
मेरी मां का रिपोर्ट कार्ड
पिछले साल की बात है. मैं, हर वक्त कोशिश करती रहती कि मां को बिठाकर तसल्ली से उनसे बात कर सकूं. लेकिन, घर के कामों में वो इस तरह उलझी रहतीं कि फ़ुर्सत से बैठ कर बात भी नहीं कर पातीं.
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नारीवादी सोच एक बहुरंगी चश्मा है जो हमारे जीवन के भिन्न और उलझते तारों को देखने में मदद करता है. यहां हम अपनी सामूहिक, सामाजिक कोशिशों को साझा करते हैं. विरोधी स्वरों, अपनी आकार लेती पहचानों और रोज़मर्रा के बदलते मौसम, भावनाओं को खोलते हैं. तिल भर में भी दुनिया को जानने का ज्ञान है – इस नज़र से भी ज्ञान को समझते हैं.
पिछले साल की बात है. मैं, हर वक्त कोशिश करती रहती कि मां को बिठाकर तसल्ली से उनसे बात कर सकूं. लेकिन, घर के कामों में वो इस तरह उलझी रहतीं कि फ़ुर्सत से बैठ कर बात भी नहीं कर पातीं.
दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करते-करते सबा को तीन बार स्कूल छोड़ना पड़ा. क्योंकि घरवाले स्कूल फीस जमा करने की स्थिति में नहीं थे. किसी तरह प्राइवेट से दसवीं करने के बाद सबा ने ट्यूशन और डेलिगेट मदरसा में 300 रूपए प्रति माह तनख्वाह पर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया.
19वीं सदी के हैदराबाद में उर्दू गद्य और पत्रकारिता के विकास और इसके समानांतर चलने वाले समाज सुधार कार्यक्रमों ने कुछ दशकों बाद शुरू हुए प्रगतिशील आंदोलन में अहम भूमिका अदा की.
हैदराबादी महिलाएं 19वीं सदी के उत्तरार्ध से ही उर्दू भाषा में साहित्य सृजन कर रही थीं. वैसे यह कोई अनूठी बात नहीं क्योंकि यह वही दौर था जब बिहार और बंगाल जैसे राज्यों में भी महिलाएं साहित्य रचना कर रही थीं. स्त्री लेखन के इस उभार के अपने ऐतिहासिक कारण रहे हैं, जिन पर इस लेख में मैं बाद में बात करूंगी.
झारखंड राज्य की राजधानी से लगभग 150 किलोमीटर दूर लातेहार ज़िले में नेतरहाट का इलाका अपने खूबसूरत पहाड़ों और जंगलों के लिए जाना जाता है. ठंड यहां पूरे साल बनी रहती है. पहाड़ों पर छोटे-छोटे गांव बसे हैं.
मेरी एक छात्रा हुआ करती थी जो बहुत कम बोलती थी. बस उतना ही बोलती जितने की उसे ज़रूरत होती, वो भी काफी कम. ऐसा नहीं है कि उसे बोलने से डर लगता था या वह संकोची रही हो. बस अपने शब्दों को लेकर वह इतना सतर्क रहती थी कि जब तक समझ न आए क्या बोलना है, वह चुप रहती थी.
2022 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की 131वीं जयंती पर द थर्ड आई ने कुछ शिक्षकों से बात की और उनसे जाना कि शिक्षण कार्य से जुड़े होने पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में आम्बेडकर उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं.
शहर के बनने और लगातार बढ़ने के परिदृश्यों और कारकों को डॉक्यूमेंट्री फिल्मों ने समय-समय पर अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश की है. इस विषय से जुड़ी फिल्मों को किसी एक लिस्ट में समेट पाना बहुत ही मुश्किल काम है. इस सूची के ज़रिए हमारा मकसद सिनेमा और शहर पर एक सार्थक बातचीत की शुरुआत करना है.
मेरा गांव कोंकेया, झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है. मुझे वहां के पर्व-त्यौहारों में सभी के साथ मिलकर नाचना-गाना, एक-दूसरे के घर जाना, मिठाई खाना, वहां की चहल-पहल अच्छी लगती है. खासकर जब ढोल, नगाड़े, मादर बजते हैं और लोग साथ में गाने हैं, मुझे बड़ी खुशी होती है.
मैं अपने गांव कोंकेया से, जो झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है, दिल्ली इसलिए गई कि मेरे गांव की दो लड़कियां दिल्ली गई हुई थीं. जब भी दोनों गांव आती थीं, अच्छे कपड़े पहनतीं, उनके पैरों में चप्पल होती, अच्छी खुशबू वाला तेल लगातीं, चेहरा गोरा यानी साफ दिखता था, मोटी होकर आतीं.