आप क्या चाहते हैं – समझौता या न्याय?

समझौता (संज्ञा) निर्णय के रूप में

चित्रांकन: पाखी सेन

समझौता शब्द का एक पर्यायवाची है – निपटारा. हिंसा का शिकार होने वाली महिला या लड़की की मौत के बाद ज़्यादातर मामलों में ससुराल पक्ष और मायका आपस में मिल जल्द से जल्द उसका निपटारा करने में जुट जाते हैं. मायके वाले उसे उसके घर की हवा से भी मिटा देने की कोशिश करते हैं. पर क्या होता है जब इस लीक से हटकर कोई मां-बाप अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए खड़े होते हैं? इस निर्णय से जुड़े खतरों, धमकियों, तरह-तरह के दबावों, अकेले पड़ जाने का डर – कैसे इन सबको वे अकेले झेलते हैं? और एक केसवर्कर को किस तरह की मशक्कत करनी पड़ती है इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कि इस निर्णय पर सालों-साल तक टिका रहा जाए. यह निर्णय भी समझौते का एक रूप है.

महिला समूह वनांगना संस्था की एक केसवर्कर की नज़र में न्याय के रास्ते में व्यवस्था की हद दर्जे की बेरूखी, न्यायिक प्रक्रिया में आने वाली अड़चने और देरी शामिल है. केसवर्कर और मां-बाप कैसे इस आग के दरिया को पार करते हैं? पढ़िए एक केसवर्कर की कलम से यह लेख.

इस लेख को एक अन्य लेख “वहां देखो, ज़िंदा होने पर एक बेटी के शरीर का सौदा, अब मरने के बाद एक लाश का सौदा!! वाह रे समाज क्या खूब है…” के पूरक बतौर पढ़ा जा सकता है.

पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

जब सौदे की बात आती है, तब दिमाग में अनगिनत महिलाओं की मौतें आ जाती हैं. क्योंकि समाज औरत के ज़िंदा होते हुए दहेज के नाम पर और उसके मरने पर लाश का सौदा करता है. औरतों के लिए तो घर-परिवार, समाज, सबकी आंखों का पानी जैसे गिर गया है. महिला मरी नहीं कि गांव प्रधान, थाना, ससुराल वाले सभी के दिमाग में यही ख्याल आता है कि अब जो हो गया, वह हो गया, मामले को यहीं रफा-दफा करते हैं और बोली लगाते हैं. उसके बाद धनराशि पर समझौता हो जाता है.

पुलिस रिकॉर्ड और जांच करने से बच जाती है, मुलज़िम जेल जाने से बच जाते हैं और मायकेवाले भागदौड़ करने से बच जाते हैं.

समस्या छोटी हो या बड़ी एक औरत की जान लेना इतना आसान है जैसे कसाईघर में जानवरों का काटा जाना. जब चाहा काट दिया और पैसे कमा लिए. हमारे पास ऐसे बहुत सारे केस आते हैं जिसमें मरने के बाद हम उनके शोक में जाते हैं पर, कुछ कर नहीं पाते. एक तरह का गुस्सा और निराशा लेकर चले आते हैं. एक केसवर्कर होने के नाते बहुत तनाव की स्थिति से गुज़रना पड़ता है. खासकर, उन केसों में जहां हम लाश के सामने खड़े होते हैं और कुछ नहीं कर पाते! लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि ऐसे केस में समझौता ना होने पाए. ऐसा करने के लिए हम बहुत ज़्यादा हाथ-पैर मारते हैं और लोगों को समझाते भी हैं. कई बार इसमें सक्सेस भी मिलती है. लेकिन ऐसा कर पाना एक केसवर्कर के लिए चुनौतियों से भरा होता है. एक महिला की मौत के बाद उसे न्याय ना दिला पाने में मां-बाप भी दोषी होते हैं.

अगर मां-बाप चाहें तो ऐसा नहीं होगा कि मुलज़िम जेल जाने से बच जाए!

2020 में कोविड-19 लॉकडाउन के बाद का एक केस है. चित्रकूट ज़िले के गांव की रहने वाली संगीता (काल्पनिक नाम) की शादी बांदा ज़िले के गांव में रहने वाले विजय (काल्पनिक नाम) के साथ हुई थी. दहेज को लेकर ससुराल वाले संगीता को लंबे समय से प्रताड़ित कर रहे थे. एक दिन ससुराल वालों ने उसकी हत्या कर दी और उसे आत्महत्या का रूप दे दिया.

इस केस में मैं बहुत मशक्कत के बाद स्टैंड कर पाई. मैं पल-पल की खबर रखती. चारों तरफ हाथ-पैर मार कर पिता और भाई को समझौते के लिए टूटने नहीं दिया.

इस केस के बारे में मैंने पेपर में पढ़ा. फिर, मैं घटनास्थल पर गई. वहां पहुंचकर मैंने जो देखा वह बहुत ही दर्दनाक था. खैर, कोई कुछ सही से बताने को तैयार नहीं था. मैंने मायके का पता किसी तरह से लिया और वहां से मैं संगीता के मायके गई. मायके वालों का बुरा हाल था. मैं, संगीता के पिता और भाई से मिली, मामले को समझा और उन्हें कहा, “हम लोग कानूनी कार्रवाई में मदद करेंगे. अगर आप भरोसा करें तो आप अकेले नहीं हैं”.

घरवालों ने दो दिन का समय मांगा. उस वक्त, मैंने उन्हें अपना नंबर और संस्था का कार्ड दिया और साथ ही उनका मोबाइल नंबर लेकर चली आई. दो दिन बाद जब तीसरे दिन मैंने उन्हें फोन किया तो उन्होंने बताया कि वे थाने गए थे पर वहां कोई सुनवाई नहीं हुई. थाने में एसएचओ (SHO), ससुराल वालों को बुलाकर पैसे के लेनदेन की बात कर रहा था. एसएचओ ने लड़की के घरवालों को यह कह कर टाल दिया कि जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ जाएगी तब आना.

तब मैंने पिता और भाई से एक ही सवाल पूछा, “आप क्या चाहते हो – समझौता या न्याय?” उन्होंने कहा, “मुझे मालूम है कि किन-किन लोगों ने मेरी बेटी को मारा है. मैं उन्हें जेल भिजवाना चाहता हूं.” अगले दिन ही मैंने उन्हें बांदा बुलाया और उनकी सहमति से एक फॉर्म भरा जिसमें यह लिखा जाता है कि घरवालों की सहमति से संस्था उनके केस पर काम कर सकती है. एप्लीकेशन तैयार कर मैं उनको लेकर थाने गई. वहां थानाध्यक्ष उनके ऊपर बहुत भड़का और मेरी तरफ देखकर कहा, “इनको लेकर क्यों आए हो? क्या मैं तुम्हारी रिपोर्ट नहीं लिखता?” तब, मैं बोली, “सर, कोई बात नहीं, हमारा भी काम मदद करना है और आपका भी. बहुत दूर से आते हैं, रोज़-रोज़ नहीं आ पाएंगे, आज दूसरी बार आए हैं. इनकी रिपोर्ट लिख लीजिए.” खैर, एसएचओ ने एप्लीकेशन ले ली और कहा, “आप दो दिन बाद आइए और मुझे फोन करके आना. आपकी रिपोर्ट लिख ली जाएगी.” और मुझे उसने कहा, “मैडम, आपके आने की ज़रूरत नहीं है.”

अब, तीन दिन बाद जब मैंने थाने में फोन किया तो पता चला कि मेरा नंबर ब्लैक लिस्ट में डाल दिया गया है. फिर, मैंने लड़की के पिता से कहा कि वे फोन करें, तो उनका फोन नहीं उठाया. अगले दिन फिर हम लोग थाने पहुंच गए. वहां देखा तो ससुराल पक्ष से चार-पांच लोग थाने में बैठे थे. यह देख कर हमारे तो होश उड़ गए. मैं गई और एसएचओ से बात की. मैंने कहा, “सर, ये लोग थाने में खुलेआम घूम रहे हैं. आप रिपोर्ट लिखकर इन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं कर रहे?” तब एसएचओ ने कहा, “मैडम, यह हमारा काम है. आप लोग बाहर बैठ जाइए और ज़्यादा ज्ञान मत दीजिए.” वहां खड़े-खड़े, बहुत सरल होकर मैंने एसएचओ से यही कहा, “मैं सिर्फ़ आपको, आपकी ड्यूटी याद दिला रही हूं.”

मेरी बात सुनकर उसने मुझसे लड़की के भाई और पिता को अंदर भेजने के लिए कहा. मैंने उन्हें अंदर भेज दिया. एसएचओ ने लगभग 2 घंटे उन्हें अंदर बैठा कर रखा सिर्फ़ यह बात करने के लिए कि वे समझौता कर लें वरना परेशान हो जाएंगे. उसके बाद मैं अंदर गई और पूछा, “क्या हुआ? क्या बात हो गई?” मेरा सवाल सुनकर एसएचओ ने कहा, “यह एप्लीकेशन बदलो, आत्महत्या का केस दर्ज करूंगा हत्या का नहीं.”

एसएचओ की यह बात सुनकर मैंने यही कहा, “आप दर्ज करेंगे और इसी थाने से दर्ज करेंगे.” यह कहकर मैं चली आई.

बाद में हम एसपी और डीआईजी से मिले लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. अंत में कोर्ट का सहारा लिया और धारा 156 (3) के तहत एफआईआर दर्ज करने की मांग की. कोर्ट के आदेश पर उसी थाने में एफआईआर दर्ज की गई. उसके बाद कोर्ट की प्रक्रिया शुरू हुई. संगीता के पिता का आना-जाना शुरू हुआ. एक दिन पिता को पता चला कि केस की तारीख वाले दिन संगीता का पति, जेठ और भतीजा कोर्ट के बाहर उसे मारने की ताक में खड़े हैं. उस दिन मैं दफ्तर से बाहर थी. मैंने, पिता से कहा, “आप भी कोर्ट मत जाओ, आप ऑफिस में बैठे रहो.” फिर मैंने एक कार्यकर्ता को भेजकर वकील से एप्लीकेशन दिलवाकर अगली तारीख लगवा दी. उसके बाद भी मुलज़िम खुराफ़ात करते रहे और संगीता के पिता के खिलाफ़ जान से मारने की कोशिश में धारा 307 के तहत झूठी एफआईआर थाने में दर्ज करवा दी. झूठी रिपोर्ट लिखने में पुलिस को ज़रा भी टाइम नहीं लगा. ससुराल वालों ने यह रिपोर्ट इसलिए भी कराई कि – तुम इसमें समझौता करो और हम उसमें समझौता करेंगे. ससुराल वालों की एफआईआर झूठी थी. इसलिए मैंने मृतका के पिता से, उस तारीख में वे कहां थे इसकी जानकारी लेकर वकील को दे दी. यह झूठा केस हाईकोर्ट में चला.

सच यह है कि अगर कोई मां-बाप केस करना भी चाहते हैं तो प्रशासन का रवैया बहुत खराब होता है. गरीब तो यह लड़ाई लड़ ही नहीं सकते क्योंकि ना तो उनके पास पैसा है और ना ही ताकत. बेटी भी उनकी मरे और परेशान भी वही हों. मारने वाला खुलेआम मनमानी करते हुए घूमता रहता है और उनकी जान का खतरा भी बनता है. इस सबके बीच जितनी ज़िंदगी बचती है वो भी वे डर-डर कर जीने में बिता देते हैं. जैसा, संगीता के केस में हुआ.

इस केस में संगीता का एक ही भाई था जिसे गांव से पलायन करना पड़ा. लेकिन कुछ समय बाद पिता के खिलाफ़ जो झूठा मुकदमा लिखाया गया था उससे वो बरी हो गए और संगीता के केस में कोर्ट से धारा 498ए (क्रूरता) और धारा 304बी (दहेज-हत्या) का मुकदमा दर्ज हुआ जिसमें दो लोग गिरफ्तार हुए. आज भी यह केस कोर्ट में चल रहा है. संगीता के केस के बाद भी तमाम ऐसे केस आए जिनमें मां-बाप परेशान होकर चुपचाप बैठ जाते हैं क्योंकि उनके पास इतना पैसा नहीं होता कि वे कोर्ट में जाकर यह लड़ाई लड़ते रह सकें.

जब से न्यायालय में संगीता का केस दर्ज हुआ है, तब से आज तक इस केस में कुछ भी हुआ हो या तारीख पड़ी तो माता-पिता हमें ज़रूर फोन करते हैं और हमारे साथ कोर्ट आना-जाना करते हैं. क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, यह सारी जानकारी लेते हैं और हम उन्हें सही जानकारी देकर उनकी मदद करते हैं. वे संस्था पर बहुत विश्वास करते हैं.

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