झारखंड राज्य की राजधानी से लगभग 150 किलोमीटर दूर लातेहार ज़िले में नेतरहाट का इलाका अपने खूबसूरत पहाड़ों और जंगलों के लिए जाना जाता है. ठंड यहां पूरे साल बनी रहती है. पहाड़ों पर छोटे-छोटे गांव बसे हैं. गावों में लगने वाले साप्ताहिक हाट में बाज़ार की अपनी खासियत है. भीड़ भाड़ और चहलकदमियों के बीच अचानक से ढोल-मांदर और दूसरे वाद्य यंत्रों की ध्वनियों के साथ कुछ महिलाओं की आवाज़ गूंजने लगती है. ‘नोआ हाके असुर अखड़ा रीडियो, एनेगाबु डेगाबु सिरिंगेयाबु दाहां-दाहां तुर्रर….धानतींग नातांग तुरू…’ मतलब ‘यह है असुर अखड़ा रेडियो, नाचेंगे…खेलेंगे…गाएंगे…’ तभी, कुछ लोग अपने सिर पर बड़ा सा साउंड बॉक्स उठाए बाज़ार में चलते हुए नज़र आते हैं.
असुर रेडियो, नेतरहाट क्षेत्र के असुर समुदायों का अपना रेडियो है. इसकी शुरुआत 2019 में असुर समुदाय और झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा के सहयोग से की गई. सरकार ने असुर समुदाय को आदिम जन-जाति की श्रेणी में रखा है, यानी आदिवासियों में भी आदिम. हमारी पौराणिक कथाओं एवं लोक मानस में असुरों को राक्षस बताया गया है और हिरण्यकशिपु, होलिका से लेकर महिषासुर की हत्या बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में महिमा मंडित की जाती रही है. लेकिन, महात्मा ज्योतिबा फुले ने कहते हैं कि ‘राक्षस’ शब्द का अर्थ- रक्षा करने वाले- होता है. उन्होंने अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में ‘असुरों की हत्या को आर्यों द्वारा असुरों के राज्य को हड़पने और ब्राह्मणवाद का जश्न’ बताया है.
शायद यही वजह है कि अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को पुन:स्थापित करते हुए असुर रेडियो मुख्यधारा के आधिपत्य को चुनौती देता हुआ – चाहे डिजिटल हो या हाट-बाजार – सभी जगह अपनी पहुंच बना रहा है. इसमें पारंपरिक एवं आधुनिक डिजिटल माध्यम जैसे, मोबाइल फोन का इस्तेमाल, वाट्सएप्प के ज़रिए व्याइस रिकॉर्डिंग भेजना, ऑडियो एडिटिंग एवं पुरखा गीत एवं कहानियों का अनुठा प्रयोग शामिल है.
द थर्ड आई शिक्षा संस्करण में हमने असुर समुदाय द्वारा अपना इतिहास खुद लिखने और पारंपरिक एवं डिजिटल माध्यम के ज़रिए उसे लोगों तक पहुंचाने की पहल पर आदिवासी कार्यकर्ता, झारखंड भाषा साहित्य अखडा की जनरल सेक्रेट्री, असुर रेडियो की संचालक एवं लेखक वंदना टेटे से बात की.
असुर रेडियो – शब्द जाग रहे हैं
असुर रेडियो का पहला कार्यक्रम 2019 में नेतरहाट के गुमला ज़िले में स्थित कोटेया गांव के साप्ताहिक बाज़ार से हुआ. इसका मुख्य केंद्र नेतरहाट में जोबीपाठा और सकुवापानी गांव है.
“हमारे समूह में 15 लोग हैं. इसमें दिहाड़ी मज़दूर, खेतिहर मज़दूर, घरेलू महिलाएं, गाने-बजाने वाले लोग, लेखक सभी शामिल हैं. हम खुद से अपने गीतों को रिकॉर्ड करते हैं और चूंकि हमारे पास साधन नहीं है तो उसे कैसे प्रसारित करना है ये भी हम खुद तय करते हैं.”
चूंकि रेडियो हमारी दुनिया में कोई नई चीज़ नहीं है. शुरुआत में ऑल इंडिया रेडियो, बीबीसी रेडियो समाचार से लेकर रेडियो सीलोन पर प्रसारित होने वाली बिनाका गीत माला लोगों की यादों का अहम हिस्सा हैं. इसके बाद जब कमर्शियल रेडियो का दौर आया तो 24 घंटे चलने वाले एफएम रेडियो ने हमारे मोबाइल में स्थाई घर बना लिया. पर, असुर रेडियो इन सबसे बिल्कुल अलग है. “लोग हमसे पूछते हैं कि अगर आप असुर रेडियो चला रहे हैं तो फ्रिकवेंसी ज़रूर इस्तेमाल करते होंगे? सच्चाई ये है कि हम जहां रहते हैं वहां फ्रिकवेंसी लेना बहुत मुश्किल काम है. साथ ही यह प्रक्रिया बहुत खर्चीली भी है जिसे हम वहन नहीं कर सकते. ऐसे में हमने मिलकर तय किया कि हम ‘पीए सिस्टम’ जो हमारी पहुंच में हैं उसके ज़रिए कार्यक्रम की शुरूआत करेंगे.”
पीए सिस्टम का मतलब है पब्लिक एड्रेस सिस्टम जिसके ज़रिए ध्वनियों को वितरित करने का काम पुराने समय से किया जाता रहा है. असुर रेडियो में सबसे पहले कार्यक्रम की रूपरेखा तय की जाती है जिसमें असुर समुदाय से जुड़े लोगों के साथ भाषा साहित्य अखडा के संस्थापक एवं प्रकाशक अश्विनी पंकज कार्यक्रम के डिज़ाइन में मदद करते हैं. उसके बाद बारी आती है रिकॉर्डिग एवं एडिटिंग की. फिर रिकॉर्ड किए गए कार्यक्रम को पेन ड्राइव में डाला जाता है. पेन ड्राइव के साथ साउंड बॉक्स का पूरा सिस्टम लेकर असुर रेडियो के वॉलिन्टियर्स उसे साइकिल पर या डम्फर में रखकर उस जगह पहुंचाते हैं जहां हाट-बाज़ार लगा होता है. उसके बाद उसे सिर पर उठाकर बाज़ार में घूमते हैं और भीड़ वाले इलाके में इसका प्रसारण शुरू किया जाता है.
नेतरहाट के पहाड़ों पर आदिवासी समुदायों के छोटे-छोटे गांव हैं. वहां लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार गांववालों के जीवन का अहम हिस्सा हैं. हाट में लोग एक दूसरे से मिलते हैं, नाचते-गाते हैं, खरीददारी करते हैं और उसके बीच में वे अपनी भाषा में रेडियो पर पूरा प्रोग्राम सुनते हैं. “एक एपिसोड लगभग 25 से 30 मिनट का होता है. इसमें पुरखा सिरिंग (पुराने गीत), आसपास से लेकर देश-विदेश में घटित कुछ खास घटनाओं की जानकारी, सरकारी योजनाएं, लोगों की बातचीत और पुरखा कहानियां शामिल होती हैं. इसके अलावा लोगों के रोज़मर्रा के अनुभव भी रेडियो के ज़रिए प्रसारित होते हैं. युवा नए रिदम में गीत लिख रहे हैं. वे लोक कथाओं और कविताओं को भी नए सिरे से सुनाते हैं.”
प्रत्येक कार्यक्रम भाषा साहित्य अखड़ा और असुर समुदाय के लोगों द्वारा मिलकर तैयार किया जाता है. “असुर समुदाय के लोगों तक पहुंचना बहुत आसान नहीं है. वहां पहुंचने के लिए कोई साधन नहीं है. कोई सड़क नहीं है. कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग करने के लिए हम रांची से चलकर पहले गुमला ज़िले के घाघरा ब्लॉक तक पहुंचते हैं. फिर समुदाय के लोग नेतरहाट के पठारी इलाकों से नीचे उतरकर घाघरा के ब्लॉक तक आते हैं. तब वहां हमारी मुलाकात होती है.
मोबाइल भी अब जाकर कुछ लोगों के हाथ में दिखाई देता है लेकिन सिग्नल बहुत मुश्किल से मिलता है. सिग्नल के लिए किसी एक खास जगह पर जाना पड़ता है. टोंगरी या किसी पहाड़ी पर चढ़कर सिग्नल मिलता है नहीं तो लोग, पेड़ पर चढ़कर मोबाइल में सिग्नल पकड़ने की कोशिश करते हैं.”
असुर रेडियो की शुरुआत के थोड़े समय बाद ही कोविड महामारी फैलने लगी. इसने रेडियो के काम को बहुत ज़्यादा बाधित किया. “हम रांची शहर में रहते हैं और कार्यक्रम से जुड़े गीत-कहानियां तैयार करने वाले असुर आदिवासी जंगल के भीतर. ऐसे में हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की, कि हम यात्रा न करें क्योंकि मान लीजिए किसी भी कारण, किसी भी तरह से वायरस उनतक पहुंचता है तो हम खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाते.” वंदना ने कहा.
अपनी भाषा - अपने शब्द - अपनी दृष्टि – अपने विचार
झारखंड में 32 आदिवासी समुदाय हैं. इसमें बड़ी जनसंख्या वाले समुदाय – उरांव, मुंडा, खड़िया, संथाल – जैसे समुदाय शिक्षा, आर्थिक, प्रतिनिधित्व जैसे अन्य स्तरों पर थोड़े समृद्ध दिखाई देते हैं. लेकिन, इनके अलावा आदिवासियों की एक बहुत बड़ी जनसंख्या जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई में संघर्षरत है और जिनके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है. असुर, इन्हीं 8 आदिम जन-जातियों में से एक हैं जो धीरे-धीरे खत्म होने की तरफ बढ़ रहे हैं.
“अपने संस्थान के पहले स्थापना सम्मेलन में इस मुद्दे पर हमने बात की और तय किया कि हम उनको भी अपने साथ जोड़ेगे जिन्हें सरकार ‘आदिम जन-जाति’ या ‘अनुसूचित जनजाति’ कहती है. हमने उनके बीच जाकर हमने भाषा, साहित्य, संस्कृति से जुड़ी बातें खुलकर करनी शुरु की. अब सवाल ये था कि कोई ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे हम अपनी बात उन तक आसानी से पहुंचा सकें.”
तेज़ी से बढ़ती तकनीकी-केंद्रित दुनिया में, वे कौन से तरीके हैं जिनसे अपने लोगों से जुड़ा जा सकता हैं? एक तरफ़ तकनीक के इस्तेमाल के बिना जुड़ न पाने की परेशानी थी तो दूसरी तरफ़ तकनीक के इस्तेमाल को लेकर आशंकाएं और संदेह भी थे.
वंदना बताती हैं, “आज के बच्चे या युवा पीढ़ी दादी-नानी की कहानियां तो सुनते नहीं हैं. लेकिन हम आदिवासियों के लिए तो उसमें ही बहुत कुछ हैं. यदि हम उसे ही भूल जाएंगे तो ज़ाहिर सी बात है अपने समुदाय की बहुत सारी चीज़ों को हम खो देंगे. इसलिए हम रेडियो के इस प्रयास के ज़रिए हमारे युवाओं को अपनी संस्कृति और पहचान से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.”
अब तक असुर रेडियो के 17 कार्यक्रम (यू-ट्यूब पर वीडियो में भी अपलोड) प्रसारित हो चुके हैं. रेडियो से जुड़ने वाले लोगों को सबसे पहले यही बताया जाता है कि फोन को कैसे चलाना है और रिकॉर्ड कैसे करना है. “वे नंबर मिलाकर कॉल कर सकते हैं या फोन उठाकर बात कर सकते हैं. इसके अलावा मोबाइल उनके लिए उलझाऊ औज़ार है. मैसेज देखना या करना उन्हें नहीं आता. क्योंकि फोन में मैसेज या तो हिंदी में या अंग्रेज़ी में लिखने की व्यवस्था होती है. और आजकल तो ऐसे तरह-तरह के फोन होते हैं जिसके फीचर बदलते रहते हैं. तो, इससे वे घबराएं या डराएं नहीं इसलिए हम उन्हें ज़रूरत भर की जानकारी ही देते हैं ताकि वे अपनी चीज़ें रिकॉर्ड कर सकें. हमारे शुभचिंतकों के ज़रिए कोशिश कर रहे हैं कि वो हमें सस्ता एनड्रॉयड फोन उपलब्ध कराएं, ज़्यादा नहीं दो या तीन जिससे हम अपने रेडियो जॉकी को दे सकें.”
रेडियो जॉकी सुषमा असुर अपने समुदाय की पहली महिला लेखिका हैं. वे अपनी भाषा में कविताएं लिखती हैं. वहीं, नेतरहाट के ही लोरंबा कोरकोट गांव में रहने वाले रमेश असुर रांची में दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. रमेश ने यूट्यूब पर असुर रेडियो का पहला एपिसोड देखने के बाद रांची में टीम के साथ संपर्क किया. आज वे रेडियो जॉकी है.
भूलने के खिलाफ़
भूलना सिर्फ़ याद न रखना नहीं है बल्कि मुख्यधारा की पहचान के नीचे दबा दिया जाना भी है.
असुर समुदायों की नई पीढ़ी पर इसका असर पड़ना भी स्वाभाविक है.
वंदना कहती हैं, “हमें बहुत तेज़ी से अपनी भाषा और पहचान का खत्म होना दिखाई दे रहा है. इतना कि लोग अपनी भाषा को बोलने में झिझकने लगे हैं. उन्हें लगता है कि अपनी भाषा में बात करने पर वे पिछड़े माने जाएंगे. ये सिर्फ़ पहाड़ों और गांव में रहने वाले लोगों की बात नहीं है बल्कि शहरों में रहने वाले बड़े आदिवासी समुदायों के भीतर भी यही भावना पनपने लगी है. उन्हें लगता है कि अपनी परंपराओं, भाषाओं या संस्कृतियों या व्यवस्थाओं का उपयोग करने या उन्हें जीने पर वे पिछड़े मान लिए जाएंगे.”
यहां तक कि
आदिवासी बच्चों के लिए स्कूलों में अपनी भाषा में बात करने की मनाही है. उनके लिए इसमें लिखना-पढ़ना भी असंभव ही है. असुर समुदाय की पहली लेखिका और रेडियो जॉकी सुषमा असुर कहना है कि “जब मैं स्कूल गई तो मुझे बहुत कठिन भाषा पढ़ाई गई. वो मेरी बोलचाल, सोचने-समझने की भाषा से बिलकुल अलग थी.”
लेकिन रेडियो के ज़रिए बच्चों और युवाओं में अपने गीतों और कहानियों के प्रति लगाव जागने लगा है. वंदना कहती हैं, “युवाओं और बच्चों के साथ काम करना हमारे लिए सच में बहुत सुकूनदायक अनुभव है. कोविड के दौरान सभी ने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना सीखा और खासकर बच्चे इसका खूब इस्तेमाल करने लगे हैं. अब न सिर्फ़ गुमला ज़िला जहां असुर रेडियो का बेस है, बल्कि दूसरी जगहों जैसे पलामू के इलाकों के बच्चों ने भी हमें फोन कर बताया कि वे हमारा कार्यक्रम सुनते हैं. न सिर्फ़ बच्चे बल्कि बुज़ुर्ग भी अपने गीत रिकॉर्ड कर हमें भेजने लगे हैं.”
उन्होंने बताया, “हमारे यहां एक ही गीत के अलग-अलग राग होते हैं और उसे कई तरह से गाया जा सकता है. ऐसे में कई युवाओं ने हमें फोन कर बताया कि इसमें ये वाला ताल नहीं लगता या उसे तो इस त्यौहार में गाया जाता है. ये सब देखकर हमें बहुत अच्छा लगता है. बुज़ुर्ग हमें अपने गांव बुलाते हैं ताकि हम उनके मेले में रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकें.”
आगे का रास्ता
नेतरहाट का पूरा इलाका बॉक्साइट माइनिंग का इलाका है. वहां हिंडालको और दूसरी कंपनियां लगातार खनन कर रही हैं. खनन से होने वाले विस्थापन ने आदिवासियों को अपने गांव घर से दूर किया है. वहीं पहाड़ों पर रहने वाले आदिम जन-जाति के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर हैं. ये दोनों छोर अगर कहीं एक दूसरे से मिलते हैं तो वो असुर रेडियो है. वंदना का कहना है कि कोविड के दौरान झारखंड से बाहर रह रहे लोगों ने अपने अनुभव उन्हें रिकॉर्ड कर भेजे. वे हमें बताते हैं कि रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम उन्हें अपने लोगों, अपनी भाषा और अपने देश की कहानियों से जोड़े रखते हैं.
“रेडियो पर खुद की रिकॉर्ड की गई कहानियां सुनकर उन्हें बहुत मज़ा आता है.”
बिना फ्रिक्वेंसी के चलने वाला असुर रेडियो, आज धीरे-धीरे लोगों के जीवन में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रहा है. भविष्य की इसकी संभावनाओं को लेकर वंदना कहती हैं, “युवा इसके लिए तैयार हो रहा है तो ज़ाहिर है कि हम इस कार्यक्रम के सिलसिले को आगे और बढ़ाएंगे. लेकिन कैसे बढ़ाएंगे ये समय के साथ ही तय हो पाएगा. हो सकता है हम इसमें कुछ बदलाव लाएं या कुछ और फॉर्म का इस्तेमाल इसमें जोड़ें. कई कहानीकार हमारे साथ जुड़े हुए हैं.”
इस सबकी शुरुआत साल 2003 में हुई थी. “अलग राज्य बनने के समर्थन से जुड़े आंदोलनकारियों ने जब देखा कि नई सरकार की विकास की नीतियों से वे सारे लोग गायब हैं जो ‘झारखंड को झारखंड बनाते हैं या झारखंड के लोगों की पहचान, संस्कृति और अस्तित्व’ से जुड़े सवाल कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. उनमें से कई लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा था कि ‘हमारा क्या है? हम कहां और किससे जुड़े हैं?'”
इस सवाल के साथ नींव रखी गई प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की. वंदना कहती हैं, “मेरे नाना प्यारा केरकेट्टा एक शिक्षक थे. वे साहित्यकार और समाज-सुधारक भी थे. उन्होंने अपने समय में लोगों की मदद से बहुत सारे स्कूल खोले थे. अपनी मातृ-भाषा में कई विधाओं में किताबें भी लिखी थीं. हमने कोशिश कर तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया जिसमें झारखंड के तमाम बुद्धिजीवी और साहित्यकार शामिल हुए. इस तरह हमारे संगठन – ‘झारखंड भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ का उद्भव हुआ.”
अखड़ा का मतलब उस जगह से है जहां आदिवासी अपनी हर छोटी-बड़ी परेशानियों पर बात करने के लिए इकट्ठा होते हैं. वहां नाच, गान भी होता है और तमाम मुद्दों पर बातचीत भी होती है. असुर रेडियो झारखंड से जुड़ा है, उसकी भाषा, संस्कृति, साहित्य से जुड़ा है, इस तरह वो भी एक अखड़ा है.