संपादकीय

अंक 003

शहर

October 2021

शहर अकेला है लाख हैं गलियां

कबीर की उलटबासियों की तरह ही शहर भी हमारे सामने धीरे-धीरे खुलता है. ये वो मायानगरी भी है जहां से कभी कोई वापस नहीं लौटता. कवि मंगलेश डबराल लिखते हैं: 

मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया / वहां कोई कैसे रह सकता है / यह जानने मैं गया और वापस न आया.”

कल्पनाओं और जगमगाती रौशनियों का शहर. तमन्नाओं और चाहतों का शहर. विस्थापन के दंश के साथ जीता शहर तो सपनों के टूटने और पूरे होने का शहर. आकर्षण और इससे दूर भागने की कशमकश, ये सब एक ही शहर के भीतर हैं. इसी बिन्दु पर खड़े होकर द थर्ड आई के ‘शहर विशेषांक’ में हम शहरों के भीतर से तमाम तरह की कहानियों, आवाज़ों, नज़रियों, विचारों, फ़िल्मों, यात्राओं एवं ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के ज़रिए शहर की नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश करने वाले हैं. एक नारीवादी विचार मंच होने के नाते, हम जानने कि कोशिश करेंगे कि शहर किसकी ज़ुबान में बात करता है, किसकी परेशानियों का हल बनता है, किसे अपने घेरे से दूर हाशिए पर धकेल देता है और किसके लिए नए रास्ते खोलता है?

इतिहासकार मिशेल द शेर्तु ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘वॉकिंग इन द सिटी’ में लिखा था कि ‘किसी शहर में पैदल चलते हुए आम लोग ही उस शहर को, उससे जुड़े अनुभवों को बुनियादी रूप से रचते हैं. पसीने से लथपथ अपनी देह से आम लोग वह नगरीय शब्दावलियां लिखते हैं, जिसे वे भले ही न पढ़ पाएं, लेकिन जिसके बगैर शहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती.’

लेकिन किसी भी चीज़ को देखने की निगाह बस उसके होने से ही नहीं मिलती. उसका अपना एक दृष्टिकोण होता है. यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें हम लगातार अपने को मांजते हैं और तब जाकर एक नज़र विकसित कर पाते हैं.
द थर्ड आई शहर विशेषांक के ज़रिए हमने 13 ट्रैवल-लॉग साथियों के साथ सीखने-सिखाने की इसी प्रक्रिया को विकसित करने का काम किया है ताकि शहर के सवालों का एक मुकम्मल जबाव ढूंढ सकें. पिछले 6 महीने की बातचीत, सवाल-दर-सवाल, विमर्श एवं यात्राओं, डायरी लेखन, वर्तमान और इतिहास के बीच की आवाजाही का दस्तावेज़ीकरण कर हमारे ट्रेवल – लॉग साथियों ने अपने गली-मोहल्ले, कस्बे, पहचानी और अनजानी सड़कों से हमें मिलवाया, उनसे हमारा भी परिचय करवाया.

उनके शब्दों और अनुभवों को कुछ शानदार कलाकारों ने अपनी कला के ज़रिए कलात्मक रूप देते हुए उसका नक्शा तैयार किया है – माइंड मैप. अपनी कला के ज़रिए इन कलाकारों ने ट्रेवल-लॉग के अनुभवों को एक अलग ही एहसास और गहराई दी है.

बाडमेर से बेलडा तो मिंजूर से कोचिन, तोरणमाल से इम्फाल तो वड़ोदरा से श्रीनगर, फतेहपुर और खूंटी भारत के अलग-अलग कस्बों, शहरों, गांवों में इतिहास, संस्कृति, जेंडर, जाति, शंक्ति संरचना के सवालों को परखा है. शहर विशेषांक में आगे आप ट्रेवल-लॉग फेलो की कई ख़ास प्रस्तुतियां- फ़िल्में, लेख, आवाज़ें और वीडियो को हमारी वेबसाइट पर देख सकेंगे.

शहर विशेषांक की पहली खेप में इस बार आप मिलेंगे हमारे ट्रेवल फेलो अभिषेक अनिक्का से जो एक लौटती हुई यात्रा पर – महानगर से दरभंगा की ओर, अपने बचपन की यादों के बीच लौटते हैं. अभिषेक की कहानी में गति और ठहराव का अद्भूत छलावा है. बाहर की गति, खुद के ठहराव से टकराती है, तो वहीं बाहर के ठहराव से दूर उनकी ज़िंदगी दो खांचों में बंटी हुई दिखती है. ये द्वन्द शहर का द्वन्द है, ख़ुद के भीतर का द्वन्द है जो शहर का खास चरित्र है. अभिषेक न केवल उसे महसूस कर रहे हैं बल्कि उससे जूझ भी रहे हैं. शहरों से उपजे अजनबीपन में गति तलाशने की कोशिश है- कितकित.

लेकिन, जब आप दशकों से जिस पहचान को ओढ़ते-बिछाते रहे हैं वही सालों बाद किसी किताब के ज़रिए नई जानकारियां के रूप में आपके सामने खुले तो कैसा महसूस होता है? शहर विशेषांक के इस हिस्से में कथाकर एवं चिकित्सक हांसदा सोवेन्द्र शेखर का लेख दरअसल, शहर के बारास्ते अपनी जड़ों को नए सिरे से देखने और समझने की कहानी है. लेखक गौरी भारती की किताब ‘इन फ़ॉरेस्ट, फील्ड एंड फैक्ट्री: आदिवासी हैबिटेशन थ्रू ट्वेंटिएथ सेंचुरी इंडिया’ को पढ़ते हुए संथाल समुदायों के घरों और घर से जुड़े कई तौर-तरीकों के बारे में जानकर सोवेंद्र शेखर ख़ुद की गहराई को तोलते हैं कि “मुझे, हमारे समुदाय के बारे में कितना पता है.”

कुछ ऐसे ही सवाल हम आजकल अपने आप से पूछते हैं कि हमें अपने आसपास के बारे में कितना पता है? इसी सवाल के साथ हमारी एक साथी तब्बस्सुम, अपनी तीसरी आंख- कैमरा के ज़रिए ‘देखो मगर प्यार से’ में अपने आसपास की दुनिया को क़ैद करती हैं. तब्बस्सुम, द थर्ड आई के साथ बतौर डिजिटल एजुकेटर्स जुड़ी हैं. शहर के इस संस्करण में हमारे डिजिटल एजुकेटर्स मल्टी-मीडिया कॉन्टेंट के ज़रिए अपने गांव, अपने कस्बे, अपने शहरों की कहानियों को हमारे सामने लाते रहेंगे. आप हमारे सोशल मीडिया के ज़रिए भी इनके काम से जुड़ सकते हैं.

शहर की भीड़ किसी को इसमें खो जाने का मौका देती है ताकि वे अपने सपनों को जी सकें तो कहीं यही भीड़ कईयों के लिए रास्ते बंद भी कर देती है? इस सबके बीच शहर अपने को कैसे देखता है? उसके भीतर कैसे बदलाव होते हैं. बदहवास शहर की कहानी कहता पार्वती शर्मा का लेख ‘शोकनाच’ शहर की ख़ुद की उदासी और आज़ाद हवा में उड़ने की उसकी ललक के बीच के द्वन्द को किसी ‘रस्सी-खेंच’ वाले खेल की तरह हमारे सामने लेकर आता है.
किसी ने कहा था कि शहर को देखना है तो उसे एक लड़की की निगाह से देखिए…

बैंगलोर में एक कॉलेज में पढ़ाने वाली विजेता कुमार के क्लासरूम की लड़कियां घर की चारदीवारी को लांघकर गांवों से शहर की ओर आई, अपने कंधे पर उठाए सड़कों पर गुबार उड़ाती हुई भागती हैं. गोलगप्पे वाले से, ऑटो वाले से, बस कंडक्टर से लेकर फोटोस्टैट करने वाले तक से नई दोस्तियां करती हैं और समाज के तय खांचों की धज्जियां उड़ाती हुई चलती है. वहीं उनकी मां अपने तरीके से शहर से बदला लेती हैं. इतनी सारी अलहदा पहचानें एक ही समय में एक ही शहर में हैं. वे उसके साथ बदलती हैं, उसे बदलने की कोशिश करती हैं. शहर की छाती पर पैर रख उसे जीतने की मुहिम में गुबार उड़ाती हुई चलती हैं. विजेता कुमार के कॉलम ‘थ्रोइंग चॉक’ में आप आगे भी कई रोचक किरदारों से मिलते रहेंगे.

विजेता के क्लासरूम में लड़कियां अपने घरों को छोड़ शहर जा रही हैं, वहीं शहर विशेषांक की अगली कहानी में तेजपुर के नौजवान शहरों से नज़र मोड़कर अपने जंगलों की ओर आत्मीयता और बारीकी से देख रहे हैं. वहां रहकर उनका संरक्षण कर रहे हैं. इसमें उनकी मदद कर रही है – ग्रीन हब संस्था जो सीखने-सिखाने की एक ऐसी जगह है जहां ड्रॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के ज़रिए स्थानीय लोगों को प्रकृति के साथ के रिश्तों के बारे में बताया और सिखाया जाता है. इस विशेषांक में हम फ़िल्ममेकर रीता बैनर्जी के साथ जानेंगे वो कौन सी बातें है, वो क्या तरीके हैं जो किसी को अपनी जड़ों से बांधे रखते हैं.

ये सच है कि फ़िल्मों का हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर होता है. हम फ़िल्मों के ज़रिए अपने आप को जीते हैं. बड़े पर्दे पर चलने वाली कहानी ख़ुद की कहानी लगने लगती है. लेकिन, एक सिनेमाघर की किसी शहर के बनने में क्या भूमिका होती है? एक छोटे से गांव में एक थियेटर शुरू होता है जो रातों रात वहां की औरतों की ज़िंदगियों में तहलका मचा जाता है. कैसे? इस जिज्ञासा को ख़त्म करने के लिए सुनिए गुलाबी टॉकीज़.. निरंतर रेडियो की नई प्रस्तुति.

शहर विशेषांक एक तरफ़ा नहीं हो सकता. इसमें इसके पाठकों की भी उतनी ही भूमिका है. वो कहते हैं न अगर जुस्तजु है तो शौक-ए-नज़र पैदा कर… हमारे साथ शहर को देखने के नज़रिए की तलाश में हमारे साथी बनिए. जहां हम मिलकर शहर के कोने-कोने में घूमकर जानेंगे कि एक शहर में कितने शहर रहते हैं. इस सफ़र में हम शहर से मोहब्बत , उसकी कशमकश और उसकी ज़्यादतियों को देखेंगे.

शहर विशेषांक की इस घुमक्कड़ी में आइए हमारे साथ सलाम कीजिए उन तीन नारीवादी विचारकों – कमला भसीन, गेल ओमवेट और सोनल शुक्ला को जिन्हें हाल ही में हमने खो दिया लेकिन इनका काम और संघर्ष हर पल हमारा संबल है, हमारा इतिहास है.

साथ मिलकर एकबार पढ़ते हैं कमला भसीन की कविता ‘उमड़ती लड़कियां’ से ये पंक्तियां –

हवाओं सी बन रही हैं लड़कियां / उन्हें बेहिचक चलने में मज़ा आता है / उन्हें मंज़ूर नहीं बेवजह रोका जाना / पहाड़ों सी बन रही हैं लड़कियां / उन्हें सर उठा कर जीने में मज़ा आता है/ उन्हें मंज़ूर नहीं सर को झुका कर जीना…

 

Skip to content