किसान मां और पुलिस में नौकरी करने वाले पिता की बेटी, सेजल राठवा, पत्रकार बनने वाली अपने समुदाय की पहली लड़की है. छोटा उदयपुर की रहने वाली सेजल ने बतौर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट, वडोदरा, गुजरात के प्राइवेट टीवी चैनल के साथ पत्रकारिता के करियर की शुरुआत की. टीवी पत्रकारिता को भीतर-बाहर से समझने के दौरान उसने महसूस किया कि उसकी मंजिल तो कहीं और है. दो साल तक टीवी जर्नलिज़्म करने के बाद सेजल ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. आज वे एक स्वतंत्र पत्रकार एवं शोधकर्ता के रूप में ख्याति बटोर रही हैं. सेजल आदिम संवाद नाम से अपना यू-ट्यूब चैनल भी चलाती हैं. यहां वे शिक्षा, अपनी भाषा, समुदाय की तरफ लौटने और उसके लिए कुछ करने के अपने जुनून के बारे में हमें बता रही हैं. साथ ही वे भाषा संस्था के साथ ‘भाषा आई एम’ प्रोजेक्ट के तहत कल्चरल डॉक्यूमेंटेशन कोऑर्डिनेटर के तौर पर भी काम कर रही हैं.
सेजल, द थर्ड आई ‘एडु लोग’ प्रोग्राम का हिस्सा हैं. हमारे शिक्षा अंक से जुड़े इस कार्यक्रम में भारत, नेपाल और बांग्लादेश से 13 लेखक एवं कलाकारों ने भाग लिया है. ये सभी प्रतिभागी शिक्षा से जुड़े अपने अनुभवों को नारीवादी नज़र से देखने का प्रयास कर रहे हैं.
मेरे समुदाय में लड़कियों की शादी बहुत जल्दी करा दी जाती है. जब दसवीं की परीक्षा से पहले फेयरवेल के दौरान सभी लड़कियां लगातार रोए जा रही थीं. उन्हें इस बात की टेंशन नहीं थी कि बोर्ड की परीक्षा है बल्कि वे इसलिए दुखी थीं कि अब आगे तो उनकी ज़िंदगी में कुछ नहीं है क्योंकि उनमें से कईयों की सगाई हो गई थी, परीक्षा के बाद किसी की शादी होने वाली थी, तो, किसी के लिए लड़का ढूंढ़ा जा रहा था. मेरे पिता और घरवालों पर भी मेरे शादी कराने का बहुत दवाब था. लेकिन, मेरे पिता मेरी बात सुनते थे. मुझे कुछ नया करना होता तो पहले मैं पापा को मनाती, फिर मम्मी और फिर भईया को मनाती. तो पढ़ाई को लेकर मेरा जुगाड़ चलता ही रहता था.”
मैं हमारे गांव से थोड़ी दूर पर एक क्रिश्चन स्कूल में पढ़ती थी और वहीं के हॉस्टल में रहती थी. बाइबल मुझे पूरी तरह से याद है. बचपन में क्रिश्चैनिटी ही मेरे लिए सबकुछ था. समुदाय के बारे में मुझे कुछ नहीं पता था. कोई त्यौहार नहीं, कोई रीति-रिवाज कुछ नहीं जानती थी. क्योंकि हमारी छुट्टियां तो सरकारी कैलेंडर के हिसाब से होतीं और हम आदिवासियों के त्यौहार तो ऋतुओं के अनुसार होते हैं. स्कूल के बाहर की दुनिया के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम था.
स्कूल में फादर मुझे हमेशा कहते कि, “तुम्हारे अंदर सवाल करने और बोलने का गुण है. तुम्हें तो पत्रकार ही बनना चाहिए.” तो, मेरे अंदर बस यही इच्छा थी कि मुझे पढ़ाई जारी रखनी है और पत्रकार बनना है.
बादल पे पांव है या छूटा गांव है.
दसवीं के बाद कॉमर्स पढ़ना चाहती थी. लेकिन, आस-पास के गांव के किसी कॉलेज में कॉमर्स की पढ़ाई नहीं होती थी. तो पढ़ने के लिए सबसे नज़दीकी शहर नडियाद गई. उस दौरान रोज़ बस से आना-जाना करते हुए मैं आदिवासी समुदायों जैसे भील, डुंगरा और दूसरे समुदायों के लोगों एवं उनकी समस्याओं के बारे में सुनती. तब, पहली दफा अहसास हुआ कि मैं भी तो आदिवासी समुदाय से हूं, तो हमारे समुदाय में भी ऐसी ही समस्याएं होंगी. वहां से अपने घर और आपसपास को देखने का मेरा नज़रिया बदला. पर, आदिवासी समुदायों के बीच अपनी पहचान को लेकर जो जटिलता और भेदभाव की भावना थी उसे देखकर मुझे बहुत अजीब लगता था. स्कूल के भीतर भी मैं इस भेदभाव को देख रही थी.
बारहवीं के बाद ग्रेज्यूएशन करने मैं राजधानी गांधी नगर आई. मैंने सोच-समझकर बीसीए के कोर्स में एडमिशन लिया ताकि पत्रकारिता के कोर्स से पहले तकनीक से जुड़ी जितनी जानकारी मैं हासिल कर सकती हूं, वो सब कर सकूं. पर, यहां तो पूरा माहौल ही कुछ और था. कॉलेज में पटेल-चौधरी जैसी ऊंची जातियों के बच्चों का बोलबाला था. वे सब मुझसे दूर-दूर ही रहते क्योंकि मैं आदिवासी समुदाय से थी. कॉलेज प्रशासन हमें प्रोत्साहित तो करते लेकिन वहीं जहां उनका फायदा होता था. दूसरों को बताने-दिखाने के लिए वे कहते, “हमारे कॉलेज में इस जगह से, इस समुदाय से इतने बच्चे हैं और एक ये भी लड़की है.”
कॉलेज में मेरी पहचान एक प्रतीकात्मक रूप में इस्तेमाल का विषय था. यह अहसास मैंने आगे भी कई जगहों पर महसूस किया. आदिवासियों के लिए यह एक स्थाई अहसास है जो मुख्यधारा में हमें हर जगह दिखाई देता है.
बीसीए कोर्स में सिर्फ़ कंप्यूटर की भाषा पढ़ाते थे. तो, मैं लैब को संभालने वाले भईया से फ्री टाइम में फोटोशॉप और वीडियो एडिटिंग सीखती. ग्रेज्यूएशन करने के बाद मैं पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लेने गई. उस वक्त उन्होंने मुझे कहा, “आपका एडमिशन नहीं हो सकता क्योंकि हमारे यहां पर अंग्रेज़ी में ही पढ़ाई होती है, आपको कांसेप्ट समझने में दिक्कत आएगी और दूसरा आप एसटी कोटा से हैं.”
उस प्रतिष्ठित कॉलेज में मैं पहली आदिवासी लड़की थी जो पत्रकारिता में एडमिशन लेने आई थी. मैं पूरी तरह से अड़ी हुई थी कि मुझे तो पत्रकारिता करनी ही है. बहुत सारी दिक्कतों के बाद आखिरकार उन्होंने मुझे एडमिशन दिया. भाषा को लेकर थोड़ी दिक्कतें आईं लेकिन पढ़ाने वाले प्रोफेसर्स ने बहुत मदद की. पर, वहां मैं यही सोचती रही कि क्या पता इससे पहले भी लड़कियां आई हों और उन्हें भी ऐसा ही कहकर मना कर दिया गया हो? अगर, मैं एसटी कोटा से नहीं होती तो क्या भाषा की बाधा तब भी काम करती? और अगर, मुझे अंग्रेज़ी आती होती तो क्या मुझे आसानी से एडमिशन मिल जाता?
जो गांव से बाहर निकलकर पढ़ने आ रहे हैं उनके लिए संघर्ष, पढ़ाई का दूसरा नाम है.
इन सवालों ने मुझे बहुत परेशान किया. मैं ये जानना चाहती थी कि बच्चे जब आदिवासी समुदाय से निकलकर बाहर आते हैं तो उन्हें और किस तरह की परेशानियां का सामना करना पड़ता है? क्योंकि जो गांव से बाहर निकलकर पढ़ने आ रहे हैं उनके लिए संघर्ष, पढ़ाई का दूसरा नाम है. पहले तो अकेले रहने के लिए जगह नहीं मिलती तो वो शेयरिंग में रहने की कोशिश करते हैं. उसमें भी अपने समुदाय का कोई मिल जाए शेयरिंग के लिए वो न के बराबर होता है. तो, किसी और समुदाय के लोगों के साथ रहना होता है जिससे और तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं. फिर, कॉलेज में हर जगह ये सुनने को मिलता है, ‘एसटी कोटा से है तो कम मार्क्स में भी एडमिशन मिल जाता है.’
उसके बाद भाषा दूसरी सबसे बड़ी समस्या है. मैं छोटा उदयपुर से बड़ौदा भी चली जाऊं तो कुछ किलोमीटर की दूरी में ही पूरी भाषा बदल जाती है. हम राठवा बोलते है, शहरों में गुजराती चलती है. लेकिन, कॉलेज में पढ़ाई हिंदी या अंग्रेज़ी में होती है. कई-कई जगहों पर सिर्फ़ अंग्रेज़ी में होती है. हर जगह भाषा के साथ हमारा संघर्ष जारी रहता है.
मैं सोचती राठवी में हूं. काम, हिंदी, गुजराती और राठवी में करती हूं, पढ़ाई अंग्रेज़ी में की है.
भाषा की राजनीति बहुत जटिल है. हमारे यहां ज्ञान की वाचिक परंपरा रही है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच निरंतर चलायमान रहती है. समुदाय के बच्चे अपनी भाषा, अपने लोक को बहुत गहराई से जानते हैं. यही वजह है कि प्रकृति को लेकर या खेती को लेकर उनकी समझ, जाति संरचना और उसकी प्रक्रिया को लेकर तमाम तरह के ज्ञान के विशाल भंडार से वे भरे पड़े होते हैं. ये वाचिक ज्ञान बहुत विस्तृत होता है. लेकिन, उनके इस ज्ञान का कोई महत्तव नहीं है. मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था में वे कहीं खड़े नहीं हो पाते. उनके ज्ञान को न तो समझा जाता है और न ही महत्त्व दिया जाता है.
पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं बडोदरा के एक प्राइवेट टीवी न्यूज़ चैनल में इंटर्नशिप के लिए गई थी. वहां मैं ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रही थी. 6 महीने की इंटर्नशिप के दौरान चैनलवालों को लगा कि ये आदिवासी पत्रकार है और अपने समुदाय से पहली लड़की है जो यहां तक आई है तो, उन्होंने मुझे जॉब ऑफर की. उनके लिए भी मेरी पहचान प्रतीकात्मक आदिवासी लड़की पत्रकार की तरह थी. पर, मेरे लिए तो था कि मुझे सबकुछ सीखना है. स्टूडियो में क्या होता है, ग्राउंड पर कैसे काम करते हैं. सबकुछ जानना था.
क्योंकि ये एक स्थानीय न्यूज़ चैनल है. तो उसमें स्थानीय खबरों को प्राथमिकता दी जाती थी. लेकिन, मैं महसूस करती कि ज़िले या तालुका से आने वाली महत्तवपूर्ण खबरों को पीछे ढकेल दिया जाता था. इसमें इन जगहों से बहुत ज़रूरी खबरें भी छूट जाया करतीं. फिर आदिवासी इलाके की ज़्यादातर खबरों पर चैनल वाले कहते, “ये आज नहीं, कल कर लेना.” अरे, कल आने पर तो खबर का महत्तव ही नहीं रहेगा और फिर कल कुछ और आ जाता और वो खबर प्रकाशित होती ही नहीं थी! ये सब देखकर मुझे लगा कि अपने समुदाय की अपनी आवाज़ होनी चाहिए. और इसके लिए एक प्लेटफॉर्म बनाने की ज़रूरत है.
जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तब भी मेरी कोई अपनी आवाज़ नहीं थी. किसी को लीडर बना दिया जाता, उसे जाकर अपनी परेशानियां बताते थे वो जाकर प्रिंसिपल को बताता था. ठीक वैसे ही कॉलेज में स्कॉलरशिप मिलने में दिक्कत हो रही थी. आखिरकार मैंने आवाज़ उठाई तब जाकर मुझे स्कॉलरशिप मिली. उसी वक्त से मुझे लगने लगा था कि अब अभी मुझे बोलना चाहिए, अब मेरी बारी है. यही सब सोचकर दो साल में मैंने टीवी न्यूज़ चैनल की नौकरी छोड़ दी. वहां से मेरे यू-ट्यूब चैनल की शुरुआत होती है.
गांव से शहर जाना अगर मुश्किल है तो शहर से गांव लौटना भी उतना ही मुश्किल है.
पढ़ाई के दौरान ही मैं अपने समुदाय के लोगों से शिक्षा प्राप्त करने के उनके अनुभवों को जानने-समझने की कोशिश कर रही थी, तभी मेरी मुलाकात सोनल बेन से हुई. वे मध्यप्रदेश की रहने वाली हैं और उनकी शादी छोटा उदयपुर में हुई है. वे एक बड़े शहर से गांव में आईं. यहां रहन-सहन सबकुछ अलग था. लेकिन उन्होंने घर-परिवार समुदाय की तरह खुद को ढालना शुरू किया. उनके सोचने के दायरे भी खुले. उनके काम से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है. उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित भी किया है. वे, समुदाय के कलाकारों और शिल्पकारों के साथ काम करती हैं और सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय है. लेकिन, गांव में उनको हमेशा ये कहकर खारिज कर देते, “नहीं, नहीं आपको ये नहीं आएगा. आप रहने दो. आपसे नहीं होगा. आपको चूल्हे पर खाना बनाना नहीं आएगा तो आप खाना मत बनाओ.” ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी होने लगा. जब मैं गांव लौटती तो मुझे भी ऐसे ही कहा जाता कि तुमसे ये नहीं होगा, तुम्हें गांव के बारे में कुछ नहीं पता है.”
पर, मैं तो पढ़ाई करते हुए ही यह जान चुकी थी कि मुझे वापस गांव लौटकर ही काम करना है. मैंने अपने पिता से जुड़ी कहानियां सुन रखी थीं कि जब उनकी पोस्टिंग बड़ौदा में थी तब वो गांव से पढ़ाई के लिए बड़ौदा आने वाले हर बच्चे को अपने एक कमरे के मकान में रहने की जगह देते.
जड़ों की ज़मीन
राठवा जनजाति के लोगों द्वारा पिथोरा चित्रकला दीवारों पर बनाई जाती है. यहां के आदिवासियों के लिए पिथौरा देव मन्नत की एक लिखावट है. प्रायः घरों की दीवारों पर यह चित्रकारी की जाती है. यह एक प्राचीन कला है. इसके बारे में जानने के लिए बाहर से लोग आते हैं. टीवी चैनल वाले यहां आकर लोगों से इसके बारे में जानकारी लेते हैं फिर हिंदी या अंग्रेज़ी में बिना गांववालों की सहमति के गलत-सही कुछ भी प्रसारित कर देते हैं. मैं अपने यू-ट्यूब चैनल के ज़रिए अपनी भाषा में सही-सही तथ्यों को सामने रखने की कोशिश करती हूं. मैं हर एक बात उन्हें बता कर उनकी सहमति से अपने चैनल पर प्रसारित करती हूं.
यू-ट्यूब के लिए किस्से-कहानियों को रिकॉर्ड करते हुए मैं समुदाय से जुड़े मुद्दों के बारे में भी छोटे-छोटे वीडियो बनाने लगी. जैसे, शिल्पकार और कलाकार हैं उनके वन विभाग और पुलिस के साथ बहुत तरह की दिक्कते हैं. मैंने मिट्टी के बर्तन बनाने वालों की परेशानियों पर उनके साथ मिलकर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई.
छोटा उदयपु भाषा के प्रोजेक्ट्स से भी जुड़ी हूं जिसके अंतर्गत हम अनुसूचित जनजातियों की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन का दस्तावेज़ीकरण करते हैं.
भाषा अगर बचाना है तो उसका प्रचलन बढ़ाना है. राठवी की अपनी कोई लिपी नहीं है. इसे हम गुजराती में लिखते हैं. लेकिन फिर भी हमारे समुदाय से जुड़े किसी भी तरह के लिखित साहित्य का अभाव है. जब मैंने अपनी पहली कहानी राठवी में लिखी तो सभी ने मुझसे यही कहा कि कहानी बहुत अच्छी है लेकिन इससे तुम भाषा को कितना बचा पाओगी उसके बारे में सोचो. तब मेरे अंदर यू-ट्यूब का ख्याल आया. मैं हमारे समुदाय से जुड़ी हर बात, किस्से, रीति- रिवाज, गीत, इतिहास सबकुछ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर सुरक्षित कर लेना चाहती हूं. जैसे कहानियों के एप्प होते हैं वैसे ही राठवी की अपनी एप्प हो जिससे समुदाय के लोग अपने वर्तमान और इतिहास दोनों से जुड़े रहें.
दिसोम – लीडरशिप स्कूल की फेलोशिप ने मुझे अपने समुदाय के साथ-साथ दूसरे समुदायों की आवाज़ के लिए संवेदनशील बनने में बहुत मदद की. दिसोम की 1 साल की यात्रा में हमने भारत भ्रमण किया और अलग-अलग समुदायों के लोगो से मिले. दिसोम का मतलब सबके लिए अलग-अलग हो सकता है। किसी के लिए उसका गांव दिसोम है तो किसी के लिए एक ज़िला, राज्य या पूरा देश उसका दिसोम हो सकता है. मेरे लिए दिसोम उन समुदायों की आवाज़ है जिसे सदियों से अनदेखा और अनसुना किया गया है.
बारिश कम-कम लगती है, नदियां मद्धम लगती हैं.
एक बार की बात है. पापा की पोस्टिंग हमारे गांव के पास की जगह पर थी तो वो रोज़ बस से आना-जाना करते थे. एक दिन बस में बाजू वाली सीट पर बैठे व्यक्ति ने बात-बात में उनसे पूछा कि वे किस गांव से हैं? पापा ने बताया, “मैं पानीबार से हूं.” उस व्यक्ति ने खुश होते हुए फौरन मेरे पापा से कहा, “अरे, पानीबार की एक लड़की है सेजल करके. बहुत टैलेंटेड लड़की है. बहुत अच्छा काम कर रही है. उसके विचार बहुत अच्छे हैं.” फिर देर तक वो पापा के सामने मेरे काम की तारीफ़ करते रहे. पापा ने उस वक्त उनसे कुछ नहीं कहा. घर आकर उन्होंने ये किस्सा सभी को सुनाया. दूसरों से मेरे काम की तारीफ़ सुनकर उन्हें उस दिन बहुत गर्व महसूस हो रहा था. वैसे, अब ऐसा होता ही रहता है कि महीने में एक बार तो कोई न कोई पापा या भाई को ये बता ही देता है, “इसने ये काम किया है, बहुत अच्छा काम है.”
टीम के नाम पर मेरे कुछ सहयोगी या समर्थक हैं जिन्हें मेरा काम पसंद है और जो समुदाय के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो वो कभी-कभी मेरी मदद कर देते हैं. लेकिन, ज़्यादातर मैं अकेले ही काम करती हूं.
मेरा सपना यही है कि हर वो समुदाय जिसकी आवाज़ हमेशा से दबी हुई है, उनकी आवाज़ मुख्यधारा में भी आनी चाहिए. इसके लिए लोग काम कर रहे हैं लेकिन, वो बहुत निजी स्तर पर है या छोटे प्रयास हैं. मैं चाहती हूं कि ये सारे छोटे-छोटे प्रयास मिलकर एक बड़ा प्लेटफॉर्म बनाएं. ताकि ठोस तरीके से उन सभी समुदायों की आवाज़ सुनाई दे जिन्हें कभी सुना ही नहीं गया है या अनदेखा किया गया है.