डर

कोरोना वाइरस का

चित्रांकन : द्युति मित्तल

इस कॉलम को अंकुर संस्था के साथ साझेदारी में शुरू किया गया है. अंकुर संस्था द्वारा बनाई जा रही विरासत, संस्कृति और ज्ञान की गढ़न से तैयार सामग्री और इसी विरासत की कुछ झलकियां हम इस कॉलम के ज़रिए आपके सामने पेश कर रहे हैं. ‘आती हुई लहरों पर जाती हुई लड़की’ कॉलम में हर महीने हम आपके सामने लाएंगे ऐसी कहानियां जिन्हें दिल्ली के श्रमिक वर्ग के इलाकों/ मोहल्लों के नारीवादी लेखकों द्वारा लिखा गया है.

मैं उठते ही पलंग पर बैठ गई. बालों में रबड़बैंड लगाते हुए ज़मीन पर खड़ी हो गई. शाम के छह बज रहे थे. कान बंद होने के कारण बाहर से आती हुई आवाज़ें धीमी सुनाई दे रही थीं. नाक में कफ़ जमा होने की वजह से मुंह से सांस लेने पर गला एकदम सूख रहा था. मैंने सामने रखी पानी की बोतल उठाई और गले को तर कर लिया. जुक़ाम की वजह से गले में भी दर्द रहने लगा था. अपनी उंगलियों से माथे को सहलाते हुए मैं सीढ़ियों की ओर बढ़ गई.

दीदी कुर्सी पर बैठी अपने फ़ोन पर ऑफ़िस का काम कर रही थी. मम्मी किचन में व्यस्त थी. मैं अंदर दाखिल हुई ही थी कि मुझे खांसी आनी शुरू हो गई. मसालों की महक मेरे मुंह से होते हुए मेरे गले में पहुंच रही थी. खांसने की वजह से गला छिला-सा महसूस हो रहा था. मैं बाहर आई और लंबी-लंबी सांस लेने लगी. दीदी उसी वक्त कुर्सी से उठी और मेरी पीठ सहलाने लगीं, फिर मुझे कुर्सी पर बिठा दिया. मम्मी ने अंदर से ही पूछा, “क्या हुआ काजल?” दीदी बोलीं, “कुछ नहीं, सब्ज़ी की छौंक लगने की वजह से खांसी शुरू हो गई थी.”

मेरे हाथ में गिलास देते हुए दीदी ने कहा, “ले पानी पी ले!” मैंने गिलास हाथ में लिया और पानी के एक-दो घूंट गले से उतारे, गिलास मुंह से हटाते हुए बोली, “दीदी ऐसा लग रहा है कि मुझे जुक़ाम है, जिसकी वजह से मुझे सांस लेने में तकलीफ हो रही है.” मम्मी अंदर से बाहर आकर बोली, “क्या हुआ?”

मैंने कहा, “मम्मी मुझे जुक़ाम लग रहा है और अब सीने में भी दर्द होने लगा है.”

दीदी ने कहा, “काजल, ये सब कोरोना के लक्षण हैं. मैं यह नहीं कह रही कि तुम्हें कोरोना है बल्कि सतर्क कर रही हूं. अगर बुखार या गले में दर्द ज़्यादा लगे तो हमें बताना. हम तुझे उसी वक्त हॉस्पिटल ले चलेंगे.” तभी मम्मी ने कहा, “ऐसा कुछ नहीं है. काजल तुम ऐसा करो गुनगुना पानी पी लो, सब ठीक हो जाएगा.” दीदी ने कहा, “ऐसा नहीं है मम्मी, काजल को सावधान रहना होगा.”

“हां, मम्मी, दीदी ठीक कह रही है”, मैं कुर्सी से उठी, कमरे में अंदर आकर मास्क उठाया, उसी वक़्त लगाया और बोली, “अब ठीक है न दीदी!”

भैया ऊपर आ रहे थे तब मैं दरवाज़े के पास खड़ी थी. भैया ने मुझे दरवाज़े से हटने का इशारा किया और बोले, “मास्क क्यों लगा रखा है?” दीदी बोलीं, “जब तक जुकाम ठीक नहीं हो जाए तब तक इसे मास्क लगाकर रखना है.”

तभी भैया की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, वे मम्मी से मेरे बारे में बात कर ही रहे थे, “मम्मी काजल को जुकाम है, इसे दवाई दिलाने चलें!” मैं तेज़ स्वर में बोली, “नहीं, मैं ठीक हूं. मैं हॉस्पिटल नहीं जाऊंगी”.

मम्मी ने मेरे लिए गुनगुना पानी रखा हुआ था, मैंने उसे उठाया और ऊपर चली गई. कमरे का दरवाज़ा बंद किया और पलंग पर बैठ गई. पानी का गिलास मेरे हाथ में था. गिलास को होंठ तक ले जाकर पानी पी रही थी कि एकदम से मेरे मन में ख़्याल आया कि सारे लक्षण कोरोना के ही लग रहे हैं. अगर मेरी तबीयत ज़्यादा ख़राब हुई तो यह सब मुझे अस्पताल लेकर जाएंगे. अगर मैं अस्पताल गई और कोरोना नहीं हुआ तो वहां जाकर और बीमार न हो जाऊं?

मेरी आंखों के सामने अलग-अलग तस्वीरें आने लगीं. मैंने देखा कि डॉक्टर मुझे ले कर जा रहे हैं. मैं सबसे अलग एक बंद कमरे में हूं, जहां पर सिर्फ़ अंधेरा है, मानो जैसे काली रात हो. चांद बल्ब बनकर चमक रहा हो, मेरे अगल-बग़ल कई बड़ी मशीनें रखी हुई हैं. यहां पर बहुत सारे डॉक्टर और नर्स मेरे इधर-उधर घूम रहे हैं. मैं बेड पर लेटी हूं, न जाने उनके हाथों में क्या-क्या औज़ार है. मैंने महसूस किया कि मेरा पूरा शरीर पसीने से तर हो गया है. मैं काफ़ी घबरा गई हूं. मेरा पूरा जिस्म सनसना रहा है. मेरे हाथ से पानी का गिलास छूट गया. धुंए की तरह सब कुछ ग़ायब हो गया. ख़्यालों से बाहर आते ही अपने आपको कमरे में देखकर मैं शांत हुई. मन बहलाने के लिए सबके पास मुंह पर मास्क लगाकर बैठ गई. इसी तरह शाम बीत गई.

मैं और दीदी साथ ही सोते हैं. मैं आराम से दीवार से सट कर लेट गई और दीदी पानी की बोतल लेकर अंदर बेड पर बैठ गई. मैंने कहा, “दीदी पंखा चला दीजिए.” दीदी बोलीं, “नहीं पंखा नहीं चलेगा. मम्मी ने कहा है कि पंखा मत चलाना.” मैंने कहा, “प्लीज़ दीदी, चला दो.” “नहीं कहा न” यह कह कर दीदी दीवार की तरफ मुंह करके सो गई. गर्मी की वजह से बार-बार नींद टूट जाती. मुझे घुटन-सी महसूस होने लगी. झटके से मेरी आंखें खुलीं तो देखा चारों तरफ अंधेरा है, चादर को अपने ऊपर से उठाकर फेंका और बैठ गई. मन में सोचा कि दीदी को बताऊं!

लेकिन अगर दीदी को कुछ बताया तो वे मुझे हॉस्पिटल ले जाएंगी मैं सबसे दूर हो जाऊंगी, अगर नहीं बताया और मेरे परिवारवालों को कुछ हो गया तो! नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं बेड से उतरी, बोतल उठाकर पानी पिया और बाहर चारपाई पर जाकर लेट गई. न जाने कब आंख लग गई. जब आंख खुली तो देखा कि धूप आ रही है. जो आवाज़ें मुझे धीमी सुनाई दे रही थीं वे अब ठीक से सुनाई दे रही थीं. मुझे सांस लेने में भी कोई दिक्कत नहीं थी. मैं काफ़ी अच्छा फील कर रही थी. तभी पीछे से दीदी की आवाज़ आई, “काजल कैसी हो?”

“एकदम ठीक दीदी”, कहकर मैं मुस्कुरा दी, और दीदी ने भी मुस्कुरा दिया.

काजल खिचड़ीपुर, दिल्ली में रहती हैं और राजकीय कन्या विद्यालय, कल्याणवास, दिल्ली में ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा है. वे अंकुर कलेक्टिव की नियमित रियाजकर्ता है.

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