हिंसा, श्रम और समझौता

समझौता (संज्ञा) काउंसलिंग के रूप में

चित्रांकन: मनिमंजरी सेनगुप्ता

किसी महिला की ज़रूरतों को केंद्र में रखते हुए उसकी काउंसलिंग करने का क्या मतलब होता है? निर्णय लेते समय महिला के सामने अनेक सामाजिक पहलू खड़े हो जाते हैं जिनमें वह फंसती है और निकलती भी है. कई सवाल सामने होते हैं. जैसे, ससुराल छूटा तो कहां रहूंगी? क्या करूंगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? बच्चों को बाप का नाम कैसे मिलेगा? समुदाय क्या कहेगा? आदि. इन सवालों में घिरी महिला को निर्णय तक पहुंचाने के लिए केसवर्कर्स को लम्बे समय तक जूझते रहना पड़ता है. इस प्रक्रिया के दौरान भले ही महिला को एक मज़बूत निर्णय लेने में समय लगे मगर, बदलाव दिखाई देने शुरू हो जाते हैं.

उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित वनांगना संस्था से जुड़ी एक केसवर्कर इस लेख के माध्यम से हमें एक ऐसे केस के बारे में बता रही हैं जहां काउंसलिंग के माध्यम से एक पीड़ित महिला ने अपने श्रम और उससे जुड़ी मूल्यवान जानकारियों के बारे में जाना. इन जानकारियों से महिला की ज़िंदगी में किस तरह के बदलाव आए जानने के लिए पढ़िए यह लेख.

पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

काउंसलिंग के दौरान सबसे पहले महिला की स्वयं की ताकत और उसके हुनर को महत्त्व देने पर काम किया जाता है. स्वयं के श्रम को महसूस कराना और उसके सामने ऑपशन रखते हुए उसके फायदे और नुकसान के बारे में जानकारी देना सबसे ज़रूरी होता है. इसके लिए हम पहले पता लगाते हैं कि जिस जगह महिला रहती है उस क्षेत्र में आजीविका से जुड़े किस तरह के विकल्प मौजूद हैं जहां वो काम कर सकती है. उसके बाद हम उसे वहां काम खोजने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. हम उसे कहते हैं, “तुम दिन-रात अपने परिवार के लिए काम करती हो जिसका तुम्हें कोई मूल्य नहीं मिलता. अगर तुम घर से बाहर काम करोगी तो पैसा भी कमा सकती हो और अपनी ज़िंदगी भी सवार सकती हो.” हम उन्हें या तो दुकान खोलने या फिर दिहाड़ी पर मज़दूरी करने के लिए कहते हैं. या फिर पुरुष-प्रधान जगहों जैसे ईंट भट्टी पर भी काम करने के लिए प्रोत्साहित कहते हैं.

इसमें महिला टूटती है, संभलती, रोती, बिलखती है और कहती है, “मैंने मायके व ससुराल दोनों के लिए कितना कुछ किया! पर, आज मेरे लिए कोई नही है. जो श्रम व कुरबानी मैंने दोनों परिवारों के लिए दी काश! उससे अपने लिए कुछ किया होता तो, जो परिवार आज मुझे धिक्कार रहा है शायद स्वार्थ में ही सही, पर थोड़ा सम्मान तो ज़रूर देता.”

महिलाओं को अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित करने में श्रम का प्रश्न कितना केंद्रीय है, यह नीचे दिए गए मामले से स्पष्ट है.

चित्रकूट ज़िले की उषा (काल्पनिक नाम) की शादी आज से दस साल पूर्व, नाबालिग उम्र में चित्रकूट के ही एक गांव में हुई. शादी के बाद से ही पति और ससुरालवालों के साथ समस्याएं शुरू हो गईं. पति जुआ खेलता था. घर में ही कच्ची शराब बनाता था. खुद पीता था और लोगों को बेचता था. वह, उषा को भी शराब बनाने के लिए मजबूर करता था. उषा के मना करने पर आए दिन उसके साथ मारपीट करता. हिंसा जब बहुत ज़्यादा बढ़ जाती तो उषा के बाप-भाई आते और कुछ दिन के लिए उसे अपने साथ ले जाते. पर, जल्द ही फिर समझा-बुझाकर वापस सुसराल भेज देते थे. उषा, मायके से ससुराल, ससुराल से मायके आती-जाती रही. उषा के मां-बाप गरीब थे. भाई घर में कोई पैसे नहीं देते थे. मायके और ससुराल दोनों ही घरों में उषा की मज़दूरी से ही चूल्हा जलता था. मायके में भाई और बाप उसे समय-समय पर ताना भी देते और मारते भी. ये कहकर कि हमें तुम्हारी कमाई नहीं खानी है, उसे फिर ससुराल भेज देते.

उस बीच उसके दो बच्चे हो गए. पर, हिंसा थी कि थमने का नाम नहीं ले रही थी. बल्कि दिनों दिन बढ़ती ही जा रही थी. अब तो उषा के साथ-साथ बच्चों पर भी हिंसा शुरू हो गई थी. खैर, थककर उषा के मां-बाप ने ससुराल वालों के खिलाफ कर्वी कोर्ट में धारा 498ए दहेज उत्पीड़न और धारा 125 भरण-पोषण का मुकदमा कर दिया. उसके बाद पुलिस, कोर्ट और संस्था द्वारा कई समझौते कराए गए जिसके लिए उषा राज़ी भी हो गई. मायके में होने वाली मानसिक और शारीरिक हिंसा और समुदाय के तानों के चलते उषा समझौता कर वापस ससुराल चली गई.

वनांगना, बांदा से एक केसवर्कर, हिंसा के केस के सिलसिले में फोन पर बात करती हुई. फोटो: शिवम रस्तोगी
उषा का केस 4 साल पहले संस्था के संज्ञान में आया था. तभी से उसके साथ काउंसलिंग शुरू हो गई थी. इस बीच एक-दो बार जब भी वो ससुराल वापस गई तब भी संस्था द्वारा काउंसलिंग जारी रही. उषा के मन में यह बात बैठी हुई थी कि लड़की के दो ही घर होते हैं और लड़की के साथ बाप या पति का नाम ज़रूर जुड़ा होना चाहिए.

काउंसलिंग की प्रक्रिया के दौरान यह बात उसे काफी लंबे समय के बाद समझ आई कि अब तक वह खुद अपनी मेहनत से ही जी रही है और आगे पति या बाप के नाम के बिना जी सकती है.

आखिरकार 2020 में अपने मज़बूत निर्णय के साथ उषा अपने बच्चों को लेकर ससुराल से मायके आ गई. मायके वालों से उसने कहा, “मैं आप पर आश्रित नहीं रहूंगी, स्वयं कमाकर अपना और बच्चों का भरण-पोषण करूंगी और यहीं रहूंगी. अगर किसी ने मुझे परेशान किया तो मैं किराए का घर लेकर आप लोगों से भी अलग रहूंगी.”

वर्तमान में उषा की बिसातखाने की दुकान है. दुकान अच्छी चलती है. बच्चों के साथ वो आराम से रह रही है. आगे का उसका सपना है कि वह दुकान से कमाकर अपना खुद का घर बनवाएगी, वहीं अपनी दुकान चलाएगी और स्वतंत्र रूप से हिंसा रहित जीवनयापन करेगी.

असल में बात है कि काउंसलिंग की भूमिका यही है कि महिला को खुद से अपने श्रम का महत्त्व समझा पाना. जिस पल वो यह जान जाती है, उसी क्षण वो मज़बूत हो जाती है और हिंसा का जवाब दे पाती है.

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