देखो मगर प्यार से

रोज़मर्रा में रंग भरने का एक रियाज़

फोटो: तबस्सुम अंसारी

दफ्तर जाते हुए, मंडी क्रॉसिंग चौक से आप रोज़ गुज़रती हैं. खचाखच भीड़ और गाड़ियों के शोर से होते हुए. सड़क पर आंख गड़ाए, निकलने की जल्दी में क्या देखा-अनदेखा हो जाता है, इसके बारे में सोचने का वक़्त ही नहीं होता.

क्या एक आम साधारण सा दिन, एक सीधी लकीर जैसा सफ़र, एक मामूली सा पल खास हो सकता है? जब आप ये सोचती हैं तो ऐसा लगता है कि मन के अंदर नई बारिश का बादल उमड़ रहा है. और हाथों में बिजलियों की कड़क सी महसूस होती है.

आप एक बार फिर उसी सड़क पर, उसी चौक पर खड़ी हैं. आपके फ़ोन का कैमरा आपकी आंखों की तरह जाने-पहचाने मंज़रों को बारीकी से देख रहा है, जैसे ये सब आपने पहली बार देखा हो – इत्मिनान से, दिलचस्पी से, प्यार से.

शायद वो लाल रंग था जिसने आपको सबसे पहले आकर्षित किया. या फिर उस ढेर के बीच खड़े वो दोनों लोग. मगर एक चीज़ तो तय है. मंडी चौक अब आपके लिए केवल एक आम सा चौराहा नहीं रहेगा. यहां से गुज़रते हुए हमेशा आपकी नज़र फूलों से भरी उस दुकान पर टिकेगी. और आप कुछ सोचेंगी तो ज़रूर, बस इतना तो निश्चित है.

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लखनऊ शहर में मंडी चौक चौराहे के सामने एक छोटी सी फूलों की दुकान है, ये दुकान चाचा और उनका बेटा दोनों मिलकर चलाते है.

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चाचा फूलों का गुलदस्ता बनाने में व्यस्त हैं, बहुत गहरी सोच में डूबे हुए हैं, ये सोच रहे हैं कि इन फूलों के साथ मेरा रिश्ता कितना गहरा हो गया है.

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हर एक फूल कुछ कह रहा है, कुछ फूल पूरे खिले हुए हैं, कुछ अधूरे खिले हुए हैं पर अपनी खूबसूरती से सबको अपना बनाए हुए हैं.

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बिखरी हुई पंखुड़ियों की खुशबू पूरी दुकान को महका रही है, सड़क पर आने जाने वाले लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर रही है.

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इन फूलों के गुलदस्तों को बेसब्री से है अपने मालिक का इंतज़ार, कब बनेंगे किसी के घर की पार्टी की शान.

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छोटू दुकान को लगाकर बैठ जाता है, उसकी आंखें कुछ तलाश कर रही हैं कि कोई तो मेरी दुकान की तरफ आए और मेरे फूलों का खरीदार बन जाए. 

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इतने में एक रिक्शा वाला बाबू जी दुकान में आता है. छोटू के चहरे पर ख़ुशी नज़र आती है, चलो कोई तो हमारी दुकान में आया.

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छोटू फ़ौरन उस रिक्शे वाले को फूल दिखाने लगता है और उनसे पूछता है, “आप को किस तरह का गुलदस्ता चाहिए, किस पार्टी में जा रहे हैं?” रिक्शा वाला अपना हाथ पीछे करते हुए बोलता है, “अरे भय्या हम कहां पार्टी में  जाएंगे.”

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रिक्शे वाले बाबू जी एक फूल पकड़ कर सोचने लगते हैं कि एक फूल ले जाऊं या फिर एक छोटा सा गुलदस्ता खरीद लूं. 

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छोटू फूलों पर पानी डालने लगता है, उसे लगता है कि ये रिक्शे वाला कुछ नहीं खरीदेगा.  बाबू जी एक फूल निकालते हुए पूछते हैं, “भय्या ये कितने का होगा?”

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दुकानदार छोटू को लगता है, कि इनको लेना नहीं है फिर भी फूल और गुलदस्ते के पैसे पूछ रहे हैं. 

रिक्शा वाला बाबू थोड़ा मुस्कुराते हुए कहता है, “ये वाला दे दो. छोटू फूलों में पानी डालते हुए बोलता है, “ये दो सौ रुपए का है”. 

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रिक्शा वाला बाबू जी उस गुलदस्ते को बहुत प्यार से देखते हुए कहता है, “आज हमारी शादी की सालगिराह है, मुझे ये अपनी पत्नी को देना है”.

तबस्सुम अंसारी हुसैनाबाद, लखनऊ की रहने वाली हैं. उन्हें फ़िल्म और फोटो बनाने में बहुत रुचि है. वास्तविक और काल्पनिक सोच में क्या रिश्ता है, ये एक दूसरे को कैसे निखारते हैं, इनके खेल से कैसे नए-नए मायने उभर कर आते हैं – इन सब प्रक्रियाओं और सवालों पर तबस्सुम का रियाज़ जारी है. तबस्सुम सद्भावना ट्रस्ट से जुड़ी हैं और द थर्ड आई की डिजिटल एजुकेटर हैं.

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