1870 और 1920 के बीच की अवधि को पूरे भारत में दाम्पत्य/नव दाम्पत्य परियोजना (विवाहित जोड़े की एक नई कल्पना) को आगे बढ़ाने का उत्तम समय माना जा सकता है और यह महाराष्ट्र में भी बहुत अच्छी तरह से दिखाई देता है. इस अवधि के दौरान महिलाओं की जो आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं , वे पति-पत्नी की जोड़ी के रूप में नव दाम्पत्य की विचारधारा को बनाए रखने में कोई कोताही नहीं बरततीं और अपने मिले-जुले प्रयास के माध्यम से नई गृहस्थी (परिवार) का मार्ग प्रशस्त करती हैं. इसकी एक चरम सीमा हमें रमाबाई रानाडे की आत्मकथा में दिखाई देती है जहां वह अपने बारे में नहीं अपने पति को केंद्र में रखकर लिखती हैं. इस समय के उपन्यासों में भी उसी प्रेम पर ज़ोर है जो एक ही जाति और वर्ग के युवा दिलों के बीच पनपता है और पति-पत्नी की जोड़ी के निर्माण पर समाप्त होता है. यह जोड़ा स्वभाव, अभ्यास और संस्कृति के माध्यम से एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाता है, और इतिहास में एक नवीन, आदर्श और उन्नत हिन्दू परिवार का सृजन करता है.
समाज सुधारक पुरुषों की पत्नियां समाज में उनकी उपलब्धियों का बखान कर रही थीं, कि कैसे उन्हें अंधेरे से निकाल कर उजाले की ओर ले आने में उनके पति का हाथ था. यह सुधारकों के लिए गर्व की बात थी. इसके साथ-साथ एक नई पितृसत्ता को यह महिला लेखक खुद रच रही थीं.
प्रकाशित हो जाने के बाद, इन आत्मकथाओं को सुधारकों के अभिजात वर्ग के बीच प्रसारित किया गया. इनसे पति के निर्विवाद नेतृत्व में जोड़ीदार-विवाह को मज़बूत और संगठित करने का काम लिया गया.
पिछले दो दशकों में, नारीवादी विचारकों ने अपने असाधारण कौशल से हमारे लिए सामाजिक इतिहास के इस दौर की रूपरेखा तैयार की है. इस शोध की प्रक्रिया में जो चीज़ महिमामंडन में उपेक्षित रह गई थी उसपर ध्यान दिया जैसे: महिलाओं की आत्मकथाओं के विषय, आधुनिक सुधरे हिन्दू गृहस्थ का गुणगान, और इसके अपने असंतोष. यह मुख्य रूप से उन विधवाओं द्वारा स्पष्ट किया गया था जिन्होंने सुधारकों द्वारा बनाई गई सुंदर छवियों को बाधित किया. बाल-पत्नी के उस सुथरेपन पर सवाल उठाया, जिसमें पति का कहना मानने वाली अपनी आज्ञाकारी (दब्बू) पत्नी को अपने दिल की रानी और घर की मालकिन के रूप में बनने के लिए प्रेरित किया. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि विधवाओं की आवाज़ें दाम्पत्य की लफ़्फ़ाज़ी में खो अथवा दबा दी गई थीं. इन प्रतिरोधी स्वरों में ताराबाई शिंदे की आवाज़ भी शामिल थी, जिन्होंने उन आधुनिक पतियों के सतहीपन की आलोचना की जिनका औरतों को एक आधुनिक भूमिका में ढालने वाली इस परियोजना में कोई वास्तविक निवेश नहीं था. वे मूल आधार के बिना आधुनिकता का साजो-सामान हासिल करने के इच्छुक थे. ताराबाई ने ज़ोरदार लेख में उनका विरोध किया, लेकिन उनपर इतने क्रूर तरीके से हमला किया गया कि उन्होंने फिर कभी कुछ लिखा ही नहीं.
मैं इस आलेख में स्त्री-लेखन से ध्यान हटाकर पंडिता रमाबाई और उनके द्वारा स्त्रियों के गैर-वैवाहिक अस्तित्व का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए तस्वीरों के माध्यम से अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहती हूं. परिवार की जो नई रूपरेखा हमें दिखाई देती है, उसे तस्वीरों के माध्यम से रमाबाई ने, पुनर्परिभाषित करने, औरतों के जीवन में उसकी गैर मौजूदगी, यहां तक उसकी समाप्ति पर ध्यान केंद्रित किया. पति-पत्नी की तस्वीर से हटकर, जो अंततः 19वीं शताब्दी में नव दाम्पत्य का स्पष्ट प्रतीक बन चुकी थी (और जो आज भी हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रही है, जिसे परिवारों द्वारा आधुनिक गृहस्थी (पारिवारिक इकाई) के अनिवार्य प्रतीकों के रूप में गर्व से प्रदर्शित किया जाता है).
रमाबाई ने उस 'खुशहाल परिवार' की तस्वीर का पुनर्लेखन किया, क्योंकि उन्होंने कैमरे का इस्तेमाल उन दर्दनाक परिस्थितियों की तस्वीर को कैद करने के लिए किया था जिनके अधीन बाल पत्निया/विधवाएं उनके दरवाज़े पर आया करती थीं. कभी-कभी तो वह उन्हें वर्षों बाद ली गई तस्वीरों के साथ जोड़ दिया करती थीं, जिसमें उन लड़कियों के व्यक्तित्व में आया परिवर्तन साफ नज़र आता था, जिन्होंने शारदा सदन (विधवा आश्रम) में कुछ साल बिताए हों.
कभी-कभी वह अपने नए परिवार की तस्वीर को कैमरे में कैद करने के लिए पारिवारिक तस्वीरों के स्थापित रूप और अंदाज़ को अपने तरीके से प्रयोग करती. इन तस्वीरों में रमाबाई अपने नए परिवार को गढ़ती हैं – संकटपूर्ण परिस्थितियों की शिकार भिन्न-भिन्न जगहों से इकट्ठा हुई लडकियां, छोड़ दी गई या बेघर औरतें! रमाबाई और उनकी बेटी मनोरमाबाई, जिन्हें विधवा मां/बच्चे की जोड़ी के कुछ आरम्भिक स्टूडियो फोटोग्राफ्स में देखा जा सकता है, इस परिवार को और आगे ले जाती हैं. एक खूबसूरत तस्वीर है, जिसमें रमाबाई और मनोरमाबाई इस नए तरह से गढ़े गए या बनाए गए परिवार का केंद्र हैं जो अब अलग-अलग उम्र की छोटी-छोटी बच्चियों से घिरी बैठी हैं. यह परिवार इन्हीं दोनों का बनाया हुआ है. चित्र के ठीक बीच में रमाबाई एक बच्ची को गोद में लिए बैठी हैं, जबकि एक अन्य छोटी लड़की ने अपना सिर उनकी गोद में रख रखा है. रमाबाई के नज़दीक मनोरमाबाई हैं, जिनकी गोद में एक अन्य बच्ची है. दोनों मां और बेटी अन्य छोटी लड़कियों से घिरी हुई हैं. 1900 के दशक की शुरुआत में प्रकाशित एक किताब में दर्ज एक छोटे से विवरण से हमें पता चलता है कि रमाबाई ने किस तरह अकाल पीड़ित बच्चियों के बड़े समूह को एक अजनबी जगह पर अपने घर जैसा महसूस कराने की तरकीब निकाली थी. सदन की सभी पुरानी छोटी लड़कियों और युवा बाल विधवाओं से अनुरोध किया गया कि वे नई बच्चियों में से किसी एक को गोद लें, ताकि वे इस महासंकट स्थिति और लावारिस छोड़ दिए जाने के बावजूद प्यार और अपनापन महसूस कर सकें.
सबसे चौंकाने वाली तस्वीरों में अकाल के बाद के उनके विस्तारित परिवार की तस्वीरें हैं:
एक तस्वीर में सैकड़ों विधवाएं हैं तो दूसरी में सैकड़ों छोटे-छोटे बच्चे. क्योंकि उस ज़माने में वाइड एंगल लेंस उपलब्ध नहीं था, ऐसे में ग्रुप फोटोग्राफी के लिए कुछ तकनीक इस्तेमाल की गई थी. सामूहिक चित्र को अलग-अलग टुकड़ों में शूट किया गया था और फिर उनको तकनीक की मदद से जोड़कर ग्रुप फोटो का रूप दिया गया था. ये तस्वीरें सचमुच अद्भुत हैं.
तस्वीरें दर्शाती हैं कि कैसे नाटकीय रूप से रमाबाई ने अपने जीवन और काम में पारम्परिक सोच की सीमाओं के खिलाफ खुद को खड़ा किया और उस प्रक्रिया का उसकी पूरी नाटकीय तीव्रता के साथ दस्तावेज़ीकरण करने में भी हमेशा कामयाब रहीं.
अन्य तस्वीरों से पता चलता है कि रमाबाई की दुनिया में नए पारिवारिक जुड़ाव या संबंध हमेशा बड़े समूहों के ही नहीं होते थे, बल्कि छोटे अंतरंग संबंधों के भी होते थे: एक मां और उसकी दो बेटियों के चित्र समेत हमारे पास ऐसी कई तस्वीरें हैं, जिससे यह बात साबित होती है. मां और दो बेटियों वाली तस्वीर को ही लें, फोटो कैप्शन के मुताबिक मां हिंदू थी, जबकि बड़ी बेटी ने ईसाई धर्म अपना लिया था, छोटी बेटी के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है: किसी भी नुक्ते से तस्वीर की व्याख्या की जाए, दी गई जानकारी अप्रासंगिक ही प्रतीत होती है. तस्वीर में तीनों महिलाएं एक-दूसरे से बिल्कुल लिपटी हुई हैं; बीच में कुर्सी पर मां बैठी है; बड़ी बेटी का हाथ मां के कंधे पर है. बड़ी बेटी सम्भवतः बाल-विधवा है जो शारदा सदन में रहती है और वह उन लड़कियों में से एक है, जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था और जिस कारण पूना में खूब हंगामा भी हुआ था. वह मां के पीछे खड़ी है और अपना स्नेहिल हाथ मां के कंधे पर रख रखा है, जबकि छोटी बेटी मां की गोद में कोहनी टिकाई फर्श बैठी हुई है.
एक अन्य चित्र में रमाबाई के सौतेले भाई की दूसरी पत्नी, मामी दिखाई देती हैं. दूसरी पत्नी होने और निःसंतान विधवा होने के कारण ससुराल में प्रताड़ित मामी की हालत को देख रमाबाई नाराज़ थीं और इसीलिए रमाबाई उन्हें पूना ले आई थीं. मामी ने शारदा सदन को अपना नया घर बनाया और रमाबाई के साथ रहने लगीं. मामी ने नन्ही कृपा को गोद लिया था. नवजात कृपा सड़क पर लावारिस हालत में मिली थी. तस्वीर में कृपा मामी की बगल में गेंद पकड़े खड़ी है, उसका गाल मां के चेहरे के पास है, मां ने बेटी को अपनी बांह के घेरे में ले रखा है.
रमाबाई ने अपने समय की ‘सामाजिक रूप से परित्यक्त और घरेलू हिंसा और शोषण’ की शिकार स्त्रियों के लिए संस्थान की स्थापना की थी. इनमें से कई अंतरंग चित्र स्पष्ट रूप से किसी स्टूडियो में लिए गए थे लेकिन अन्य तस्वीरें बाहर (आउटडोर में) ही ली गई थीं. ऐसी ही एक तस्वीर में छह युवा विधवाएं हैं जो शारदा सदन के मैदान में एक साथ बैठी हैं, तस्वीर में एक कुत्ता भी नज़र आ रहा है. चित्र बिल्कुल घरेलू परिवेश को दर्शाता है, जहां चीज़ें बिल्कुल सहज और प्राकृतिक हैं.
रमाबाई ने केडगांव में उनके द्वारा स्थापित नई संस्था मुक्ति सदन को लेकर जो काम किया उसके लिए ये बाधाएं संदर्भ हो सकती हैं: उन्होंने मुक्ति सदन को अध्ययन और काम की जगह में बदल दिया, और इस तरह मुक्ति सदन को आत्मनिर्भरता की राह पर ला खड़ा किया.
मैंने उनकी ओर से उठाए गए इस कदम को उस स्थिति में परिवार को दोबारा बनाने/बसाने के बारे में सोचने के एक नए तरीके के रूप में पढ़ा, जहां उनके पास बहुत कम पारम्परिक संसाधन थे. डोंगरे परिवार की छोटी ईकाई के रूप में, जो कि घुमक्कड़ थी और जिसके पास भूमि या धन जैसे कोई संसाधन नहीं थे. और अगर थे भी तो किसी भी तरह से वह एक महिला के रूप में उसकी हकदार नहीं थीं क्योंकि उन्होंने खुद नागरिक विवाह अधिनियम के तहत अंतर्जातीय विवाह किया था. इस कारण हिंदू कानून के तहत पुरुषों को पैतृक संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता था, ऐसे में पति की मृत्यु के बाद उन्हें विरासत में संपत्ति के बजाय पति द्वारा लिया गया कर्ज़ ही मिला था, जो उन्हें चुकाना था.
ऐसा लगता है कि रमाबाई ने दूरदर्शिता और अथक परिश्रम के ज़बरदस्त प्रदर्शन से केडगांव की ज़मीन को एक ऐसे संसाधन में बदल दिया जो मुक्ति सदन के निवासियों के लिए भोजन और अन्य ज़रूरत की चीज़ों का उत्पादन करने में सक्षम हुई. आंतरिक रूप से ऐसी लड़कियों और महिलाओं के (जो समाज में अब किसी भी मूल्य की नहीं मानी जाती थीं) सामाजिक पुनः उत्पादन के इस नए प्रयास ने, मुक्ति सदन के अंदर और बाहर, सब्ज़ियां उगाने, डेयरी चलाने, कताई और बुनाई, और किताबों की छपाई समेत बहुत सारे काम करने का कौशल प्रदान किया, जिसका वे बाद के जीवन में भी उपयोग कर सकती थीं. बहुत सारी औरतें और लड़कियां मुक्ति सदन में आतीं और जाती भी रहती थीं. इसे भी उन्होंने तस्वीरों की एक शृंखला के माध्यम से दस्तावेज़ किया जो 19वीं शताब्दी के लिहाज़ से बहुत अनोखा है क्योंकि ये ऐसी गतिविधियां थीं जो महिलाओं ने पारम्परिक गृहस्थी के बाहर की थीं. अभी तक महिलाओं के लिए सामान्य पुनरुत्पादन का मायना था – बच्चे पैदा करना, और इसके साथ-साथ सम्पत्ति का, उनको हस्तांतरण, जिसके बिना आदर्श परिवार सहज ही समाप्त हो जाएगा. मुक्ति सदन में रमाबाई का काम इस पुनरुत्पादन की प्रक्रिया से बिल्कुल अलग था.
यह सब 19वीं सदी में प्रचलित विचारधाराओं से कितना अलग था, यह आनंदीबाई जोशी और रमाबाई के बीच तुलना से स्पष्ट होता है. जैसा कि सर्वविदित है आनंदी ने अमेरिका में बाल विवाह प्रथा को उचित ठहराया, अपने पति द्वारा की गई हिंसा का ज़िक्र करते हुए आनंदी ने उन्हें पत्र लिखे, लेकिन पत्नी की अपनी भावनात्मक अभिव्यक्तयों से मुंह नहीं मोड़ा. यहां तक कि वे यह सोचती रहीं कि पति के अमेरिका आने पर उसका अभिवादन कैसे करना चाहिए क्योंकि उसका अमेरिकी परिवार उनसे चुम्बन की उम्मीद करेगा. उन्होंने अपने प्रारम्भिक ब्राह्मणवादी समाजीकरण से दृढ़ता से अपने विचारों के साथ उचित दाम्पत्य भावनाओं को व्यक्त करने के लिए इन नए अनुष्ठानों को जोड़ा: जाति और वर्ग की सीमाएं. जिन्हें हर समय बनाए रखा जाना चाहिए. आश्चर्य नहीं कि ‘आर्य हिन्दुओं में प्रसूति-विज्ञान’ शीर्षक से उनकी थीसिस प्रसव पर थी, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि भारत लौटने पर वे बतौर स्त्री रोग विशेषज्ञ अपनी सेवाएं देंगी. शिशु को दूध पिलाने के संदर्भ में उनका सुझाव बड़ा ही दिलचस्प है कि यदि मां खुद ऐसा करने में असमर्थ है, तो उसे दूध पिलाने वाली नर्स (धाय) की सेवा लेनी चाहिए.
उन्होंने लिखा है:
धाय उसी जाति और वर्ग की होनी चाहिए, जिस जाति और वर्ग का बच्चा है. उसका शरीर सुंदर (दोषरहित), अच्छा रूप-रंग और स्वभाव प्रेमपूर्ण होना चाहिए. उसका कद मध्यम, आयु मध्यम, और स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए. वह पुरानी बीमारियों से रहित और निर्लोभ [प्रकृति में] होनी चाहिए… उसका दूध अच्छी गुणवत्ता का होना चाहिए और आसानी से बहना चाहिए. उसे एक अच्छा पारिवारिक इतिहास प्रस्तुत करना चाहिए… उसे एक से अधिक बच्चों को दूध नहीं पिलाना चाहिए… उसके दूध से बच्चे को स्वाभाविक रूप से अच्छा या बुरा गुण विरासत में मिलेगा… मुझे इस बारे में कुछ नहीं कहना है कि वह नैतिक और बौद्धिक दोनों तरह से बच्चे पर क्या प्रभाव डालती है.
मुझे आश्चर्य नहीं है कि आनंदीबाई पर एक नई किताब के संग्रह के लिए आनंदीबाई और उनके पति गोपाल राव की एक युगल जोड़ी की तरह तस्वीर बनाने का प्रयास किया गया है. भारत लौटने के तुरंत बाद उनकी मृत्यु, शिक्षित लेकिन धर्म के प्रति समर्पित, भावनाओं के एक विरोधाभास, लगभग एक उन्मादपूर्ण अंतिम संस्कार में तब्दील हो गई, क्योंकि उनकी मृत्यु एक ‘सुमंगली’ के रूप में हुई थी, और अंतिम संस्कार से पहले उनकी तस्वीर खींची गई थी. उन्हें एक हिन्दू पत्नी के प्रतिरूप के रूप में याद किया जाना था. पहले भी कई तस्वीरें ली गई हैं जब आनंदीबाई फिलाडेल्फिया में डॉक्टर बनने के लिए अध्ययन कर रही थीं: दो अन्य विदेशी महिलाओं के साथ उनकी एक प्यारी सी तस्वीर, जो डॉक्टर बनने के लिए भी पढ़ रही हैं और कई ऐसी तस्वीरें जहां उन्होंने गुजराती शैली में साड़ी पहनी हुई है, लेकिन कहा गया कि ये 9 गज के महाराष्ट्रियन संस्करण के विपरीत हिंदुस्तानी शैली की है. महाराष्ट्रयी शैली की साड़ियां ठंडी जलवायु में पहनने के लिए बोझिल थी. इनमें से एक तस्वीर जो गोपालराव को भेजी गई वो हज़ारों मील दूर स्थित पति द्वारा आलोचना एवं आनंदीबाई के ऊपर अपने पति द्वारा निगरानी की शक्तियों का दावा करने में सक्षम थी. आनंदीबाई को यह तर्क देकर अपना बचाव करना पड़ा कि हिंदुस्तानी शैली में साड़ी पहनने से उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि वह भी उन्हीं के लोगों की पोशाक थी!
मुझे कतई हैरत नहीं है कि रक्माबाई और उनके पति दादाजी की कोई जोड़े से तस्वीर उपलब्ध नहीं है. दादाजी अपनी युवा पत्नी, जिसके साथ उनकी शादी पूर्णता तक नहीं पहुंची थी, को वैवाहिक अधिकारों के मुआवज़े के लिए अदालत में ले गए थे. दरअसल रक्माबाई को अपने पिता से एक वसीयत के माध्यम से विरासत में पर्याप्त संपत्ति मिली थी और दादाजी उसी संपत्ति पर नियंत्रण हासिल करना चाहते थे.
यह मामला भारत में तब बड़ा कुख्यात हुआ था जब अभियोग को ठुकराते हुए रक्माबाई ने विवाह की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि विवाह के समय वे नाबालिग थीं और इस अर्थ में उनकी सहमति के बिना यह विवाह किया गया था.
रक्माबाई के इस कदम ने सामूहिक उन्माद को जन्म दिया क्योंकि रक्माबाई का व्यवहार हिंदू दाम्पत्य की आदर्श धारणाओं के अनुरूप नहीं था. दाम्पत्य कानून के पालन में विफलता के लिए जेल भेजे जाने की धमकी के बाद रक्माबाई ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे. वास्तव में उन्होंने दादाजी से अपनी आज़ादी खरीदी थी और फिर वे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चली गई थीं. यह उनके जीवन का एक ऐसा चरण था जिसका हमारे पास एक एकल लेकिन सुंदर फोटोग्राफिक रिकॉर्ड मौजूद है.
दिलचस्प बात यह है कि जहां रमाबाई की विधवा होने से पहले की, युवा महिला के रूप में एक शानदार तस्वीर है – किताबों के एक सेट के साथ लगभग 1880 ई. की तस्वीर, और उनके विधवा होने के बाद की उनकी असंख्य तस्वीरें हैं, और हम यह भी जानते हैं कि उन्होंने चित्रों का इतना शक्तिशाली उपयोग किया: रणनीतिक रूप से विधवा के वेश का उपयोग करते हुए अमेरिका में एक अवसर पर सिर से पैर तक सफेद रंग के कपड़े में उन्होंने खुद को लपेट रखा है, उनको देखकर ऐसा लगता है गोया वे कोई नन हों, हालांकि भारत में उन्होंने कभी ऐसा कुछ नहीं किया.
एक अन्य अद्भुत तस्वीर में रमाबाई एक महार महिला के रूप में नज़र आ रही हैं ताकि वह वृंदावन से विधवाओं को बचाने के लिए गुप्त यात्रा कर सकें. यह तस्वीर कुछ हद तक विडम्बनापूर्ण है: रमाबाई और उनके पति दोनों को उनके समुदायों द्वारा प्रतिलोम अंतर्जातीय विवाह करने के कारण बहिष्कृत कर दिया गया था, इसलिए रमाबाई द्वारा निम्न जाति की महिला का रूप धारण करने के लिए चुनी गई विशेष पोशाक में यहां कुछ हास्य भाव भी है. और भी दिलचस्प बात यह है कि एक अन्य तस्वीर जिसमें रमाबाई महार महिला के गेटअप में नज़र आ रही हैं, ‘भारतीय नारीत्व के दोष’ (Wrongs of Indian Womanhood) नाम की किताब में छपी है, लेकिन उसमें उनका कोई परिचय नहीं दिया गया है, बल्कि महज़ निम्न जाति की महिला की तस्वीर के रूप में प्रस्तुत किया गया है!
और फिर भी रमाबाई की उनके पति के साथ कोई तस्वीर नहीं है. हमें हैरानी होती है: क्या कोई ऐसा भी था जिसे उन्होंने अपने दस्तावेज़ों में संरक्षित नहीं किया था, या उसकी अनुपस्थिति उनके जीवन में इसकी अप्रासंगिकता का संकेत थी? हमें कभी पता नहीं चल पाएगा. क्षणों या पलों का ‘आर्काइव’, यानी जो उस समय मौजूद है, वह ऐसी तस्वीर के अस्तित्व पर चुप है. इसलिए हमें उसे उसी तरह छोड़ देना चाहिए – आर्काइव या संग्रह, कभी भी हमारे सभी सवालों का जवाब नहीं दे सकता: कुछ तो हमारी कल्पनाओं के दायरे में भी रहना चाहिए.
सार संक्षेप यह कि 19वीं सदी की नव दाम्पत्य परियोजना में लगभग उन्मुक्त निवेश के युग की कहानी बयान करने के लिए अभी और इतिहास भी हैं.
इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.