
“एलजीबीटी लोगों पर किस देश का कानून लागू होता है?”
क्वीयरबीट के संस्थापक बता रहे हैं कि मीडिया संस्थानों खासकर हिंदी मीडिया में LGBTQIA+ पहचानों को लेकर किस तरह के छिपे और ज़ाहिर पक्षपात देखने को मिलते हैं.
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नारीवादी सोच एक बहुरंगी चश्मा है जो हमारे जीवन के भिन्न और उलझते तारों को देखने में मदद करता है. यहां हम अपनी सामूहिक, सामाजिक कोशिशों को साझा करते हैं. विरोधी स्वरों, अपनी आकार लेती पहचानों और रोज़मर्रा के बदलते मौसम, भावनाओं को खोलते हैं. तिल भर में भी दुनिया को जानने का ज्ञान है – इस नज़र से भी ज्ञान को समझते हैं.

क्वीयरबीट के संस्थापक बता रहे हैं कि मीडिया संस्थानों खासकर हिंदी मीडिया में LGBTQIA+ पहचानों को लेकर किस तरह के छिपे और ज़ाहिर पक्षपात देखने को मिलते हैं.

मुझे याद है जब मैं, सारा के साथ बनारस गई थी. उस वक्त मैं इतनी डरपोक हुआ करती थी. शाम ढलने से पहले रूम पर आ जा जाती. सारा और ईशा कभी रात में अपने दोस्तों के साथ बाहर पार्टी करने निकलती लेकिन मैं उनके साथ नहीं जाती थी. किसी से ज्यादा बात नहीं करती.

‘ह्यूमंस इन द लूप’ फ़िल्म के निर्देशक अरण्य सहाय बातचीत के दौरान हमें AI की निरंतर विकसित होती दुनिया और आदिवासी ज्ञान के बीच की खाई के बारे में बता रहे हैं. “एआई (AI) एक बच्चे की तरह है. अगर हम उसे गलत जानकारी देंगे तो वो गलत ही सीखेगा.” ये ह्यूमंस इन द लूप फ़िल्म में उसकी मुख्य किरदार नेहमा अपनी सुपरवाइज़र को कहती है.

मेरी मम्मी हमेशा उससे बोलती थीं, “मैं सिर्फ तुम्हारी ज़िम्मेदारी में कशिश को भेज रही हूं. उसका ख्याल रखना.” और वो मम्मी से कहती, “आंटी मैं आपसे वादा करती हूं, मेरे होते हुए उसको कुछ नहीं होगा.”

कितना अजीब है कि घरवाले एक तरफ लड़का-लड़की को आपस में मिलने से रोकते हैं और फिर एक दिन उनकी शादी तय कर उन्हें साथ में एक कमरे में बंद कर देते हैं कि – अब तुम्हें जो करना है करो लेकिन ये ही लड़का- लड़की अपनी मर्ज़ी से एक-दूसरे से नहीं मिल सकते.

शेर सिंह, फरीदाबाद मज़दूर अखबार के सह-संस्थापक और संपादक थे, जिन्होंने 1982 से लेकर लगभग चार दशकों तक इस अखबार को मज़दूरों की आवाज़ बनाने का काम किया. उनका अखबार मुख्य रूप से हरियाणा और आसपास के औद्योगिक इलाकों में काम करने वाले मज़दूरों के मुद्दों पर केंद्रित था.

भारतीय कथाकारों की दुनिया में डायन विषय पर ढेरों कहानियां मौजूद हैं. एक महानगर के क्लासरूम में बैठ इन कहानियों को पढ़ते हुए यही लगता था कि ये एक काल्पनिक दुनिया के पात्र हैं, कहीं दूर की कौड़ी लेकिन दिसंबर 2023 में एक दिन बिहार की राजधानी पटना में एक मंच से 75 साल की जुलेखा को बोलते सुना तो ऐसा लगा जैसे, सन्नों, सोदन की मां, पूनो और तमाम पात्र किताबों से निकलकर सामने आकर खड़े हो गए हों. फर्क इतना था कि यहां कुछ भी काल्पनिक नहीं था!

दक्ष पॉडकास्ट (DAKSH Podcast) आम जनता को सार्वजनिक संस्थानों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से जोड़ने की कोशिश करता है. पॉडकास्ट के अब तक के तीन सीज़न में कई मुद्दों पर बातचीत सुनने को मिलती है. जैसे भारत में पुलिसिंग, संविधान सभा में महिलाएं, न्यायपालिका में एआई आदि.

पूर्वी दिल्ली का इलाका खिचड़ीपुर, यहां छह नंबर की गली में रहने वाली नौ साल की एक लड़की किडनैप हो गई. न जाने कौन उसे उठा कर ले गया. इस खबर को सुनकर आठ नंबर की गली में रहने वाली सातवीं क्लास की काव्या के होश गुम हो गए. उस वक्त उसकी मम्मी घर पर नहीं थी. आज वह आएंगी भी देर से.

महिला कैदियों की ज़िंदगी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं. लोक कल्पनाओं और कहानियों में या तो वे सिरे से गायब होती हैं या सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाली, असाधारण, बिगड़ी हुई महिला के रूप में उनका चित्रण किया जाता है. पर, एक आम महिला कैदी का जीवन कैसा है? उसकी आपराधिकता क्या है? इसके जड़ में क्या छिपा होता है? उस महिला कैदी के डर, सपने और चाहतें क्या हैं? उसके लिए जेल के बाद की दुनिया कैसी होती है?