रियाज़

नारीवादी सोच एक बहुरंगी चश्मा है जो हमारे जीवन के भिन्न और उलझते तारों को देखने में मदद करता है. यहां हम अपनी सामूहिक, सामाजिक कोशिशों को साझा करते हैं. विरोधी स्वरों, अपनी आकार लेती पहचानों और रोज़मर्रा के बदलते मौसम, भावनाओं को खोलते हैं. तिल भर में भी दुनिया को जानने का ज्ञान है – इस नज़र से भी ज्ञान को समझते हैं.

“हमारी ज़िंदगियां दो समांतर रेखाओं की तरह है. हम दोनों की भटकन और तलाश एक जैसी है.”

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर फतेहपुर के रहने वाले रुहान आतिश अपनी पहचान एक ट्रांसमैन के रूप में देखते हैं. उन्हें कविताएं लिखने का शौक है. वकील होने के साथ-साथ वे एक कार्यकर्ता भी हैं. इस सीरीज़ में रूहान के ‘नक्शा ए मन’ को आकार देने का काम तमिलनाडु की रहने वाली, ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता, कवि, उद्धमी, एक्टर एवं प्रेरक वक्ता कल्कि सुब्रमण्यम ने किया है.

कमरा और उसके भीतर की कहानियां

इस नक्शा ए मन में एक ट्रैवल लेखक के साथ एक कलाकार, लेखक के मन के नक्शे को सामने लाने का प्रयास कर रही हैं. “किसी का कमरा बहुत ही व्यक्तिगत जगह होती है. हम चाहते थे कि कुछ ऐसी चीज़ें हों जो किसी को भी दुविधा में डाल दें, किसी को पता न चल पाए कि इस कमरे में रहने वाले का जेंडर, उसकी उम्र, सेक्सुएलिटी क्या है, ऐसे कमरों में किस तरह की बातें होती हैं!”

“मैं उनके घर में घुसकर उनका काम कर रही हूं, ये उनको मंज़ूर है. पर मैं उनकी लिफ्ट में जाऊं ये उन्हें मंज़ूर नहीं है.”

“आप तो एक महिला ज़ोमैटोकर्मी की तलाश में थीं न, और मैं वह नहीं हूं, तो क्या मैं अभी भी आपकी कहानी का हिस्सा हूं?” कुछ ही मिनट पहले ट्रांसमैन की अपनी असल पहचान को मेरे सामने ज़ाहिर करने बाद बनी ने मुझसे ये सवाल पूछा.

“आदिवासी बचेंगे तो जंगल बचेंगें”

नक्शा ए मन शृंखला की इस दूसरी कड़ी में प्रकाश और बाओ एक विकृत दुनिया और उसकी उलटबासियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं जो आदिवासियों को ‘बाहरी’ समझती हैं.

सफ़र का ही था मैं सफर का रहा…

कल रात सोने में देर हुई इसलिए सुबह देर से उठा. दातून करने, नहाने जैसे रोज़ के कामों को निपटा कर एक दो लोगों से फोन पर बात की, एक सेब काटकर नाश्ता किया और तैयार होकर कमरे से बाहर आ गया. बाहर मेरी गाड़ी खड़ी थी. उसपर कपड़ा मारने के बाद अपने काम पर निकल पड़ा.

गुमसुम सी छत

मोहल्ले के तमाम घरों को जोड़ती छतें खुली और विशाल दिखाई देती हैं. ठीक उसके उलट हमारा अन्तर्मन कई तरह की घेरों में बंधा होता है. इसी बीच ज़िंदगियां चलती-बदलती रहती हैं. अंकुर संस्था से जुड़ी रौशनी की इस बयानी में छत किसी अंदर-बाहर की अदला-बदली को चरितार्थ करती हुई दिखाई देती है. कोविड का समय एवं मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर लोगों पर पड़े उसके प्रभावों को रौशनी बहुत ही सीधे शब्दों में सामने रख देती हैं.

शहर जैसे आग का दरिया

ये कहानी एक प्रेम कहानी है जिसमें तीन किरदार हैं – एक भाई, एक बहन और एक स्मार्टफोन. और एक की मौत हो जाती है. जिगर मुरादाबादी ने कहा है कि – ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे/एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है… ये कहानी भी ऐसे ही एक दरिया की दास्तां हैं.

तोरणमाल के जंगल से आया एक प्रेमपत्र – 2

तोरणमाल के उत्तर में, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर, सिंदीदिगर गांव है. यह गांव तोरणमाल से 15 किलोमीटर की दूरी पर बसा है. यहां पहुंचने के लिए कई छोटे-बड़े घाटों को पार करना पड़ता है. इन्हीं दो राज्यों की सीमा से होते हुए एक छोटी सी नदी झलकर भी बहती है.

तोरणमाल के जंगल से आया एक प्रेमपत्र -1

महाराष्ट्र के नन्दुरबार ज़िले के पहाड़ी क्षेत्र में बसे जंगलों में घूमते हुए प्रकाश ने वहां के लोगों के साथ जिस जीवन को करीब से देखा और जिसे वहां के रहने वालों के साथ जिया उसे एक ख़ूबसूरत सी चिट्ठी में अपने शब्दों के ज़रिए हमारे सामने जीवंत कर रहे हैं.

“मैं”- शब्द एक, परिभाषाएं अनेक

“मैं”- इस पहेली के बारे में कभी न कभी तो हम सब ने सोचा ही है. आज सेल्फी के इस ज़माने में जहां मोबाइल फ़ोन का बटन दबाते ही ख़ुद से ही ख़ुद की तस्वीर सेकेंड्स में खींच लेना संभव है, वहां शायद यह सवाल और भी पेचीदा हो जाता है

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