“वहां देखो, ज़िंदा होने पर एक बेटी के शरीर का सौदा, अब मरने के बाद एक लाश का सौदा! वाह रे समाज क्या खूब है…”

समझौता (संज्ञा) सौदा के रूप में

चित्रांकन: मनिमंजरी सेनगुप्ता

अपने आसपास की तमाम खबरों पर अगर नज़र दौड़ाएं तो किसी महिला की मौत का सौदा कितनी आम बात है. इस तरह के सौदे हमारे निजी रिश्तों की क्षणभंगुरता और उसके भुरभुरेपन पर पड़े पर्दे को उघाड़ कर रख देते हैं.

ऐसी घोर निराशाजनक परिस्थितियों के बीच उत्तर-प्रदेश के ललितपुर में स्थित सहजनी शिक्षा केंद्र से जुड़ी एक केसवर्कर इन सौदों में न्याय की सेंध लगाने की कोशिश करती है. केसवर्कर के काम के रास्ते में अक्सर ऐसी घटनाएं भी आती हैं जहां उसे मृतक महिला या लड़की में अपना खुद का अक्स दिखाई देने लगता है. उस पल शरीर में एक सिहरन सी पैदा होती है, लेकिन, अगले ही पल वह खुद को समेटती है और अपने को तैयार करती है एक नए केस में जुटने के लिए. आखिर, वह क्या है जो उसे इसमें जोड़े रखता है – उसका गुस्सा, दर्द या फिर नितांत निजी छोटे-छोटे रोज़ के अनुभव जहां उसने खुद समझौते किए हैं?

इस लेख को एक अन्य केसवर्कर के लेख आप क्या चाहते हैं – समझौता या न्याय? के साथ जोड़कर भी पढ़ा जा सकता है जहां न्याय के लिए माता-पिता आखिरी दम तक लड़ने को तैयार हैं.

पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

समझौते और सौदे को लेकर सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर काफी गंभीर मामले देखने को मिलते हैं. इसमें आर्थिक मज़बूती और जाति स्पष्ट रूप से नज़र आती है. अक्सर हमारे सामने भी कुछ ऐसे केस आते हैं जिनका हमारे ऊपर गहरा असर पड़ता है. कभी-कभी तो ऐसी गंभीर स्थिति होती है जिसे देखकर दिमाग पूरी तरह से काम करना बंद कर देता है और हम गहरे सदमें में आ जाते हैं. फिर भी हम अपने आप को संभाल कर आगे आते हैं, केस को समझते हैं और काम में लग जाते हैं.

महिलाओं और लड़कियों को घर, परिवार और ससुराल हर जगह सिर्फ बोझ ही समझा जाता है. सभी को खुश करने के लिए बचपन से ही वे अपने साथ ही समझौता करना शुरू कर देती हैं. इस तरह वे अपनी सारी खुशियां और अपनी ख्वाहिशों को दबाती जाती हैं. किसी न किसी तरह घर में थोड़ा प्यार और सम्मान मिले, इसलिए वे कुछ नहीं बोलतीं, सबकुछ सहती जाती हैं. लड़कियां अपनी और अपनी मां की खुशी ढूंढने के लिए सबकुछ सहती हैं. ससुराल हो या मायका – वे हर जगह लगातार काम करती और खटती रहती हैं.

लड़कियां, मां-बाप की खुशी के लिए कितना कुछ करती हैं. पर हमेशा उन्हें ही बली का बकरा बनाकर सूली पर लटका दिया जाता है. और वे अध-कुचले सांप की तरह चारों ओर देखती ही रह जाती हैं. घुटन भरी ज़िंदगी जीते हुए भी उनके मन में यही ख्याल रहता है कि समाज के लोग क्या कहेंगे? कहीं मेरी वजह से मेरे छोटे भाई-बहनों की शादी में कोई दिक्कत पैदा न हो जाए…

ऐसी ही लड़कियों में एक मैं भी थी. मैं, खुद इन परिस्थितियों से जूझी और लड़ी हूं.

अपने काम के दौरान अक्सर मैं सोचती हूं कि क्या समाज और उसके साथ हमारी सोच में कोई बदलाव आया है?

जब लड़कियां या औरतें मर जाती हैं तब पूरे परिवार के लोग हाय-हाय करते आ जाते हैं, “देखो मेरी लड़की को मार डाला. बहुत अच्छी थी. कभी किसी को कुछ नहीं बताया, सब कुछ सहती रही..” दूसरी तरफ ससुराल पक्ष के लोग कहते हैं, “देखो कितनी खराब है, शायद इसी में कुछ कमी होगी इसलिए तो इसके साथ ऐसा हुआ है.” फिर लोग ऐसी और औरतों के उदाहरण देने लगते हैं, “देखो सुनील की मां”, “कल्लू की घरवाली” और फलानां वो…

लड़की के मायके पक्ष के लोग इधर-उधर भागते हैं कि हमारी रिपोर्ट लिखी जाए, पर बेटी के मर जाने का उनके भीतर कोई गम नहीं होता. वे जाति पंचायत लगाकर ससुराल पक्ष के लोगों पर दबाव बनाने की खूब कोशिशें करते हैं. उनके मन में यही लालच रहता है कि हमें कुछ अच्छा खासा पैसा मिल जाए. लड़की तो मर गई है, कम से कम पैसा तो हाथ आ जाए. इसी बात पर बोलियां लगती हैं.

“वहां देखो, ज़िंदा होने पर एक बेटी के शरीर का सौदा, अब मरने के बाद एक लाश का सौदा!! वाह रे, समाज क्या खूब है.”

मायके वाले लाश के सौदे के लिए “मेरी बेटी, मेरी बेटी” कहते हुए बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. वो भी तभी तक जब तक पैसा नहीं मिल जाता. पैसा मिलने से पहले तक, मायके पक्ष के लोग बहुत लाचार बनकर एक सहारे की मांग करने के लिए हमारे सामने अपने आप को विश्वसनीय दिखाने की कोशिश करते हैं. वे हमें यही बोलते हैं, “जैसा आप कहेंगी, हम उसी तरह से काम करेंगे. हम किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है.” पर वहीं

वे छिप-छिप कर लोगों से अलग-अलग राय जानने के लिए मिलते हैं और यही सोचते हैं कि किससे मिलकर उन्हें कितना फायदा हो सकता है.

अगर मृतक लड़की का ससुराल पक्ष आर्थिक रूप से मज़बूत है तो वे राजनीतिक पार्टियों का सहारा लेकर लड़के पक्ष के लोगों के ऊपर दबाव बनाकर अच्छा खासा पैसा मांगेंगे. और अगर मृतक लड़की के बच्चे हैं तो उनकी आड़ में ज़मीन भी अपने नाम लिखवा लेते हैं.

इसी तरह का एक केस गीता (काल्पनिक नाम) का है. गीता का मायका मडावरा ब्लॉक के एक गांव में है. वो लोधी जाति से थी. उसकी उम्र 20 साल थी. उसके पिता एक ठीक-ठाक संपन्न किसान हैं. उनकी उम्र लगभग 50 साल है और वे बहुत दुबले-पतले से, चुपचाप रहने वाले बड़े भोले-भाले इंसान दिखते हैं. उन्होंने दो शादियां की थीं. पहली पत्नी से कोई बच्चा नहीं हुआ तो उन्होंने दूसरी शादी की जिससे उन्हें तीन बच्चे पैदा हुए – दो बेटे और एक बेटी. गीता दूसरे नंबर की संतान थी.

Dall-e द्वारा निर्मित 

गीता की मां अपनी मर्ज़ी से घर में कुछ नहीं कर सकती थीं. उन्हें सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली और घर का काम करने वाली बाई की तरह देखा जाता था. अपने ही घर में गीता की मां को खाना बाहर के कमरे में दिया जाता और पहनने के लिए सिर्फ़ एक जोड़ी कपड़े मिलते थे. यहां तक कि वे बाहर खड़े होकर किसी से बात तक नहीं कर सकती थीं. गीता की बड़ी मां यानी पिता की पहली पत्नी बहुत तेज़ है. घर में उसका बहुत ज़्यादा दबदबा है. पैसा, अनाज का हिसाब-किताब सब कुछ उसी के पास रहता है. उसकी इजाज़त के बिना कुछ काम नहीं होता.

जब गीता बड़ी और समझदार हुई तब उसने देखा कि घर में उसकी मां के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है. यह सब देख वह अपनी मां का सपोर्ट करने के लिए आगे आई. स्कूल से लौटकर वह अपनी मां के साथ खेतों में चारा काटती और फिर घर का काम भी करती. बड़ी मां को यह सब अच्छा नहीं लगता था. गीता, अपनी मां के खाने-पीने का समय-समय पर ध्यान रखती, घर में जो बनता वो अपनी मां को भी देती. घर में जैसे बाकी लोग रहते उसी तरह मां को रखने की कोशिश करती. बीमार पड़ने पर दवा करा लाती. गांव-मुहल्ले के लोग बोलते, “देखो, गीता कैसे एक लड़के की तरह अपने भाई-पिता के साथ दिन-रात खेतों में फसलों को पानी देने, ट्रैक्टर चलाने का सारा काम करती है.”

गीता की शादी के बाद उसकी मां गुमसुम सी रहने लगी थीं. उनकी बहुएं भी आ गई थीं पर उनको कोई नहीं समझता था. कभी-कभी वे बहुत परेशान हो जातीं तो अपने मायके चली जातीं. वहां वे दो-दो महीने रहतीं लेकिन कोई उनकी खबर तक नहीं लेता. जब गीता मायके आती तो मां उसके सामने अपना सारा दुखड़ा रो लेती थीं. जितने दिन गीता मायके में रहती, उतने दिन मां हंसी-खुशी रहतीं. पर, शादी के बाद वो मायके में ज़्यादा नहीं रह पाती थी क्योंकि उसके दो बच्चे थे और बच्चों के साथ मायके में ज़्यादा दिन रहना बड़ा मुश्किल होता है.

गीता का पति अपनी भाभी से प्यार करता था. इस बात से वो बहुत परेशान रहती थी, पर कभी अपनी समस्या को किसी के साथ शेयर नहीं करती थी. उसे यही लगता था कि उसकी मां वैसे ही परेशान रहती हैं अगर वो अपनी समस्या सुनाएगी तो और ज़्यादा टेंशन में आ जाएंगी. इसलिए गीता ससुराल हो या मायका, दोनों ही जगह जी-जान लगाकर काम करती और किसी से कोई शिकायत नहीं करती थी.

एक दिन गीता के ससुराल वालों ने उसके नाक, कान काटकर और आंखे निकालकर बहुत बुरी तरह से उसकी हत्या कर दी और उसे आत्महत्या का रूप देने के लिए कुएं में फेंक दिया. मायके में सूचना भिजवा दी कि “तुम्हारी बेटी कुएं में कूद गई है”.

जब मायकेवालों को पता चला तो इधर से लड़की के मामा और गांव के लोग ट्रैक्टर में भरकर गीता के ससुराल पहुंचे. गीता, मध्य-प्रदेश के एक गांव में ब्याही गई थी जो उसके मायके से 70 किलोमीटर की दूरी पर है. वहां पहुंचकर पता चला कि कई दिनों से उसके ससुराल वाले गीता को बहुत ज़्यादा प्रताड़ित कर रहे थे. और उसे मारकर कुएं में फेंक दिया है.

पुलिस आई और जब लाश को कुएं से बाहर निकाला तो देखा कि गीता को बहुत बेरहमी से मार डाला गया था.

पूरा शरीर खून से लथपथ था. कुआं सूखा था इसलिए जैसा गीता को मारकर कुएं में फेंका गया था वैसी ही वो बाहर निकली.

ससुराल वालों ने ज़िले तक के थाने में पैसा खिलाकर पुलिस को अपने साथ कर लिया था. यही वजह थी कि कोई भी पुलिस वाला इस केस की परवाह नहीं कर रहा था. गीता के पिता और परिवार के लोगों ने रिपोर्ट लिखवाने के लिए पुलिस पर कोई दबाव तक नहीं बनाया. सबकुछ देखकर, उसका पोस्टमार्टम कराकर, उसे जलाकर वापस चले आए.

गीता के मायके में सहजनी शिक्षा केंद्र के अंतर्गत एक सूचना केंद्र चलता है. इस सूचना केंद्र में महिलाओं और किशोरियों को शिक्षा, साक्षरता और मुद्दा आधारित जानकारियां दी जाती हैं, साथ ही लाइब्रेरी भी चलती है. उस दिन शिक्षा केंद्र से जुड़ी टीचर जब गांव पहुंची तो सेंटर पर आने वाली महिलाओं ने उसे बताया कि गांव की एक लड़की को ससुराल वालों ने मार डाला है. टीचर, सेंटर की महिलाओं को लेकर गीता के घर पहुंची तो देखा कि वहां पर छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे हैं और गीता की मां बेहोशी की हालत में पड़ी है. जैस-तैसे करके मां को उठाया पर वह रोने के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी.

टीचर ने आसपास के लोगों से पूछकर गीता के भाई का नंबर लिया. फोन पर उससे बात की तो भाई ने कहा कि हम लोग गीता के ससुराल में हैं और हमें घर आते-आते रात हो जाएगी, कल बात करते हैं. टीचर ने हम लोगों को सारी बात बताई और खून से लथपथ उस लड़की की तस्वीर हमें भेजी. तस्वीर देखकर हमारे रोंगटे खड़े हो गए. उसी समय से लगा कि कब उसके पिता से मिलें. जब हम उससे मिलने घर गए तो उस वक्त हमें बड़ी मां, गीता की मां और भाई मिले. बड़ी मां और भाई ने हमसे ठीक से बात नहीं की. गीता की मां बहुत रो रही थीं. उन्होंने कहा कि आप मेरे मायके चले जाइए और गीता के मामा से मिलिए, शायद वो कुछ करें. हम मामा से मिले. मामा ने कहा, “मेरी भांजी को बहुत बुरी तरह से मारा है. जो एक आदमी की तरह घर-बाहर खेतों में काम करती, कभी किसी चीज़ की शिकायत तक न करती, हम उसके हत्यारों को सज़ा दिला कर रहेंगे.”

दूसरे दिन जब हम वापस गीता के घर गए तो उसके बाप और भाई का तो रवैया ही बिलकुल बदल गया था. उन्होंने कहा, “मेरी बेटी तो अब मर ही गई है.

अगर मैं उनकी रिपोर्ट करूंगा तो पूरे परिवार सहित सब लोग जेल चले जाएंगे. उनके छोटे-छोटे बच्चे हैं. घर में 20 जानवर बंधे हैं, वे सब भूखे-प्यासे तड़पेंगे और मरेंगे. उनका शराप कौन लेगा?

हमें पाप लगेगा. यह सब हम नहीं करेंगे. जाति, समाज, कुल-परिवार के लोग हमसे क्या कहेंगे!?”

यह सुनते ही मैं हैरान रह गई. मैंने तो ऐसा न कभी देखा था न सुना था. उस वक्त मेरी एक और साथी कुसुम भी मेरे साथ थी. मैंने बाप के मुंह की तरफ देखा और मुझसे रहा नहीं गया. मैं ज़ोर से उस आदमी पर चिल्लाई, “तुम कैसे बाप हो? तुम्हें तो बाप कहना भी पाप है.” उस वक्त ऐसा लगा कि उस आदमी को गाल पर ज़ोर से एक थप्पड़ मार देना चाहिए. पर, उम्र में वो मुझसे बहुत बड़ा था. हम दो लोग थे और उस वक्त उसके घर में खड़े थे. यही सब सोचते हुए, पता नहीं क्या कारण था कि मेरा हाथ नहीं उठा.

मैं उस वक्त कुछ सोच ही नहीं पाई क्योंकि मेरा शरीर एकदम से हिल गया था. हम दोनों ने थोड़ा सोचा भी कि हम लोग इतना डर जाएंगे तो आगे कैसे बात कर पाएंगे. हिम्मत दिखाते हुए मैंने कहा, “एक लड़की को कितनी बुरी तरह से मारा है, उसका गम नहीं… उसके जानवरों का गम है! क्या एक लड़की की जानवरों से भी कम इज़्ज़त है? जानवरों की जान तो ज़रूरी है पर एक औरत की जान की कोई कीमत नहीं?”

चित्रांकन: मनिमंजरी सेनगुप्ता

कितनी सुंदर बेटी थी, और कितनी बेरहमी से उसकी हत्या कर दी गई. घर के एक कोने में बैठी गीता की मां फफक-फफक कर रो रही थीं. वो तो जैसे पागल हो गई थीं. घर में कोई उन्हें कुछ बताता भी नहीं था. जब तीसरी बार मैं उस गांव से गई तो गीता के घर से होते हुए गुज़री. देखा, उसके घर के बाहर उसका बाप और आसपास अपने घरों के दरवाज़ों पर एक दो पुरुष और महिलाएं बैठे हुए थे. जैसे ही गीता के बाप ने हमको देखा तो सिर नीचे कर लिया. मैं वहां रूक गई और पूछा, “क्या हुआ, कुछ सोचा है?” लगभग पचास की उम्र का वो आदमी हंसकर बोला, “हम गांव के चार बड़े-बड़े लोगों को लेकर गीता के ससुराल गए थे. हमने उन्हें कह दिया कि दोनों बच्चों के नाम चार लाख रूपए जमा करा दें. तीन एकड़ ज़मीन मेरे नाम हो गई है क्योंकि बच्चे नाबालिग हैं. जब 18 साल के हो जाएंगे तो ज़मीन उनके नाम हो जाएगी. बच्चे अभी उन्हीं के पास हैं. जब तेरहवीं होगी, उनका निमंत्रण आएगा तो हम लोग जाएंगें. तब कुछ दिन के लिए लिबा लाएंगे. हमारी एक और बेटी होती तो बच्चों की खातिर उसकी शादी वहीं करा देता.”

आसपास बैठे सबलोग ये सब सुन रहे थे. मुझे ये सुनकर भयंकर गुस्सा आया. मैं बहुत ज़ोर से तीखी आवाज़ में बोली, “बहुत बहादुरी का काम किया है. जिसने तुम्हारी बेटी को मार डाला, उन हत्यारों के घर में जाकर तेरहवीं का खाना खाओगे, उनसे रिश्ता जोड़ोगे? तुम जैसे राक्षस बाप हो जाएं तो सारी लड़कियां ऐसे ही हर दिन मारी जाएं. तुम क्या समझो एक औरत का दर्द…” पास में बैठी एक और औरत भी बोल पड़ी, “दीदी, ई लोग क्या समझें, पैदा किए होते न तो दर्द होता! इन्हीं जैसे लोगों की वजह से हम औरतों की घर में बुरी दशा हो रही है.”

मैंने सभी लोगों के सामने उस आदमी को न जाने गुस्से में क्या-क्या कहा, पर उसने उफ़ तक नहीं की, चुपचाप बैठा रहा और सबकुछ सुनता रहा. मैं वहां से चली आई. पर कई दिनों तक खून से लथपथ गीता की तस्वीर मेरी आंखों के सामने रही. इस घटना को मैं भूल ही नहीं पा रही थी. मैं बहुत अंदर तक हिल गई थी. आज भी मैं वहां से गुज़रती हूं तो वह सारी आवाज़ें मेरे ज़ेहन में गूंजती हैं. एक केसवर्कर के बतौर ऐसी भयंकर हत्या और इस तरह के समझौते से मैं पहली बार गुज़री थी.

*पहचान छुपाने के लिए लेख में सभी नाम बदल दिए गए हैं.

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