पानी की कतार

‘रोको मत टोको मत, सोचने दो इन्हें सोचने दो, होय टोको मत इन्हें सोचने दो’

निरंतर के ट्रेनिंग सेंटर ‘तरंग में जब बच्चों को यू ट्यूब पर उपलब्ध कुछ शॉर्ट वीडियोज़ दिखाए गए तो सभी ने एक स्वर में कहा, “हमें भी फिल्म बनानी है.”

ये बोलना तो आसान था. आखिर एक फ़िल्म बनाने के लिए क्या चाहिए? लाइट्स, एक्शन, कैमरा और बहुत सारा जुनून! और देखते ही देखते कुछ महीने के बाद वो बच्चे अपनी फिल्म के साथ तैयार हैं आपको हैरान कर देने के लिए.

मोबाइल कैमरा पर तैयार इन बच्चों की पहली फिल्म ‘पानी की कतार’ में कोई हिरोइन या हीरो नहीं है और न ही बैकग्राउंड में कोई वॉयेलिन बजाता हुआ दिखाई देता है. बल्कि ये फिल्म इन बच्चों के जीवन की एक अहम सच्चाई को सामने लाती है. वज़ीरपुर में रहने वाले 20 बच्चों की इस टोली ने सुबह 6 बजे से लगने वाली पानी की कतार को अपनी कहानी का पात्र बनाया. बच्चों के जोश और उत्साह ने इस नीरस कतार को एक सुर में पिरो कर उसे कैमरे में कैद कर लिया है.

इस फिल्म को बनाने में द थर्ड आई की टीम ने लगातार ना सिर्फ इन बच्चों का मनोबल बढ़ाने का काम किया है बल्कि मोबाइल कैमरा से शूट करने की बारीकियों से भी बच्चों का परिचय कराया है. हमारे परामर्शदाता महीनों इन बच्चों के साथ उनकी गली में घूमते, उनके घर-परिवार और यादों का हिस्सा बनते रहे हैं.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

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