रियाज़

नारीवादी सोच एक बहुरंगी चश्मा है जो हमारे जीवन के भिन्न और उलझते तारों को देखने में मदद करता है. यहां हम अपनी सामूहिक, सामाजिक कोशिशों को साझा करते हैं. विरोधी स्वरों, अपनी आकार लेती पहचानों और रोज़मर्रा के बदलते मौसम, भावनाओं को खोलते हैं. तिल भर में भी दुनिया को जानने का ज्ञान है – इस नज़र से भी ज्ञान को समझते हैं.

शब्दों और रेखाओं के बीच दास्तान एक शहर की

‘नक्शा-ए-मन’ चित्रों के ज़रिए हमारे ‘ट्रैवल-लोग’ के सफ़रनामे को दर्शाने का प्रयास है. द थर्ड आई ट्रैवल फेलोशिप – ट्रैवल-लोग – में हमने अलग-अलग जगहों से चुने हुए 13 लेखकों एवं डिज़ाइनरों के साथ मिलकर काम किया ताकि वे नारीवादी नज़र से शहर की कल्पना को शब्द-चित्रों में सजीव कर सकें.

देखो मगर प्यार से

दफ्तर जाते हुए, मंडी क्रॉसिंग चौक से आप रोज़ गुज़रती हैं. खचाखच भीड़ और गाड़ियों के शोर से होते हुए. सड़क पर आंख गड़ाए, निकलने की जल्दी में क्या देखा-अनदेखा हो जाता है, इसके बारे में सोचने का वक़्त ही नहीं होता.

“मैं पागलपन की सर्वाइवर नहीं, मनोचिकित्सा की सर्वाइवर हूं.”

द थर्ड आई टीम ने मुलाक़ात की लेखक एवं शोधकर्ता जयश्री कलिथल से. जयश्री, भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात करने वाले शुरुआती कार्यकर्ताओं में से एक हैं जिन्होंने मानसिक तनाव एवं इससे जुड़ी परेशानियों के इर्द-गिर्द अपना कब्ज़ा जमा चुके मेडिकल मॉडल को अनुभवों एवं ज्ञान के स्तर पर चुनौती दी है.

दुनिया रोज़ बनती है

कोविड की दूसरी लहर के दौरान लोग न केवल बीमारी से परेशान थे बल्कि भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी से बेहाल वे अनाज के एक-एक दाने के लिए तड़प रहे थे. हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए यह दोहरी मार है. मनीषा ने बाकि साथियों के साथ मिलकर द थर्ड आई रिलीफ़ वर्क के ज़रिए फलौदी गांव के कई इलाकों में घूम-घूम कर अनाज बांटने का काम किया ताकि लोगों को थोड़ी राहत मिल सके.

“इस बात में कोई शक नहीं कि हमारे भोजन और हमारे स्वास्थ्य में सीधा संबंध है.”

डॉ. ललिता रेगी और रेगी जॉर्ज ने 1992 में ट्राइबल हेल्थ इनिशिएटिव की स्थापना की. एक कमरे में लगे सौ वॉट के बल्ब के साथ उन्होंने अपने सफ़र की शुरुआत की थी. आज ये एक कमरा, 35 बिस्तरों वाले बड़े से अस्पताल में बदल चुका है.

मज़दूरों के स्वास्थ्य के लिए मज़दूरों का अपना अस्पताल

जन स्वास्थ्य व्यवस्था सीरीज़ में द थर्ड आई के साथ बातचीत में डॉ. प्रियदर्श तुरे ने विकेन्द्रीकृत एवं कम्युनिटी द्वारा संचालित स्वास्थ्य मॉडल और उसकी प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा की.

डर

मैं उठते ही पलंग पर बैठ गई. बालों में रबड़बैंड लगाते हुए ज़मीन पर खड़ी हो गई. शाम के छह बज रहे थे. कान बंद होने के कारण बाहर से आती हुई आवाज़ें धीमी सुनाई दे रही थीं. नाक में कफ़ जमा होने की वजह से मुंह से सांस लेने पर गला एकदम सूख रहा था.

स्कूल के नाम पत्र

प्रिय स्कूल तुम कैसे हो? इन दिनों जब हम स्कूल नहीं आ रहे हैं, क्या तुम अभी भी रोज़ खुल रहे हो? सुना है, आज-कल तुम राशन-घर बन गए हो, कुछ प्रवासी मज़दूर तुम्हारे कमरों में रह रहे हैं. उनका ख्याल रखना. समझना कि यही लोग हमारी कमियों को पूरा कर रहे हैं.

“हम लोगों से सिर्फ़ डेटा कलेक्ट करती हैं, उनके सवालों का जवाब हमारे पास नहीं होता.”

समुदाय और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभाती आशा वर्कर की ज़िन्दगी में डर, असुरक्षा और आर्थिक तंगी स्थाई है. उनकी स्थिति में परिवर्तन स्वस्थ समाज के लक्ष्य को पाने की तरफ एक सकारात्मक कदम हो सकता है.

कोरोनाकाल में जो सरकार नहीं कर पाई, वो इन ग्रामीणों ने कर दिखाया.

पर्यावरण और विकास के वैकल्पिक मॉडलों के दस्तावेज़ीकरण पर दशकों से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता आशीष कोठारी द्वारा, उन समुदायों की जानकारी जिन्होंने महामारी से अपने को सुरक्षित रखा. आशीष कोठारी को हम एक पर्यावरणविद के रूप में जानते हैं. लेकिन एक पंक्ति के परिचय में उनके काम के विस्तार को नहीं समेटा जा सकता.

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