मेरी मां का रिपोर्ट कार्ड

एक युवा फ़िल्‍मकार नेपाल में क्‍लासरूम की तरफ लौट रही महिलाओं पर फ़िल्म बनाते हुए व्यक्तिगत स्मृतियों की तरफ लौटती हैं

शुवांगी खड़का की फ़िल्म 'एज ऑफ़ लर्निंग' से एक चित्र. चित्र साभार : प्रकाश चंद्र जिम्बा

नेपाल की रहने वाली शुवांगी खड़का, थर्ड आई ‘एडु लोग’ प्रोग्राम का हिस्सा हैं. हमारे शिक्षा अंक से जुड़े इस कार्यक्रम में भारत, नेपाल और बांग्लादेश से 13 लेखक एवं कलाकारों ने भाग लिया है. ये सभी प्रतिभागी शिक्षा से जुड़े अपने अनुभवों को नारीवादी नज़र से देखने का प्रयास कर रहे हैं.

इस प्रोग्राम के दौरान शुवांगी ने द थर्ड आई के साथ मिलकर नेपाल में प्रौढ़ शिक्षा से जुड़ी दो एकल महिलाओं की शिक्षा को लेकर एक लघु-डॉक्यूमेंट्री बनाई है. उनकी फ़िल्म ‘ऐज ऑफ लर्निंग’ फिलहाल एडिटिंग टेबल पर है. इस लेख में शुवांगी हमें इस फ़िल्म को बनाने के अपने अनुभवों के साथ, उन महिलाओं से मुलाकात के खूबसूरत पलों को साझा कर रही हैं.

पिछले साल की बात है. मैं, हर वक्त कोशिश करती रहती कि मां को बिठाकर तसल्ली से उनसे बात कर सकूं. लेकिन, घर के कामों में वो इस तरह उलझी रहतीं कि फ़ुर्सत से बैठकर बात भी नहीं कर पातीं. कई दिनों तक मैं उनके पीछे-पीछे भागती रही. पर, कभी मुस्कुरा कर तो कभी मुझे टाल कर वो दूसरे कामों में लग जातीं. आखिर एक दिन मुझे टालने के सारे पैतरों को छोड़ वो मेरे पास आकर बैठ गईं.

हम दोनों साथ बैठे और मैंने उनसे पहला सवाल पूछा. ये कुछ-कुछ वैसा था जैसे बचपन की एक याद मेरे सामने आकर बैठ गई हो…

“आपने अपने उस पुराने स्कूल में जाना छोड़ क्यों दिया?”

बचपन की स्मृतियां अब बिलकुल धुंधली हो चुकी हैं. लेकिन, एक याद जो मेरे ज़ेहन में घर कर चुकी है वह है कि मैं स्कूल से लौटकर घर पहुंची थी. कमरे में मुझे मां का रिपोर्ट कार्ड पड़ा हुआ दिखाई दिया. वो अपनी क्लास में दूसरे स्थान पर आई थीं. अब वो पहला दर्जा पास कर, दूसरे दर्जे में जाने को तैयार हैं. एक ऐसे पिता की बेटी जिन्होंने हमेशा हमें क्लास में फर्स्ट रैंक लाने के लिए प्रेरित किया, उसे अपनी मां के रिपोर्ट कार्ड में सेकेंड रैंक देखकर बहुत खुशी नहीं हुई थी. उस वक्त मैं 12 साल की थी.

ये बात शायद थोड़ी पुरानी है जब मैं और मेरी मां, हम दोनों एक ही समय पर अपने-अपने स्कूल जाया करते थे. मुझे बिलकुल नहीं याद कि कैसे मेरी मां घर के बच्चों और बड़ों को अपने स्कूल, दफ्तर या काम समय पर भेजने के बाद पढ़ने की अपनी ललक को पूरा करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा स्कूल जाती थीं. मेरे ज़ेहन में इसकी कोई याद नहीं है. इसलिए सालों बाद मैंने उन्हें पास बिठाकर पूछा – उस समय की कौन सी स्मृतियां उन्होंने संजो रखी हैं, उन्हें कैसा लगता था और क्यों वो स्कूल जाना चाहती थीं? फिर उन्होंने जाना क्यों बंद कर दिया?

“तो, मेरे स्कूल में एक पुरुष टीचर हमें पढ़ाया करते थे, जो संयोग से हमारे घर के पास ही रहते थे. एक दिन हम महिलाओं को पढ़ाते हुए थक कर उन्होंने कहा – आप जैसी बुज़ुर्ग महिलाओं को पढ़ाने से क्या फायदा? आपको पढ़ना ही क्यों है? मुझे लगा ये सवाल मेरे लिए ही है. फिर उसके बाद तुम्हें तो मालूम है घर में इतना काम होता है, कितनी सारी ज़िम्मेदारियां हैं जो कभी खत्म ही नहीं होतीं.” बात करते हुए मां ने बहुत ज़्यादा कुछ नहीं कहा. मैं भी बताने के लिए उनपर ज़ोर नहीं दे रही थी.

मुझे पता था कि ज़रा सी भी असुविधा का अहसास होते ही वे अपने दिल की बात कहना शायद बंद कर देंगी. असल में, घर में सभी स्कूल जाने की उनकी इच्छा को मनबहलाने का काम समझते थे. ये उनकी ज़रूरत है, ऐसा कोई नहीं मानता था.

कुछ सालों बाद एक बार फिर उन्होंने स्कूल जाने की सोची, पर, काठमांडू की घुमावदार संकरी गलियों में कहीं दबे-छुपे ढंग से महिलाओं के लिए बनाया गया वो सेकेंड्री स्कूल, वहां से उठकर कहीं और जा चुका था. एक स्कूल जिसके बारे में ऑनलाइन भी ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं थी, उसके बारे में ये पता लगाना कि अब वो कहां चलता है, बहुत ही मुश्किल काम था. वो भी मेरी मां के लिए जिनके पास एक स्मार्टफोन भी नहीं था. आखिर, उन्हें स्कूल का नया पता मालूम नहीं चल सका. पर वो हमेशा उसके बारे में जानने की सोचती रहतीं…

उस दिन बातचीत के बाद जब मैंने ऑनलाइन स्कूल के बारे में पता लगाने की कोशिश की तो एक क्लिक में ही गूगल पर सारी जानकारियां उपलब्ध हो गईं. इसके साथ ही यह भी पता चला कि शहर में इस तरह के और भी स्कूल हैं. फिर, मैंने उन महिलाओं के बारे में जाना जो स्कूल जाना चाहती थीं लेकिन घर के नज़दीक स्कूल न होने की वजह से वो नहीं जा सकीं. ठीक उसी वक्त मेरी नज़र गोरखा ज़िले के एक स्थानीय अखबार में पर गई जिसमें एक महिला की कहानी छपी थी जो छोटे बच्चों के साथ उनकी क्लास में पढ़ाई करती हैं. अखबार में छपी तस्वीर काफी धुंधली थी पर, खबर एकदम साफ़ – एक प्रौढ़ महिला बच्चों के साथ उनकी क्लास में बैठकर पढ़ाई कर रही है.

काठमांडू से 150 किलोमीटर दूर गोरखा में मेरी मुलाकात 48 वर्षीय बिषणुमाया गुरुंग से हुई जो मिडिल इस्ट में घरेलू कामगार की अपनी नौकरी को छोड़ नेपाल वापस लौट आई हैं और अब बच्चों के स्कूल में पढ़ाई कर रही हैं. यहां वो दूसरों के खेतों में काम करती हैं जिससे रोज़ का गुज़ारा चल सके. काम के बाद अपना सारा खाली समय वो पढ़ाई करने में लगाती हैं. जब मैं उनसे मिली तो मैंने उन्हें काठमांडू में महिलाओं के लिए समर्पित प्रौढ़ स्कूल के बारे में बताया. वो बहुत खुश हुईं. पर उन्होंने कहा कि काश! वो वहां पढ़ पातीं. उन्होंने कहा, “मैं शहर में रहकर पढ़ाई नहीं कर सकती. वहां किराया बहुत महंगा होगा.”

स्कूल में अपने सहपाठियों के साथ बिषणुमाया गुरुंग (48). चित्र साभार : प्रकाश चंद्र जिम्बा
यहां वो अपनी शादीशुदा बेटी के घर के बहुत पास रहती हैं. पर वो इस बात से नाराज़ थीं कि उनकी बेटी पढ़ाई में उनकी कोई मदद नहीं करती. बेटी ने शादी के लिए 9वीं में पढ़ाई छोड़ दी थी. अब उसका सारा ध्यान अपने बेटे को पढ़ाने में ही लगा रहता है.

कभी-कभी मैं सोचती हूं कि अपने माता-पिता को उनकी निर्धारित भूमिकाओं से बाहर एक व्यक्ति के रूप में देखना कितना मुश्किल है? एक व्यक्ति जिसकी अपनी इच्छाएं हैं, अपनी ख्वाहिशें हैं…

अब मैं खुद अपने बारे में सोचती हूं कि जब मां मुझे कुछ करने को कहती है तो मैं कैसे प्रतिक्रिया देती हूं. अभी, हाल ही में उनके लिए एक स्मार्टफोन खरीदा गया है जिसे चलाने में उन्हें बहुत सारी दिक्कतें आ रही हैं. इसलिए, अक्सर, वो मुझे फोन कर फेसबुक पर किसी के लिए जन्मदिन की शुभकामनाएं लिखने को कहती हैं (ऐसा वो लगभग हर दिन करती हैं) या कभी यू-ट्यूब पर कमेंट चेक करने को बोलती हैं. और कभी एक पेंसिल और नोटबुक लेकर मेरे पास आती हैं, जिसे वो हमेशा अपने तकिए के नीचे रखती हैं और मुझसे कहती हैं, “इसमें मेरे लिए कुछ लिख दो, मैं प्रैक्टिस करूंगी.” कभी तो मैं उनकी बात सुनकर मदद कर देती हूं लेकिन, बहुत बार मैं उन्हें झिड़क कर मना भी कर देती हूं.

एक बार फिर मैं काठमांडू में घूम रही हूं. इस बार मैं पलहामू शेरपा से मिलने आई हूं. उनकी उम्र 66 साल है. ऐसी उम्र में जहां नगरपालिका में दर्ज अपने नाम को बताने में भी उन्हें बहुत मुश्किल होती है, वो अपने गांव की वॉर्ड मेम्बर चुनी गई थीं. पांच साल बाद उनका कार्यकाल खत्म हो चुका है. अब वो अपने परपोते के साथ स्कूल जाती हैं. पूरे समय जब मैं स्कूल में उनके रूटीन को फ़िल्म कर रही थी मेरे दिमाग में यही गूंज रहा था कि क्या उनका पोता जब भी या कभी भी इन तस्वीरों और इस फ़िल्म को देखेगा तो क्या वो ये समझ पाएगा कि उसकी परदादी कितनी ज़बरदस्त इच्छाशक्ति वाली महिला है.

पलहामू शेरपा (66) को अकेले बैठकर पढ़ते रहना पसंद है. चित्र साभार : प्रकाश चंद्र जिम्बा

पलहामू, मुझसे अक्सर बिषणुमाया के बारे में पूछती रहती हैं. जब मैं उन्हीं की तरह पढ़ाई करने वाली दूसरी औरतों के बारे में बताती हूं तो उनकी आंखों में एक अलग तरह की चमक दिखाई देती है. ये दृढ़ संकल्पी एकल महिलाएं जिस शिद्दत के साथ बच्चों के स्कूल में पढ़ने जाती हैं, वो तो अपने आप में बहुत खास है. वो बस इतना चाहती हैं कि उन्हें समझने वाले लोग हों, जो यह समझें कि वो इस यात्रा में अकेली नहीं हैं.

इस फ़िल्म को बनाने की प्रक्रिया में मैं उनके साथ क्लासरूम में घंटों बैठकर फ़िल्म के लिए ज़रूरी जानकारियां अपनी नोटबुक में लिखती रहती थी. घर लौटकर जल्द ही मुझे समझ आया कि ये तो ज़रूरी नोट्स हैं जिनसे मैं अपनी मां की मदद कर सकती हूं. इसकी शुरुआत मैं हर हफ़्ते उन्हें पढ़ाने से कर सकती हूं, या कम से कम गुड मॉर्निंग और गुड आफ्टरनून जैसे अंग्रेज़ी संबोधनों को कहकर तो कर ही सकती हूं. मेरी मां सीखने में बहुत अच्छी हैं. हर दिन वो घंटों अखबार पढ़ती हैं. थोड़ा बहुत गुणा-भाग भी कर लेती हैं. मुझे उस दिन का इंतज़ार है जब मैसेज लिखने के लिए उन्हें मुझे कॉल न करना पड़े. मुझे इंतज़ार है उस दिन का जब वो गूगल पर अपने उस सपने का पता खोज लें जिसे उन्होंने बरसों पहले छोड़ दिया था.

अगले कुछ दिन हम फ़िल्माए गए वीडियो को देखते रहे. अब एक जादू सा होता है और कई घंटों के इस वीडियो फूटेज में दिखाई दे रही महिलाओं की बातें नए सिरे से हमारे सामने खुलने लगती हैं. शूट के दौरान कुछ बातें जो हमने गलत सुन ली थीं या कुछ हाव-भाव जिसे हम समझ नहीं पाए थे, वो सब अब धीरे-धीरे खुलने लगे हैं. कुछ बातें, कुछ ऐसे सच जिसे शूट करने से पहले हमने सोचा भी नहीं था. 

जल्द ही हम उनके जीवन के बहुमूल्य सच को दुबारा गढ़ने जा रहे हैं, शायद शुरुआत में जैसा सोचा था उससे बिलकुल अलग. शायद डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाना भी ऐसा ही होता है – किसी विषय को उसकी संपूर्णता में देखना, पूरा सच जानना. हो सकता है कि देखने के इस नए तरीके की तह पर जाने पर हमारी मुलाकात सीखने के नए तरीकों से हो जाए. 

डेस्कटॉप पर फ़िल्म की एडिटिंग करते हुए मैं इन औरतों की ज़िंदगी को अब ज़्यादा करीब से समझने लगी थी. ठीक उसी पल में, मैं अपनी मां को भी एक अलग नज़र से देखने की कोशिश करने लगी. मां की छवि से अलग हटकर एक व्यक्ति के रूप में उन्हें देखने की कोशिश ने हमारे रिश्ते को एक सार्थक मोड़ दिया. शूट से लौटकर मेरी कहानियों में जब वे इन औरतों के बारे में मुझसे जानतीं तो वो बहुत उत्साहित होतीं. उसके बाद वो खुद के बारे में भी बहुत सारी बातें बतातीं. उन्हें इस तरह देखकर जितनी मुझे खुशी होती, मेरे ख्याल से उन्हें मुझे इस तरह फ़िल्म बनाते हुए, अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करते देखकर ज़्यादा खुशी होती है. 

उम्मीद है कि इस फ़िल्म की स्मृतियों में एक-दूसरे को नई रौशनी में देखने की हमारी कोशिश, एक दूसरे से बात करने के नए तरीके और साथ मिलकर सपने देखने की खुशियों को टांक सकेंगे.

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.

शुवांगी खड़का काठमांडू, नेपाल में एक स्वतंत्र लेखक और फिल्म निर्माता हैं.

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