अचल, द थर्ड आई शहर संस्करण के ट्रैवल फेलो प्रोग्राम का हिस्सा हैं. द थर्ड आई ट्रैवल प्रोग्राम हमने भारत के विभिन्न इलाक़ों से चुने हुए 13 अलग-अलग शहरों से जुड़े लेखकों एवं कलाकारों के साथ किया जिन्होंने नारीवादी नज़रिए से शहर के विचार की कल्पना की है.
वड़ोदरा, गुजरात में पढ़ाई कर रहे ट्रैवल फेलो अचल, चित्रों और शब्दों के ज़रिए शहर के किस्सों को काग़ज़ पर उतारते हैं. तीन हिस्सों में बंटा यह कॉमिक्स सीरीज़ एक क्वियर की नज़र से शहर को देखने का प्रयास है.
शाम को कॉलेज से घर लौटते वक़्त, मैंने और शालिनी ने तय किया कि पहले मेरे फ्लैट पर चलकर कॉफी पिएंगे. तीन साल पहले जब कॉलेज में एडमिशन लिया था तभी से किराए पर इस फ्लैट में रह रहा हूं. कॉलोनी के गेट से फ्लैट की दूरी बहुत ज़्यादा नहीं है. पर इस दूरी को पार करते हुए किसी हिन्दी फ़िल्म के पहले दिन, पहले शो पर आए हीरो-हिरोइन जैसा लगता है. बिल्कुल रेड कॉर्पेट पर चलने जैसा महसूस होता है, गोया इसमें रास्ते पर कैमरामैन कम, खिड़कियों और बालकनियों से घूरती आंटियों और अंकलों की निगाहें ही निगाहें होती हैं.
फ्लैट पर पहुंचकर मैं ताला खोलता हूं, फ़िर कॉफी बनाता हूं. एक अच्छी सी कॉफ़ी का घूंट पीते ही ‘रेड कार्पेट’ मतलब मेन गेट से कमरे तक कैमरा और लाइट की तरह घूरती निगाहों के बीच से निकलकर कमरे तक आने में हमारे माथे पर खिंच आई लकीरें ढीली हो जाती हैं और हम सुकून महसूस करने लगते हैं.
एक बार फ़िर मैं स्टेपनी बन गया यानी तीसरा पहिया. बहुत अजीब है कि कैसे लोग मुझे ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल करते हैं और मैं हमेशा इस्तेमाल होने के लिए तैयार भी हो जाता हूं क्योंकि वे मेरे दोस्त हैं.
ये स्टेपनी कौन होते हैं?
वैसे लोग जिनकी समाज में कोई खास ज़रूरत नहीं होती. लेकिन सार्वजनिक या निजी जगहों पर किसी लड़का-लड़की को अगर मिलना है तो वो अपने स्टेपनी दोस्तों का इस्तेमाल करते हैं ताकि कोई उनपर शक न कर सके. क्योंकि हमारे समाज के लिए एक लड़का और एक लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते!
मुझे याद है, मैंने वड़ोदरा शहर में अपनी ज़िंदगी ज़्यादातर स्टेपनी पहिए की तरह ही बिताई है. वैसे, शहर में अकेला होना भी किसी बेकाम के पहिए की तरह ही होना है.
उन दोनों के जाने के बाद भी मेरे मन में कई तरह के सवाल घूमते रहे. मैं उन लोगों के बारे में सोचने लगा जिन्हें मजबूरी में किसी पुल के नीचे या झोपड़पट्टियों में रहना पड़ता है. ऐसी सार्वजनिक जगहों पर उन्हें निजी पल कैसे मिलते होंगे? उनकी इच्छाओं का क्या? वे प्यार करने के लिए कहां जाते होंगे? क्या उनके लिए हम सभी तीसरा पहिया नहीं हैं!?
क्या हमारे शहरों का दिल कभी इतना बड़ा होगा कि वो प्यार को अपने भीतर फैलने का रास्ता दे सकेंगे? क्या हम कभी इस डर के बिना प्यार कर पाएंगे कि कोई क्या सोचेगा, कोई देख लेगा या उससे भी ज़्यादा कि प्यार करने की वजह से कोई हमें जान से न मार दे? दोस्ती में कभी-कभी तीसरा पहिया बनना ठीक है, लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि ये मजबूरी नहीं, पसंद से हो?
एक शहर के पास पूरी क्षमता होती है कि वो प्यार और आज़ादी के लिए अपने भीतर जगह बना सके, लेकिन क्या हम सच में उन जगहों को सुरक्षित कर प्यार में बराबरी की बात कर पाएंगें, प्यार की आड़ में छिपे वर्ग, जाति और यौनिकता जैसे बड़े सवालों पर बात कर सकेंगे?