एक नदी थी, दोनों किनारे थाम कर बैठी थी

एक रचना, एक मेंटर और एक मेंटी

“इससे पहले नदी के साथ मेरा कोई रिश्ता नहीं था. मैं तो पहली बार नदी देख रही थी.”

तबस्सुम को फोटो खींचना और वीडियो बनाना बहुत अच्छा लगता है. दुनिया को अपने फोन के कैमरे से देखना उसे बहुत पसंद है, जो उसने एक डिजिटल एजुकेटर के रूप में लर्निंग लैब के 18 महीने के कोर्स के दौरान सीखा. डिजिटल एजुकेटर कार्यक्रम ‘द थर्ड आई लर्निंग लैब’ का एक पाठ्यक्रम है जिसमें तकनीकी क्षमता विकास, नज़रिया निर्माण और कला-आधारित शैक्षिक प्रक्रियाएं शामिल हैं.

यह नए तरीके से शिक्षा और साक्षरता को रचने का प्रयास है जहां महसूस करने, देखने, सुनने एवं लिखने को महत्त्व दिया जाता है. हमारी नज़र में अनुभव और संवेदना का यह इस्तेमाल तकनीक संचालित आज की दुनिया में एक सशक्त तरीके से जीने के लिए आवश्यक है.

वीडियो बनाते हुए तबस्सुम के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या थी? वो थी जगह. “जहां मैं अपने परिवार और पड़ोसियों की रोक-टोक के बिना सुकून से शूटिंग कर सकूं लेकिन ऐसी किसी जगह को ढूंढ पाना सबसे मुश्किल काम था.”

अगर आपको वो जगह मिल जाएगी तो आप क्या शूट करेंगी?

“खुला आसमान. खामोशी. वो पल, जगह जहां मैं ठहर सकूं, उसे महसूस कर सकूं. नाकि सिर्फ देखने भर का काम करूं.“

तबस्सुम की यही खोज उसे लखनऊ शहर के बाहरी इलाके की तरफ लेकर गई. “लर्निंग लैब में जब हम अपनी रील पर काम कर रहे थे, उस वक्त हमारी मेंटर ने हमसे कहा कि हम एक काल्पनिक प्रोफाइल के बारे में लिखें जिसे हम बनाना चाहते हैं, जहां हम पूरी तरह आज़ादी महसूस कर सकते हैं. लेकिन जब मैं सोचने लगी तो मैं, खुद के बारे में नहीं लिख सकी. मैंने एक ऐसी जगह के बारे में लिखा जहां मैं अपनी सारी परेशानियों को भूल चूकी हूं, वो चीज़ें जो शादी के बाद मुझे झेलनी पड़ीं. मैं अपनी कल्पना में इन परेशानियों से दूर किसी जगह जाना चाहती थी.”

तबस्सुम की एक दोस्त ने उसे नदी के बारे में बताया था. “ नदी के पास पहुंचकर जो पहली चीज़ मैंने देखी वो था कूड़ा. मैंने सोचा अब मैं क्या शूट करूं! पर फिर मैं एक जगह शांति से बैठकर आसपास की हलचलों को देखने लगी, उन्हें महसूस करने लगी. मैंने नदी को ध्यान से देखा, वहां मौजूद कुछ मछुआरों को देखा, एक नाव दिखी जो लोगों को नदी के एक कोने से दूसरे कोने तक लाने-लेजाने का काम रही थी. एक अस्थाई ब्रिज जो तेज़ बारिश में बह कर गायब हो चुका था. अब नाव ही सहारा है, एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंचने का. दूसरे दिन मैंने शूटिंग करना शुरू किया. जिस दिन मैं नाव पर बैठी उस दिन मैंने नदी के साथ जुड़ी तमाम कहानियों को भी जाना. मैं लगातार शूटिंग करती रही. नदी, मेरी कहानी का मुख्य किरदार बन गई, और उससे जुड़ी कहानियां उसके साथ ही मेरे पास चली आईं.”

किसी चीज़ को देखना और किसी चीज़ का अवलोकन करना, इन दोनों में क्या अंतर है?

“जब हम किसी चीज़ की तरफ बहुत ध्यान से, गहराई से देखते हैं और जो दिखाई दे रहा है उसमें कुछ खोजना चाहते हैं,तब वो हमें रोचक लगने लगता है. जब हम उसे देख रहे थे तब हम क्या सोच रहे थे? अगर किसी चीज़ का अर्थ उसे शूट करते वक्त बदलता नहीं है, तो फिर उसे शूट करने का मतलब ही क्या?” तबस्सुम पूछती हैं.

इस रचनात्मक प्रक्रिया पर मेंटर्स नोट

“वो क्या तरीके होते हैं जिसके ज़रिए आप अपने छात्र को सटीक तहकीकात, सवाल या नज़र की तरफ मोड़ते हैं, जो असल में उनके खुद के भीतर होती है?” ‘द थर्ड आई लर्निंग लैब’ कार्यक्रम प्रमुख रूचिका नेगी सवाल करती हैं, “या फिर, आप इसे कैसे करें कि ऐसा करते हुए वे अपने आप से कहीं दूर न चली जाएं या अपने अर्थों — अपनी सच्चाइयों और खोजों, अपनी झिझक — से उनका भरोसा न उठ जाए?”

तबस्सुम लर्निंग लैब के 18 महीने के डिजिटल एजुकेटर्स कार्यक्रम का हिस्सा थीं. वो ऑनलाइन चलने वाले डिजिटल एजुकेटर के पहले कोहोट से जुड़ी थीं. “तबस्सुम द्वारा बनाई गई जादुई, तरंगों से भरपूर, और पूरी तरह अपने मोहपाश में जकड़ लेने वाली इंस्टाग्राम रील की चर्चा बार-बार हमारी बातचीत में होती रहती थी.” रूचिका ने बताया, “दूसरों की नज़र में दिखाई देना – ये एक ज़ाहिर इंसानी चाह है. बावजूद इसके, तबस्सुम को पता था कि अपने बारे में ऑनलाइन कुछ भी साझा करना उसके लिए मुमकिन नहीं, क्योंकि वो शादीशुदा है.”

लर्निंग लैब में इस उपभोक्ता प्रधान दुनिया में कुछ रचने की रणनीतियां बनाई जाती हैं. रूचिका कहती हैं, “हम अपनी सीमाओं, अपने डर, अपने ऊपर थोपी गई या ओढ़ी गई चीज़ों के बीच कुछ रचनात्मक कैसे रच सकते हैं? ये जो निराशाजनक प्रतीत होता है, हम उसमें अर्थ कैसे निकाल सकते हैं? अगर आप दिखाई नहीं दे सकते, तो आप क्या दिखाएंगे? ये सारे सवाल नारीवादी कोशिशों के बुनियादी सवाल हैं. हमने बहुत सारे नोट्स बनाए.” रूचिका आगे कहती हैं, “असल में तबस्सुम ने कहा कि वो शांति से शूट करना चाहती है, “मैं समय लेकर, बिना किसी रूकावट के शूट करना चाहती हूं. जहां न कोई पड़ोसी मेरे कंधे के पीछे से ताका-झांकी करे और जहां न मेरे पति लगातार मुझ पर निगरानी रखें और शिकायत करते रहें कि मैं हर वक्त काम क्यों करती रहती हूं. मैं बस शूट करना चाहती हूं, बस इतना ही.”

कैमरे से उसे हमेशा से प्यार है.

बतौर मेंटर रूचिका कहती हैं कि, “तबस्सुम को अब एक अभ्यास की दरकार है. किसी एक चीज़ पर ध्यान और उसमें डूब जाना, जहां वो तन-मन से आज़ाद महसूस कर सके, फुर्ती और जिज्ञासा के साथ उससे जुड़ सके.” रूचिका बताती हैं, “असल में ये वो क्षण होते हैं जिसका मेंटर्स को इंतज़ार होता है. जानी पहचानी चीज़ें उसे सीमित करती हैं. शहर से बाहर जो नदी थी वो उसके लिए नई संभावनाओं से भरी हुई थी. इसके लिए वो तैयार थी. धीरे-धीरे, कैमरे ने उसके शरीर और मन को एक ही क्रिया के ज़रिए संतुलित करना शुरू किया — लगातार और जिज्ञासु होकर देखना. अब कैमरा उसके लिए अपनी इच्छाओं के साथ लेखने का माध्यम बन गया, उसे अलग-अलग दिशाओं में खींचने लगा— जैसे कोई मिट्टी के साथ करता है — अब वह कौन-कौन से नए आकार और रूप खोजेगी?”

तबस्सुम अंसारी हुसैनाबाद, लखनऊ की रहने वाली हैं. उन्हें फ़िल्म और फोटो बनाने में बहुत रुचि है. वास्तविक और काल्पनिक सोच में क्या रिश्ता है, ये एक दूसरे को कैसे निखारते हैं, इनके खेल से कैसे नए-नए मायने उभर कर आते हैं – इन सब प्रक्रियाओं और सवालों पर तबस्सुम का रियाज़ जारी है. तबस्सुम सद्भावना ट्रस्ट से जुड़ी हैं और द थर्ड आई की पूर्व डिजिटल एजुकेटर हैं.

यह भी देखें

Skip to content