बेबी हालदार के साथ एक बातचीत

कोविड ने कैसे इस विश्व चर्चित लेखक की ज़िंदगी को उलट कर रख दिया

“लेखन एक ऐसी चीज़ है जिसे मैं कहीं भी कर सकती हूं. पेड़ के नीचे, सड़क के किनारे, घर पर – भले ही मेरे पास कोई काम न हो, मेरे पास हमेशा मेरी कलम होगी.”

साल 2002 बहुत सारी घटनाओं के लिए इतिहास में दर्ज है. उन्हीं में से एक असाधारण घटना थी ‘आलो आंधारि’ किताब का प्रकाशन. इस किताब के शब्दों ने घरेलू कामगारों के साथ होने वाली हिंसा और गरीबी में डूबी एक ऐसी दुनिया का दरवाज़ा खोलने का काम किया जिसके बारे में शायद ही कभी कोई बात होती थी.

आलो आंधारि, बेबी हालदार की आत्मकथा है. 4 साल की उम्र में उनकी मां उन्हें छोड़कर कहीं चली गईं. शराबी पिता और सौतेली मां ने 12 साल की उम्र में दुगनी उम्र के व्यक्ति से उनका विवाह कर दिया. 13 साल की उम्र में वो मां बन गईं. गरीबी और हिंसा से तंग आकर एक दिन वो अपने तीन बच्चों के साथ ट्रेन में बैठकर गुड़गांव आ जाती हैं और यहां घरों में साफ-सफाई का काम करने लगती हैं. आलो आंधारि कहानी है जीने की अदम्य जिजिविषा की. बेबी हालदार के संघर्ष ने उन्हें लेखक बनने के लिए प्रेरित किया. लोगों के घरों में साफ़-सफाई करते हुए वे किताबों के पन्ने पलटने लग जातीं. वो जिस नए घर में काम कर रही थीं उसके बाशिंदे प्रबोध कुमार ये देखकर खुश हुए कि उन्हें पढ़ने-लिखने का शौक है. एक दिन उन्होंने बेबी को पेन और कॉपी देते हुए कहा – ‘लिखो!’

यह संयोग ही था कि बेबी के जीवन में यह कदम बा-रास्ते उस शक्स से जुड़े व्यक्ति से आया जिसने हिंदी में धनिया, मालती, सरोज, निर्मला जैसे किरदारों को हमारे सामने जीवंत किया था. लेखक प्रबोध कुमार, हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद के पोते थे.

वहां से बेबी हालदार की कहानी में नया मोड़ आता है. बांग्ला और हिंदी के अलावा अब तक उनकी आत्मकथा का 13 विदेशी भाषाओं सहित 21 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. किताब के साथ बेबी हालदार ने हांगकांग, जर्मनी, पेरिस जैसे कई मशहूर देशों का भ्रमण भी किया. यह दुनिया की चर्चित किताबों में शामिल है. लेकिन, जो सवाल किताब उठाती है वो आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं कि किसकी बात सुनी जाती है? किसका अनुभव हमारे ज्ञान का हिस्सा बनता है?

आज बेबी हालदार कहां है? 3 मार्च अंतरराष्ट्रीय लेखक दिवस के अवसर पर देखिए 2021 में द थर्ड आई टीम के साथ वीडियो साक्षात्कार से एक झलक. जहां लेखक बेबी हालदार एक लेखक बनने के उत्साह, किताबों की रॉयल्टी में कमी, महामारी के बाद की चुनौतियों का सामना करते हुए एक सतत आजीविका के रूप में लेखन को अपनाने जैसे विषयों के बारे में बता रही हैं.

आस्था बंबा दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी साहित्य के अंतिम वर्ष की छात्रा हैं. वे जेंडर, कैंपस स्पेस और छात्र आंदोलनों जैसे विषयों पर रिसर्च करना पसंद करती हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.

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