“क्या हुआ, कोई खुशखबरी नहीं है?”

समझौता (संज्ञा) निर्णय के रूप में

चित्रांकन: शिराज़ हुसैन
पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

समझौता ज़्यादातर दो लोगों के बीच में कराया जाता है. जैसा कि हमने देखा है, किसी परिवार में पति-पत्नी के बीच झगड़े को रोकने के लिए समझौता कराया जाता है या किसी और तरह की लड़ाई को खत्म करने के लिए भी समझौता कराया जाता है. लेकिन, ज़िंदगी में हमें कई और तरह के समझौतों से भी गुज़रना पड़ता है.

अपनी ज़िंदगी में जो समझौता हमने किया है, वो इन सब से थोड़ा अलग है. हमारी ज़िंदगी में समझौते की वजह ये रही कि हमारी शादी को 11 साल हो गए हैं पर अभी तक कोई औलाद नही हुई है. यही वजह है कि हमें हर जगह, हर वक्त, लोगों से कुछ ना कुछ सुनने को मिलता रहता है.

शादी के तीन साल बाद से ही हमने अपना इलाज करवाना शुरू कर दिया था. छह साल तक हम बराबर इलाज करवाते रहे, पर कोई नतीजा नहीं निकला. फिर एक दिन हमने सारे इलाज बंद कर दिए और ऊपर वाले के हाथ में सब कुछ छोड़ दिया, ये सोच कर कि जो वो करेगें वो हमारे लिए बेहतर ही होगा. पर, हमारे आस-पास के लोग, जैसे- रिश्तेदार, पड़ोसी, खानदान वाले कहीं भी मिलते, चाहे किसी फंक्शन में या बाज़ार में, सबसे पहले हमें कहने के लिए उनके पास यही बात रहती, “क्या हुआ शबनम कोई खुशखबरी नहीं है? कहां दिखा रही हो? अरे, मेरे घर के पास एक रहती हैं उनकी शादी को 15 साल हो चुके थे अब उन्होंने अलीगंज में एक डॉक्टर को दिखाया है जो बहुत अच्छे हैं. अब उनके 4 महीना का बच्चा है. और वहां से बहुत औरतों को शिफा मिली है. हमारी तो राय है कि एक बार तुम वहां जाकर ज़रूर दिखा लो. ऊपर वाला चाहेगा तो तुमको भी औलाद हो जाएगी.” ये सुनकर हमारा उन्हें यही जवाब होता, “हां, हमें उनका पता बता दीजिए. हम वक्त निकाल कर दिखा देगें.” फिर वे बोलतीं, “हां बिटिया बहुत ज़रूरी है. एक ही औलाद हो जाए तुम्हारी, आगे तुम्हारा सहारा वही बनेगा. अपनी औलाद अपनी होती है.”

ये सारी बातें हमें लगातार सुननी पड़ती थीं. और ये तो सिर्फ किसी एक की बात हम बता रहे हैं. ऐसे कई लोगों ने ऐसी कई-कई तरह की बातें हमसे कीं और हमें तकलीफ पहुंचाई. आखिरकार हमने अपने आप से समझौता किया कि अब हम इसके लिए अपना इलाज नहीं करवाएंगें, कोई दवाई नहीं खाएंगे. जो भी लोग हमसे इस बारे में बात करेगें, उनकी हां में हां मिलाते रहेंगे. पर, हम दवाई नही खाएंगें.

अपने आप से समझौता करना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि इस समझौते में खुद अकेले इंसान को उससे जूझना पड़ता है. खुद को ही हज़ारों सवालों के जवाब भी देने पड़ते हैं.

कई तरह के सवाल सामने होते हैं – हमने ये समझौता किया तो है, पर क्या इसे हम झेल पाएंगे? या फिर इस समझौते से अपने आपको खुश रख पाएंगे?

एक तरह से ये हमारा निर्णय भी है, जो कि हमने खुद से लिया है. इस निर्णय के बाद से अब हम बहुत सुकून से रहते हैं. अब हमें किसी तरह की टेंशन नहीं रहती है कि हमें दवाई खानी है, या इस दवा से आराम नहीं मिल रहा है तो किसी दूसरी जगह दिखाना चाहिए. दवाई से कभी-कभी तो मेरे शरीर को नुक्सान भी हो जाता था. अब इन सबसे हम आज़ाद हैं. ये निर्णय हमें लेना ही था. कब तक हम इसी उलझन में पड़े रहते कि कब पीरियड होगा. हर महीने इसका इंतज़ार करते रहते थे.

इस निर्णय तक पहुंचने में हमारी अम्मी ने बहुत मदद की. अम्मी ने हमें समझाया “बिटिया, तुम इतना मत सोचो. दुनिया में तुम्हारी जैसी बहुत सी औरतें हैं जिनके आज तक औलाद नहीं हुई है और वे खुश रहती हैं. तुम उन औरतों को देखकर अपने आप को खुश रखने की कोशिश करो.” दूसरी ताकत हमें ऑफिस से मिली. जहां पर हर तरह की औरतों से मिलते रहते हैं. उनसे भी हमें हिम्मत मिलती है. दफ्तर में हमारी एक अप्पी हैं. उन्होंने हमको बहुत समझाया, उनकी बात हमारी समझ में आ गई है.

अब, हम एक जॉब रोल में आ गए हैं. इस जॉब रोल में हमें बहुत सुकून महसूस होता है. पहले जो बातें हमें चुभती थीं उनसे अब हम बहुत दूर जा चुके हैं.

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