शादी या निकाह खुशी का वह मौका होता है जब लड़का और लड़की के साथ-साथ दोनों के परिवार भी एक नए रिश्ते में बंधते हैं. शादी, संस्कार होने के साथ-साथ एक समझौता भी है. कुछ समझौते कागज़ पर किए जाते हैं तो कुछ को रीति-रिवाजों का जामा पहना कर अदृश्य तरीके से लड़कियों के गले में डाल दिया जाता है.
इस लेख के ज़रिए उत्तर-प्रदेश के बांदा और चित्रकूट ज़िले में स्थित वनांगना संगठन की एक केसवर्कर निकाहनामा को एक कॉन्ट्रैक्ट के रूप में देखते हुए सवाल उठाती हैं कि निकाह के समय सिर्फ़ एक मेहर की शर्त इस समझौते में काफ़ी है क्या? अपने खुद के अनुभव और काम के दौरान बढ़ती समझ से वे निकाहनामा में क्या लिखा जाता है और क्या नहीं के बीच में छूट गई ज़रूरी बातों पर ध्यान दिला रही हैं.
पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.
मैं उत्तर-प्रदेश के बांदा शहर के एक मुस्लिम परिवार की महिला हूं. मेरा खानदान काफी लंबे समय तक एक संयुक्त परिवार की तरह रहता आया था. हमारे परिवार में 16 लड़कियां थीं. कुछ मुझसे बड़ी तो कुछ छोटी. सभी लड़कियों की शादी मुस्लिम समुदाय के अनुसार निकाह करके हुई थी.
लेकिन, मुझे या हम बहनों में से किसी को भी यह समझ नहीं थी कि मुस्लिम शादी एक समझौता है. दरअसल, मुसलमानी तौर-तरीके से की जाने वाली शादी जिसे हम निकाह कहते हैं, यह एक समझौता है जिसमें दोनों पक्षों की रज़ामंदी के साथ कॉन्ट्रैक्ट; जिसे निकाहनामा भी कहा जाता है, के पेपर पर दस्तखत करवाए जाते हैं. इसे लेकर मेरे और मेरी बहनों के मन में अक्सर बहुत सारे सवाल उठते थे. जैसे, हमेशा निकाहनामे के कागज़ को काज़ी से ही क्यों लिखवाया जाता है? और इसे इतना संभाल कर क्यों रखा जाता है?
मेरे घर में हम चार बहनें और एक भाई हैं. सभी का निकाह हो चुका है. और सभी के निकाह के कागज़ आज भी बहुत संभाल कर रखे गए हैं. हमने देखा कि किसी भी निकाहनामे में कोई शर्त नहीं लिखी गई है. सिवाय मेहर (निकाहनामा में लिखी गई धनराशि या अन्य वस्तुएं जो सहमति से दूल्हे द्वारा दुल्हन को भुगतान की जाती हैं), और गवाह के साईन के जिसमें लोगों की गवाही इस बात की है कि ये निकाह पूरा हो गया है.
इसके अलावा यह बात भी बिल्कुल समझ नहीं आती कि मेहर-ए-मुअज़्ज़ल (विवाह के बाद तत्काल देय) या मेहर-ए-मुवज़्ज़ल (पत्नी की मांग के आधार पर कभी भी देय), इन चीज़ों का क्या मतलब होता है? ये बातें काज़ी निकाह के वक्त लड़कियों को क्यों नहीं बताते?
सवाल यह भी है कि
यह किस तरह का समझौता है जिसमें समझौता करने वाली लड़की/महिला को पता ही नहीं है कि कागज़ पर लिखे शब्दों का क्या मतलब होता है? और उसकी ज़िंदगी पर इसका क्या असर पड़ने वाला है?
मुझे आज भी समझ नहीं आता कि इन बातों को क्यों छिपाया जाता है? जो लोग शादी करवाते हैं वे अन्य शर्तों को इसमें जोड़ने पर बात क्यों नहीं करते? इसके पीछे उनकी मंशा क्या होती है? क्या इसे जानबूझकर अनदेखा किया जाता है?
लोगों का मानना होता है कि शादी जैसी रस्म में लड़ाई-झगड़ा या बहस नहीं होनी चाहिए, फिर चाहे इसकी वजह से किसी लड़की की पूरी ज़िंदगी ही खराब क्यों न हो जाए. मैं जानती हूं कि शादियों में अक्सर मेहर को लेकर बहस होती है. लोगों की कोशिश होती है कि कम से कम मेहर बंधवाना चाहिए. मौलवी बताते हैं कि हमारे नबी की बेटी बीबी फ़ातिमा का मेहर 786 रुपए बांधा गया था. इसीलिए वे सलाह देते हैं कि आज की महंगाई को देखते हुए 10,000-15,000 बंधवा लो. ताज्जुब की बात है कि इस बात का प्रचार पढ़े-लिखे मौलवी भी करते हैं. पर, वे ये कभी नहीं बताते कि उन्हीं बीवियों के समय पर किसी बीवी का मेहर सात ऊंटनियों की ऊंचाई के बराबर सोना बांधा गया था.
शादी करवाने वाले काज़ी की भूमिका सिर्फ़ निकाह की उन शर्तों को पूरा करने की होती है जो किसी निकाह को करवाने के लिए ज़रूरी हों. काज़ी ने भी कभी अन्य शर्तों को जोड़ने के बारे में नहीं बताया. इससे साफ़ समझ आता है कि मुस्लिम समुदाय के ठेकेदार पुरुष भी इसके बारे में लोगों को सही से जानकारी नहीं देना चाहते हैं.
आज जिस शादी को मैं कॉन्ट्रैक्ट बोल रही हूं खुद मुझे भी अपनी शादी के वक्त यह नहीं मालूम था कि असल में हमारी शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है और इस कॉन्ट्रैक्ट में शर्तें घटाई या बढ़ाई जा सकती हैं. उस समय तो हम काजी के फॉर्मैट को सबसे ज़्यादा महत्त्व देते थे. लेकिन, वर्षों तक घर से बाहर निकलकर, संस्थाओं में काम करने के बाद पता चला कि मुसलमान समुदाय में शादी के सही मायने क्या हैं! मुझे ये बात बेबाक कलैक्टिव की मीटिंग में – जहां हमें मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में बताया गया था – पता चली थी. तभी यह भी समझ आया कि इसका सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो यह महिलाओं को काफ़ी मज़बूती दे सकता है. अपनी बात को साफ़ तरीके से बताने के लिए मैं एक उदाहरण देती हूं:
शादी के वक्त निकाहनामा तैयार करते हुए अगर ये शर्त लिख दी जाए कि जब भी तलाक दी जाएगी वो तलाक-ए-मुबारत (दोनों पक्षों की आपसी सहमति) से दी जाएगी. इसमें दोनों पक्षों की तरफ़ से लोग शामिल होंगे जिनके सामने आपसी बातचीत से तलाक की प्रक्रिया पूरी की जाएगी. इससे महिला के अंदर ये डर कि उसको कभी भी उसका शौहर तलाक दे सकता है, ये डर और खतरा नहीं रहेगा. बल्कि जब भी अलग होना होगा दोनों की रज़ामंदी से तलाक करवाया जाएगा.
हमने जब से यह जाना कि मुस्लिम शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है, तभी से लगातार इसके बारे में विस्तार से जानने की कोशिश की और इस बात की ज़रूरत को भी महसूस किया कि इसके बारे में गांव-गांव जाकर महिलाओं और लड़कियों को बताना बहुत ज़रूरी है. गांव, कस्बों, गली-मोहल्लों में जब हम महिलाओं के साथ इस पर बात करते हैं, तब वहां मौजूद पुरुष भी हमारी बातचीत में शामिल होते हैं. हमारी बातें सुन उपस्थित पुरुष कहते हैं कि इतनी गहराई से हमने कभी इस बात को सोचा ही नहीं, और न ये बात कभी घर के बड़ों व काज़ी ने हम लोगों को बताई. अपने काम के दौरान हुए अनुभवों से मैंने जाना कि इसके बारे में सही तरीके से प्रचार-प्रसार हुआ ही नहीं है या किया ही नहीं जाता. बल्कि शादी की रस्मों और रिवाजों की खुशी में शर्तों को कोई महत्त्व ही नहीं दिया जाता. उसे सिरे से दरकिनार कर दिया जाता है.
पहले मेरी नज़र में भी निकाह वो खुशी थी जो एक-दूसरे के साथ शादी के रिश्ते में बांधती है. इसके दौरान कुछ हक और अधिकार होते हैं जो जाने-अनजाने आधे-अधूरे तरीके से महिलाओं को बताए जाते हैं. हम लड़कियां शादी की खुशी में इतनी मगन हो जाती हैं कि इसकी असल गहराई तक पहुंच ही नहीं पाती हैं. सच्चाई यह भी है कि ज़्यादातर शादी जैसे फैसलों में लड़कियों और घर की औरतों का किसी भी तरह का कोई दखल नहीं होता. जो भी तय किया जाता है वह मर्दों और घर के बुजुर्गों द्वारा तय कर लिया जाता है. लड़कियां यह सोच लेती हैं कि घरवाले जो करेंगे वो सही करेंगे. पर, ये नहीं मालूम होता कि शायद घर के पुरुषों को भी निकाह के सही मायने पता ही न हों!
अपने अनुभव और यकीन के साथ मैं यह बात कह सकती हूं कि शादी गरीब घर की लड़की की हो या चाहे अमीर घर की लड़की की, किसी की भी शादी में निकाहनामें पर कोई शर्त नहीं लिखवाई जाती है. दोनों जगहों पर निकाहनामा एक जैसा ही होता है. वहीं, परिवार में प्रॉपर्टी, सुलह-कलह की बात या किसी भी अन्य तरह के विवाद में कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें लिखकर बताई और समझाई जाती हैं. समझने की बात यही है कि ऐसा निकाहनामा में क्यों नहीं किया जाता है?