डिजिटल एजुकेटर्स

थर्ड आई ऑफलाइन टीम में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और झारखंड राज्यों से 24 डिजिटल एजुकेटर्स जुड़े हैं. अपने परिवेश से गहरे जुड़े ये डिजिटल एजुकेटर्स समय, जेंडर एवं जाति के इतिहास की नज़र से अपने आसपास को समझने का प्रयास कर, इन मुद्दों से जुड़े विषयों पर अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं. स्थानीय समुदायों एवं उनसे जुड़े संस्थानाओं के साथ मिलकर ये लोकल मुद्दों को सामने लाने का प्रयास करते हैं.

कला के विभिन्न माध्यमों पर आधारित शिक्षण पद्धति एवं सामाजिक मुद्दों के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना इनकी ट्रेनिंग का मूलभूत आधार है.

महरौली में एक सुबह

आपको याद है आखिरी बार आप किसी ऐसी जगह पर कब गए थे जो आपके लिए बिल्कुल अनजान थी? आपने वहां क्या देखा? आपने वहां क्या सुना? क्या महसूस किया? दृश्य माध्यम में काम करने वाली एक शिक्षिका के रूप में, मैं अक्सर सोचती हूं कि जब हम किसी नई जगह पर जाते हैं तो वहां एक अजनबी होने के अनुभव से हम क्या सीखते हैं? किसी चीज़ को पहली बार देखने का वह क्षणिक कौतूहल, वह खोजने का भाव, क्या इसे शिक्षण की प्रक्रिया में किसी स्थाई सीख में बदल सकता है?

नदी

एक नदी थी, दोनों किनारे थाम कर बैठी थी

तबस्सुम की एक दोस्त ने उसे नदी के बारे में बताया था. “ नदी के पास पहुंचकर जो पहली चीज़ मैंने देखी वो था कूड़ा. मैंने सोचा अब मैं क्या शूट करूं! पर फिर मैं एक जगह शांति से बैठकर आसपास की हलचलों को देखने लगी, उन्हें महसूस करने लगी.

दरस का पेड़

वो कौतूहल ही था जिसने अशरफ हुसैन और अज़फरूल शेख के कदमों को उधर की ओर मोड़ दिया जिधर स्थानीय मदरसा हुआ करता है और जिसके पास से वे अक्सर गुज़रा करते थे, पर अंदर जाने का मौका नहीं मिलता था.

हमारे बीच में

हमारे बीच में, दो महिलाओं के जीवन में जाति की रेखाओं को टटोलने और उसे पर्दे पर उभारने की यात्रा है. जाति पर फिल्म कैसे बनाते हैं? क्या है जो हम दिखा सकते हैं और क्या नहीं? गुस्सा, खीझ, अपमान जैसी भावनाओं को पर्दें पर कैसे दिखाया जाता है?

अगर प्रकृति के साथ कुछ बुरा होता है तो क्या वो अपराध कहलाएगा?

लर्निंग लैब में जब हमने क्राइम पर चर्चा शुरू की तो एक ख्याल बार-बार आता रहा. किसी इंसान के साथ कुछ गलत करो तो वह अपराध कहलाता है, पर अगर प्रकृति के साथ कुछ गलत करो, तो क्या वो भी अपराध माना जाएगा? इस सवाल की पेचीदगी को समझने के लिए हमने कुछ लिखित और विज़ुअल नोट्स बनाए हैं, जिन्हें आपके साथ साझा कर रहे हैं.

हॉस्टल डायरी

जोधपुर में समाज के हॉस्टल सिर्फ़ लड़कों के लिए क्यों हैं? हॉस्टल के अंदर इतना अकेलापन क्यों है? क्या अच्छा लड़का होना एक दिन के लिए छोड़ा जा सकता है? लर्निंग लैब के तहत होने वाले ‘मंडे अड्डा’ में ऐसे कई सवालों को खोलते-खोलते यह हॉस्टल डायरी जितना विकास को चकित कर रही थी, उतना ही यह हमारे भीतर की उत्सुकता को भी जगा रही थी.

छोटे शहरों की लंबी रात

फ़िल्म ‘रात: छोटे शहरों की लंबी रात’ डिजिटल एजुकेटर्स द्वारा अपने-अपने गांव और कस्बों में रात के अपने अनुभवों का चित्रण है. कौन है जो रात में बाहर निकल सकता है? कौन है जो हम पर नज़र रखता है? किस पर नज़र रखी जाती है? घुप अंधेरे के बारे में होते हुए भी यह फ़िल्म हमें उजाला दिखाती है. उजाला, नए इतिहास के बनने का.

होने, न होने के बीच

सोशल मीडिया पर हम जैसे दिखाई देते हैं क्या असल में हम वही होते हैं? सोशल मीडिया पर क्या कितना दिखाना है कितना नहीं? क्या दिखाना है, क्या नहीं इससे हमारे खुद के बारे में क्या पता चलता है?

फ से फील्ड, श से शिक्षा: एपिसोड 10 पैसे चाहिए की नहीं?

उसे अपनी पढ़ाई को जारी रखने के लिए पैसों की ज़रूरत थी. उसने बहुत सारी तरकीबें सोच रखी थीं जिनसे घरवालों से पढ़ाई के लिए पैसा भी निकाल ले और उन्हें पता भी न चले पर उसके पिताजी हमेशा उसकी तरकीबों से एक कदम आगे की सोच रखते हैं. सुनिए एक पिता और एक बेटी की कहानी.

महिला शिक्षा

फ से फील्ड, श से शिक्षा: एपिसोड 9 छोटी बहू

“छोटी बहू, अरे ओ छोटी बहू…” घर में सुबह से लेकर रात तक बस यही एक राग सुनाई देता है. घर हो या बाहर या फिर काम की जगह, उसका पूरा दिन सिर्फ़ भागते-दौड़ते ही बीत जाता. कभी शरारती सुनिता के नाम से मशहूर,आज वो सिर्फ़ छोटी बहू बनकर रह गई है…क्या है छोटी बहू की कहानी सुनिए राजकुमारी और आरती अहिरवार की ज़ुबानी.

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