‘हम सिर्फ़ ससुराल वापस जाने का कोम्प्रोमाईज़ नहीं करवाते हैं.’

घरेलू हिंसा के मामलों में महिलाओं के लिए बातचीत एवं समाधान का एक नारीवादी हथियार

चित्रांकन: शिवम रस्तोगी

समझौता और इकरारनामा ये दो शब्द जेंडर आधारित हिंसा से जुड़ी शब्दावली में महत्त्वपूर्ण हैं. इकरारनामा का मतलब कोर्ट-कचहरी, थाना-पुलिस, पंचायत या मध्यस्थता केंद्रों द्वारा करवाए जाने वाले समझौतों से बहुत अलग है. इन दोनों के बीच के अंतर को जानने के लिए द थर्ड आई की टीम ने जब उत्तर-प्रदेश के वनांगना संस्थान से जुड़ी केसवर्कर्स के साथ बैठकर इस विषय पर बात की तो इकरारनामे से जुड़ी कई मूलभूत जानकारियां और बातें हमारे सामने खुलने लगीं. जैसे, जेंडर आधारित हिंसा से जूझ रही महिला या लड़की जब केसवर्कर्स के पास आती है तो वे किस तरह के हस्तक्षेप करती हैं? यह हस्तक्षेप कानूनी समझौतों से कैसे अलग हैं? इनके इकरारनामे में किन चीज़ों पर इकरार कराया जाता है? किसी इकरारनामे को तैयार करने में पारिवारिक रिश्तों के भीतर की सत्ता को कैसे समझा जाता है और कैसे शामिल किया जाता है?

इसके अलावा जो सबसे खास बात निकलकर सामने आई वह असल में इन परिस्थितियों का विस्तृत विश्लेषण है कि क्या होता है जब किसी समझौते या इकरारनामे के केंद्र में महिला होती है? पढ़िए बातचीत से संपादित अंश.

पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

टीटीई: एक बात बताइए, आप लोग भी समझौते करवाते हैं और आप अपने समझौतों को इकरारनामा बुलाते हैं. आप कह रही हैं कि पुलिस या परिवार वाले समझौते या कोम्प्रोमाईज़ करवाते हैं. फिर, इस कोम्प्रोमाईज़ या समझौते और आपके इकरारनामे में क्या फ़र्क है? और किस तरह के मामलों में आप इकरारनामा कराती हैं और क्यों?

अवधेश: सबसे पहले एक चीज़ जो नोट करने की है वह यह कि हम हत्या, दहेज-हत्या, छेड़खानी, बलात्कार या आत्महत्या के केसों में कोई कोम्प्रोमाईज़ नहीं करवाते हैं. हम कोम्प्रोमाईज़ करवाते हैं सिर्फ़ उन केसों में जो भरण-पोषण (धारा 125 – इसके तहत पति, पत्नी के भरण-भोषण का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा) के केस होते हैं. दूसरा जो डी. वी. एक्ट (घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005. इस कानून के अंतर्गत गृहस्थी में रहने वाली कोई भी महिला घर के दूसरे सदस्यों के विरुद्ध घरेलू हिंसा का मुकदमा लगा सकती है) के केस होते हैं, और जो धारा 498 (महिला के साथ होने वाली क्रूरता मानसिक और शारीरिक दोनों की व्याख्या एवं निपटारा से संबंधित) के केस होते हैं. इन सब केसों में अगर महिला कोर्ट में जाने से पहले हमारे पास आई है, तब हम इनमें पहल करते हैं.

पुष्पा: एक समझौता होता है जो कोर्ट-कचहरी, थाना, या दुनिया में जहां भी समझौते होते हैं वहां होता है और दूसरा हमारा इकरारनामा होता है. इन दोनों की सोच में बहुत बड़ा फ़र्क है. क्योंकि उनका (व्यवस्था या प्रशासन) जो नज़रिया होता है उसमें उनको किसी ना किसी तरह से परिवार को बचाना है.

उनके केंद्र में परिवार होता है. लेकिन हमारे केंद्र में महिला होती है. हम मानते हैं कि महिला से परिवार है, परिवार से महिला नहीं है. अगर महिला टूट गई तो फिर परिवार का कोई मायने नहीं रह जाता.

व्यवस्था जो समझौते करवाती है उसके केंद्र में होता है कि परिवार न टूटे महिला चाहे टूट जाए. तो, हमारे इकरारनामा और उनके समझौते में यह एक बहुत बड़ा विरोधाभास है.

शबीना: इन शब्दों को गहराई से समझें तो जो समझौते लोग (समाज या प्रशासन) कराते हैं और जो हम कराते हैं – इकरारनामा, यह शब्द ही अपने में बहुत मायने रखता है. इकरार अर्थात – हम इकरार करते हैं कि “हां, मैंने यह चीज़ें कीं और अब मैं इसको नहीं करूंगा या मैं अब नहीं करुंगी.” यह पूरी सोच और समझ के साथ किया जाता है. यह किसी पर दबाव वाली चीज़ नहीं होती है. समझौता या कोम्प्रोमाईज़ में दबाव होता है कि अगर आपको घर बसाना है तो बस ठीक है. थोड़ा ये झुकें थोड़ा तुम झुक जाओ, थोड़ा तुम मान लो, थोड़ा वो…

वहीं, इकरारनामा में है कि “मैंने माना है कि मैंने मारा है, मैं मानता हूं/मानती हूं कि मैंने इसके साथ हिंसा की है. लेकिन भविष्य में मैं नहीं करूंगा/करूंगी.” इस तरीके की भाषा का इस्तेमाल हमारे इकरारनामा में किया जाता है. यह महिला के लिए एक तरीके की सुरक्षा होती है. यह बात मायने नहीं रखती है कि कानूनी रूप से इस कागज़ का महत्त्व नहीं है. इसका एक डर होता है कि मैंने माना है कि मैं हिंसा करता था लेकिन मैं अब नहीं करूंगा या करूंगी. यह एक तरह की सुरक्षा भी है.

जब महिला का इकरारनामा फेल हो जाता है और उसका पति सही से नहीं चल रहा या वह फिर से मारपीट करने लगता है, उस वक्त जब महिला का केस कोर्ट में दायर होता है, उन कागज़ों में भी हम इकरारनामा के कागज़ को जोड़ सकते हैं यह बताते हुए कि एक समय पर पति ने यह चीज़ें की थीं और उन्हें माना भी था. तो. इकरारनामा एक तरीके से हिंसा का रिकॉर्ड भी होता है.

मध्यस्थता, समझौता और इसकी भाषा को देखें, या जो लोग मध्यस्थता कराते हैं उनकी भाषा को देखें तो वे कहेंगे कि “यह परिवार बहुत प्यार से रहेगा, अच्छे से रहेगा और कोई शर्त नहीं है बस ठीक है. जो आपसी विवाद इनके थे वे खत्म हो गए. तुम भी कम नहीं हो, तुम भी कम नहीं हो…” यहां पर सच में कौन विवाद करने वाला है और कौन सहने वाला है, इसे समझाने वाली भाषा उनके समझौतों में नहीं लिखी होती. लेकिन हमारे इकरारनामे में स्पष्ट लिखा होता है कि करने वाला कौन है और सहने वाला कौन. यह महिला को एक तरीके की मज़बूती देता है. तो, यह भी एक ज़रूरी फ़र्क है हम लोगों के इकरारनामे में. हमने दोनों पक्षों से बात की. दोनों पक्षों को समझा, हमने उसमें अपना भी नज़रिया डाला. फिर जो लड़की डिसीज़न लेती है कि – मैं वहां (ससुराल) जाना चाहती हूं या मैं तलाक लेना चाहती हूं या मैं अपना दहेज वापस लेना चाहती हूं – इन सब पर बात होती है. हम सिर्फ़ ससुराल वापस जाने का कोम्प्रोमाईज़ नहीं करवाते हैं.

अवधेश: हम और भी तरह के इकरारनामे करवाते हैं जिसमें लड़की का पूरा दहेज़ वापस करवा देते हैं और तलाक के लिए राज़ी भी करवा देते हैं. और अगर वह ससुराल में रहना चाहती है – कई बार लड़की यह भी कहती है कि मुझे उसी घर में रहना है – तो फिर हम उसमें दोनों पक्षों से बात करने के बाद, लड़की की जो शर्तें होती हैं, उन शर्तों पर ही इकरारनामा लिखित में स्टाम्प पेपर पर करवाते हैं. उन शर्तों को हम उनको पढ़कर भी सुनाते हैं.

अगर पति ने उन शर्तों का मान नहीं किया तो फिर ऐसी स्थिति में हम इकरारनामा नहीं करवाते हैं. अगर उसकी शर्तें – जो जायज़ हैं और गलत नहीं – जब तक उसको उनके अनुसार चीज़ें नहीं मिलेंगी शायद वह उस घर में सुरक्षित नहीं रह सकेगी. ऐसी स्थिति में हम मध्यस्थता नहीं कराते और दो महीना सोचने का टाइम देते हैं. तलाक करवा दिया, दहेज वापस करवा दिया तो उसके बाद तो वह फाइल खत्म. लेकिन, अगर हमने इकरारनामे के बाद लड़की या औरत को ससुराल भेजा है तो हम एक लम्बे समय तक कोशिश करते हैं कि उससे मिलते रहें. अगर उस दौरान भी उसको किसी तरह की दिक्कत हुई तो फिर हम उसके मायके पक्ष से भी बात करते हैं और उसको वापस ससुराल से ला कर फिर कोर्ट में मुकदमा कराते हैं. इन सब में हम महिला को ही प्राथमिकता देते हैं. महिला से अलग से भी बात करते हैं.

महिला ने कह दिया, “दीदी, मैं वहां जाना चाहती हूं” तो फिर हमारा भी सवाल रहता है, “क्यों जाना चाहती हो, जाने के भी कोई रीज़न होंगे?”

शबीना: कभी-कभी हम औरत को यह भी कह देते हैं कि हमें पता है कि वहां (ससुराल) जाने पर शायद आपकी हत्या कर दी जाए, आपको मार डाला जा सकता है. आपको सामाजिक दबाव में जाना है तो आप चली जाइए. हम इस कोम्प्रोमाईज़ में या हम इस इकरारनामे में आपके साथ नहीं हैं. क्योंकि हमें आपका भविष्य दिख रहा है. वहां जाने के बाद, दो-चार दिन के बाद आप पर शायद इतना ज़ुल्म हो कि आप वापस ही ना आ पाओ. तो वहां हम कह देते हैं कि हम आपकी फाइल बंद कर रहे हैं. आपको जाना है तो आप सामाजिक तौर से, पारिवारिक तौर से चली जाइए.

समझौते के केस में उनकी गंभीरता भी मायने रखती है. मान लीजिए, हमें मालूम है कि बच्चे नहीं हुए हैं, महिला अकेली है और उसका उत्पीड़न बहुत है. हम कोर्ट की प्रक्रिया भी अच्छे से जानते हैं कि अगर हमने कोर्ट में धारा 125 की तो इसमें मिलता ही क्या है. अभी उसका सारा दहेज फ्रेश है, महिला भी बच्चों के मोह में नहीं फंसी हुई है कि कौन मेरे बच्चे को देखेगा. अगर दहेज मिल गया और तलाक हो गया, एकमुश्त रकम मिल गई तो वह अपना जीवन अपने तरीके से बसर कर लेगी. जैसे भी करना होगा – अकेले या किसी साथी के साथ.

प्रशासन में जो समझौते होते हैं वहां पर गिनती देखी जाती है. फैमिली कोर्ट, थाना और मध्यस्थता केंद्र रिकॉर्ड रखते हैं कि हमने इतने समझौते करवाए. लेकिन, हम गिनती नहीं देखते. हम यह देखते हैं कि अगर हम इकरारनामा करवा रहे हैं, किसी की दहेज वापसी करवा रहे हैं तो क्यों करवा रहे हैं? इससे महिला को क्या बेनिफिट है. तो हम महिला के नज़रिए से सोचते हैं और उसी सोच के हिसाब से चीज़ें करवाते हैं. अगर हमें लगता है कि थोड़ा बहुत उन्नीस-बीस भी हो रहा है कि दहेज में कुछ मिल रहा है या मेहर मिल रहा है लेकिन एक-आध रकम नहीं है या फिर अगर हिंदू मैरिज में है और सिर्फ दहेज मिल रहा है और कोई पैसा नहीं दे रहे तो ठीक है. कोर्ट की प्रक्रिया में दौड़ना और वहां लंबे समय तक जाना आसान नहीं क्योंकि कोर्ट में केस चलता है तो फिर इंसान का दिमाग कोर्ट में ही लगा रहेगा – वे अपने भविष्य के बारे में नहीं सोच पाएगी, कोई जॉब नहीं कर पाएगी. कोर्ट में आना-जाना करते रहना पड़ेगा. वह सब हम सोच कर थोड़ा बहुत चीज़ों में एडजस्ट करते हैं. पैसों को लेकर तो हम महिला के परिवार से और महिला से कहते हैं कि इतना मिल रहा है, इतना ले लो और छुट्टी लो. तो यह फर्क है.

अवधेश: हमें पता भी रहता है कि इस कागज़ (इकरारनामा) की वैल्यू नहीं है फिर भी हम इसको पुख्ता करते हैं कि इसकी वैल्यू है. ताकि दोनों पक्ष यह न सोचें कि इसकी कोई वैल्यू नहीं है. कई बार वे डर भी जाते हैं. कोई-कोई परिवार ऐसा भी होता है जो इकरारनामे के बाद यह भी कहता है, “दीदी, आप लोगों ने बहुत अच्छा किया. मेरी बहु या मेरी बेटी के लिए” उनको प्राउड फील होता है तो वे आकर कहते भी हैं.

शबीना: इस बात का असर अगर हम देखें तो इकरारनामा को लेकर जो डर दिखता है वो ऐसे ही नहीं दिखता है. इसका कारण है हमारी छवि.

यह बात सभी को दिखती है कि हम कानूनी पैरवी में लोगों के साथ होते हैं. हत्या के केस हमने उठाए, दहेज हत्या के केस भी उठाए, रेप के केस में हमने लोगों को जेल करवाया.

तो, वह जो एक डर वाली चीज़ है जो उनको भी होता है ना कि यह-यह चीज़ें तो यह लोग करते हैं. तो अगर यह लोग इकरारनामा तैयार कर रहे हैं तो कल इसका इस्तेमाल करके हमें कुछ और ना कर दें. तो यह वाली बात भी है कि एक छवि ऐसी बनी है यह लोग गलत के साथी नहीं हैं. यह भी एक फ़र्क है.

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