बिक्सू, हिंदी का सर्वाधिक चर्चित ग्राफिक नॉवेल है. कहानी में बारह साल का लड़का विकास कुमार विद्यार्थी जिसे प्यार से सभी बिक्सू पुकारते हैं, अपने घर से दूर एक मिशनरी बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया है. एक तरफ पीछे छूटे घर, गांव और परिवार की याद है तो दूसरी तरफ नई दुनिया, दोस्त और बोर्डिंग स्कूल के विचित्र अनुभव. कहीं घुड़मडिया सर की निराली अंग्रेज़ी तो कहीं फादर चोन्हास का सरल ज्ञान, कभी नई फुटबॉल से खेलने का मौका मिलने पर गर्व है तो कभी चिलचिलाती गर्मी में नहाने का पानी ढूंढने का सुख.
झारखंड के आदिवासी इलाके गुमला में स्थित संत इग्नासियस बोर्डिंग स्कूल में हिंदू बच्चे रोज़ सरसती वंदना करते हैं, आदिवासी बच्चे रोज़ सरना स्थल में सरना गीत गाते हैं और क्रिश्चन बच्चे गिरजाघर जाते हैं. वे अपने खाने की सब्ज़ियां खुद उगाते हैं और आंधी-तूफान से फैली तबाही को समेटने के लिए मिलकर लगातार तीन दिनों तक स्कूल की सफाई करते हैं. स्याह और सफेद के खांचों से परे यह रंग-बिरंगे अनुभवों की कहानियां है. यह किताब क्रिश्चन मिशनरी और बोर्डिंग स्कूल को लेकर हमारी कई जटिल धारणाओं को भी तोड़ने का काम करती है.
लेकिन, इसके साथ ही यहां से शुरु होती है पहचान, आकांक्षाएं, अभाव, भाषा, संस्कृति और भिन्न वातावरण के बीच स्कूल व्यवस्था और उसके भीतर फिट-अनफिट के खांचें कैसे काम करते हैं, उसे जानने-समझने की यात्रा. जब हम कहते हैं कि बच्चों की अपनी अलग दुनिया होती है तो क्या हम यह समझ पाते हैं कि वे कौन से औज़ार हैं जिससे बच्चे अपनी अलग दुनिया का निर्माण करते हैं? कैसे वो बड़े-बड़े युद्धों को ‘फुंसी से घाव बनने’ जैसे सरलतम मुहावरे में बयां कर जाते हैं या तितलियों और अबाबीलों से आसानी से बात कर पाते हैं?
बिक्सू की कहानी चारों तरफ से बंद कमरे की खिड़कियों को खोल ताज़ी हवा को अंदर आने देने जैसा है. अपनी तमाम साधारणताओं के साथ, अपनी तमाम विलक्षणताओं के यह सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में चिट्ठियों की एक अहम भूमिका को फिर से स्थापित करती है. कई दशकों से नारीवादी अध्ययन में महिलाओं की चिट्ठी एक अनमोल स्रोत रही हैं महिलाओं की नज़र से समाज और सामाजिक रिश्तों को समझने की. अपने 35 पेज की चिट्ठी में विकास कुमार विद्यार्थी ने शिक्षा और किशोरमन के असंख्य अनुभवों को हमारे सामने रखा है.
इस ग्राफिक नॉवेल को मधुबनी लोक कला में तैयार करने का काम किया है मधुबनी कलाकार राज कुमारी ने. एमआईटी मुज़फ्फरपुर से इंजीनियरिंग और हैदराबाद स्थित एनआईएफटी डिज़ाइन से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है. वे फ़िल्मों के पोस्टर एवं अलग-अलग वेबसाइट के साथ डिज़ाइन का काम करती हैं. इसके साथ ही विकास की लिखी लंबी चिट्ठी को बिक्सू की पटकथा में बदलने का काम किया है लेखक, निर्देशक एवं पटकथा लेखक वरुण ग्रोवर ने. द थर्ड आई शिक्षा संस्करण में हमने राज कुमारी से एक चिट्ठी के चित्रात्मक उपन्यास में ढलने की प्रक्रिया, शिक्षा के अनुभवों और सीखने-सिखाने की गतिशील और अबाध प्रक्रिया पर लंबी बातचीत की. पढ़िए बातचीत से कुछ अंश:
‘बिक्सू’ के बनने की कहानी क्या है?
मैं एक शादी में अपने घऱ गई थी जहां मेरे भाई विकास ने मुझे 35 पेज की एक चिट्ठी दी. उस चिट्ठी को मैं एक सांस में पढ़ गई. ईमानदारी बहुत सुंदर होती है. उसकी अनगढ़ता औऱ मौलिकता में गज़ब का आकर्षण होता है. उस वक्त चिट्ठी पढ़ते हुए विकास की इसी ईमानदारी ने मुझे जकड़ लिया था. उसकी नितांत व्यक्तिगत कहानी का जैसे साधारणीकरण हो गया हो और मैं उसमें शिक्षा, शिक्षक, पहचान, अस्तित्व, घर, प्यार, दोस्ती, अभाव, जैसे तमाम विषयों के बीच एक इंसान के बनने की प्रक्रिया को देखने लगी.
जब भी हम बोर्डिंग स्कूल का नाम सुनते हैं तो हमारे मन में पहाड़ों पर या किसी खूबसूरत से इलाके में अंग्रेज़ी माध्यम के महंगे स्कूलों की छवि बनती है. लेकिन, बिक्सू की कहानी है झारखंड के जंगलों में बसे एक मिशनरी स्कूल की जहां बच्चे अपने खाने के लिए साल भर का अनाज खुद लाते हैं और अपने लिए सब्ज़ियां भी उगाते हैं. इसके बावजूद स्कूल उनके लिए अलग-अलग तरह के अनुभवों का संसार खोलता है.
चिट्ठी पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसपर कुछ करना चाहिए. मैंने चिट्ठी अपने पार्टनर को दिखाई. उसने भी एक सांस में पूरी चिट्ठी पढ़ ली. उसका भी यही कहना था कि इस कहानी को सभी को पढ़ना चाहिए. चिट्ठी को ग्राफिक नॉवेल में तैयार करते हुए हमने विकास की चिट्ठी के सारे मूल भाव हु-ब-हू सामने रखे हैं.
हॉस्टल की ज़िंदगी की वे सारी बातें, सारे अनुभव जो जीवन के अनुभवों में जुड़ते जाते हैं. जैसे, पहले सलमान कट, संजय दत्त और शाहरुख कट में बाल कटवाने वाले बच्चे, फादर चोहांस से शहीद अलबर्ट एक्का की कहानी सुनने के बाद ‘एलबर्ट एक्का कट’ में बाल सेट करवाने लगते हैं. चिट्ठी में सबसे खास है फादर चोहांस का ज़िक्र जिनके बारे में बात करते हुए बिक्सू का कहना है, “ फादर चोहांस आए तो जइसा हम पहिले बताए हैं कि संत इग्नासियस में सब कुछ सुधरने लगा. इसका असर ये हुआ कि बच्चा लोग बिहान से सांझ तक खुश रहने लगा.” एक शिक्षक की हमारे जीवन में क्या भूमिका होती है इसे समझने के लिए इससे बेहतर शब्द और क्या हो सकते हैं!
किताब में एक बहुत सुंदर सा उदाहरण है जब फादर चोहांस जर्मनी से अपने दोस्त फादर माइकल को न्यौता देते हैं कि वो उनके स्कूल के बच्चों को हॉकी की ट्रेनिंग देने आएं. फादर माइकल गुमला आ तो जाते हैं कि यहां नौबत ये है कि गुड़मुड़िया सर तक की अंग्रेज़ी को न समझने वाले बच्चों के लिए फादर माइकल की भाषा समझना तो नामुमकिन ही था.
“तुम लोगों को इतना अंग्रेज़ी भी नहीं आता कि अगर विदेश में छोड़ दें तो भीख भी नहीं मांग सकेगा.”
स्कूल के साथ विकास का रिश्ता कैसा था?
हम स्कूल को कैसे देखते हैं? अक्सर स्कूल में पढ़ने-लिखने-सीखने के दौरान कई चीज़ें ऐसी होती हैं जिसका सार हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है. लेकिन वहीं कई ऐसी भी चीज़ें होती हैं जो झक्क-मार कर भी कभी हमारी साथी नहीं बन पातीं. शिक्षा की प्रक्रिया में हम अपने वातावरण के साथ भी एक रिश्ता बनाते हैं. फिर वो चाहे किसी दोस्त के साथ हो, हॉस्टल के रूम के साथ हो या आसपास के जंगल के साथ. वो हमारी याद का हिस्सा बनते जाते हैं, हमारे वजूद में घुल मिल जाते हैं. बिक्सू भी अपनी ऐसी दुनिया में बहुत खुश था.
फादर चोहांस के आने से पहले हॉस्टल में कीड़े वाले चावल को उसने पहले खाना सीखा, फिर उसका मज़ाक बनाना सीखा, फिर उसके साथ खुश होना सीखा. नया फुटबॉल मिलने की खुशी इतनी ज़्यादा थी कि खेल खत्म होने के बाद फुटबॉल धोने की ज़िम्मेदारी को उसने गर्व से पूरा किया. उसने उस दिन पहली बार महसूस किया कि नए फुटबॉल की महक कैसी होती है और कई सालों तक वो महक बिक्सू के ज़ेहन में महकती रही.
वहीं उसके लिए गणित के सवालों को हल करना या हिंदी में एक सामान्य वाक्य बिना गलती के लिख पाना बहुत कठिन काम था. उसमें विश्लेषण करने की क्षमता बहुत कमज़ोर थी. उसके व्याकरण की गलतियों को देखकर लोग उससे कहते, “अरे, तुम इतने बड़े हो गए हो लेकिन तुम्हें एक वाक्य भी सही से लिखना नहीं आता”. पर, वहीं वो अपनी चिट्ठी में लिखता है,
“घटनाएं कितनी भी बुरी हों उनकी याद हमेशा सुखद होती है.” ये बहुत गहरी बात है जो उसने सहजता से कह दी.
यहां कहने का अर्थ है कि जब हम यहीं अटक जाते हैं कि वो बिना गलती किए एक वाक्य सही से नहीं लिख पाता या वो a²+b² का हल क्यों बता पाता, तो इसे कौन समझने की कोशिश करेगा कि रोज़मर्रा की उसकी बातों में अपने आसपास के प्रति कितनी गहरी संवेदना छिपी है. वो इतिहास की तारीखों और घटनाओं को नहीं याद कर पाता बल्कि सवाल करता है – “लोग आपस में लड़ाई क्यों करते हैं?”. पढ़ाई और परीक्षा में फेल हो जाने का जो डर हम लगातार बच्चों में भरते रहते हैं वो एक दिन इतने बड़े भूत में बदल जाता है कि रात-दिन पढ़ाई करने के बावजूद बिक्सू को लगता है कि डर का भूत हर जगह उसका पीछा कर रहा है. एक दिन बिक्सू ने उस भूत से पूछ ही लिया कि “कोई कितना पढ़ेगा? दिमाग पगला गया है. आप कितना पढ़े थे बोर्ड में?” इस पर डर के भूत ने कहा “हम? हम तो फेल हुए थे. लेकिन आज तक जीतने बच्चों को डराएं सब पास हुआ है, रिकॉर्ड है मेरा.” उसे ये बात समझ आ गई कि डर के भूत से बचना है तो दूसरों के ताने सुनना बंद करना होगा. अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने का इससे सरल उपाय मैंने तो नहीं जाना आज तक.
दरअसल, शिक्षा के भीतर ये जो दो हिस्से हैं – विश्लेषणात्मक और भावनात्मक – ये एक दूसरे के विलोम हैं, पूरी तरह विरोधाभासी हैं.
हमने शिक्षा में विश्लेषणात्मक गुण को इतना ज़्यादा बढ़ा-चढ़ा दिया है, उसे इतना ज़्यादा महत्त्व देने लगे हैं कि हम उससे ही किसी की सफलता-असफलता का आंकलन करते हैं.
लोक, मधुबनी पेंटिंग और एक आदिवासी क्रिश्चन बोर्डिंग स्कूल की कहानी इसका मेल कैसे बैठा?
पहला सवाल मेरे सामने यही था कि मुझे मधुबनी में काम करना चाहिए या नहीं? अगर करना चाहिए तो उसमें क्या बनाना चाहिए. लंबे समय तक मैं खुद से यही पूछती रही कि कहीं मैं इस आर्ट फॉर्म के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रही. और इसकी वजह से मैं सालों तक इसे नहीं बना पाई.
क्योंकि मुझे पेंटिंग का व्याकरण नहीं आता था और मेरे लिए बड़े साइज़ के कैनवस को छूना भी बहुत डरावना ख्याल था. लेकिन, मधुबनी पेंटिंग्स मुझे आकर्षित करती थीं और मैं उसमें कुछ करना चाहती थी. मधुबनी एक लोक-कला है जिसमें गांव की संस्कृति, रोज़मर्रा के जीवन में बसी पौराणिक एवं धार्मिक गाथाओं को मूर्त रूप दिया जाता है. तो, क्या मैं शहर में रहकर इसे नहीं बना सकती? ये सवाल मैं खुद से पूछ रही थी.
मैं यही मानती रही हूं कि लोक-कला जनमानस की चीज़ है और उन्हीं के बीच रहकर वो सांस लेती है और आगे बढ़ती है.
इसी मान्यता के आधार पर मैंने तय किया कि जब मैं मधुबनी बनाऊंगी तो उन्हीं चीज़ों को उसमें शामिल करूंगी जो मेरे अनुभव हैं. मैं धार्मिक नहीं हूं न ही किसी रीति-रिवाज में मेरा विश्वास है. मैं राधा-कृष्ण की मूर्ति नहीं बना सकती! मैं तो अपने आसपास की कहानियां ही इसके ज़रिए कह सकती हूं. इस तरह मैंने बिक्सू पर काम करना शुरू किया.
हर एक ऑर्ट फॉर्म की अपनी गरमाहट होती है और मधुबनी ने बिक्सू को किसी अपने की तरह वो गर्माहट दी है. एक बच्चे की दुनिया – दो आयामी लेकिन बहुत रंगीन, कल्पना की उड़ाने भरती हुईं, दिमाग में कौंधते हर पल नए विचार और फिर भी सीधी, जीवंत, आसानी से समझ आने वाली – ये सारे तत्व मधुबनी को बिक्सू का आदर्श वाहन बना गए.
बिक्सू की भाषा छोटा नागपुरी हिंदी है जो सामान्य हिंदी से थोड़ी अलग है. क्या भाषा कभी चुनौती थी?
मेरी खुद की भाषा छोटा नागपुरी रही है. बिक्सू को बनाते हुए भाषा मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. क्योंकि ये सिर्फ़ बिक्सू की परेशानी नहीं थी बल्कि भाषा को लेकर मेरी खुद की कुंठाएं उसमें भरी हुई थीं. बिहारी बोलियों की एक अलग पहचान होती है. सुनने में वे एक रिदम की तरह महसूस होती हैं. इसे ही प्रचलित रूप में ‘बिहारी टोन’ कहते हैं और सच ये है कि इसे अक्सर हिकारत की नज़र से देखा जाता है, उसका मज़ाक बनाया जाता है. जब मैं नई-नई मुम्बई आई थी, उस वक्त मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती थी और मेरी हिंदी भी बिहारी टोन वाली थी. तो, मेरे भीतर इसे लेकर मानसिक जकड़न थी और मैं ये कह सकती हूं कि आमतौर पर बिहारियों में ये जकड़न सबसे ज़्यादा देखी जा सकती है.
होता यही है कि जो भी चीज़ हमें नहीं आती है वो हमारे कद से बहुत बड़ी हो जाती है. और उसके सामने जो हमें आता है वो हमेशा छोटा लगने लगता है.
अब मैं करूं क्या? मेरा मकसद विकास की कहानी कहना है और मैं उसकी भाषा को ही मार कर ये नहीं कर सकती थी.
तभी मैंने इसे छोटा नागपुरी में ही लिखने का तय किया. भाषा को लेकर लिए इस निर्णय ने मेरे भीतर बहुत सारे बदलाव को जन्म दिया. इसने मुझे अपनी भाषा के साथ जीना और उसमें सहज होना सिखाया.
आदिवासी बच्चों के मन की बात
पहले पहल जब एकलव्य प्रकाशन की पत्रिका चकमक में बिक्सू के शुरुआती एपिसोड प्रकाशित हुए तो यकीन नहीं हुआ कि बिक्सू की कहानी सच में बच्चों तक पहुंच रही है. एक दोपहर मेरे पास चकमक के संपादक सुशील शुक्ला का उनके दफ़्तर के नंबर से फोन आया. उन्होंने बताया कि एक छोटी बच्ची अपने पापा के साथ उनके ऑफिस आई है ये पूछने के लिए कि “बिक्सू अब कब आएगा?” अगले एपिसोड के लिए वो एक महीने का इंतज़ार नहीं कर पा रही थी. वो इतनी छोटी थी कि खुद से मैगज़ीन नहीं पढ़ सकती थी. उसके पिताजी उसे बिक्सू की कहानी पढ़कर सुनाते थे. और भी जगहों से बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों की ऐसी ही प्रतिक्रियाएं मिलने लगीं और तब मुझे लगा कि ‘हां, मैंने कुछ तो ऐसा बनाया है जो बच्चों और उनके पेरेंट्स, टीचर्स सभी को पसंद आ रहा है.’ उसके बाद से एकलव्य के दफ़्तर में बच्चों द्वारा हाथ से लिखी चिट्ठियों का तांता लगने लगा. कई बच्चों ने बिक्सू के बारे में बात करते हुए अपने वीडियो भी अपलोड़ किए हैं.
‘चकमक’ पत्रिका बहुत सारे गांवों में जाती है और हमें पता चला कि अपनी भाषा की खासियत की वजह से ही कई आदिवासी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए इस किताब का इस्तेमाल किया जा रहा है. खासकर अपनी भाषा की वजह से भी कई स्कूलों में शिक्षक इस किताब के ज़रिए बच्चों से संवाद बनाने का काम कर रहे हैं. सुशील ने मुझसे कहा कि,
“मध्य प्रदेश में बुंदेलखंडी बोली जाती है. वहां के बच्चों के पास बहुत सारी कहानियां होती हैं लेकिन वे सही हिंदी न आने की वजह से उसे लिखते नहीं है. उनके पास भी वही सवाल है कि बुंदेलखंडी कौन पढ़ेगा.
लेकिन अब वे चकमक पत्रिका के लिए अपनी भाषा में कविताएं और कहानियां लिखकर भेजने लगे हैं.” कहानी की शुरुआत में जो चीज़ें चुनौती लगती थीं वही अंत तक उसकी खूबसूरती बन गईं.
दरअसल, किसी दूसरी भाषा में कहानी पढ़ना सिर्फ़ किरदारों से आपका परिचय नहीं कराता बल्कि उसका पूरा परिवेश उठकर आपके सामने आ जाता है. वहां का जीवन, लोग, आवाज़ें, खुशबुएं, पेड़, तितली सबकुछ.
विकास की चिट्ठियां और बिक्सू
विकास कुमार विद्यार्थी जिसकी चिट्ठी पर ये किताब आधारित है वो बहुत ही सरल, सहज, संवेदनशील और ज़िंदादिल इंसान था. वो अपने करीबियों को दस-दस पेज की चिट्ठियां लिखा करता था और हाथों से उनके लिए कार्ड बनाता. उसकी इस मेहनत, उसके भीतर की अदृश्य भावनाओं को मैं समझ रही थी, मेरे लिए इसका बहुत महत्त्व था.
‘बिक्सू’ मेरे लिए माध्यम है, विकास के व्यक्तित्व को सामने लाने का.