हमारा हिसाब कौन देगा?

मुख्यधारा की शिक्षा का आकर्षण और उसे पाने के जटिल रास्ते पर चलते हुए एक युवा गोंड समुदाय की लड़की वह सब कुछ खोजती है जो पीछे छूट गया

चित्रांकन: संगीता जोगी, रितिका गुप्ता

दुर्गा, द थर्ड आई ‘एडु लोग’ प्रोग्राम का हिस्सा हैं. हमारे शिक्षा अंक से जुड़े इस कार्यक्रम में भारत, नेपाल और बांग्लादेश से 13 लेखक एवं कलाकारों ने भाग लिया है. ये सभी प्रतिभागी शिक्षा से जुड़े अपने अनुभवों को नारीवादी नज़र से देखने का प्रयास कर रहे हैं.

मैं एक आदिवासी गोंड समुदाय में पैदा हुई. मेरे मां-बाप की मैं पहली संतान हूं. वैसे तो मेरे घर में 6 सदस्य हैं. माता-पिता के अलावा हम तीन बहन और एक भाई है. मेरे पिताजी और मां दूसरों के खेतों में काम करते हैं. फिर भी उन लोगों ने हमारी शिक्षा में कभी कमी नहीं रखी और हम चारों बहन-भाई को अच्छे से पढ़ाया. मैं अपने गांव सिलोदा (वर्धा) से मुंबई जैसी जगह में, अकेले आकर पढ़ाई कर रही हूं. मैंने अकेले मुंबई आकर अपना दाखिला लिया.

मेरे माता-पिता ने कभी मुंबई देखी नहीं है.

हमारे गांव में हर एक जाति का अलग मोहल्ला है. हम आदिवासी मोहल्ले में रहते हैं. हमारे गांव में तेली (वैश्य) जाति के लोगों का मोहल्ला काफी अमीर है. उनके बड़े-बड़े घर और खेती देख कर बचपन में लगता था कि काश हमारे पास भी इतना कुछ होता. इसी तरह ब्राह्मणों का भी अपना मोहल्ला है. ये भी तेली समाज की तरह अच्छी खेती और बड़े-बड़े घरों वाले लोग हैं. इन्हीं लोगों के यहां हम खेती का काम करते हैं. गांव में जो लोग मछली पकड़ते हैं और जंगल में शिकार करने जाते हैं उन्हें ‘भोई’ बोला जाता है. हमारे यहां भोई मोहल्ला भी है. महार और आदिवासी मोहल्ला गांव के आखिरी हिस्से में है. इस तरह हमारे गांव में लोग अपनी-अपनी जाति के लोगों के साथ रहते हैं.

हम आदिवासी ‘तथा-कथित’ सभ्य समाज के साथ जुड़ तो गए लेकिन अभी भी हमारी, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, परिस्थितियों में उतना सुधार नहीं आया है. देश, तेज़ी से विकासशील से विकसित होने की तरफ जा रहा है. डिजिटल इंडिया बन रहा है. मगर उसी डिजिटल इंडिया का एक भू- भाग भूख से मर रहा है. डिजिटल तो दूर, हमारे बीच शिक्षा का भी अभाव है. मेरे बहुत से ऐसे बहन-भाई हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी मिल पाना मुश्किल है. ऐसे में वे शिक्षा कहां से ग्रहण कर पाएंगे!

कहते हैं कि आदिवासी विकास विभाग हम, आदिवासी लोगों के लिए काम करता है. मगर उसका लाभ कैसे लेना है? कहां फॉर्म भरें ? कहां पर जमा करें? कुछ पता नहीं होता. अगर फॉर्म भरते भी हैं तो योजनाएं मिलती नहीं हैं. कुछ लोगों को अगर जानकारी होती है तो वे उसका लाभ उठाते हैं. मगर जिनको पता नहीं वे लाभ नहीं उठा पाते. कहने के लिए आदिवासी विकास के लिए बहुत फंड मिलता है. लेकिन, वो जाता कहां है? सच तो ये है कि अगर हम अच्छे से शिक्षा ग्रहण करते तो हमारी समझ बढ़ती. पर, शिक्षा में पिछड़े होने की वजह से कोई कुछ भी कहता है, वे चुपचाप सुनते हैं. सवाल नहीं करते कि उसने ऐसा क्यों कहा? न ही इसपर सोचते हैं. शिक्षा से विचार शैली आती है. जीवन जीने की कला आती है.

आदिवासी लड़के-लड़कियों को शिक्षा में आगे लाने के लिए आदिवासी आश्रम शाला और हॉस्टल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. ये एक पहल है जो आदिवासियों को शिक्षित करने और उच्च शिक्षा की ओर आगे बढ़ने का मौका दे रही है. आदिवासी समुदाय जो मुख्यधारा से अलग हैं और दूर दराज़ के पहाड़ों-जंगलों में रहते हैं, उनको शिक्षा में आगे लाने के लिए गांधीवादी ठक्कर बाप्पा ने गुजरात के मीरखेड़ी में पहला आश्रम स्कूल खोला था.

आश्रम स्कूल में पहली कक्षा से लेकर बारहवीं कक्षा तक बच्चे पढ़ते हैं. लेकिन आश्रम शब्द ही बहुत ब्राह्मणवादी विचारधारा पर आधारित है.

आश्रम स्कूल में आदिवासी बच्चे अपनी संस्कृति और भाषा से वंचित रहते हैं. आदिवासी लोग प्रकृति पूजक हैं. पर, वे होस्टल में दुर्गा पूजा, कन्हैया पूजा,गणपति पूजा के साथ हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करना सीखते हैं. मैं जिस आदिवासी हॉस्टल में पढ़ती थी वहां ‘गणपति’ बिठाए जाते थे. यहां शिक्षा भी हमारी भाषा में नहीं होती है. न हम अपने लोगों के इतिहास के बारे में यहां पढ़ते हैं. आदिवासियों में ऐसे कई महान व्यक्ति थे जिन्होंने स्वतंत्रता के समय अपना बलिदान दिया. जैसे, रानी दुर्गावती, बिरसा मुंडा, तंट्या भिल्ल और भी कई महान व्यक्ति हैं. इनके बारे में स्कूल में नहीं बताया जाता. बच्चे सीखने के उम्र में जो सीखेंगे उसे ही आगे बढ़ाएंगे. लेकिन, अपनी संस्कृति की शिक्षा न मिलने से और मुख्यधारा में प्रचलित शिक्षा को प्राप्त करने से वे उसे ही ग्रहण करते हैं. इस तरह वे अपनी पहचान से दूर होते जाते हैं.

मैं अपने गांव की पहली लड़की थी जो आदिवासी छात्रावास में पढ़ने गई. मेरे वहां जाने से पहले हमारे मोहल्ले के लोगों की समझ यही थी कि अगर लड़कियां बाहर पढ़ने जाएंगी तो वो भागकर शादी कर लेंगी. इसलिए वे अपनी लड़कियों को बाहर आदिवासी छात्रावास में नहीं जाने देते थे.

मेरे वहां जाने के बाद लोगों को समझ आया कि लड़कियां बाहर भेजने से भाग कर नहीं जातीं. उनकी समझ धीरे-धीरे बदलने लगी. मुझे देखने के बाद मेरे मोहल्ले से धीरे-धीरे लड़कियां छात्रावास में पढ़ने आने लगीं.

पर घर में पढ़ाई का माहौल न होने या माता पिता के पढ़े-लिखे ना होने की वजह से हम छात्रावास में आने के बाद भी उतनी पढ़ाई नहीं करते थे. क्योंकि हमें पता नहीं था कि शिक्षा से क्या हासिल हो सकता है और न ही हमें किसी ने बताया. यही वजह है कि कुछ लड़कियों ने बहुत जल्दी पढ़ाई छोड़ दी, कुछ सरकारी नौकरियों पर लगीं और बहुत सारी घर संभालने वाली बन गईं. मेरी पढ़ने में रुचि थी. मुझे पढ़ता हुआ देखकर मेरे दोस्त कहते कि “क्या तू इतना पढ़ कर कलेक्टर बनेगी?” मेरा आत्मविश्वास कम करके वे मस्ती करने लगते. उन्हें मस्ती करता देख मैं भी उसमें शामिल हो जाती. हमारी समझ यही थी कि पढ़ाई सिर्फ़ परीक्षा के समय पास होने के लिए की जाती है. अगर, आदिवासी आश्रम स्कूल और छात्रावास में शिक्षा के महत्त्व के बारे में बताया गया होता या हमारी मैट्रन हमें शिक्षा का महत्त्व बतातीं या वे कार्यशाला लेकर हमें समझाते कि इससे हम क्या हासिल कर सकते हैं तो शायद सभी लड़कियां कुछ ना कुछ करतीं. 

अपने जीवन में काले गोरे के भेदभाव के बारे में मैंने बहुत कुछ देखा है, बहुत ताने सुने हैं. मेरी दादी का रंग बहुत गहरा था. मैं उनसे पूछती कि तुम तो इतने गहरे रंग की हो तुम्हें शादी के लिए कोई दिक्कत नहीं आई क्या? तो दादी कहतीं कि “हमें कोई परेशानी नहीं हुई. अभी, तुम्हारे समय में रंग भेद बहुत ज़्यादा दिखाई दे रहा है. हम तो जंगल के गांव में रहते थे तो हमने कभी रंग भेद नहीं देखा था. पर अब इस गांव में आकर देखने को मिलता है कि सांवला लड़का बोलता है गोरी लड़की चाहिए और गोरा भी गोरी लड़की चाहता है.” एक घटना मुझे याद है – जब मैं कक्षा 3 में थी तब मुझे एक लड़के ने बोला था कि “तुम तो काली हो फिर तुम्हारा नाम दुर्गा कैसे रखा है. तुम्हारा नाम दुर्गा से हटाकर काली रखना चाहिए था.”

हमारी स्थानीय भाषा मराठी है. आस-पड़ोस में भी हम इसी भाषा में बोलते हैं. कुछ लोगों को हमारी गोंडी भाषा आती है. पर नई पीढ़ी अपनी भाषा भूलती जा रही है. मेरी समझ में इसका कारण अपनी भाषा में शिक्षा का न होना भी है.

आश्रम स्कूल और हॉस्टल में भी हमें हमारी पहचान से अलग पहचान में ढालने का काम करते हैं. वे हमें अलग-अलग धर्मों में परिवर्तित कर रहे हैं. हॉस्टल में गणपति, आश्रम स्कूल में गणपति ,गौरी, कान्हा, दुर्गा देवी की पूजा की जाती थी. फिर आदिवासी ईसाई मिशनरी में जाकर ईसाई धर्म अपना रहे हैं. आश्रम स्कूल, हॉस्टल और मिशनरी धर्मांतरण का माध्यम बन रहे हैं. 

तथाकथित सभ्य समाज का आदिवासी समाज पर तगड़ा प्रभाव पड़ा है. साथ रह कर हम उनके आचार-विचारों के साथ भाषा, संस्कृति, सभी अपना तो रहे हैं. लेकिन इसका प्रभाव हमारी खुद की समझ और मान्यताओं पर भी पड़ रहा है. यही वजह है कि सभ्य समाज के जैसे, रंग, जाति, वर्ग, महिला व पुरुष भेद इत्यादि हम आदिवासी लोगों में दिखाई दे रहे हैं.

अपने साथ हुए भेदभाव को देखने के बाद मेरे मन में काफ़ी सवाल आते थे तो, मैं अपनी दादी से अक्सर सवाल करती कि, “हम लोग पहले कहां रहते थे? हम इस गांव में कैसे आए?” दादी बतातीं कि हम, पहले जंगल के गांव में रहते थे. “पर हमारे गांव उठने की (विस्थापन) वजह से हम इस गांव में आ गए. गांव नहीं उठता तो हम लोग वहीं जंगल में रह रहे होते. कभी बांध बनाने के लिए तो कभी खदानों, बगानों एवं मिलों में काम करने के लिए एक गांव को छोड़कर दूसरी जगह बसेरा करना पड़ा. शहरों में नौकरी की तलाश भी एक कारण है बहुत सारे आदिवासियों को अपना गांव छोड़ना पड़ा था.”

आज दादी हमारे बीच नहीं है. उन्होंने जितना बताया हम उतना ही जानते हैं. हमारे लोगों का कोई लिखित इतिहास हमें देखने को नहीं मिलता है. यही वजह है कि हमारे पूर्वजों के संघर्ष की कहानी हमारी पीढ़ी ढंग से नहीं जानती!

नई पीढ़ी को मालूम नहीं कि उनके परिवार वालों ने अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए कितना संघर्ष किया है. लिखित इतिहास कम होने या न होने की वजह से हम अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं.

हां, कुछ ऐसे गीत हैं जो पीढ़ियों से हमारे बीच गाए जाते हैं वही एक ज़रिया होता है अपने लोगों के बारे में जानने का. लेकिन, सभ्य-समाज के रहन-सहन में हम अपनी संस्कृति को भी बिसारते जा रहे हैं.

वर्धा के सिलोदा गांव में पहले हम लोगों के साथ भेदभाव होता था. हम  कुंए से पानी नहीं निकाल सकते थे. कुंए के पास खड़े होकर हम काफी घंटों तक सिर्फ़ राह देखते कि कोई आएगा और हमें पानी निकाल कर देगा और तब हम पानी घर लेकर जाएंगे. जब देर तक कोई नहीं दिखता तो हमें बहुत बुरा लगता था. क्योंकि पानी लेकर जाने के बाद ही हम घर का काम करके खेती में भी काम पर जा सकते थे. एक बार गांव में एक ग्राम सेवक दौरे पर आया. हम पानी लेने गए थे. हमें ऐसे ही खड़े देखकर उसने पूछा, “तुम पानी क्यों नहीं निकाल रहे हो ?” तो हमने बोला, “हम नहीं निकाल सकते.” उसने पूछा, “क्यों नहीं निकाल सकते?” हमने कहा, “बाकी लोग हमारा हाथ लगाया पानी नहीं पीते हैं. हम पानी निकालेंगे तो उनको बुरा लगेगा.” वो तलाठी (पटवारी) था उसने बोला, “तुम निकालो पानी तुम्हें कौन रोकता है मैं देखता हूं” तब से उस कुंए का पानी हम सभी निकाल रहे हैं.

दादी ने बताया था कि वे अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी अपने साथ खेती में काम पर ले जाती थीं. औरतें डिलिवरी के कुछ दिन बाद ही खेत पर काम पर चली जातीं. वे अपने नवजात बच्चे को पालने में सुलाकर खेत में काम करने लगती थीं.

मेरे लिए एकदम से गांव से उठकर टाटा सामाजिक विज्ञान केंद्र में आने तक का सफ़र आसान नहीं था. जिस जगह के लोग सिर्फ़ दो वक्त की रोटी कैसे मिलेगी की तलाश में रहते हैं, उनके लिए पढ़ाई-लिखाई क्या है? पूरा दिन काम करने के बाद पुरुष एक दिन के 300 रुपए कमाते और महिलाओं को 100 रुपए मिलते थे. जब मैं छठी कक्षा में थी तब हमारे यहां महिलाओं को 25 रुपए मज़दूरी मिला करती थी और पुरुषों को 100 रुपए. उस समय मेरे घर की हालत ठीक न होने की वजह से

मैं भी सुबह 6 बजे से 9 बजे खेत पर काम करने जाती थी. इसके लिए मुझे 7.50 रुपए मज़दूरी मिला करती. उसके बाद सुबह 11 से शाम 5 बजे तक स्कूल जाती.

वैसे काम हमेशा नहीं रहता था. सीज़न के हिसाब से रहता था. बहुत बार ऐसा भी हुआ कि स्कूल में न जाकर खेत में काम के लिए जाना हुआ. उस समय अपनी कक्षा के बच्चों को रास्ते में देखकर छुप जाती थी ताकि वो बच्चे मेरे बारे में स्कूल में शिक्षक को ना बता दें. वैसे बच्चो को मैं काम करते हुए बहुत बार दिखी और बच्चे मुझे धमकी भी दिया करते थे कि “तू रुक तेरा नाम मैडम को बताते है”. मैं काफ़ी बार डर जाती थी.

वैसे मैं पढ़ाई में कमज़ोर नहीं थी, अच्छी खासी थी. पांचवीं कक्षा में मैं फर्स्ट आई थी. हालांकि, मैं मामा के घर रहती थी और घर का पूरा काम भी करती और अपनी पढ़ाई भी करती. फिर गांव में आने के बाद पढ़ाई, घर का काम, और मज़दूरी ये सब शामिल हो गया. पांचवीं कक्षा के बाद तो पढ़ाई में धीरे-धीरे कमज़ोर होती गई. सबसे ज़्यादा कपास चुनने या निराई करने (निराई मतलब कपास सोयाबीन के आस पास का कचरा निकालना) का काम होता था.

रंग भेद की वजह से मेरे मन में खुद के प्रति बहुत ही ज़्यादा नकारात्मक भावनाएं पैदा होने लगी थीं. खुद के लिए मेरा यह सोचना पितृसत्तामक समाज की देन थी. ये बात महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के महिला अध्ययन विभाग में आने के बाद समझ आया.

पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियां गोरी और पतली होनी चाहिए. मैं इस पैमाने में फिट नहीं आती थी.

मैं हमेशा सोचती थी कि मुझे मेरे भाग्य ने सावला क्यों बनाया सावला बनाने के साथ-साथ मेरे नसीब में गरीबी क्यों दी? शायद मेरे मन में नकारात्मक भावना नहीं आती अगर इस समाज ने मुझे बचपन में ये न सिखाया होता कि गरीबी क्या होती हैं? अमीरी क्या होता हैं? रंग भेद किसे कहते हैं?

भाषा का मसला पूरी ज़िंदगी हम लोगों के साथ चलता है. घर में हम गोंडी भाषा में बात करते हैं. स्कूल की पढ़ाई मराठी में हुई, मास्टर ऑफ सोशल वर्क और एम.फिल मैंने हिंदी में किया और अब TISS में अंग्रेज़ी के लिए जद्दोजहद जारी है.
मराठी और हिंदी सीखने में तो उतनी परेशानी नहीं आई पर अंग्रेज़ी सीखते समय काफी परेशानियों से गुज़रना पड़ा. एक समय मैं अंग्रेज़ी से डरती थी. TISS में भी ये सुनने को मिलता कि जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती है उन्हें भी एडमिशन मिल जाता है. लेकिन, पढ़ाई में रूचि होने की वजह से मैंने हार नहीं मानी और पढ़ती चली गई. मेरे जीवन में ऐसे कई लोग आए जिन्होंने मुझे हमेशा प्रेरित किया. प्रोफेसर वानखेड़े सर ने मेरी काफी मदद की. आकाश पोयाम, सरोज, विशाल ने मुझे हौसला दिया. मेरे पीएचडी के गाइड डॉक्टर बाल राक्षसे से जब मैं पहली बार मिली तो उनको बताया कि मेरी अंग्रेज़ी  कमज़ोर है. तो मेरे गाइड ने बोला अंग्रेज़ी सिर्फ भाषा हैं. हार्ड वर्क करोगी तो सीख जाओगी. अगर लोग पांच घंटा पढ़ते हैं तो तुम्हें 10 घंटा पढ़ना पढ़ेगा. मैं संघर्ष करती चली गई.

शिक्षा ग्रहण करने के बाद लोगों का बात करने का तरीका पूरी तरह से बदल जाता है. इसकी वजह से मुझे अपने इलाके में वार्ड के चुनाव में खड़े होने का मौका भी मिला. मेरे परिवार में ये पहला मौका था कि कोई चुनाव में खड़ा हो रहा था. मेरे पिताजी जिनके यहां काम पर जाते थे, उनका नाम था भाऊसाहेब धनोरे. उन्होंने मुझे चुनाव में खड़ा होने के लिए प्रोत्साहित किया था.

चुनाव में खड़ा होने के बाद जो मान सम्मान मेरे घरवालों को मिला वो मैं भूल नहीं सकती. मेरे पिताजी को बहुत सम्मान मिला. गांव के बड़े लोगों ने उन्हें साथ बैठने का मौका दिया.

गांव से निकलकर उच्च शिक्षण संस्थान में पढ़ने वाली मैं अपने गांव की पहली लड़की हूं. यहां तक पहुंचने के रास्ते में मैंने मेहनत से सीखा कि शिक्षा का क्या महत्त्व होता है और इससे कितनी ताकत मिलती है. मैं शिक्षा के महत्त्व को जानती हूं इसीलिए मैंने चुनाव में खड़े होने का फैसला किया जिससे मैं अपनी तरह की और लड़कियों को प्रोत्साहित कर सकूं, ताकि एक दिन हमारे समाज का इतिहास हम खुद भी लिख सकें!

दुर्गा, महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले में स्थित सेल्दोह गांव की रहने वाली हैं. स्नातक एवं सोशल वर्क में एम.फिल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्तमान में वे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी की पढ़ाई कर रही हैं. उन्हें देश-दुनिया की सैर करना और लोगों की मदद करना पसंद है. वे पांच साल तक अपने गांव की वार्ड मेम्बर भी रह चुकी हैं.

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