सक्षमतावाद और मेरिट का जंजाल

मेरिट का आधार लोकतांत्रिक और बौद्धिक होता है लेकिन विकलांगता के संदर्भ में देखें तो क्या पता चलता है?

चित्रांकन: रितिका गुप्ता

इस लेख में मेरा फोकस योग्यतावादी (मेरिटोक्रेसी) अपेक्षाओं पर है जिसका शिकार हम सभी को होना पड़ता है.

‘हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में’ कॉलेज कैम्पस के भीतर ऐसे स्लोगन वाले टी-शर्ट पहने विद्यार्थी आसानी से दिखाई दे जाते हैं. मुझे लगता है कि पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान ऐसे स्लोगनस ने मेरे कैम्पस में अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है. मेरी नज़र में इसका कारण फाइनल इग्ज़ैम है, जिसका वक्त बहुत नज़दीक आ पहुंचा है.

कॉलेज कैम्पस में छात्रों की टी-शर्ट पर लिखे इन स्लोगनस की व्याख्या करने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक की ज़रूरत नहीं है, कि उनकी दुनिया किस चीज़ से बनी है. मैं जिस कैम्पस में रहती और पढ़ाती हूं, उसमें स्नातक करने आए छात्रों की संख्या सबसे ज़्यादा है. यहां वैसे छात्रों को खूब तरजीह मिलती है, जिन्हें बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में अच्छे ग्रेड मिले हों और जो हरफ़नमौला हों; एक खिलाड़ी जो 9-पॉइन्टर (सभी विषयों में ए-ग्रेड लाने वाला) होने के साथ-साथ फ़िल्मों का दीवाना भी है तो फिर यह सोने पर सुहागा वाली बात हो जाती है. उसका रुतबा भगवान से कम नहीं होता. इस तरह के टी-शर्ट पहनना, दरअसल, उनके अंदर जो असुरक्षा की भावना है, उसको स्वीकार करने का एक उदाहरण भर है. यह उन दबावों को स्वीकार करना है, जिनका वह सामना कर रहे हैं. यह कुछ वैसा ही की, इससे पहले कि कोई दूसरा आपकी आलोचना करे, आप खुद ही अपनी बुराई करने लग जाएं.

कहीं यह आत्म-निंदा या आलोचना अकादमिक दुनिया में घर कर चुके सक्षमतावाद का नतीजा तो नहीं है? सक्षमतावाद एक ऐसा विचार है जो हमें उन ढांचों के बारे में सोचने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिनमें हम काम करते हैं. कैसे ये ढांचे शारीरिक रूप से सक्षम लोगों को विशेषाधिकार देते हैं, उन्हें फ़ायदा पहुंचाते हैं. यहां शारीरिक रूप से सक्षम या समर्थ होने का मतलब हैः तन, मन, रूप-रंग, सामाजिक व्यवहार और संबंध, कार्यस्थल पर आचरण, रोमांटिक रिश्ते, गहराई से जानने, समझने और महसूस करने की क्षमता और यहां तक हमारे खान-पान के बारे में बनाई गई धारणाएं. ये सब सक्षमतावाद को एक गहरी संरचना के रूप में दर्शाती हैं जो सक्षम-शरीर को महत्त्व देता है. और अगर हम इसे सक्षम-दिमाग कहें तो यह कुछ वैसा ही है, जिसे अंग्रेज़ी में सैनिज़्म कहा जाता है.

सैनिज़्म वो मानसिकता है जो मानसिक तौर पर अस्वस्थ लोगों के साथ भेदभाव को स्वीकार्यता देती है. हम जो कुछ भी जानते या करते हैं, हमारी पेशेवर, सार्वजनिक या निजी ज़िंदगी में सक्षमतावाद उन सभी को प्रभावित करता है.

हालांकि यह हैरत की बात नहीं कि भारत में स्कूली और उच्च शिक्षा के दौरान विकलांग छात्रों को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. ऐसे में हमें उन व्यवस्थाओं की हर परत को उधेड़ना पड़ेगा जो बुनियादी रूप से सक्षमतावादी हैं, लेकिन जिन्हें हम अब तक स्वीकार करते आए हैं. जबकि ये सभी लोगों के नैसर्गिक विकास को रोकती और नियंत्रित करती हैं. मैं मानती हूं कि इस तरह का विश्लेषण हमें अंदर से झकझोर सकता है, लेकिन अंततः यह रचनात्मक साबित होगा और हम इससे कुछ सीखेंगे, ऐसा मेरा मानना है.

कम से कम एक प्रयोगात्मक सोच के रूप में तो इसकी शुरुआत की जा सकती है.

स्कूल में लिखित परीक्षा के दौरान परीक्षा हॉल में जो माहौल होता था उसमें से क्या-क्या चीज़ें आपको याद हैं? आपको क्या कुछ करना पड़ता था? क्या आपको याद है कि कैसे कई घंटों तक सीधे बैठना पड़ता था, एकाग्रता के साथ लिखते रहना पड़ता था? लिखते-लिखते हाथों में दर्द होने लगे, उंगलियां अकड़ने लग जाएं, फिर भी लिखना बंद नहीं करते थे क्योंकि डर था कि अगर समय के अंदर आप सभी सवालों के जवाब नहीं लिख पाएंगे तो क्या होगा? जो कुछ भी पढ़ रखा था उसे बार-बार याद करते जाना और डरना कि कहीं सब पढ़ा भूल न जाएं, और, जिस दिन सुबह और शाम दो पालियों में परीक्षा होती थी, तब यह सबकुछ आपको दोगुनी मात्रा में झेलना पड़ता था?

अब आइए इसके नतीजों पर गौर करें और यह देखें कि आपने जो हासिल किया, वह निम्नलिखित में से कौन सा है? याद की गई बातें भूल जाने का डर? बाथरूम न जा पाने से पैदा हुई घबराहट और बेचैनी, क्योंकि आपको पता था कि बाथरूम जाने का मतलब है कि आप या तो नकल कर रहे हैं या फेल होने वाले हैं? लगातार कई घंटों तक तन कर बैठने में महारत? या उस नाकामी का डर जो अब आपके खून में इस तरह घुलमिल और जम  गई हैकि चाहकर भी आप खुद को इससे अलग नहीं कर सकते. जब आपसे यह कहा जाता है कि आप चीज़ों को अनसोचा कर दें, तब भी आप इससे पीछा नहीं छुड़ा पाते.

अगर इनमें से किसी एक सवाल का जवाब भी हां हैं तो इसका मतलब है कि आप सक्षमतावाद से परिचित हैं, आप जानते हैं कि सक्षमतावाद क्या है.

जब बड़ी हो रही थी तब मैंने जाना कि आलसी होना पाप है. ये उससे भी बहुत पहले की बात है जब मैंने यह जाना था कि आलस्य को सात पापों में से एक माना जाता था. मैंने सक्षमतावाद को अपने स्वभाव का हिस्सा बना लिया था.

आलस्य मेरे भीतर था, और मैं ही आलस्य थी; और ऐसा तब था जब मुझे यह पता नहीं था कि समाज अपनी तरह से चीज़ों को गढ़ता है.

अभी दो साल पहले की बात है, मुझे आलसी का तमगा मिले तब तक तीन दशक से भी अधिक समय बीत चुका था, कि अचानक ही मेरे हाथ एक ऐसा लेख लगा जिसने मुझ पर आलसी होने का जो ठप्पा लगा था, उसे सिरे से खारिज कर दिया. और इस तरह, ताश के पत्तों का वह महल ध्वस्त हो गया जिसकी बुनियाद पर आलस्य या टाल-मटोल की प्रवृत्ति को पाप करार दिया गया था. मेरे लिए तो यह अंधे को आंख मिलने जैसा था. उत्साह में, मैंने इसे अपने व्हाट्सएप्प स्टेटस के रूप में पोस्ट कर दिया. मेरे एक छात्र मेरा व्हाट्सएप्प स्टेटस पढ़ने के बाद मुझे मेसेज किया कि वह इस लेख में व्यक्त भावनाओं को समझ सकता है. उसे इससे एक खास तरह का जुड़ाव महसूस हो रहा है.उसने सोशल मीडिया पर अपने सहपाठियों द्वारा व्यक्त विचारों और भावों के आधार पर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर एक स्वतंत्र अध्ययन किया था, उसने यह लेख शेयर करने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया. साथ ही, यह भी बताया कि उसने इस लेख को अपने मम्मी-पापा से भी शेयर किया है ताकि उन्हें इस बात का अहसास हो सके कि जब कभी वे गुस्से में उसे आलसी कहा करते थे तो दरअसल वह उसके मन में उसी के खिलाफ़ संदेह का बीज बो रहे होते थे.

स्वतंत्र अध्ययन परियोजना वाले सेमेस्टर के दौरान, मैंने उस छात्र के साथ मिलकर सक्षमतावाद की समस्या पर और जानने-समझने का प्रयास किया. उस दौरान, उस छात्र ने मैड एट स्कूल नाम की किताब पढ़ी जो कि सन् 2011 में प्रकाशित हुई थी. यह किताब दरअसल मानसिक स्वास्थ्य और अकादमिक दुनिया के बीच जटिल संबंधों पर बात करती है. इसमें उच्च शिक्षा के दौरान ऐसी जगहों और पलों के उत्पन्न होने की बात कही गई है जहां ज्ञान का उत्पादन और शक्ति का आदान-प्रदान होता है जिसे प्रतिभागी अलग तरह से जानते-समझते और प्रतिक्रिया देते हैं. किताब में इस प्रक्रिया को ‘कैरोटिक स्पेस’ नाम दिया गया है और इसपर विचार किया गया है. इसकी लेखक मारग्रेट प्राइस कहती हैं:

कैरोटिक स्पेस ज्यादा औपचारिक नहीं होता. क्लासरूम में होने वाली बातें एक कैरोटिक स्पेस है, क्योंकि यह एक ऐसी जगह है जहां छात्र अपने शिक्षक या सलाहकार के साथ विचार-विमर्श या बातचीत करते हैं. सेमिनार /अधिवेशन कैरोटिक स्पेस से भरे-पड़े होते हैं. इसमें सेमिनार के बाद पैनल के साथ होने वाले सवाल-जवाब सत्र, लिफ्ट में अचानक किसी सहकर्मी से मुलाकात और औपचारिक सम्मेलन या कार्यक्रम स्थल के आसपास के रेस्तरां और बार में जमने वाली महफ़िलें भी शामिल हैं. छात्रों के अनुभवों से निकलने वाले उदाहरणों में सह-विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं के लिए आयोजित होने वाली कार्यशालाएं, अध्ययन समूह, या विभागीय गोष्ठी और जलसा आदि ऐसी जगहें हैं, जिनमें वह शामिल होते हैं. (‘कैरोटिक स्पेस‘ का मतलब)

मेरे छात्र ने यह शोध किया कि कॉलेज के सेमेस्टर्स हमें योग्यताओं की ऐसी दीवार की ओर ले जाते हैं, जिसे ये कैरोटिक स्पेस लगातार और विविध तरीकों से बनाते प्रतीत होते हैं.

अपने कैम्पस के छात्रों की सोशल मीडिया पोस्टों को स्क्रॉल करते हुए, हम मानसिक स्वास्थ्य पर होने वाली उन चर्चाओं को देखने-समझने की कोशिश कर रहे थे, जिनमें छात्र शामिल थे. इन चर्चाओं में कुछ छात्र सीधे तौर से तो कुछ मीम्स, चुटकुलों और गीतों के माध्यम से अपनी बात रख रहे थे. उसने अपने शोध में पाया कि मिड-सेमेस्टर और फाइनल इग्ज़ैम का समय बहुत तनावपूर्ण था; छात्रों ने जो मीम्स और मैसेज पोस्ट किए थे, उनसे पता चलता था कि वे उदासी और अकेलापन महसूस कर रहे थे. बहुत ही कम लेकिन, कुछ पोस्ट ऐसे भी थे जिसमें छात्र निराशा में ज़िंदगी खत्म करने जैसी बात कर रहे थे. छात्र अपनी ऐसी हालत की वजह पढ़ाई और/या प्यार और/या एक्स्ट्रा-करिक्युलर ऐक्टिविटी क्लबों में सफल नहीं हो पाने को बता रहे थे.

योग्यता की जातिवादी प्रकृति के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है जो निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है, लेकिन अब योग्यता के सक्षमतावादी ढांचों को बेनकाब करने और उन पर विचार करने का समय है.

बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि योग्यता विकलांग लोगों के लिए सुलभ नहीं है; बल्कि जो बात समझने की है वह है कि किस तरह सक्षमतावादी संरचनाओं से योग्यता का चक्रव्यूह रचा गया है. यह बहुत हद तक जाति जैसा ही मामला है. पहले तो योग्यता को ऐसे लक्ष्य के रूप में स्थापित किया जाता है जिसे कोई भी लोकतांत्रिक तरीके से सहज ही हासिल कर सकता है. यह प्रचारित किया जाता है कि योग्यता की कार्य-प्रणाली बुनियादी तौर पर लोकतांत्रिक है, और कोई भी योग्य और मेधावी हो सकता है. लेकिन जब हम इसकी तह में जाते हैं तो पता चलता है कि जिन लोगों के पास दौलत या पूंजी है, वह आसानी से विशेष प्रकार की स्कूली और उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं और. इस तरह, उनके लिए योग्यता अर्जित करने के बेहतरीन मौके सहज ही उपलब्ध होते हैं.

एक बात और, कोई मेधावी या गुणवान भी तभी माना जाता है जब वह सक्षम-शरीर और सक्षम-दिमाग की कसौटियों, दोनों पर खरा उतरता है. दूसरे शब्दों में कहें तो स्वस्थ तन और मन वाला व्यक्ति ही योग्य और मेधावी माना जाता है. इसके बरक्स, योग्यता के लोकतांत्रिक सिद्धांत तैयार करते समय जिस बुनियादी धारणा पर अमल किया जाता है, वह यह कि अक्षमता शारीरिक है जबकि योग्यता बौद्धिक. इसलिए, अगर कोई शारीरिक रूप से अक्षम है तो भी वह मेधावी हो सकता है.

लेकिन मैं यह बताना चाहती हूं कि तमाम खूबियों के बावजूद, योग्यता का गठन वास्तव में शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के मज़बूत संयोजन से ही होता है.

ये अलग बात है कि यह नज़र नहीं आता. इस तरह, योग्यता का यह बहुत ही छोटा दायरा है जिसका मतलब महज़ बौद्धिक क्षमता है. बात परीक्षा के दौरान कई घंटों तक लगातार बैठने और लिखने की है, शौचालय नहीं जाने की है. बात एकाग्रता की है, घर पर होने वाले इमोशनल ड्रामे और/या इश्क में नाकाम हो जाने और/या परीक्षा में फेल होने और कैम्पस इंटरव्यू के माध्यम से मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने से वंचित रह जाने के डर से उपजी घबराहट और बेचैनी से खुद को मुक्त रखने की है.

भले ही कोई खुलकर स्वीकार न करे, लेकिन स्कूल और कॉलेज शिक्षा पर होने वाले तमाम विचार-विमर्शों का निचोड़ यही है कि योग्यता का मतलब सक्षम-शरीर और सक्षम-दिमाग है और वही लोग शिक्षण के सुयोग्य पात्र हैं.

आज अगर हर स्तर पर छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर विचार-विमर्श हो रहा है तो इसका श्रेय आत्महत्या पर सार्वजनिक बहस को जाता है. आत्महत्या का बड़ा कारण अवसाद या चिंता है और सभी इस पर सहमत हैं. लेखक विजेता कुमार ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर काम किया है. विजेता सेंट जोसेफ विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में प्रोफेसर हैं. उनका मानना है कि प्रत्येक दलित छात्र को अपनी दलित पहचान के साथ ही अपेक्षित अनिवार्य सक्षमता के दबाव का भी शिकार होना पड़ता है. और इसकी कीमत अवसाद (डिप्रेशन) के रूप में उन्हें चुकानी पड़ती है. छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किस प्रकार की समस्याएं हो सकती हैं? मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किन समस्याओं को समस्या के रूप में स्वीकार किया जाता है?

स्कूल में डराने-धमकाने (बुलीइंग) और अकादमिक शिड्यूल (समय-सारणी) के कारण होने वाले तनाव को अधिक आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है इसकी तुलना में जाति के नाम पर की जाने वाली बदतमीज़ी और दादागीरी अकादमिक अपेक्षाओं के कारण पैदा होने वाले तनाव और अवसाद की अनदेखी करना आसान है. इस पहले प्रकार के तनाव को व्यक्तिगत मानकर अलग किया जा सकता है; आपसे कहा जा सकता है कि आप बहुत संवेदनशील हैं या आप तो जल्दी बुरा मान जाते हैं और फिर आपको काउंसिलिंग के लिए भेज दिया जाता है, ताकि आपको इमोशनली मज़बूत बनाया जा सके. ऐसा करके जो दूसरे प्रकार की घटनाएं जाति की वजह से होती हैं उसे आसानी से भुला देने या फिर सफ़ेद झूठ का सहारा लेते हुए आपसे कहा जाता है कि देखो, जातिवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती, अगर ध्यान ही देना है तो योग्यता हासिल करने पर दो, मेधावी बनो, कि सफल जीवन जीने के लिए यही ज़रूरी है, कि यही वह जीवन है जो तुम चाहते हो!

यह मूल अंग्रेज़ी लेख का संपादित अनुवाद है. अनुवादक अकबर रिज़वी हैं.

शिल्पा आनंद विकलांगता अध्ययन पढ़ाती हैं और बिट्स-पिलानी हैदराबाद परिसर में मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके साथ ही वह भारतीय विकलांगता अध्ययन (डिसएबिलिटी स्टडीज इंडिया) के जीवंत ईमेल सूची के प्रबंधक के रूप में भी काम करती हैं. उन्होंने वेब पत्रिका ‘कैफे डिसेंसस’ के विकलांगता विशेषांक का सह-संपादन भी किया है.

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