सब कुछ होना बचा रहेगा
“क्या कोई मां का दूध डोनेट कर सकती हैं? दिल्ली में एक दिन का एक नवजात शिशु है, कोरोना से उसकी मां की मृत्यु हो गई है और अब वह इस दुनिया में नहीं है.” ट्विटर पर मीडिया संस्थान से जुड़ी मनीषा मंडल ने लोगों से मदद मांगी. इसके जवाब में सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक शफुरा ज़ारगर ने फौरन लिखा – हां, मैं दे सकती हूं.’
केरल की मरियम्मा दो साल से अपने परिवार से नहीं मिली हैं. वे राजस्थान के एक छोटे से कस्बे के सरकारी अस्पताल में सीनियर नर्स हैं “यहां इतने सारे लोग आते हैं अपने घरवालों को लेकर, मेरे पास फूर्सत नहीं कि मैं अपने घर जा सकूं.”
सफुरा, मनीषा, मरियम्मा कोरोना महामारी में लोगों की देखरेख यानी ‘केयर’ में लगी हैं. लेख में तीन नाम लिखे हैं, लेकिन यकीन है इन्हें पढ़ते हुए हममें से हर कोई तीस से लेकर तीन सौ नाम जोड़ सकता है. महामारी ने देखरेख करने वालों और मदद मांगने वालों के बीच के रिश्ते को पुनर्भाषित किया है.
लेकिन, यह सिर्फ़ इंसानियत के सवाल से नहीं जुड़ा है, बल्कि उन कई सवालों से जुड़ा है जो नारीवादी अर्थशास्त्री भी लंबे समय से पूछते आए हैं – कि हमारे समाज और आर्थिक व्यवस्थाओं में ‘देखभाल’ के काम का क्या मूल्य है? वैज्ञानिक सोच, अत्याधुनिक तकनीक एवं बुनियादी ढांचे में विकास का क्या महत्त्व है, जब दूर दराज़ के इलाकों एवं गांवों तक उसकी पहुंच तभी संभव हो पाती है जब, स्वास्थ्य सेवा सहायक उसे लोगों और समुदायों के बीच जाकर बताने या समझाने का काम नहीं करते. मतलब हम तकनीक को महत्त्व देते हैं, जिनकी सफलता सीधे तौर पर इन स्वास्थ्यकर्मियों पर निर्भर है. बदले में इन्हें समय पर तनख्वाह तक नहीं मिल रही. सवाल ये है असल में हम कहां निवेश कर रहे हैं? और हमें कहां निवेश करने की ज़रूरत है?
हम देख रहे हैं कि गांव से लेकर शहर तक टीकाकारण अभियान में स्वास्थ्यकर्मी ही पैदल चल-चलकर, गांव-गांव घूम कर इस अभियान को सफल बनाने में जुटे हैं. तो, कब तक हम ‘केयर या देखभाल’ के महत्त्व से मुंह मोड़ते रहेंगे? एक स्वस्थ देश और उसके आर्थिक विकास और जीडीपी में उसके योगदान को अनदेखा करते रहेंगे? हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़े पुरुष और महिलाएं, जिन्हें ‘फ्रंटलाइन वर्कर’ कहकर अब पुकारा जा रहा है, इस महामारी में सबसे आगे खड़े हैं. कोरोना ने बता दिया कि, जिनके साथ अब तक हम दोयम दर्जे का व्यवहार करते आए हैं, उनके साथ हमारी ज़िन्दगियां कितने गहरे रूप से जुड़ी हैं, उनपर परस्पर-निर्भर है.
बात ये भी है कि क्यों हमारे स्वास्थ्य की समझ केवल डॉक्टर, दवाई और अस्पतालों पर ही अटका दी जाती रही है? जबकि इसके अलावा और भी महत्त्वपूर्ण सवाल हैं जो इस महामारी में उभरकर सामने आए हैं – जो सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े हैं. किसकी पहुंच अस्पताल तक है? लॉकडाउन में रोज़ कमाने-खाने वालों का क्या? बिना अनाज और खाने के बीमारी से लड़ने की ताकत कैसे मिलेगी? हम अपने देश में स्वास्थ पर कितना पैसा ख़र्च करते हैं? हम किन सुविधाओं में निवेश करते हैं? क्या सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है? चिकित्सा ऋण और निजीकरण कैसे ग़रीबी से जुड़े हैं? जो लोग स्वास्थ सेवा के काम में लगे हुए हैं उन्हें इतनी कम तनख्वाह क्यों मिलती है?
इस सवालों ने हमें नारीवादी सोच के आधार पर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हालातों को ठहर कर देखने पर मजबूर किया. जन स्वास्थ्य व्यवस्था सिर्फ़ टीकाकरण या मासिक धर्म के बारे में बात करने जैसी सेवाओं तक सीमित नहीं है बल्कि यह एक सार्वजनिक प्रयत्न है, एक सुंदर, स्वस्थ जीवन की गुणवत्ता को सुरक्षित रखने के प्रति. ये समानता और समता के प्रयासों से भी जुड़ा है, जहां बराबरी के सपने और बदलाव की चाह नारीवादी प्रयासों का आधार हैं. सवाल है, इसका भविष्य क्या है?
इस संकलन में हर एक पंक्ति एक सवाल की तरह है. लेकिन, सवालों से हम सिर्फ़ कमियों को दिखाने की कोशिश नहीं कर रहे, बल्कि, भविष्य की ओर उम्मीद की नज़र से देख रहे हैं. क्या संभव है, वे कौन से रास्ते हैं जिनसे हमें गुज़रना है और हमारे हमराही कौन हैं जिनके बिना हम साथ नहीं चल सकते? जन स्वास्थ्य व्यवस्था विशेष संस्करण के ज़रिए हमने सामाजिक कार्यकर्ताओं, अर्थशास्त्रियों, चिकित्सकों, कम्यूनिटी लीडरों से बात कर सवालों का जवाब जानने की कोशिश की. इस संस्करण की पहली खेप में हमने सामाजिक कार्यकर्ता एवं पर्यावरणविद आशीष कोठारी से उन वैकल्पिक मॉडल के बारे में जाना जिसकी मदद से कई समुदायों ने महामारी के दौरान न केवल अपनी सुरक्षा की बल्कि अनाज एवं आवश्यकता की ज़रूरी चीज़ों का उत्पादन समुदाय के भीतर ही किया.
पत्रकार मेनका राव ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के पीछे का सच हमारे सामने खोलकर रख दिया. उन्होंने टीबी की बीमारी पर किए अपनी खोज़ी पत्रकारिता के आधार पर सरल शब्दों में बताया कि कैसे हमें मजबूर किया जा रहा है कि हम, अपनी सुरक्षा ख़ुद करें. और सरकार की तरफ़ से उम्मीद कम से कमतर रखें- जो सभी के लिए घातक है.
महामारी के दौरान महिलाओं के साथ हिंसा लगातार बढ़ रही है. सेहत संस्था की संजीदा अरोड़ा के साथ बात करते हुए हमने जाना कि जहां पहली लहर में इन ख़बरों की जानकारी मिल जाती थी वहीं दूसरी लहर के दौरान हिंसा के विषय पर कोई बात नहीं कर रहा. क्या वज़ह है इन खामोशियों की? और क्या महिला हिंसा सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा है? पढ़िए ‘सेहत’ से थर्ड आई टीम की बातचीत.
इसी संस्करण में बंगलुरू में पेशे से वक़ील क्लिफ्टन डी’रोज़ारियो ने कई सवाल खड़े किए जैसे, नीति की दृष्टि से राज्य सरकार ने पिछले साल के अनुभवों से क्या सीखा? साथ ही रोज़ारियो का मत है कि समाज में समतावाद की भावना के बिना एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली समतावादी नहीं बन सकती.
विकासवादी अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने हमें बातचीत के दौरान बताया कि स्वास्थ्य को बाज़ार के हाथ में नहीं छोड़ सकते. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में विवेकपूर्ण निवेश अर्थशास्त्र की दृष्टि से भी आवश्यक है. यहां पढ़िए रीतिका के साथ दिलचस्प बातचीत से अंश. इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए डॉ. अक्सा शेख ने धर्म, जाति और जेंडर के आधार पर ज़रूरी पांच महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के बारे में जानकारी हमसे साझा की जिसके ज़रिए एक समान जन स्वास्थ्य के लक्ष्य को हासिल जा सकता है. हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी और कोरोना महामारी के दौरान फ्रंटलाइन पर काम करने वाली आशा वर्कर्स की ज़िन्दगी कैसी होती है? जानिए हरियाणा की आशा वर्कर सुनीता रानी से उनके काम का सच.
साथ ही, जानिए उन तमाम जाने-अनजाने चेहरों के बारे जो रात और दिन ‘प्लीज़ हेल्प!’ की एक गुहार पर लगातार छोटे-बड़े प्रयासों से लोगों की मदद करते रहे.
महामारी और मैं – अकेले हैं तो क्या ग़म है? पॉडकास्ट में शहरों और गांवों से पांच अलग-अलग आवाज़ों ने द थर्ड आई के साथ बात कर महामारी में अकेले रहने के अनुभवों को साझा किया. निरंतर रेडियो के ज़रिए जानिए अकेले रहना कैसा होता है?
कोरोना की दूसरी लहर अब मद्धम पड़ रही है. लॉकडाउन खुल रहे हैं. धीरे-धीरे बाहर की दुनिया के पर्दे उठने लगे हैं. लेकिन, भीतर अब भी बहुत कुछ अंधेरे में हैं. कोई था जो अब नहीं है, हंसी-आंसू, आवाज़-स्पर्श, भाग कर गले लगा लेने की दबी इच्छाएं… इनके बीच से गुज़रती ज़िन्दगी. अपेक्षा के साथ ‘दुखों को मापने’ की एक कोशिश में समझिए अपने दुख को हम कैसे पहचान सकते हैं.
यह सिलसिला अभी आगे और चलेगा. जैसा कि हमने कहा कि अपने समय के ज़रूरी हाज़िर और गायब सवालों के साथ हम विशेषज्ञों से बातकर उनसे जवाब जानेंगे. हमें मालूम है कि ये सारे सवाल आपके मन में भी उठ रहे होंगे. हमें बताइए कि हम सही सवाल पूछ रहे हैं या नहीं. एक पाठक के बतौर आपके विचार हमें दिशा देंगे. उम्मीद है कि आप इस यात्रा में हमारे साथ हैं और हमें अपने विचारों से मार्गदर्शन भी देते रहेंगे.
इन्हीं सब बातों के साथ आइए कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता साथ मिलकर पढ़ते हैं –
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था /हताशा को जानता था /इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया / मैंने हाथ बढ़ाया /मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ / मुझे वह नहीं जानता था / मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था / हम दोनों साथ चले / दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे / साथ चलने को जानते थे.