मेरी मां के हाथ

एक युवा फिल्म निर्माता लॉकडाउन के दौरान अपनी मां के हाथों पर अपनी नज़र टिकाने की कोशिश में है. वो हाथ जो कभी आराम नहीं करते.

शिवम रस्तोगी बताते हैं, “मेरी मां हमेशा से ही ऑफिस जा रही हैं, मेरे जन्म से भी पहले से. लॉकडाउन पहला ऐसा मौका था जब वे लगातार हमारे साथ थीं और वे कुछ न कुछ करने में हमेशा व्यस्त रहती थीं. घर पर कोई हाउसहेल्प नहीं आती थी, हालांकि हम सब उनका हाथ बंटाते थे – भईया, भाभी और मैं. फिर भी वे हमेशा ही किसी न किसी काम में लगी रहतीं – खाना बनाना, फिर अपने लैपटॉप पर काम करना, अपने फोन पर मीटिंग करना.

कई बार तो उनका खाना बनाना और मीटिंग साथ-साथ चलते! ये वही समय था जब मैंने ‘द थर्ड आई’ में काम करना शुरू किया था. हम औरतों और उनके काम को देख रहे थे, और मैं लगातार चीज़ों पर सवाल कर रहा था.”

शिवम रस्तोगी एक फिल्म निर्माता हैं और एमसीआरसी जामिया के छात्र रह चुके हैं. फिलहाल वे ‘द थर्ड आई’ में वीडियो प्रोड्यूसर हैं.

शिवम को इंस्टाग्राम पर 16 mm फ़िल्टर मिला जिसे इस्तेमाल करके उन्होने अपनी मां के काम करते छोटे-छोटे वीडियो बनाने शुरू किए, खासकर उनके हाथों के. “मैं उनको ध्यान से देखा करता था. उनके हाथ मुझे आकर्षित करते थे.

कई कामों को एक साथ करना उनको बखूबी आता है और इसके लिए वे गर्व भी महसूस करती हैं. उन्हें लगता है कि यह एक कला है जिसमें उन्होंने समय के साथ निपुणता हासिल की है. मुझे समझ नहीं आता कि किस तरह उन्हें ये एहसास दिलाऊं कि वे ज़रूरत से ज़्यादा काम कर रही हैं और उन्हें इतना काम नहीं करना चाहिए."

शिवम की मां अंशु रस्तोगी एक औषधीय कंपनी में 18 या 19 साल की उम्र से काम कर रही हैं. “वे बहुत निष्ठा और मेहनत से काम करती हैं. मुझे पता नहीं वे कैसे अपनी निजी और व्यवसायिक ज़िंदगी में संतुलन बनाती हैं. मुझे लगता है वे दोनों ही जगहों पर उससे कहीं ज़्यादा देती हैं जितने की ज़रूरत है.

जब हम छुट्टियों में घूमने जाते हैं तो वे अपना लैपटॉप साथ ले जाती हैं. जिन दिनों उन्हें काम पर नहीं जाना होता वे बहुत व्याकुल दिखाई देती हैं… कि वे भला अब घर पर क्या करें? तो वे अपने लिए घर में ही कुछ काम खोज निकालती हैं, जैसे – सोफा कवर ठीक करना या अलमारी साफ करना. और तो और वे हमें भी अपने साथ लगा लेती हैं – वे एक जगह स्थिर नहीं बैठ सकतीं.”

लॉकडाउन के अंत में शिवम अपनी मां के लिए एक चाह रखते हैं, “मुझे बहुत अच्छा लगेगा अगर वे अपने निर्णय खुद लें, चाहे वे कितने ही छोटे क्यों न हों. हालांकि वे हर तरह से आत्मनिर्भर हैं. मगर जैसे – ‘खाने में क्या बनाना है?’ इसका फैसला वे खुद न करके हमें क्या खाना है पर ज़्यादा ध्यान देती हैं. हम उन्हें कहते रहते हैं कि आप क्यों नहीं बतातीं कि आपको क्या खाना है?

कई बार सप्ताहांत (वीकेंड) पर जब वे दिन में थोड़ी देर सोती हैं तो उनको बहुत बुरा लगता है – ‘इतना काम रह गया’ या ‘आज तो काफी सो गई’! इतने सालों में उनकी दिनचर्या इतनी पक्की हो गई है कि वे उसी में एक लय पाती हैं और उससे अलग नहीं हो पातीं. कई तरह से, उन्होंने इस बात को अपने दिमाग में गहरे तक बैठा लिया है कि उनके लिए उनकी अपनी पसंद और निर्णय कम मायने रखते हैं और घर के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी अहम है.”

आपने अपने पिता को क्यों नहीं फिल्माया?

“मुझे लगता है कि अगर मैं एक तरफ की कहानी दिखा रहा हूं तो दूसरी तरफ की कहानी खुद ही प्रतिबिंबित हो जाती है. मां की ज़िंदगी कहीं ज़्यादा रोचक है क्योंकि वे इतनी तरह की चीज़ें कर रही हैं. मेरे पिता के साथ… पता नहीं मैं क्या वीडियो बनाता? शॉट्स लेने के संदर्भ में?”

“मैंने अपनी मां को काम करते इतना ज़्यादा फिल्माया, उसमें से फिल्म में तो सिर्फ 10-12 मिनट ही हैं. मैंने उन्हें बताया था कि अगर मैं एक दिन में किए गए आपके सारे काम को फिल्माऊं तो मैं थक जाऊंगा मगर आपके काम ख़त्म नहीं होंगे.”

शिवम अपने फिल्म के अंत के बारे में बताते हुए कहते हैं कि,

“मैंने अपनी फिल्म को इस तरह ख़त्म करने का फैसला किया क्योंकि ये उनके लिए मेरी कल्पना है – कि वे चैन से बैठें, आराम करें और अपने लिए समय निकालें.

क्योंकि वे ऑफिस भी जाती हैं, इसलिए अक्सर वे पूरे दिन व्यस्त रहती हैं. अगर घर का नहीं तो उनका ऑफिस का काम अगले दिन के लिए बच ही जाता है.

एक दिन, मैंने और मेरे भाई ने उनके पूरे दिन को आंक कर यह पता लगाने की कोशिश की कि उनको आराम के लिए कितना समय मिल पाता है. हमने उनके ऑफिस जाने के समय को नहीं गिना क्योंकि उनका ऑफिस सिर्फ 15 मिनट की दूरी पर है. मेरी मां को काफी सोचना पड़ा, आखिर में उन्होंने यह माना कि ऑफिस में ‘वर्किंग लंच’ ही एक ऐसा समय होता है जब वे कुछ नहीं कर रही होतीं.”

उन्हें फिल्म कैसी लगी?

“जब मैंने मां को ये फिल्म दिखाई तो न तो वे खुश हुईं और नही हैरान. आखिर ये फिल्म उनके व्यस्त दिन की एक छोटी सी झलक ही तो थी. यहां तक कि ये फिल्म देखना भी उनकी दिनचर्या का भाग बन गया था – रात टीवी पर आ रहे धारावाहिकों के बीच.”

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.

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