“जब वो बारह-तेरह साल का था/ एक दिन उसने अपनी मां से पूछा, ‘मेरी जाति क्या है?’/ स्कूल में कुछ लड़के मुझसे पूछ रहे थे/ मैंने कहा, ‘मुझे नहीं पता’/ मां, खाना खा रही थी/ प्लेट बीच में ही छोड़ कहा, ‘बेटा तुम अभी तक अपनी जाति नहीं जानते, तो फिर ये ऊंची ही है’.”
लेखक अखिल कत्याल की यह कविता आसान, सरल शब्दों में ऊंची जाति के विशेषाधिकारों को बयान कर देती है. शहरों, महानगरों में रहते हुए जब हम काम या पढ़ने-लिखने की जगहों, दोस्तों की महफिलों में ये कहते हैं कि, ‘यहां जाति कहां हैं? हम तो किसी तरह का भेदभाव नहीं करते.’ उस वक्त हम यह भूल जाते हैं कि यहां तक पहुंचने में कौन-कौन मेरे साथ चल रहा था? उनमें किस-किस जाति के लोग शामिल थे? क्या ऐसा था कि स्कूल से लेकर दफ्तर तक मुझे हर जगह अपने जैसे विशेषाधिकार प्राप्त जाति के लोग ही मिले? तो, निम्न जाति के लोग कहां हैं?
उस वक्त ज़रूरत बस निगाह उठाकर अपने आसपास देखने की होती है. आपने कभी ये करके देखा है?
मुम्बई, महाराष्ट्र के रहने वाले रोहन के लिए भी अपने सरनेम पर गौरव महसूस करना और आरक्षण का विरोध कर रिज़र्व श्रेणी की जातियों को अपनी परेशानी का कारण बताना बहुत आसान था. लेकिन, एक फेलोशिप पर काम करने के दौरान जब रोहन ने निगाह उठाकर अपने आसपास देखने की कोशिश की तब उसे जाति और उससे जुड़े विशेषाधिकारों के बारे में पता चला. इस प्रक्रिया में रोहन ने जाति के बारे में जितना जाना उतना ही बचपन से भर दी गई बनी-बनाई धारणाओं के पहाड़ को तोड़ने में उसे मदद मिली.
इस पॉडकास्ट के ज़रिए रोहन और अलग-अलग राज्यों से आने वाले उसके दोस्त जाति के अपने अनुभवों, उसका सामना, उससे प्राप्त सुविधाओं और पहचान के बारे में अपनी बात रख रहे हैं. सुनिए ‘जाति कहां हैं?’ एडु-लोग रोहन द्वारा तैयार किया गया पॉडकास्ट. इसे सुनने के बाद हमें यकीन है कि जाति कहां है – इस वाक्य को दुबारा बोलने से पहले आप ज़रूर सोचेंगे!
चित्रण: उमा केथा
साक्षात्कार एवं पॉडकास्ट कथानक (स्क्रिप्ट) – रोहन चव्हाण
संपादन एवं निर्मित – माधुरी आडवाणी