दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करते-करते सबा को तीन बार स्कूल छोड़ना पड़ा. क्योंकि घरवाले स्कूल फीस जमा करने की स्थिति में नहीं थे. किसी तरह प्राइवेट से दसवीं करने के बाद सबा ने ट्यूशन और डेलिगेट मदरसा में 300 रूपय प्रति माह तनख्वाह पर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. अब वो अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अपनी बाकी दो बहनों की पढ़ाई का खर्च में उठा सकती थी. वो कहती है, “गरीब और वंचित समुदाय के लोगों के लिए सबसे आखिर में अगर कुछ आता है तो वो है लड़कियों की पढ़ाई. लड़कियों को न पढ़ाने के लिए उनके पास सैकड़ों बहाने होते हैं.”
15 साल की उम्र में सबा ने नौकरी के साथ मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के साथ काम करना शुरू किया. पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से वो पुराने भोपाल के 11 से भी अधिक बस्तियों में सामुदायिक लाइब्रेरी चलाने और इसके ज़रिए लड़कियों को किताबों से जोड़ने, उन्हें पढ़ने-पढ़ाने की तरफ बढ़ने का मौका देने का काम कर रही हैं. किसी कारणवश जिन लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है, सबा उन्हें वापस से स्कूल भेजने का काम भी करती हैं.
सबा, द थर्ड आई ‘एडु लोग’ प्रोग्राम का हिस्सा हैं. हमारे शिक्षा अंक से जुड़े इस कार्यक्रम में भारत, नेपाल और बांग्लादेश से 13 लेखक एवं कलाकारों ने भाग लिया है. ये सभी प्रतिभागी शिक्षा से जुड़े अपने अनुभवों को नारीवादी नज़र से देखने का प्रयास कर रहे हैं.
उमरा की उम्र को 12 वर्ष की थी जब कोविड से उसके पिता का इंतकाल हो गया. उसके बाद उमरा और उसकी बड़ी बहन की पढ़ाई छूट गई. लॉकडाउन का समय था. हम उमरा के मोहल्ले में किताबें बांटने जाया करते थे. उसे भी हमने बहुत सारी किताबें दी ताकि वो घर पर बैठ कुछ पढ़ सके. उसका परिवार मानसिक रूप से बहुत परेशान था. एक दिन हमने साथ मिलकर साहसी तारा की किताब पढ़ी. उसे पढ़ने के बाद सभी के चेहरों पर एक मुस्कान थी. उस दिन हम लोगों ने तय किया कि वहां की लड़कियां, औरतें किताबों से एक दूसरे को कहानी सुनाएंगी और खुद भी पढ़ेंगी. दो महीने तक इसी तरह चलता रहा. एक दिन घर के तारों में उलझ कर उमरा को ज़बरदस्त करंट लगा और उसके शरीर के निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया. तीन-चार महीने हॉस्पिटल के चक्कर लगाने के बाद वो किसी की मदद से कुर्सी पर बैठने लगी. हमने व्हिलचेयर पर बिठा उसे बस्ती में घुमाना और दूसरी लड़कियों को उसके घर बुलाना शुरू किया. वो हर छोटी-छोटी बात पर परेशान हो जाती थी. हम सभी ने मिलकर उसे अपने घर में लाइब्रेरी शुरू करने की बात कही और वो राज़ी हो गई. आज उमरा कुर्सी पर बैठकर कहानी सुनाने वाली अप्पी बन गई है. जब वो लाइब्रेरी में होती है तो पूरा टाईम किताबों और लड़कियों की बातों में व्यस्त रहती है. महीने में वो सिर्फ़ दो दिन लाइब्रेरी बंद रखती है, इसके अलावा वो हर रोज़ लाइब्रेरी लगाती है. उमरा, सावित्रीबाई फुले फ़ातिमा शेख लाइब्रेरी की एजुकेटर्स में से एक है.
इसी तरह पहली बार किताब लेते हुए फ़िज़ा ने कहा था, “अगली बार मुझे दो किताबें दे जाना. मैं और रिज़वान दोनों पढ़ेंगे.” उन दोनों की नई-नई शादी हुई थी. फ़िज़ा के साथ मेरी दोस्ती की शुरुआत भी किताबों से ही हुई थी. फिर एक दिन उसने मुझे फ़ोन कर बताया कि रिज़वान ने उसके साथ मारपीट की है. फिज़ा चाहती थी कि मैं रिज़वान से बात कर उसे समझाऊं नहीं तो वो खुद को खत्म कर लेगी. शायद, उसे लगता था कि किताबों वाली लड़की की बात रिज़वान सुनेगा. हमने फ़िज़ा को सरकारी संस्था वन स्टॉप सेंटर से जोड़ दिया जो महिला हिंसा के मुद्दे पर काम करती है. इस बीच अब फ़िज़ा के साथ-साथ रिज़वान भी अक्सर लाइब्रेरी में हमारे पास बातचीत करने आने लगा है. सारा समय वे एक दूसरे की खूब शिकायतें करते. मैं दोनों को सुनती हूं.
कोविड के दौरान जब लगभग सब कुछ बंद था. तब भोपाल में घर-घर जाकर हमने बच्चों को किताबें पहुंचाने का काम शुरू किया. इसका असर ये हुआ कि बच्चों के साथ परिवार के बड़े लोग भी उन किताबों को पढ़ने लगे. कुछ लड़कियों के साथ उनकी अम्मियां भी किताब में बने चित्र-पन्नों को उलट-पुलट कर देखतीं. जब हम रिमशा और फाय्ज़ा को किताबें देने उनके मोहल्ले में जाते तो उसके ही पड़ोस की भाभियां जिनकी उम्र बहुत ज़्यादा नहीं होती, वे जल्दी से बाहर निकलकर आ जातीं और किताबों के बारे में पूछने लगती.
मदर इंडिया कॉलोनी में रहने वाली 14 साल की सबा कुरैशी ने कहा, “मैं तो कुछ भी पढ़ी लिखी नहीं हूं. लेकिन क्या मुझे किताबें देखने के लिए दोगी?” दो दिन बाद जब मैं वापस उसके मोहल्ले में गई तो वह बोली, “क्या मुझे पैड दिलवा सकती हो?”
गुलअफशा जो अब दो बच्चों की मां है, खूब हिम्मत वाली लड़की है. वो जितनी देर के लिए लाइब्रेरी आती है उतनी देर वो अपने दोनों छोटे-छोटे बच्चों की ज़िम्मेदारी से खुद के लिए थोड़ा सा वक्त चुरा लेती है. वह लाइब्रेरी में बिलकुल बाकी लड़कियों के जैसे घुलती-मिलती है और बहुत जोश से कविताएं पढ़ती है.
ज़ेबा, ज़ोया, तस्मियां, महक, मुस्कान, इल्मा सभी किताबों को संभाल कर रखने में खूब मदद करती हैं. ये सारी लड़कियां सावित्रीबाई फुले फ़ातिमा शेख लाइब्रेरी की पुरानी और नियमित पाठक भी रही हैं.
कोविड के दौरान मैंने नौकरी छोड़ दी थी और पूरा समय लाइब्रेरी के काम में लगी रहती थी. जब परिस्थितियां थोड़ी ठीक हुईं और लॉकडाउन खत्म हुआ तब मैं वापस से नौकरी करने की सोच रही थी. मैंने, हमारे सभी एजुकेटर्स के साथ मशवरा किया कि क्या वे मेरे बिना लाइब्रेरी के काम को संभाल लेंगी? उन्होंने उत्साह से कहा कि वे समुदायों में लाइब्रेरी लगाने का काम संभाल लेंगी.
इन सारी लड़कियों में 14 साल की मानसी सबसे कम उम्र की लाइब्रेरियन है.
अक्सर वो अपने से बड़ी लाइब्रेरियन के बोलने के अंदाज़ की नक्ल करती दिख जाती है. पर, बच्चों का कहना है कि वो जब भी लाइब्रेरी संभालती है तो उन्हें पार्क लेकर जाती है और खुले में गोला बनाकर ऊंची आवाज़ में कविताएं पढ़कर सुनाती है. अभी से ही उसके भीतर लीडर बनने के गुणों को देखा जा सकता है.
मैंने सावित्रीबाई फुले फ़ातिमा शेख लाइब्रेरी की शुरुआत साल 2014 में की थी. तब मेरी उम्र 18 साल की थी. पढ़ाई को लेकर अपने खुद के संघर्ष से मैंने यही जाना कि लड़कियों के लिए बोलने की जगह बहुत कम है. घर, परिवार, समुदाय सभी उन्हें खामोश ही रखना चाहते हैं. मुझे लगा इन्हें बुलवाने की ज़रूरत है और पढ़ाई ही वो ज़रिया हो सकता है. साल 2011 में क्वालिटी एजुकेशन प्रोग्राम के तहत मैं कई सरकारी स्कूलों के साथ काम कर रही थी. स्कूलों में भी मैंने यही महसूस किया कि
शिक्षक और बच्चों के बीच मौन का रिश्ता होता है. बच्चे मुंह पर उंगली रख चुप बैठे रहते हैं. जो पाठ पढ़ने को कहा जाए पढ़ लिया, फिर किताब बंद.
मैंने खुद अपने स्कूल में भी यही होते देखा था.
क्वालिटी एजुकेशन प्रोग्राम के तहत मैं जिन स्कूलों में जाती वहां पढ़नेवाली कुछ लड़कियों ने एक दिन कहा कि हमने अपनी अम्मी को आपके बारे में बताया तो उन्होंने आपको घर पर बुलाया है. मुझे भी लगा कि ये मौका है स्कूल के बाहर इनसे कुछ बात करने का, इस तरह मैं बच्चों की बस्तियों तक पहुंच गई. वहां इतने सारे बच्चे थे कि उन्हें देखकर मेरे मन में यही ख्याल आया कि ये साथ मिलकर पढ़ेंगे तो कितना मज़ा आएगा. इस तरह सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख लाइब्रेरी की शुरुआत हुई.
बचपन से ही मैं किताबें ढूंढ़-ढूंढ कर पढ़ती और मुझे लगता था कि बच्चों के पास तो किताबें होनी ही चाहिए. मैं बस यही सोचती कि एक बार उन्हें किताबों से ऐसी मोहब्बत हो जाए कि बस वो उसमें खो जाएं. उन्हें ये लगने लगे कि विज्ञान को और जानना है या दूसरे देश के बारे में जानना है तो उसके लिए किताब एक ज़रिया है. मैं तो यही सोचती रहती कि हर जगह जाउंगी, किताबें पढ़ने का शौक लगाउंगी और उनकी मोहब्बत बढ़ती जाएगी किताबों से. ये नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी इतनी सारी लाइब्रेरियां बन जाएंगी और इतने सारे एजुकेटर्स जुड़ जाएंगें. आज हमारी लाइब्रेरी से एक हज़ार बच्चे जुड़े हैं जिन्हें चलाने में 20 से अधिक एजुकेटर्स हमारी मदद करते हैं.
मोहल्ले की हर लाइब्रेरी का नाम ‘सावित्री बाई फुले, फ़ातिमा शेख़’ रखने का फैसला भी हम सबने मिलकर ही किया था. जहां भी हम लाइब्रेरी लगाते हैं वहां सिर्फ़ एक-दो जगहें ही ऐसी थीं जहां छोटू, मूसा और इरफ़ान नाम के लड़कों ने लाइब्रेरी में मदद करने की बात कही. बाकी सभी जगह लड़कियां खुद से आगे आकर लाइब्रेरी, उससे जुड़ी गतिविधियों और वहां आने वाले पाठकों को संभालने लगीं.
हमारी लाइब्रेरी में पढ़ने की टेबल, कुर्सियां और अलमारियां नहीं हैं. हमारी पूरी जमा पूंजी हमारे पाठक और समुदाय के लोग हैं
जो हमेशा साथ देते हैं, जुड़े रहते हैं. बारिश में या किसी और वजहों से जब लाइब्रेरी की जगह बदलनी पड़ती है तो बस्ती की महिलाएं अपने घरों में जगह बनाकर कहतीं कि यहां लगा लो. मोची मोहल्ले में सागर की मम्मी अपनी झुग्गी में वहीं लाइब्रेरी लगवा देतीं जहां वे खुद ज़रा सी जगह में रोटी पका रही होती थीं.
पुराने भोपाल का ये इलाका जहां हम लाइब्रेरी लगाते हैं वहां मुस्लिम आबादी बहुत ज़्यादा है. लाइब्रेरी में आने वाले बच्चे आम्बेडकर को नहीं जानते थे, कुछ सावित्रीबाई फुले को फुला नाम से पुकारते तो कुछ फ़ातिमा शेख के नाम आसानी से समझ जाते. ऐसा अपने धर्म या जाति का होने से भी होता होगा शायद. मुस्लिम बच्चों के बहुत सीमित दायरे हैं. ऐसे में सिर्फ़ अपने एक नज़रिए के बजाय वो ये देख सकें कि बराबरी का समाज बनाने में वे कौन से लोग थे जो साथ आए थे? वे कौन लोग हैं जो बराबरी के समाज से अभी भी वंचित हैं? जैसे, भोपाल में मैंने ये भी देखा कि कई स्कूलों में सिर्फ़ मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी के बारे में बात करते हैं. क्यों हम सभी लोगों के बारे में बात नहीं कर सकते? फिर कल आप एकता की बात करेंगे तो बच्चों को क्या समझ आएगा! यहां इतनी विविधता है तो फिर सभी के बारे में बात होनी चाहिए.
अपनी लाइब्रेरी में हम इसी विविधता को शामिल करने की कोशिश करते हैं. जैसे हमारी लाइब्रेरी में मेहतर समुदाय से दो छोटे बच्चे आते हैं. जब उनके स्कूल में दाखिले की बात हुई तो मुस्लिम लड़कियां साथ गईं. स्कूल में सभी टीचर्स ऊंची जाति की थीं. उन्होंने कहा कि, “ये तो मेहतर समुदाय के बच्चे हैं ये यहां नहीं पढ़ सकते. ये तो सुबह उठेंगे ही नहीं, पढ़ेंगे क्या, इनके तो घर गंदे होते हैं.” इस तरह की कई बुरी बातें बोलकर उन्होंने दाखिला देने से इंकार कर दिया. शाम में जब लाइब्रेरी के सभी लोग साथ बैठे तो हमने इसपर बात की कि क्यों पिछड़ी जाति का होने की वजह से उनकी उपेक्षा करना औऱ पढ़ाई के लिए मना कर देना इतना आसान है. इसके पीछे एक यह भी मकसद था कि कोई लड़की अगर खान है या ब्राह्मण है तो उन दोनों के लिए मेहतर समुदाय की लड़कियां बराबर महत्तवपूर्ण होनी चाहिए. हमने तय किया कि हमें तो बोलना पड़ेगा क्योंकि ये हमारा हक है. अगले दिन हम फिर स्कूल गए और हमने कहा कि फॉर्म दीजिए एडमिशन का, हमारे बच्चे यहां पर पढ़ने आएंगे.
किताबों से बच्चों को जोड़ने के पीछे मेरा मकसद यह भी था कि वो इसके ज़रिेए दुनिया को भी देखना सीखें. दुनिया को देखने-समझने से मतलब है कि मेरी ज़िंदगी में अगर भेदभाव है चाहे वो रंग, जाति, धर्म किसी का भी हो तो उसके पीछे की कहानियों के बारे में जानना. कुछ कहानियां मज़ाकिया होंगी, कुछ फिक्शन तो कुछ नॉन फिक्शन होंगी. लेकिन, जब हम सावित्रीबाई फुले या आम्बेडकर के समय के भेदभाव के बारे में जानेंगे तो हम अपने भेदभाव को समझ पाएंगे. मेरे लिए किताबों के साथ मोहब्बत का यही मतलब है.
हमारी एजुकेटर तबस्सुम, ने तीन साल लगातार अन्नुनगर में लाइब्रेरी लगाने का काम किया. उसके अब्बा घर में बच्चों को अरबी सिखाने का मदरसा चलाते हैं जहां बच्चे स्कार्फ और टोपी लगाकर बैठते हैं. तबस्सुम, को लगता था कि बच्चों को अरबी के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेज़ी भी सीखनी चाहिए, उन्हें खेलना भी चाहिए और अपने स्कार्फ के बिना भी मदरसे में घूमना चाहिए. इसलिए अब्बू की क्लास के बाद वो वहीं बच्चों से कहती कि जो चाहे अपना दुपट्टा या टोपी खोलकर रख दे और फिर वो बच्चों को कहानियां सुनाती.
हमारी लाइब्रेरी के कुछ नियम हैं जो हम सभी एजुकेटर्स को कहते हैं कि वे इसे अमल में लाएं. जैसे, कोई एजुकेटर कभी डंडे का इस्तेमाल नहीं करेगा, कोई ज़ोर से नहीं बोलेगा, अगर, किसी बच्चे ने किताब फाड़ भी दी है तो उसपर गुस्सा नहीं करना है बल्कि उससे बात करनी है, बच्चों के साथ टोका-टाकी नहीं करनी है कि सीधे बैठो, ऐसे बैठो, वैसे मत बैठो. अगर कोई बच्चा किताब लेकर भाग भी रहा है तो उसे ज़बरदस्ती नहीं पकड़ना है. किताब के साथ भाग रहा है तो वापस भी आ जाएगा और अगर नहीं आए तो खुश हो जाते हैं कि किताब की संगत में है तो ठीक है. अधिकतर लड़कियां और बड़े बच्चे किताबें इशू करवाकर अपने घर भी ले जाते हैं.
कई बार किताबें फट भी जाती हैं. ऐसे में लाइब्रेरी में ही महीने में एक दिन सभी बच्चे व बड़े मिलकर किताबों को सुधारने का काम करते हैं.
जैसे, फटे हुए पन्नों पर टेप लगाना या फेवीकॉल से उन्हें चिपकाना. ऐसा करने के बाद आगे वे खुद ही किताबों को संभालकर रखने की कोशिश करते हैं और एक दूसरे के साथ किताबों की खींचतान कम करते हैं.
अक्सर हमने ये भी देखा कि लाइब्रेरियन चाहे जितनी छोटी हो लेकिन, समुदाय से अगर किसी महिला को अपने बच्चे के बारे में राय-मशवरा करना हो या अपनी खुद की पीड़ा साझा करना हो तो वे इतनी संजीदगी से उन महिलाओं से बात करती हैं जैसे उनकी हमउम्र हों. कभी ये भी होता है कि बस्ती में मैं किसी चीज़ के लिए किसी को मना नहीं कर पाती तो मैं ज़ेबा का सहारा लेती हूं. सारी बातों को समझकर वो आसानी से न कह देती है. लेकिन, सच ये है कि समुदाय का प्यार और मदद हमेशा हमें उन जगहों पर काम करने का हौसला देते हैं.
हमने मिलकर किताबों को खरीदने और अपनी लाइब्रेरी में उनको रखने के कुछ पैमाने बनाए. जैसे, ऐसी किताबें या ऐसा कंटेंट जो किसी लिंग, जाति, धर्म, रंग, नस्ल, ऊंच-नीच, दिव्यांगता और किसी तबके या व्यक्ति विशेष को नीचा या कमज़ोर दिखाने का प्रयास करता है, ऐसी किताबें हम कतई अपने लाइब्रेरी में नहीं रखेंगे. बल्कि हम ये भी प्रयास करते हैं कि विभिन्न संस्कृतियों, जेंडर और लोगों के असल जीवन से जुड़ी किताबें हमारी लाइब्रेरी का हिस्सा बने.
महीने में दो बार हम सभी लाइब्रेरिययन एक साथ मिलते हैं. उस वक्त हमारी खुशी और उत्साह देखने लायक ही होती है. सभी मिलकर अपनी लाइब्रेरी के किस्से, और अनुभव साझा करते हैं. किताबों के बीच जब हम अपनी बनाई इस दुनिया में एक-दूसरे के करीब बैठे होते हैं तो हमारी पूरी दुनिया सिमट कर यहीं आ जाती है. उस वक्त पता भी नहीं चलता कि कब हम हाथ-पांव फैलाकर ऊंची आवाज़ में कविता गाने लग जाते हैं.
गप्पें, गाना-बजाना कर लेने के बाद हम आपस में मिलकर आने वाले महीने के लिए किताबें चुनते हैं कि कौन-कौन सी किस मोहल्ले की लाइब्रेरी में इस्तेमाल की जाएंगी.
किताबों को पाठकों की उम्र के अनुसार बांटा जाता है. किस उम्र के पाठकों के लिए किस तरह के कंटेंट, चित्र और फॉन्ट साइज़ देना ठीक होगा ये सब सोच-विचार कर हम लाइब्रेरी की किताबों को अलग-अलग श्रेणी में रख लेते हैं. नए-नए पाठक या पहली बार पढ़ना सीख रहे पाठकों के लिए कौन सी किताबें मददगार रहेंगी इसकी भी अलग श्रेणी होती है.
महीने में एक दिन हम सभी एजुकेटर्स एक जगह इकट्ठा होकर सामूहिक मीटिंग करते हैं और अपने अनुभव और चुनौतियां साझा करते हैं. एक दूसरे की कमज़ोरियों और ताकतों को पहचानते हैं. कौन सी जगह हम किस साथी की मदद ले सकते हैं और इसके लिए सभी का आराम से राज़ी हो जाना ये चीज़ हमारे आपस के रिश्ते को और बेहतर बनाती है. अब तो ऐसा है कि मेरे बगैर भी वे सब लाइब्रेरियन साथ में गोल गप्पे खाने, एक-दूसरे के माता-पिता की तबियत देखने, अपना खाली दिन एक दूसरे के साथ बिताने और मिलकर चूड़ियां, चप्पलें खरीदने तक के काम साथ करती हैं. जबकि सभी शहर के अलग-अलग कोनों में रहती हैं. किताबों के साथ-साथ वे अपनी दोस्तियां भी जी रही होती हैं.
एक और एजुकेटर है सानिया जो रोज़ाना अपने घर में लाइब्रेरी लगाती है. सानिया, ब्लू मून कॉलोनी, करोंद मंडी के पास रहती है. इसी के पास हमारी सबसे पुरानी लाइब्रेरी हुआ करती थी जो इस साल जनवरी माह में नगर निगम वालों ने तोड़ दी. दरअसल, हमारी झुग्गी जिस बस्ती में थी वो रेलवे की जगह पर बसी थी. नगर निगम वालों ने जब बस्ती उजाड़ना शुरू किया तो उसमें हमारी झुग्गी भी चली गई. लाइब्रेरी चलाने के लिए वो झुग्गी हमें समुदाय के लोगों ने ही दी थी. ऐसे में सानिया ने अपने घर से लाइब्रेरी को चलाने का प्रस्ताव रखा और अब वो वहां बच्चों को बिठाकर कहानियां भी सुनाती है. उसने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी है. पर अब वह वापस पढ़ना चाहती है. सानिया को लगता है कि वो बच्चों के साथ काम करेगी तो अम्मी उसकी शादी जल्दी नहीं करेंगी.