझ रहे कैदी और जेल व्यवस्था पर मैत्रयी के साथ साक्षात्कार इन सवालों को समझने की कोशिश है.

द थर्ड आईः आपका यह नया अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य और मृत्युदंड पर केंद्रित है लेकिन आपके शोध का दायरा कहीं अधिक व्यापक है. क्या आप इस शोध के संदर्भ या उद्देश्य के बारे में बता सकती हैं कि आपकी तलाश क्या थी?

मैत्रेयीः मुझे ऐसा लगता है कि जेल में बंद कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य में मेरी दिलचस्पी इसलिए भी है कि जेल एक ऐसी जगह है जो असल में चारों तरफ से दीवारों से घिरी हुई है. इसके साथ यह हमारे समाज का हिस्सा है भी और नहीं भी है. इन दोनों बातों में एक विरोधाभास है.

जेल वो जगह है जो संदेह और अविश्वास के ज़रिए अकेलेपन को बढ़ावा देती है. तो, यह एक ऐसी जगह है जो खुशी के बिलकुल खिलाफ है.

ऐसा नहीं है कि जेल में बंद कैदी हमेशा दुखी और उदास ही रहते हैं. यह ऐसी जगह भी नहीं है जहां हमेशा सन्नाटा पसरा रहता है, मैं इस बात पर हमारा ध्यान इसलिए भी डाल रही हूं क्योंकि मेरे लिए यह पहलू बहुत दिलचस्प है. जेल जैसी जगह में यह बहुत ज़रूरी है कि हम कैद में बंद लोगों की इंसानियत को भी सामने लाएं (जैसे कि इंसानियत का यहां होना हैरान करने वाली बात है).

तो जिस बात से मैंने शुरूआत की थी, वहीं लौटते हैं. मेरा मानना है कि जेल वास्तव में वह दीवार है जो उन्हें घेरे रहती हैं और उसके भीतर घुसना बहुत मुश्किल है. फिर चाहे वह स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी ज़रूरतें ही क्यों न हों. इसका अपना एक पूरा सौर मंडल (ईकोसिस्टम) है जिसे किसी और से कोई लेना-देना नहीं है. लोगों के आने-जाने के बावजूद जेल, एक समय में अटकी हुई है. ये भी एक विरोधाभास है. तो, ऐसे बहुत सारे विरोधाभास हैं जो लगातार बने हुए हैं और उनका कोई हल नहीं निकल कर आ रहा.

वो कैदी जिन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई है उन्हें कानूनी मदद मुहैया कराने के दौरान मुझे दो बातों पर सोचने का मौका मिला. एक, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का कानून पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है (अगर पड़ता हो तो)? और दूसरा, राज्य की क्या ज़िम्मेदारियां हैं देखभाल को लेकर, विशेष रूप से उन कैदियों को लेकर जो मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं/ विकलांगता से जूझ रहे हैं. (लेख में आगे मैं सुविधा के लिए और निदान बताने के लिए मानसिक विकलांगता शब्द का इस्तेमाल करूंगी).

मेरा जो सबसे नया शोध का काम है, वह दरअसल एक जनहित याचिका की उपज है. इसके लिए मैंने प्रोजेक्ट 39A के अपने सहकर्मियों और फील्ड शोधकर्ताओं के साथ मिलकर मानसिक विकलांगता से पीड़ित विचाराधीन और दोषी कैदियों का साक्षात्कार किया. हमने जेल और कल्याण अधिकारियों, जेल के कैदियों और कुछ मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों से भी बातचीत की.

इस शोध का उद्देश्य था जेल में मानसिक स्वास्थ्य सेवा और इलाज के लिए उपलब्ध बुनियादी ढांचे की जांच-पड़ताल करना और साथ ही उन तरीकों पर विचार करना जिससे इसको और अधिक बेहतर और प्रभावी बनाया जा सके.

इसके लिए हमने मृत्युदंड की सज़ा पाने वाले 88 कैदियों और उनके घरवालों से बातचीत की ताकि हम इन बातों को समझ और जान सकें: पहला, कैदियों की मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं (बीमारी, विकलांगता, बेचैनी – इनमें से किसी भी फ्रेमवर्क का उपयोग किया जा सकता है), दूसरा, मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठे कैदियों को किस प्रकार विभिन्न व्यक्तिगत, पारिवारिक और ढांचागत कारक प्रभावित कर सकते हैं या वो प्रभावित होते हैं. और तीसरा, मौत की सज़ा के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को समझा और पहचाना जा सके.

तो अपने इस अध्ययन में भी हमने शोध का वही तरीका अपनाया जो डेथवर्दी में अपनाया गया था. अध्ययन की रूपरेखा को तैयार करते वक्त हमारे दिमाग में बिल्कुल साफ था कि अगर हम फील्ड में नहीं गए और हमें जिन पर अध्ययन करना है उनसे, यानी मानसिक विकलांगता वाले कैदी से बात नहीं की, और सिर्फ दस्तावेज़ों से प्राप्त आंकड़ों पर ही निर्भर रहे तो बहुत सारे मुद्दों, चिंताओं और बारीकियों को न तो देख पाएंगे और न ही समझ पाएंगे.

चित्र साभार: Project39a.com

लेकिन मेरे लिए यह अध्ययन निजी तौर पर बहुत अलग था. मुझे लगता है कि जिस तरह से मैंने उनकी बातें सुनीं और उन बातों को समझा, अध्ययन के दौरान ज़मीनी स्तर पर मैं क्या और कैसे देख रही थी – इन सबमें एक बदलाव था. यहां तक कि कुछ बुनियादी बातों की मेरी समझ में भी बदलाव आया. जैसे कि सहमति का मतलब उस व्यक्ति के लिए क्या हो सकता है जो सहमति या असहमति जताने में सक्षम ही न हो. इस बार फील्ड पर मेरा काम और उससे जुड़ाव बिलकुल अलग था.

द थर्ड आईः जब आपने द थर्ड आई के लिए अपराध को देखने के नारीवादी नज़रिए पर लिखा था, तब आपने देखभाल की नैतिकता को एक फ्रेमवर्क के रूप में सामने रखा था. इस अध्ययन ने फ्रेमवर्क को किस तरह से प्रभावित किया?

मैत्रेयीः जेलों में ‘देखभाल का विचार’ सुरक्षा के साथ बहुत मज़बूती से गुथा हुआ है. उदाहरण के लिए, देखभाल या तो सुरक्षा के साथ मुकाबला करती है या फिर सुरक्षा को ही देखभाल समझ लिया जाता है. देखभाल अक्सर सुरक्षा के अधीन होती है, क्योंकि

भले ही हमारे जेल मैनुअल में यह लिखा गया है कि जेल तो एक सुधार गृह है. वास्तव में यह वो जगहें हैं जिनमें सुरक्षा, निगरानी और संदेह का इतिहास सदियों पुराना है.

इस संस्था की स्मृतियां, संस्कृतियां और परंपराएं सालों से चली आ रही हैं और यहां पर देखभाल का जो रूप उभर कर आया है वह ऐसा है जिसे लगातार सुरक्षा (सेफ्टी के विपरीत) के घेरे में रखने की ज़रूरत है.

जब दो पहचानें – कैदी और मानसिक रूप से विकलांग – एकसाथ जुड़ जाती हैं तो बड़ी ही दिलचस्प स्थिति पैदा होती हैं. जब कैदियों की बात आती है तो देखभाल मॉडल के रूप में सुरक्षा का दबदबा और बढ़ जाता है तो मानसिक विकलांगता वाले कैदी एक ही समय में खतरनाक और दयनीय दोनों होते हैं इसलिए यह कैदी केवल देखभाल के ही पात्र होते हैं.

मेरे हिसाब से केवल देखभाल और देखभाल की नैतिकता में सबसे बड़ा फर्क यही है. केवल देखभाल में व्यक्ति को सहज ही निष्क्रिय मान लिया जाता है यानी उसकी कोई भूमिका नहीं है.

यह मानना कि केवल एक सक्षम व्यक्ति ही असक्षम को सहारा दे सकता है, यह देखभाल के नैतिक मूल्यों के विचार से बिल्कुल विपरीत है.

इसके केंद्र में आत्मनिर्भरता और एक-दूसरे के साथ रिश्तों में बंधना है. इसलिए सशक्तीकरण का विचार ज़रूरी शर्त और मूल्यों में से एक है.

देखभाल की नैतिकता के केंद्रित व्यवहार के लिए ज़रूरी है कि मानसिक विकलांगता वाले कैदियों को न तो खतरनाक और न ही दयनीय माना जाए. उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाए जिन्हें एक खास तरह की देखभाल की ज़रूरत है और उस देखभाल में वे सक्रिय भागीदार हैं (जो सामान्यतः वे होते भी हैं).

उनकी सक्रिय भागीदारी के लिए आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण करना होगा. हालांकि ऐसी परिस्थितियों का अभाव है, और दुर्भाग्य से मानसिक विकलांग कैदियों के उपचार के लिए इनको ज़रूरी भी नहीं माना जाता. उदाहरण के लिए, मैंने देखा है कि किस तरह मानसिक विकलांग कैदियों को महीनों और सालों तक ‘मनोरोग वॉर्ड’ में अलग करके रखा जाता है, जहां उन्हें जेल की सामान्य आबादी के साथ घुलने-मिलने या जेल के जीवन में व्यापक रूप से भाग लेने का मौका नहीं मिलता है.

इसके पीछे अक्सर यही तर्क होता है कि मानसिक विकलांग व्यक्ति हिंसक या आक्रामक हो सकता है या मानसिक विकलांगता के कारण उसमें सहभागी बनने की क्षमता ही नहीं है. इस शांत जगह में उनसे बातें भी सीमित होती हैं, यह देखने के अलावा कि उन्होंने अपनी दवाइयां ली हैं या नहीं, नहाया है या नहीं या खाना खाया है या नहीं.

उन्हें न केवल अनदेखा किया जाता है, बल्कि कमतर भी माना जाता है.

उन्हें अक्सर बहुत ज़्यादा दवाइयां दी जाती हैं जिसके कारण वह या तो वो एकदम शांत या नींद में रहते हैं या भ्रमित महसूस करते हैं और मुश्किल से बातचीत कर पाते हैं. ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि ये जो वहां की स्थितियां हैं, वे ही ऐसे हालात पैदा करती हैं जहां मानसिक विकलांगता वाले कैदी खुद पर अपना इख्तिहार महसूस नहीं कर पाते.

मानसिक स्वास्थ्य के सबसे बुनियादी तरीकों में से एक है कि मरीज़ अपना खोया आत्मविश्वास और समाज से जुड़ने में सुरक्षित महसूस करने का कौशल दोबारा पा सके. मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि मैंने भी मानसिक स्वास्थ्य की सेवाएं ली हैं और दवाएं मेरे उपचार का एक महत्त्वपूर्ण लेकिन बहुत ही छोटा हिस्सा थीं. उपचार का बड़ा हिस्सा था – मैं खुद अपने आप पर दोबारा भरोसा कर सकूं और खुद एवं अपने आस-पास की दुनिया के साथ व्यवहार कर सकूं (कभी आत्मविश्वास तो कभी संकोच के साथ). मैं मानसिक स्वास्थ्य उपचार के लिए ऐसे तरीकों, विकल्पों और अवसरों तक पहुंच को ज़रूरी मानती हूं, जो बुनियादी फ्रेमवर्क के रूप में देखभाल की नैतिकता का उपयोग करते हैं.

द थर्ड आईः एक कानूनी शोधकर्ता के रूप में, जिसने जेलों पर काम किया है, मानसिक स्वास्थ्य के नज़रिए से जेल संरचना को देखने से क्या आपको कोई नई अंतर्दृष्टि मिली?

मैत्रेयीः सबको पता है कि जेल इंसान को कमज़ोर बनाती हैं, मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ये सही जगह नहीं हैं. दुर्भाग्य से किसी को भी इससे आपत्ति नहीं है. जेलों में क्षमता से ज़्यादा कैदी, साफ-सफाई की कमी, खराब भोजन जैसे जेल सिस्टम की संरचना और उसकी व्यवस्था मानसिक अस्वस्थता का कारण बनती है. यहां तक कि इसका बुरा असर सामान्य कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है. मुझे आज तक ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिसके लिए जेल स्वास्थ्य के लिहाज़ से फ़ायदेमंद, बेहतर और सशक्त बनाने वाली जगह रही हो. अगर जेलों का उद्देश्य कैदियों के लिए सुधार और पुनर्वास की जगह बनना है, तो निश्चित रूप से वह ऐसी जगह बनने में विफल हो रही हैं.

इससे बावजूद,

यह भी सच है कि मानसिक स्वास्थ्य सहायता की ज़रूरत वाले बहुत से लोगों के लिए जेल ही वह पहली जगह है, जहां उन्हें इस स्वास्थ्य सहायता तक पहुंचने का मौका मिल सकता है.

मेरे लिए यह बहुत ही चिंताजनक बात है कि जेल यह सुविधा प्रदान करने में भी विफल हो रही है. हां, कई (सभी नहीं) जेलों में सहायता की ज़रूरत वाले कैदियों की पहचान और उपचार की सुविधा है, लेकिन वो सहायता लगभग दंडात्मक, अनुपयोगी और कई मायनों में बनावटी होती है.

मानसिक स्वास्थ्य के नज़रिए से जब मैं अपने शोध को आगे बढ़ाती हूं तो मुझे समस्या की गहराई में जाने के लिए मदद मिलती है और महत्त्वपूर्ण रूप से औपचारिक, अनौपचारिक ढांचों और संबंधों को देखने का मौका मिलता है. इसमें जो अनकही और अदृश्य बातें हैं उन्हें भी समझने का मौका मिलता हैं.

उदाहरण के लिए, जेल मैनुअल के अनुसार अगर किसी कैदी को मानसिक बीमारी है तो पहले इसकी जांच करना ज़रूरी है कि कहीं वह बीमारी का नाटक तो नहीं कर रहा है. (काम और सज़ा से बचने के लिए दिखावा तो नहीं कर रहा!) मतलब साफ है कि संदेह पहले से ही भूमिका निभा रहा है. मैं इस बात पर इसलिए ज़ोर दे रही हूं कि मुझे हमेशा से यह बात हैरान करती रही है कि जेल (और आपराधिक न्याय प्रणाली) में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में जांच का स्पष्ट निर्देश है.

एक चीज़ और है जो चिंताजनक है, वह है – कैदियों को मौखिक रूप से रिहाई का ख्वाब दिखाना. जो कैदी मनोरोग की दवा लेने से इंकार करते हैं, उनसे अक्सर कहा जाता है कि अगर वह दवा लेंगे तो उन्हें जल्द ही रिहा कर दिया जाएगा, भले ही ऐसा होने वाला न हो.

उन्हें राज़ी करने के लिए जेल से आज़ादी या परिवार के पास वापस जाने जैसे झूठे वादों का सहारा लिया जाता है.

जब आपको पता है कि ऐसा वादा पूरा नहीं होने वाला फिर भी अपने परिवार के साथ रहने के लिए बेताब किसी व्यक्ति को झूठा दिलासा देना एक तरह की क्रूरता ही है. व्यक्ति इस उम्मीद में रोज़ अपनी दवा ले सकता है कि ऐसा करने पर उससे किया गया वादा भी पूरा किया जाएगा, लेकिन यह पूरा नहीं होगा क्योंकि संभव है कि परिवार ने ही उसे छोड़ दिया हो, या यह कि कानूनी प्रक्रिया भी इस तरह की रिहाई की अनुमति नहीं दे सकती है.

ऐसा करने के पीछे की भावना यह होती है कि ‘कम से कम वे अपनी दवा तो लेंगे’, लेकिन इससे जो भरोसा टूटता है उसका असर वास्तव में उल्टा होता है. यह रोगी की रिकवरी के लिहाज़ से भी ठीक नहीं है. ऐसे भुलावों पर भरोसा करने वाले व्यक्ति के मन में आशा और निराशा का जो निरंतर चक्र चलता रहता है, वह निश्चित रूप से एक समस्या को जन्म देता है, भले ही यह समस्या नज़र न आ रही हो, या उस तरह से नज़र न आ रही हो, जिस तरह से नज़र आनी चाहिए.

चित्रांकन: देविका सुंदर

द थर्ड आईः क्या आपको लगता है कि एक रिसर्चर के रूप में इस स्टडी के दौरान आपके नज़रिए में कोई बदलाव आया है?

मैत्रेयीः मेरे चुनौतीपूर्ण अनुभव भी उन अनुभवों में घुलमिल जाते हैं, जिनके माध्यम से मैंने अर्थ निर्माण के संदर्भ में सबसे अधिक सीखा है. और यह समझ पाई हूं कि मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल का क्या तरीका होना चाहिए. (ध्यान रहे कि जब हम किसी चुनौतीपूर्ण अनुभव से गुज़रते हैं तो बहुत कुछ सीखते और सबक लेते हैं, इस तरह एक समझ विकसित होती है, यही अर्थ निर्माण कहलाता है.)

एक बार मैं एक ऐसी महिला कैदी से मिली जिसको सिज़ोफ्रेनिया की बीमारी थी. अगर मुझे सही-सही याद है तो, इलाज के लिए उसे बहुत तेज़ या स्ट्रांग दवा दी जा रही थी. मुझे उससे बात करने के लिए उसकी सहमति लेने की ज़रूरी थी (एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो उसको कानूनी मदद मुहैया कराने नहीं, बल्कि रिसर्च के सिलसिले में उससे बात करना चाहता है). बात शुरू होते ही, सबसे पहला सवाल जो उसने पूछा, वह यह था कि क्या मैं और मेरे साथी उसे घर ले जाने के लिए आए हैं? हमें न कहना पड़ा. हम उससे सिर्फ बात करने आए हैं. हमने उससे पूछा कि क्या वह ऐसे ही हमसे बात करना पसंद करेगी? सच कहूं तो यह अपने-आप में ऐसी चीज़ है जो शोध नैतिकता के संदर्भ में कुछ खास तरह की समस्याओं को जन्म देती है, क्योंकि मैं तब भी श्योर नहीं थी कि वह इस बात को समझती है कि हम उसकी रिहाई के लिए नहीं आए हैं लेकिन उसने कहा कि वह हमसे बात करने को राज़ी है.

मेरे भीतर इस बात को लेकर उलझन थी कि उससे बात जारी रखूं या नहीं, लेकिन वह बात करने के लिए उत्सुक नज़र आ रही थी इसलिए हमने अपनी कशमकश की परवाह न करते हुए बातचीत जारी रखी लेकिन हमने शोध वाली लीक छोड़ दी और यह देखना बेहतर समझा कि बातचीत किस दिशा में जा रही है और क्या सच में उसका आंतरिक जीवन हरा-भरा था!

अगर मैं अपनी शुरुआती असहजता के चक्कर में ही पड़ी रहती तो मुझे उसकी ज़िंदगी में झांकने का मौका कभी नहीं मिल पाता.

मैंने उन चूड़ियों के बारे में पूछा जो उसने पहन रखी थीं. पूछते ही वह खुश हो गई और अपनी बेटी के बारे में बताने लगी. उसने हमें अपनी शादीशुदा ज़िंदगी के बारे में बताया. वह मोर और मधुमालती फूल से जुड़े एक-दो गीत गाना चाहती थी और उसने गाए भी.

कानूनी प्रक्रिया के बारे में पूछताछ करने से मुझे कुछ जवाब तो मिल सकते थे लेकिन उनसे मुझे न तो उसके और न ही उसकी ज़िंदगी के बारे में कुछ पता चल पाता. चूंकि वह मेरी शुरुआती पूछताछ थी, उसके लिए इसका कोई खास मतलब नहीं था, और सच कहूं तो मेरे लिए भी इसका कोई खास महत्त्व नहीं था. उसकी कहानी सुनना और उसकी आंतरिक दुनिया के बारे में जानना मेरे लिए सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था क्योंकि यह उसकी आंखों में चमक पैदा कर रहा था. इस बातचीत से मुझे पता चला कि उसे मिठाई बहुत पसंद थी, लेकिन उसकी दवा और उसके बाद की जटिलताओं के कारण, वह इसे ज़्यादा खा नहीं सकती थी. मुझे पता चला कि उसे अपने लम्बे बाल बहुत पसंद थे, जिन्हें अब छोटा करवा दिया गया था, और इसकी वजह से वह परेशान थी. उसे अच्छे कपड़े पहनना और सुंदर दिखना पसंद था. उसे बात करना और गाना पसंद था. अगर मैं अपनी ही लीक पर डटी रहती तो उसकी ज़िंदगी के बारे में इतना कुछ जानने से चूक जाती. मैं यह सोचने से चूक जाती कि क्या मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पर विचार करने का यह भी एक तरीका हो सकता है.

कहानियां सुनना और सुनाने वाले के नज़रिए से उन्हें समझना और जुड़ना, कभी-कभी उन चीज़ों से जुड़े सवालों से अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी होता है जिन्हें हम जैसे लोग महत्त्वपूर्ण समझते हैं.

वो हुआ या नहीं हुआ, वो बात ज़रूरी नहीं है. कभी-कभी यह महत्त्वपूर्ण है कि कोई हमें सुन रहा है और वो कहानी जो हम कहना चाहते हैं उससे जुड़ रहा है. हम सबके पास अपनी-अपनी कहानियां हैं कि हमारे साथ क्या हुआ. उसके पास भी अपनी कहानी थी. मैं न तो उससे सवाल-जवाब करने वहां गई थी और न ही उसे ठीक होने में उसकी मदद करने, लेकिन वहां जाकर मुझे यह एहसास हुआ कि लोगों से सिर्फ बात करने के लिए बात करना भी फायदेमंद हो सकता है.

बातचीत के लिए किसी उद्देश्य का होना ज़रूरी नहीं है. इस बातचीत से जो चीज़ मेरी समझ में आई, वह यह थी कि हर रोज़ अपने घर के लोगों, दोस्तों, सहकर्मियों और अजनबियों के साथ बिना किसी उद्देश्य के हम जो यूं ही बातचीत किया करते हैं, वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है. ज़रूरी नहीं कि हम जो कुछ भी करें, जानकारी हासिल करने के ‘उद्देश्य’ से या किसी ‘लक्ष्य’ को हासिल करने के उद्देश्य से ही करें.

दूसरे कैदियों के साथ बातचीत के दौरान भी यही हुआ. उनकी अनोखी कहानियां और तर्क हमारे लिए बाहरी लोगों के रूप में समझना मुश्किल था, लेकिन उनके पास इसके लिए अपना आंतरिक तर्क था. और अगर कोई आंतरिक तर्क न भी हो, क्या होगा अगर ये कहानियां अपने आप में एक मौलिक महत्त्व रखती हों?

मुझे ऐसा लगता है कि अगर हम उन कहानियों के लिए उनका मज़ाक न उड़ाएं या उन्हें अजीबोगरीब और बेकार होने का ठप्पा न लगाएं या उन्हें यूं ही खारिज न कर दें कि इनका तो कोई मतलब ही नहीं है तो शायद हम कहीं पहुंच सकते हैं.

हो सकता है कि इससे उनके मानसिक स्वास्थ में सुधार आए यानी अपनी ही शर्तों पर सुधार का यह एक बेहतरीन तरीका हो सकता है.

द थर्ड आईः मानसिक विकलांगता से पीड़ित लोगों को समाज में “विकृत” माना जाता है. जेल में कैदियों को “अपराधी” होने के कारण “विकृत” माना जाता है. तो, पहचानों को इस तरह चिन्हित करना उनके व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव डालता है?

मैत्रेयीः जैसा कि मैंने पहले ही कहा है – कैदी और मानसिक विकलांता – ये दोनों पहचानें निश्चित रूप से एक ऐसे दिलचस्प स्थान का सृजन करती हैं, जहां पर एक व्यक्ति एक ही समय में खतरनाक और दयनीय दोनों होता है. लेकिन यही एकमात्र पहलू नहीं है. मानसिक विकलांग व्यक्तियों को अजीब, अजीब व्यवहार वाले, यहां तक कि अजीब दिमाग वाले लोगों के रूप में भी देखा जाता है.

मैं सोचती हूं कि उन्हें रहस्यमयी दिमाग (लगभग काल्पनिक) वाले लोगों के रूप में क्यों नहीं देखा जाता!

अब चूंकि उनके पास अजीब दिमाग है और उनका व्यवहार अजीब है, वह खतरनाक हो सकते हैं और कभी भी कुछ भी कर सकते हैं, यही माना जाता है. ऐसी स्थिति में अगर उन्हें हिंसक अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया हो तो उनके लिए बदनामी और बढ़ जाती है.

एक और दिलचस्प पहलू है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है. मानसिक विकलांगता वाले लोगों का अक्सर उनकी विचित्रता के लिए मज़ाक उड़ाया जाता है. लेकिन जेल का मामला थोड़ा अलग है, यहां भी ऐसे कैदी का अन्य कैदियों द्वारा मज़ाक उड़ाया जाता है, लेकिन यहां आप जिसका मज़ाक उड़ाते हैं, उससे थोड़ा डरते भी हैं. मानसिक विकलांगता वाले बहुत से कैदी अपने बाहर और अंदर की दुनिया को समझने की कोशिश कर रहे होते हैं, अपनी दो ‘विकृत’ पहचानों के कारण. मैं बहुत बार सोचती हूं कि क्या इनकी ये दोनों दुनिया आपस में टकराती हैं, या एक-दूसरे के समानांतर चलती हैं, एक-दूसरे के विपरीत चलती हैं या आपस में उलझी हुई हैं? क्योंकि उनके कथित तौर पर खतरनाक होने और अजीब होने के कारण बाहरी दुनिया ने उन्हें त्याग दिया है और उनकी अंदरूनी दुनिया में किसी की रूचि नहीं है और शायद ही किसी ने उनके अंदर की दुनिया को बाहर की दुनिया से खोला है ताकि बाहरी दुनिया अंदर आ सके.

इस तरह उन्हें सामान्य कैदियों से अलग रखना एक 'सुरक्षित विकल्प' माना जाता है. असल में यह उनके ठीक होने की प्रक्रिया में बाधा डालता है.

उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है. ऐसे कई मामले हैं, जब सालों-साल तक अलग-थलग रखे गए कैदियों को अचानक से अन्य कैदियों के साथ रख दिया जाता है और स्वतंत्र रूप से रहने के लिए कहा जाता है. जबकि होना यह चाहिए था कि उन्हें धीरे-धीरे मुख्यधारा में लाया जाता. ऐसे में यह कैदी डर और लाचारी के कारण, नहीं तो हताशा और निराशा में उत्तेजित और आक्रामक हो उठते हैं.

एक बात तो बिल्कुल साफ है कि देखभाल करने वाले कैदी, अधिकारी और अन्य लोग विकलांग कैदियों के साथ जिस तरह का व्यवहार करते हैं, उसमें अक्सर उपेक्षा, दिल्लगी, हिंसा, अन्यीकरण (पहचान के आधार पर खुद से अलग मानना), उपहास या दया का भाव होता है. मेरे ख्याल से ऐसा इसलिए है क्योंकि मानसिक रूप से विकलांग कैदियों को एक मुकम्मल इंसान के रूप में देखा ही नहीं जाता. अन्यीकरण और बहिष्कार के कारण, उनकी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा बेनामी और बेमकसद ही बीत जाता है. जिस कैदी के बाल उसकी मर्ज़ी के खिलाफ काटे गए, उसके लिए यह एक दर्दनाक अनुभव था क्योंकि उसने अपने वजूद का एक हिस्सा खो दिया – एक ऐसा हिस्सा जिस पर उसे गर्व था. लेकिन यह उन लोगों को मामूली बात लगेगी, जिन्होंने उससे बात नहीं की है, उसे नहीं जाना है.

आदर्श रूप से जहां देखभाल और फिक्र का माहौल होना चाहिए था, वहां अविश्वास और डर हावी होने लगता है. सच तो यह है कि देखभाल सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई औपचारिक प्रक्रियाओं में खामी को अक्सर नौकरशाही चश्मे से देखा जाता है कि कैदियों का ऐसा कोई नुकसान न हो जिससे जेल को दोषी ठहराया जा सके. ज़ाहिर है कि इसका असर जेल की गुणवत्ता, सद्भाव और गंभीरता पर पड़ता है.

द थर्ड आईः आप समाज और जेल के बीच संबंधों की निरंतरता का कितना असर देखती हैं? और यह भी कि क्या हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश आपको नज़र आती है, कोई एंट्री प्वॉइंट नज़र आता है?

मैत्रेयीः मानसिक विकलांगता वाले कैदी के खतरनाक होने, सार्वजनिक और निजी जीवन में भाग लेने के काबिल न होने जैसी बातें जेलों में भी खूब प्रचलित हैं. उनका प्रवक्ता बनने और पितृवत् या सौम्य तरीके से उसकी ज़रूरतों, इच्छाओं और पसंद-नापसंद की अनदेखी करने की प्रवृत्ति भी जेलों में कुछ ज़्यादा ही होती है. जैसे, उन्हें प्यार और उनके भले के लिए कहकर उनकी अनदेखी करना.

लेकिन जिन चीज़ों ने मुझे प्रभावित किया, उनमें एक शर्मिंदगी का अभाव भी था.

बहुत से लोग और परिवार अपने घरों में मानसिक रूप से विकलांग सदस्य के होने पर शर्मिंदगी महसूस करते हैं और उनको अक्सर लोगों की नज़रों से छुपाकर रखते हैं. पर जेलों में शर्मिंदगी के इस अहसास का कोई वजूद नहीं है.

इसलिए मुझे लगता है कि बदलाव के नज़रिए से यह जगह बहुत ही प्रभावशाली हो सकती है. हालांकि अभी के हालात में, मैं देखती हूं कि शर्मिंदगी के अहसास की अनुपस्थिति से जो जगह खाली हुई थी, प्यार, उनके फायदे और सुरक्षा का तर्क देकर उसपर कब्ज़ा कर रखा है.

समाज में मानसिक विकलांग व्यक्तियों के प्रति लोगों का रवैया अक्सर दयापूर्ण उदारता वाला होता है. मेरा मतलब यह है कि अगर किसी मानसिक विकलांग व्यक्ति ने, मान लीजिए, एक पेंटिंग बनाई है, तो सहज है कि वह चाहेगा कि लोग देखें, प्रभावित हों या प्रशंसा करें. अब अगर मैं यह कहती हूं कि पेंटिंग अच्छी नहीं है, तो लोग मुझे घूरेंगे, मुझे अच्छा इंसान नहीं माना जाएगा. जेलों में भी ऐसा ही होता है, जहां मानसिक विकलांग कैदियों के साथ अधिकारी अक्सर बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं. ऐसे बहुत से लोग होंगे जो इसको अच्छा भी मानते हैं. लेकिन यह अच्छी बात तो बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि (क) यह बच्चों और वयस्कों, जिनमें मानसिक रूप से विकलांग वयस्क भी शामिल हैं, दोनों को एक ही तराजू पर तौलता है और इस तरह दोनों के अनुभवों में जो फर्क है, उसकी अनदेखी करता है, और (ख) इसमें यह मान लिया गया है कि विकलांग व्यक्ति अपनी ज़िंदगी की रोज़मर्रा की ज़रूरतों का बोझ उठाने और अपनी सफलता-विफलता का सामना करने के काबिल नहीं है.

इसका जो दूसरा पहलू है, वह है – हिंसा का प्रयोग, जो कि इसका बिल्कुल उल्टा है. मानसिक विकलांग व्यक्ति के साथ अक्सर हिंसा इसलिए की जाती है क्योंकि वह बच्चों जैसा व्यवहार नहीं कर रहा होता है. वह विरोध कर सकता है, मांग कर सकता है, आपत्ति कर सकता है, उसका अपना अलग नज़रिया हो सकता है, और हो सकता है कि जिस तरह की देखभाल की जा रही है, उसे पसंद न हो और वह इंकार कर दे. मैं समझती हूं कि यह अक्सर देखभाल करने वालों के लिए खीझ और गुस्से का कारण बन जाता है, जो उन्हें हिंसा के नज़र आने और नज़र न आने वाले रूपों की ओर ले जाता है. जैसे कि दवा लेने से मना करने पर उसके भोजन में दवा मिला देना, आदि. जेल में भी ऐसा ही होता है, बल्कि इससे भी बुरा हो सकता है, क्योंकि आपराधिक न्याय प्रणाली से जुड़े सभी लोग, चाहे वह अधिकारी हो या कर्मचारी, यही मानते हैं कि मानसिक विकलांग व्यक्ति अक्षम होता है.

अतः ज़बरदस्ती देखभाल की प्रवृत्ति सर्वव्यापी है. इस तरह की देखभाल में किसी भी क्षण हिंसक रूप ले लेने की क्षमता होती है.

नेटफलिक्स की सीरीज़ 'ब्लैक वॉरेंट' जेल में काम कर रहे अफसर सुनील गुप्ता की कहानी है, जो तिहाड़ जेल में मौजूद समस्याओं का जड़ से खात्मा करना चाहते हैं. चित्र साभार: instagram.com/motwayne

द थर्ड आईः इस अध्ययन के दौरान का कोई अनुभव, कोई चीज़, जिसने आपको सबसे ज़्यादा बेचैन किया?

मैत्रेयीः जो अकेलापन और अपनों से छोड़ दिए जाने का अहसास मैंने देखा, उसने मुझे बहुत बेचैन किया. मैंने पाया कि मानसिक विकलांग कैदियों को बिल्कुल अलग-थलग उनके हाल पर छोड़ दिया गया है, उनकी ज़िंदगी में अकेलेपन के सिवा कुछ भी नहीं है. अक्सर जो कैदी मानसिक रोग की दवाइयों की बहुत ज़्यादा खुराक लेते हैं, उन्हें यह भी याद नहीं रहता कि वह कितने दशकों से जेल में बंद हैं, उन्हें इसका भी होश नहीं कि उनके मुकदमे में क्या कुछ हो रहा है, वह यह भी भूल जाते हैं कि उनके घरवालों ने उन्हें कब का उनके हाल पर छोड़ दिया है. इस शोध के दौरान जब हम जेल में कैदियों से मिले तो उन कैदियों का हमारी ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखना, ये हमारे लिए बहुत ही मुश्किल अनुभव था. जैसे कि हम उन्हें बचाने आए हों, उनका उत्साहित होकर पूछना कि क्या हम उन्हें उनके घरवालों के पास ले जाने आए हैं, यह जेल अनुसंधान के दौरान मेरे द्वारा अनुभव की गई सबसे मुश्किल चीज़ों में से एक है.

मानसिक विकलांगता वाले कैदियों को जेल के नियम-कायदे और भी अकेला बना देते हैं, क्योंकि न्यूनतम ज़रूरतों के अतिरिक्त उनसे कोई विशेष सरोकार नहीं रखा जाता.

अक्सर, जब आप सिज़ोफ्रेनिया जैसी मानसिक विकलांगताओं का मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन देखते हैं, तो उसमें ‘अप्रासंगिक या बेतुकी बातें करना’ या ‘अनुपयुक्त तरीके से मुस्कुराना’ जैसे वाक्यांश लिखे मिलते हैं, जो दरअसल सिज़ोफ्रेनिया के कुछ बुनियादी लक्षणों से जुड़े हैं. हालांकि मनोरोग संबंधी इस संक्षिप्त विवरण में बेतुकी बात का विषय क्या था या व्यक्ति को मुस्कुराने के लिए प्रेरित करने वाली चीज़ कौन सी थी, इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा होता. इस तरह के प्रिस्क्रिप्शन से कोई क्या समझेगा? यह रोग के लक्षणों से कहीं ज़्यादा रोगी का विवरण बन जाता है.

इस तरह, मानसिक विकलांगता वाले कैदी खुद ही लक्षण बन जाते हैं - अप्रासंगिक और अनुपयुक्त.

मैंने एक बार एक ऐसे ही केस पर काम किया जहां कैदी अपने एक दोस्त के बारे में बताता था जो रेडियो के माध्यम से उससे बातें किया करता. असल में वह जिस दोस्त की बात कर रहा था एक काल्पनिक व्यक्ति था लेकिन उसके लिए तो वह बिल्कुल वास्तविक व्यक्ति ही था. मज़े की बात यह कि वह आवाज़ उसकी मदद भी किया करती थी. उसने बताया कि अक्सर यह दोस्त उसे नहाने और खाना खाने जैसे बुनियादी काम करने के लिए कहता था. पर हालांकि उसके किसी भी जेल मेडिकल रिकॉर्ड में एक बार भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया गया था. जेल मानसिक स्वास्थ्य देखभाल में उसके साथ जुड़ाव का एकमात्र रूप दवा की खुराक तय करना था, उसकी आंतरिक दुनिया से जुड़ना नहीं था क्योंकि वह अप्रासंगिक था. अन्य जेलों में भी यही स्थिति है. मानसिक रूप से विकलांग कैदियों, विशेष रूप से मनोरोग वार्ड में भर्ती कैदियों को दवाएं तो दी जाती हैं, लेकिन जो कुछ भी वह बताते हैं अगर अन्य लोगों की वास्तविकता से मेल नहीं खाता है तो अप्रासंगिक करार देकर खारिज कर दिया जाता है.

मैं शोध के दौरान जिन जेलों में गई, उनमें से एक में मुझे इस बात को लेकर बहुत निराशा महसूस हुई कि यहां इन कैदियों की कहानियां या बातें सुनने में किसी की दिलचस्पी नहीं थी. मैंने इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की कि आखिर इस चीज़ ने मुझे इतना प्रभावित क्यों किया, और वर्तमान में मेरा मानना है कि जब मैं बहुत बीमार थी तो मुझे शायद यह डर रहा होगा कि लोग मुझे भूल जाएंगे या मेरे वहां रहते हुए भी कोई मुझ पर ध्यान नहीं देगा.

यह डर दरअसल अनदेखी करने और भुला दिए जाने का डर था.

इसने मुझे याद दिलाया कि उन दिनों कैसे कभी-कभी मेरा दिल बहुत बिखरा-बिखरा सा महसूस करता था और कभी-कभी ऐसा लगता कि इन बिखरे टुकड़ों को इकट्ठा करना है और उन्हें फिर से जोड़ना है लेकिन वह सही तरीके से जुड़ ही नहीं पाते थे और समझ नहीं आता था कि किससे मदद मांगें. लेकिन आप कोशिश करते रहते हैं और घबराहट बढ़ती जाती है, आप सांस नहीं ले पाते और अंत में आपका दम घुटने लगता है. तो ऐसी हालत में आप कोशिश करना बंद कर देते हैं और बस बैठ जाते हैं. कभी आप रोते हैं, और कभी थक-हार कर सो जाते हैं. यह एक ऐसा एहसास है जो मुझे डराता है. कभी-कभी ऐसा ही मुझे महसूस होता है. मैं इसी तरह के अकेलेपन और छोड़ दिए जाने के अहसास की परित्याग की बात कर रही हूं.

द थर्ड आईः आपके हिसाब से वह कौन से उपाय हैं, जिनकी मदद से जेल सिस्टम को थोड़ा मानवीय बनाया जा सकता है ताकि मानसिक विकलांग कैदियों की ज़िंदगी थोड़ी बेहतर हो सके?

मैत्रेयीः मेरा मानना है कि मानसिक विकलांगता वाले कैदियों का अपने जीवन पर पूरा अख्तियार होना चाहिए और उन्हें अपने जीवन के पूर्ण प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने के लिए संस्थागत बदलाव की ज़रूरत है. मैं यह नहीं कह रही हूं कि मदद और देखभाल की ज़रूरत नहीं है. ज़रूरत है, लेकिन ऐसा न हो कि मदद और देखभाल दमघोंटू बन जाए और प्रशासन के लिए दिखावे का तामझाम बनकर रह जाए. कैदियों को जिस तरह का मानसिक स्वास्थ्य उपचार और देखभाल प्रदान की जाती है, उसमें कम से कम आज के समय की समकालीन नैदानिक नैतिकता का पालन किया जाना चाहिए.

इसमें प्रभावी मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए आपसी विश्वास का होना एक ज़रूरी शर्त है.

लेकिन देखभाल करने वाले कैदियों, जेल और कल्याण अधिकारियों में उचित कौशल की कमी है. उचित प्रशिक्षण न मिलने के कारण अक्सर जो उन्हें सही लगता है, वे वही करते हैं. और जो वो करते हैं वो वास्तव में मुश्किलों को बढ़ाने वाले, नुकसान पहुंचाने वाले और नकारात्मक होते हैं.

उदाहरण के लिए, मैंने अक्सर देखा है कि अगर मानसिक विकलांगता वाला कोई कैदी आक्रामक हो रहा है, तो उसे घंटों हथकड़ी लगा दी जाती है या बलपूर्वक रोका जाता है या बेहोशी का इंजेक्शन दे दिया जाता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्हें ऐसे में आक्रामकता को कम करने की डी-एस्केलेशन तकनीकों का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है. आक्रामकता को रोकने के लिए कैदी को हथकड़ी लगाना या बेहोश करना वास्तव में एक सहज बुद्धि पर आधारित उपाय है, यह साक्ष्य-आधारित देखभाल की तकनीक नहीं है, और निश्चित रूप से अगर बार-बार और लम्बे समय तक यह तरीका अपनाया जाता है तो इसका रोगी पर बुरा असर पड़ेगा, क्योंकि यह हिंसक तरीका है.

कैदियों को उनके रोग की जानकारी देना, इलाज से जुड़े जोखिम और फायदे बताना, इलाज के दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट) क्या-क्या हो सकते हैं यह बताना या दुष्प्रभावों पर नज़र रखना और इनसे जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से लेना – जैसी देखभाल की बुनियादी ज़रूरतों का ज़्यादातर जेलों में ख्याल नहीं रखा जाता है. यह देखभाल की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण चीज़ें हैं लेकिन ज़्यादातर जेल इसे गैरज़रूरी मानती हैं. कभी-कभी तो यह भी कह देते हैं कि ऐसा करना संभव ही नहीं है.

प्रिस्क्रिप्शन की कॉपी या हेल्थ रिकॉर्ड जैसी साधारण चीज़ें भी कैदियों के पास नहीं होती हैं लेकिन इस बारे में पूछने पर जेल का जवाब कभी-कभी बहुत ही हैरान करने वाला होता है. वह अजीब-अजीब से कारण बताते हैं, जैसे – कैदी इसे खो देगा या कैदी इसका इस्तेमाल अपनी रिहाई के दावे को मज़बूत बनाने के लिए करेगा.

यह कहने को सिर्फ एक कागज़ का टुकड़ा है लेकिन यह किसी इंसान की ज़िंदगी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है.

नेटफलिक्स शो 'ब्लैक वॉरेंट' का पर्दे के पीछे का एक दृश्य. चित्र साभार: instagram.com/motwayne

द थर्ड आईः ज़्यादातर जेलों में संसाधनों की भारी कमी है, उन्हें सीमित संसाधनों में ही काम करना पड़ता है, इस बारे में आप क्या सोचती हैं, आपका क्या सुझाव है?

मैत्रेयीः तो और ज़्यादा संसाधन जुटाना चाहिए, और जो संसाधन पहले से मौजूद हैं उनका अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करना चाहिए. उदाहरण के लिए, जेल में एक संसाधन ऐसा है जिसकी कभी कमी नहीं होती, यह संसाधन जेल के कैदी हैं. अपने रोज़मर्रा के बहुत से कामकाज के लिए जेलें कैदियों पर ही निर्भर हैं. जैसे कि खाना बनाना, सफाई करना, बगीचे की देखभाल करना, जेल अधिकारियों के कार्यालयों में काम करना और अन्य कैदियों की देखभाल करना. अगर ऐसे कैदी जो देखभाल का काम करना चाहते हैं उन्हें मनोवैज्ञानिक प्राथमिक चिकित्सा, बेचैनी के कारणों की पहचान करने, सहकर्मी परामर्श या मानसिक स्वास्थ्य नर्सिंग आदि का प्रशिक्षण दिया जा सकता है. मुझे लगता है कि देखभाल के लिए मानव संसाधन की कमी और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ने से रोकने में आने वाली दिक्कतों का हल निकल सकता है.

प्रभावी सहकर्मी द्वारा परामर्श काउंसलिंग से जेलों में आपात स्थिति से निपटने में मदद मिल सकती है. सच तो यह है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम 2018 में, जेलों में मानसिक स्वास्थ्य सेवा के लिए सहकर्मी परामर्श को न्यूनतम मानक के रूप में प्रस्तावित किया गया है, लेकिन दुर्भाग्य से अब तक इसे लागू नहीं किया गया. यह अधिनियम है तो बहुत व्यापक, लेकिन जेल में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कैसी होनी चाहिए, इस बारे में बहुत कम बताया गया है. और तो और, जेलों ने इस पर अमल भी नहीं किया.

अभी तो जेल मानसिक स्वास्थ्य का मतलब महज़ व्यक्तियों का उपचार है. इसमें ढांचागत और प्रणालीगत समस्याओं पर कोई विचार नहीं किया गया है. न्यायालयों द्वारा अक्सर कहा जाता है कि मानसिक विकलांग कैदियों को जेल में नहीं रखा जाना चाहिए. इसके पीछे की मंशा यह होती है कि परिवार के लोग कैदी की मदद करेंगे, पर कई ऐसे मानसिक विकलांग कैदी हैं जिन्हें उनके परिवार ने छोड़ दिया है, वो कहां जाएंगे?

हमारे पास ऐसी मध्यवर्ती आवास (जैसे कि रिहैब सेंटर) और आवासीय सुविधाएं नहीं हैं जो समान रूप से जेलों से जुड़ी हों. मानसिक रूप से विकलांग कैदियों को रिहा किए जाने के बाद, सरकारी संस्थाएं यह कैसे सुनिश्चित करेंगी कि उन्हें देखभाल और इलाज जैसी सुविधाएं मिलती रहें?

ऐसे ढांचों का निर्माण करने और उन्हें मज़बूत बनाने की ज़रूरत है. स्वास्थ्य, सामाजिक कल्याण, शिक्षा, श्रम जैसे विभागों को संस्थागत उपाय के रूप में जेलों से जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के लिए ढांचागत परिस्थितियों में सुधार बहुत ज़रूरी है. अगर सभी विभागों में बेहतर तालमेल रहेगा तो न केवल जेल में, बल्कि रिहा होने के बाद जेल के बाहर भी मानसिक विकलांग कैदियों की सही तरीके से देखभाल हो सकेगी लेकिन मैं इस बात को भी रेखांकित करना चाहती हूं कि सरकारी पुनर्वास केंद्रों की हालत भी बहुत खराब है.

दिल्ली के आशा किरण गृह के बारे में हाल ही में आई खबर बताती है कि वहां रहने वाले लोगों को किस तरह की भयावह स्थितियों से दो-चार होना पड़ता है. इस तरह की खबरों से मैं उलझन में पड़ जाती हूं. मुझे लगता है कि मानसिक विकलांगता वाले ऐसे कैदियों के लिए जेलों में रहना ही बेहतर है, जिनके पास परिवार नहीं है क्योंकि जेल के अलावा जितने भी विकल्प हैं, जेल से ज़्यादा भयानक हैं.

जेलों में मानसिक स्वास्थ्य सेवा की समझ का हाल यह है कि मानसिक विकलांगता वाले कैदियों को, अपने बल पर ज़िंदगी जीने के लिए ज़रूरी कौशल दोबारा सिखाना ज़रूरी नहीं समझा जाता. ऐसे में अगर कैदियों को रिहा कर भी दिया जाए क्या हो जाएगा! रिहा होने के बाद भी उन्हें लम्बे समय तक मध्यवर्ती गृहों में हिरासत में रखना पड़ सकता है.

यह भी उनकी रिहाई में एक बाधा ही है, क्योंकि बरसों तक जेल में रहने के कारण किसी ऐसे व्यक्ति पर उनकी निर्भरता बढ़ जाती है जो उनकी देखभाल करता हो. उन्हें जीने का कौशल तो सिखाया ही नहीं जा रहा है. चूंकि उन्हें मनोरोग वॉर्ड में रखा गया है तो न तो वे शिक्षा हासिल कर सकते हैं और न ही किसी तरह का कोई हुनर ही उनको सिखाया जा सकता है.

इसलिए यह एक अहम सवाल है कि देखभाल का मकसद क्या है, लक्ष्य क्या है? इस सवाल का जवाब तलाशने की ज़रूरत है.

मैं समझती हूं कि मानसिक स्वास्थ्य सेवा का लक्ष्य रिकवरी और सशक्तीकरण होना चाहिए. लोग मानसिक विकलांगता वाले कैदियों को सशक्त बनाने के पक्ष में नहीं होते. मैं यह देख-समझ सकती हूं, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि मानसिक विकलांग कैदी के स्वस्थ होने की यही एक कुंजी है. मानसिक विकलांगता वाले कैदियों की एजेंसी, स्वायत्ता, सहमति और सशक्तीकरण को लेकर एक बात जो आमतौर पर कही जाती है, वह यह कि उनके बारे में क्या सोचना उनका तो ‘हकीकत की दुनिया से कब का नाता टूट चुका है.’

मुझे लगता है कि यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि मानसिक विकलांगता वाले कैदियों के बारे में हमारी स्वाभाविक सोच यह होती है कि इतने सालों तक जेल में रहा है, वहां दवा (कुछ जेलों में तो दवा तक पहुंच भी आसान नहीं है) तो मिली होगी, लेकिन मनोसामाजिक मदद नहीं मिली होगी! मुझे लगता है कि जेलों में अगर हम ज़रूरी और प्रभावी मनोसामाजिक सहायता उपलब्ध कराते हैं तो यह सवाल उठेगा ही नहीं.

मुझे यह भी लगता है कि हम इसकी रोकथाम के उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं. मेरा मतलब यह है कि सभी कैदी एक जैसे नहीं होते, ज़ाहिर है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी ज़रूरतें भी एक जैसी नहीं होंगी. उदाहरण के लिए, विचाराधीन कैदियों, वृद्ध कैदियों और महिला कैदियों की मानसिक स्वास्थ्य सहायता की ज़रूरतें अलग-अलग होंगी. लेकिन हमारे पास इस तरह के कार्यक्रमों का अभाव है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में हमारी समझ बीमारी तक ही सीमित है. 

मैं अभी और भी बहुत कुछ कह सकती हूं लेकिन इतना कहना ही काफी होगा कि जेल में मानसिक स्वास्थ्य सेवा में वास्तव में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है. टुकड़ों में बदलाव से कुछ हासिल नहीं होने वाला. जेल में मानसिक स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए कैदियों, विशेष रूप से मानसिक विकलांग कैदियों की सक्रिय भागीदारी वाली एक सुनियोजित, विकासशील और समयबद्ध योजना को लागू करने की ज़रूरत है. अभी ज़्यादातर जेलों में जिस तरह की मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान की जा रही है, वह वास्तव में पुराने तर्ज़ के पागलखानों की नकल है. हम बदलाव की शुरुआत, मानसिक रूप से विकलांग कैदियों की बातें सुनने और उनकी दुनिया को नकारने की बजाय समझने की कोशिश से कर सकते हैं. 

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.

मैत्रेयी मिसरा, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली द्वारा चलाए जा रहे आपराधिक न्याय कार्यक्रम प्रोजेक्ट 39 ए की प्रमुख हैं. यह कार्यक्रम मृत्युदंड से जुड़े मिटिगेशन प्रैक्टिस के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य और आपराधिक न्याय के विषयों पर काम करता है. वे प्रोजेक्ट 39 ए द्वारा जारी रिपोर्ट ‘डेथवर्दी:ए मेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव ऑफ द डेथ पेनल्टी’ की प्रमुख लेखिका भी हैं.

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