समाज

जहां हम राज्य, कानून, जाति, धर्म, अमीरी–ग़रीबी और परिवार की मिलती बिछड़ती गलियों के बीच से निकलते हैं और उन्हें आंकते हैं. यह समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे ये ढांचे अपने आप को नए ढंग और नए रूप से संचित करते हैं, फैलते और पनपते हैं. इस सबमें पितृसत्ता जीवन के अलग–अलग अनुभवों पर कैसे अपनी छाप छोड़ती है.

कैदियों का मानसिक स्वास्थ्य

जेल के भीतर मानसिक विकलांगता से जूझ रहे कैदियों की देखभाल का मकसद आखिर क्या है?

जेल एक ऐसी जगह है जो असल में चारों तरफ से दीवारों से घिरी हुई है. इसके साथ यह हमारे समाज का हिस्सा है भी और नहीं भी है. इन दोनों बातों में एक विरोधाभास है. जेल वो जगह है जो संदेह और अविश्वास के ज़रिए अकेलेपन को बढ़ावा देती है. तो, यह एक ऐसी जगह है जो खुशी के बिलकुल खिलाफ है.

पुलिस सदैव (किसकी) सेवा में?

आपराधिक न्याय प्रणाली की खामियां न तो छुपी हुई हैं और न ही ये कोई नई खोज हैं. लेकिन जिस चीज़ पर अभी भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, वह यह है कि कैसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था, अपराधीकरण और हमारी पुलिसिंग प्रणाली के हर स्तर पर घुस चुकी है?

पितृसत्ता और हिंसा को समझने में अक्सर हम किस तरह की गलतियां करते हैं?

जेंडर आधारित हिंसा पर काम करने वाले लोग प्यार को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, क्योंकि यह अक्सर हिंसा की कहानियों का अहम हिस्सा होता है – कई बार यह मुख्य भूमिका में होता है. पितृसत्ता के साथ किए गए समझौते सिर्फ़ समझौते होते हैं, या ये महिलाओं के लिए अपनी ज़िंदगी चलाने की ज़रूरी रणनीतियां होती हैं?

आप सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं

नारीवादी और सामाजिक न्याय समर्थकों ने ‘निगरानी’ को जेल के संदर्भ में ही नहीं बल्कि हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उसकी उपस्थिति और इन दोनों जगहों के बीच की कड़ियों को भी खोलने का काम किया है. क्या हमारी ज़िंदगियां भी ‘कार्सरैलिटी या कैद’ के सिद्धांतों से संचालित होती है? क्या बंदिश, निगरानी, और दंड इसका प्रतिनिधित्व करते हैं? सार्वजनिक स्थानों में होने वाली हिंसा हमारे जीवन में ‘कैद’ के तर्क को मज़बूत करने में किस तरह की भूमिका निभाती है?

प्रसव और गरिमा: स्वास्थ्य के नाम पर गर्भवती महिलाओं के साथ हिंसा

इरावती, इंदौर के पास के छोटे से गांव बेगमखेडी की रहने वाली है. जब वह अपनी पहली डिलीवरी के लिए इंदौर के सरकारी अस्पताल में भर्ती हुई, तो उसे उम्मीद नहीं थी कि पहली संतान के होने की खुशी, इतनी जल्दी ज़िंदगी भर के सदमे में बदल जाएगी.

“सब जानता हूं कि तुम लोग क्या खाते हो, क्या नहीं.”

‘खाना’ शब्द सुनते ही भूख सी लगने लगती है. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान दिमाग में घूमने लगते हैं. लेकिन मेरे लिए यह जीभ, पेट या मन की भूख को मिटाने का साधन भर नहीं है. इसके साथ मेरा एक अजीब ही रिश्ता है. इसे लेकर मेरे दिल और दिमाग में एक डर सा बैठा रहता है, या यूं कहें कि यह डर बिठाया गया है. ये वो डर है जो बचपन से अब तक गया नहीं.

दिल्ली की दीवार

अपराध संस्करण में हम हिंदी की मूल कहानियों के ज़रिए भी अवधारणाओं पर बात करने की कोशिश कर रहे हैं. इस कड़ी में पेश है दूसरी कहानी – दिल्ली की दीवार. इस कहानी के लेखक हैं प्रतिष्ठित एवं चर्चित साहित्यकार उदय प्रकाश.

कुन्तला

पेश है इस संस्करण की पहली कहानी ‘कुन्तला’. सच्ची घटना पर आधारित यह कहानी लेखक सीमा आज़ाद ने दो साल तक इलाहाबाद की नैनी जेल में रहने के अपने अनुभवों के आधार पर तैयार की है. ये उनकी किताब ‘औरत का सफर’ में प्रकाशित है.

अपराध को देखने का नारीवादी नज़रिया क्या है?

प्रोजेक्ट 39 ए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39-ए से प्रेरित है. अनुभवजन्य शोध की पद्धतियों का उपयोग कर आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रथाओं और नीतियों की पुन: पड़ताल के साथ-साथ प्रोजेक्ट 39 ए का उद्देश्य कानूनी सहायता, यातना, फोरेंसिक, जेलों में मानसिक स्वास्थ्य और मृत्युदंड पर नई बातचीत शुरू करना है.

सक्षमतावाद और मेरिट का जंजाल

‘हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में’ कॉलेज कैम्पस के भीतर ऐसे स्लोगन वाले टी-शर्ट पहने विद्यार्थी आसानी से दिखाई दे जाते हैं. मुझे लगता है कि पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान ऐसे स्लोगनस ने मेरे कैम्पस में अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है. मेरी नज़र में इसका कारण फाइनल इग्ज़ैम है, जिसका वक्त बहुत नज़दीक आ पहुंचा है.

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