नौकरी, जो आज़ादी और मजबूरी दोनों थी
बात उस दौर की है जब हमारी उम्र 16 साल की थी और अपनी मां और छोटी बहन का पेट पालने के लिए नौकरी कर रहे थे. ऐसा करने पर हमें अपने परिवार, रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों की तरफ से बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
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बात उस दौर की है जब हमारी उम्र 16 साल की थी और अपनी मां और छोटी बहन का पेट पालने के लिए नौकरी कर रहे थे. ऐसा करने पर हमें अपने परिवार, रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों की तरफ से बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
किसान मां और पुलिस में नौकरी करने वाले पिता की बेटी, सेजल राठवा, पत्रकार बनने वाली अपने समुदाय की पहली लड़की है. छोटा उदयपुर की रहने वाली सेजल ने बतौर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट, वडोदरा, गुजरात के वीएनएम टीवी के साथ पत्रकारिता के करियर की शुरुआत की.
‘टीचर टॉक्स’ सीज़न दो के दूसरे एपिसोड में मिलिए पाकुर, झारखंड की असनारा खातून से जो अपने परिवार की पहली शिक्षिका हैं. पाकुर के एक ऐसे इलाके में जहां लड़कियों की पढ़ाई से ज़्यादा ज़रूरी उनको बीड़ी बनाने के काम में लगाना है, असनारा बस अपनी धुन में पढ़ती ही गईं.
टीचर टॉक्स के दूसरे सीज़न में मिलिए ऐसी शिक्षिकाओं से जो अपने परिवार में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी से हैं. वीडियो में वे बतौर विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के अपने अनुभवों के साथ, वर्तमान में अनौपचारिक शिक्षण केंद्रों में बच्चों को पढ़ाने के अनुभव साझा कर रही हैं.
साल 2002 बहुत सारी घटनाओं के लिए इतिहास में दर्ज है. उन्हीं में से एक असाधारण घटना थी ‘आलो आंधारि’ किताब का प्रकाशन. इस किताब के शब्दों ने घरेलू कामगारों के साथ होने वाली हिंसा और गरीबी में डूबी एक ऐसी दुनिया का दरवाज़ा खोलने का काम किया जिसके बारे में शायद ही कभी कोई बात होती थी.
मेरा गांव कोंकेया, झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है. मुझे वहां के पर्व-त्यौहारों में सभी के साथ मिलकर नाचना-गाना, एक-दूसरे के घर जाना, मिठाई खाना, वहां की चहल-पहल अच्छी लगती है. खासकर जब ढोल, नगाड़े, मादर बजते हैं और लोग साथ में गाने हैं, मुझे बड़ी खुशी होती है.
मैं अपने गांव कोंकेया से, जो झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है, दिल्ली इसलिए गई कि मेरे गांव की दो लड़कियां दिल्ली गई हुई थीं. जब भी दोनों गांव आती थीं, अच्छे कपड़े पहनतीं, उनके पैरों में चप्पल होती, अच्छी खुशबू वाला तेल लगातीं, चेहरा गोरा यानी साफ दिखता था, मोटी होकर आतीं.
शिवम को इंस्टाग्राम पर 16 mm फ़िल्टर मिला जिसे इस्तेमाल करके उन्होने अपनी मां के काम करते छोटे-छोटे वीडियो बनाने शुरू किए, खासकर उनके हाथों के. “मेरी मां हमेशा से ही ऑफिस जा रही हैं. लॉकडाउन पहला ऐसा मौका था जब वे लगातार हमारे साथ थीं.”
जुबान ने, जो एक नारीवादी प्रकाशक है, ‘द पोस्टर वीमेन प्रोजेक्ट’ के अंतर्गत भारत के सभी राज्यों से महिला आंदोलनों के पोस्टर जमा किए. इन पोस्टरों में से ‘महिला और काम’ पर जमा हुए पोस्टर हमने सद्भावना ट्रस्ट की बेबाक लड़कियों को दिखाए.
नारीवादी कल्पना, एक्टिविज़्म के काम और कैसे पोस्टरों का संग्रह आंदोलनों का इतिहास बयान करता है, इस सब पर उर्वशी बुटालिया से बातचीत.