2022 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की 131वीं जयंती पर द थर्ड आई ने कुछ शिक्षकों से बात की और उनसे जाना कि शिक्षण कार्य से जुड़े होने पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में आम्बेडकर उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं.
आम्बेडकर एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ एक शिक्षक एवं सजग चिंतक थे. उनके लेखों, पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पूरी दुनिया में उनकी ख्याति है. उनका काम और उनकी शिक्षाएं हमें लगातार प्रेरित करती हैं. आज, जब हमारे विश्वविद्यालय एवं स्कूलों में शैक्षणिक स्थान लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं, और सार्वजनिक शिक्षा के लिए एक चुनौती बन रहे हैं, ऐसे में आम्बेडकर की याद सबसे ज़्यादा आती है. उनके विचार हमें लगातार यह याद दिलाते हैं कि क्यों हाशिए एवं पिछड़े समुदायों से आने वाले लोगों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों को सुलभ एवं अनुकूल बनाने की आवश्यकता है.
आम्बेडकर हमें सार्वजनिक शिक्षा के हमारे अधिकार के लिए लड़ने की उम्मीद देते हैं. उनके काम हमें यह भी बताते हैं कि शिक्षा चाहे किसी भी क्षेत्र या विषय में हो, उसके प्रमुख कार्यों में जाति, पितृसत्ता, पूंजीवाद और श्रम के बीच संबंध बनाना है. आम्बेडकर ने स्त्रियों की पराधीनता और जाति बंधन की कठोरता के इतिहास को एक साथ जोड़ कर देखा. उन्हें पढ़ते हुए सामाजिक भेद-भाव और गैर बराबरी को समझना और भी आसान हो जाता है.
जय भीम!
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अस्मिता विमर्श और दलित विमर्श पढ़ाते हुए डॉ. आम्बेडकर पर बात करना तो स्वाभाविक है. लेकिन साहित्य की दूसरी कक्षाओं में भी आम्बेडकर और उनके विचार इस तरह काम आते हैं कि जीवन की समरसता, सौहार्द, करुणा की बातें जो साहित्य करता है, तमाम कलाएं करती हैं, वे उन मूल्यों के करीब हैं या कहना चाहिए की सहधर्मी हैं. उन मूल्यों के जो हमारे संविधान की नींव हैं. अगर आप कक्षा में साहित्य और समाज से जुड़ी बातें पढ़ाते हैं, तो जेंडर और जाति के प्रश्न कक्षाओं में उठना बेहद स्वाभाविक है और डॉ. आम्बेडकर यहां मदद करते हैं. वे मदद करते हैं, समझने में कि कैसे जाति और जेंडर इन दो सवालों को एक साथ देखना ज़रूरी है और इन्हें एक साथ देखे बिना भारत की जाति संरचना और स्त्री समस्याओं की समझ नहीं बन सकती.
– सुजाता, असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
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– विजेता कुमार, सेंट जोसेफ़ कॉलेज, बंगलौर
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– मृत्युंजय, डॉ. भीमराव आम्बेडकर यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
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एक सवर्ण महिला होने की वजह से फुले-आम्बेडकर की शिक्षा से मेरा परिचय बहुत देर से हुआ, या यूं कहूं कि जब मैं 20-21 साल की होंगी तब मैंने उन्हें पढ़ा. उनके जाति-विरोधी विचार लालटेन की तरह काम करते हैं जिसकी रौशनी में मुझे चीज़ें बहुत स्पष्ट दिखाई देने लगीं.
सामाजिक समानता के प्रति आम्बेडकर के विचारों ने शिक्षण में मेरा हमेशा साथ दिया. जिस तरह वे शिक्षित, संगठित और आंदोलन की आवश्यकता को जोड़ते हैं, उसने मुझे उच्च शिक्षण क्षेत्र को संघर्ष स्थल के रूप में देखने का नज़रिया दिया. उन्होंने मुझे सामाजिक न्याय से जुड़े संघर्ष एवं उसकी राजनीति के साथ खड़े रहने के लिए प्रेरित किया है.
सबसे महत्त्वपूर्ण, आम्बेडकर ने मुझे, खुद को और मेरी सामाजिक स्थितियों को एक आलोचनात्मक नज़र से देखने में मदद की है. जाति के आधार पर मिले विशेषाधिकारों को समझते हुए उन्होंने उसपर कड़े सवाल करने के लिए प्रेरित किया ताकि हम ये सवाल उठा सकें कि ये विशेषाधिकार मुझे किस कीमत पर मिले और किसने इसका खामियाज़ा भुगता है.
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मैं बचपन से ही आम्बेडकरवादी चेतना के साथ बड़ी हुई हूं. मेरी मां और नानी पढ़ी-लिखी नहीं थीं लेकिन वे हमेशा बाबासाहेब के बारे में बातें करतीं. उनका लक्ष्य था कि मुझे अच्छी शिक्षा मिले. मैं हमेशा सोचा करती कि हमारे समुदाय की औरतें घरेलू कामगार क्यों हैं? सिर्फ हमारे समुदाय के लोग ही मैला ढोने का काम क्यों करते हैं?
पहले-पहल तो यही लगता कि हमारे समुदाय में शिक्षा की कमी है जिसकी जड़ में गरीबी है. लेकिन बाबासाहब को पढ़ने और उनके राजनीतिक विचारों से जुड़ने के बाद ही मैं – माइग्रेशन, जाति, पूंजीवाद और आजीविका के बीच घनिष्ठ रिश्ते को समझ पाई. पुणे विश्वविद्यालय में स्थित महिला अध्ययन केंद्र से जुड़ी शर्मिला रेगे और उनके काम से मेरा परिचय हुआ. और हमारे समूह ने अध्ययन केंद्र के साथ मिलकर कई कार्यक्रमों का आयोजन किया.
हम स्कूलों, बस्तियों में जाकर जाति-विरोधी पर्चे और बुकलेट बांटा करते थे. वहां नुक्कड़-नाटक भी करते. 2009 में मैंने मुम्बई में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस) के महिला अध्ययन केंद्र में पढ़ाना शुरू किया. उस वक्त आम्बेडकरवाद ने मुझे यह समझने में मदद की कि कैसे हिंदू समाज में श्रम का नहीं बल्कि मज़दूरों का विभाजन होता है. जब हम जेंडर के आधार पर काम के विभाजन की बात करते हैं तो पितृसत्ता को भी जाति पितृसत्ता के रूप में परिभाषित करना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ब्राह्मणवाद की विचारधारा भी जेंडर की समझ का निर्माण करती है.
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बाबासाहेब अगर हमारे परिवार में एक विचारधारा और आदर्श के रुप में नहीं आते तो शायद मैं इतना पढ़-लिख नहीं पाती. मेरे पिता दर्ज़ी थे और पांचवी पास थे. मां भी पांचवी पास थीं. मेरे पिता बाबासाहेब के आंदोलन से प्रभावित थे. जब उनकी कोई संतान पैदा नहीं हुई थी उससे भी पहले से ही वे रात में अपने कामकाज से निबटकर पूरे मोहल्ले के बच्चों को पढ़ाते थे. मेरी मां भी आगे पढ़ना चाहती थीं लेकिन उन्हें आगे पढ़ने का मौका नहीं मिला.
इसके पीछे दो मुख्य कारण थे एक तो उनका दलित होना, दूसरा उसपर भी स्त्री होना. हमारे बचपन में मेरे पिताजी हमें बाबासाहेब की पढ़ाई-लिखाई और उसमें आने वाली बाधाओं का बहुत बार ज़िक्र करते. बाद में हम सब भाई-बहन आम्बेडकरवादी आंदोलन से जुड़ गए और हमारे यहां तमाम तरह की दलित पत्र-पत्रिकाएं, जिनमें मुख्य रुप से बहुजन संगठन, धम्म दर्पण, भीम भारती, हिमायती आदि थीं, आने लगीं. मेरे जीवन में, मेरी दुनिया में, मेरी नौकरी में, मेरे सामाजिक कार्यों और लेखन में जो सक्रियता है वह बाबासाहेब की प्रेरणा से ही है.
मैं अपनी नौकरी में अपने स्कूल के छात्र-छात्राओं की तरक्की, उनको हर तरह से समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए इसलिए बहुत प्रतिब्ध हूं क्योंकि मुझे लगता है इन विद्यालयों में जो हमारे वंचित वर्ग के बच्चे आते है उन्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई के दौरान वो सब सहूलियतें मिलें जिसके वे हकदार हैं. मेरी यह सोच बाबासाहेब को पढ़ने और उनके सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारने के कारण ही बनी है.
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किसी भी वंचित समूह से आने वाले व्यक्ति की ही तरह आम्बेडकर के होने के मायने मेरे लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं. उनकी वैचारिकी के तमाम पक्षों पर बात हो सकती है लेकिन शिक्षा को लेकर उनका जो सोचना है खासकर वंचित समूहों के संदर्भ में, वह मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है. साथ ही यह भी कि समाज की प्रगति का पैमाना जब वे स्त्रियों की शिक्षा को मानते हैं तो उनके होने के मायने बिल्कुल ही अलग विस्तार को छूते हैं. इस बिंदु पर आकर निःसंदेह उनके होने के मायने तथाकथित निम्न जातियों के हकों और अधिकार पाने की लड़ाई से कहीं आगे और विस्तृत हो जाते हैं.
बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ना होते तो शायद आज उनके विषय में यह बात ना लिख रही होती. उनके द्वारा लड़ी गई तमाम सामाजिक और मानवाधिकार की लड़ाइयों का प्रतिफल है कि मुझ जैसे असंख्य लोग शिक्षा प्राप्त कर समाज में वह जगह पाने की दिशा में आगे बढ़ पाए जिसकी सलाहियत बेशक हमारे पूर्वजों को न थी.
उन्हें सादर नमन!
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भारत में पूरा एजुकेशन सिस्टम – स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक – ऐसा है कि आप आम्बेडकर के विचार, उनके भाषण, शिक्षा को लेकर उनकी धारणाओं, से परिचित ही नहीं हो सकते. इन सबसे आप तभी परिचित होते हैं जब अपने स्तर पर कोशिश कर उन्हें पढ़ते हैं. मैंने टीचिंग में आने के बाद आम्बेडकर को पढ़ना शुरू किया. उनके इस कथन – ‘शिक्षा, संघर्ष, संगठन’ में पहला ज़ोर शिक्षा पर ही है.
बाबासाहब एक शिक्षक भी थे. उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज (मुम्बई) में पढ़ाया था और मुम्बई में ही सिद्दार्थ कॉलेज की स्थापना की थी. जब हमने उन्हें पढ़ना शुरू किया तब जाना कि क्लासरूम में ‘आइडिया ऑफ इक्वालिटी’ दिखाई देता है. हमारी ट्रेनिंग में यही शामिल है कि पढ़ाते हुए आप जाति, धर्म, वर्ग, भाषा के आधार पर भेदभाव करते हैं कि नहीं इससे ही तय होता है कि आप किस तरह के शिक्षक है. हमारे ऊपर बाबासाहेब का प्रभाव यह है कि हम हर तरह की बराबरी का समर्थन करते हैं. यह सच है कि बगैर पढ़े आप आम्बेडकर को समझ नहीं सकते.
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एक शिक्षक होने के नाते सामाजिक न्याय में यकीन करना और शिक्षा को उसकी स्थापना के एक औज़ार की तरह इस्तेमाल करना – यही मेरा पढ़ाने का आधार है. एक स्त्री, एक स्त्री शिक्षक और एक स्त्री लेखक भी होने के अपने तमाम रास्तों से गुज़रने का हासिल यही है कि सामाजिक समानता की मुश्किलात और ज़रूरत दोनों की समझ बेहतर होती आई है. मेरी दृष्टि में साहित्य को पढ़ाने का सबसे बेहतरीन रास्ता और मकसद ही है दलित स्त्री और ऐसी सभी हाशिए की अस्मिताओं के विमर्श को बुनते-गढ़ते चलना. हमारी जातिगत संरचनाओं की जितनी पैठ समाज में है उससे भी कहीं अधिक शातिर पैठ ज्ञान, साहित्य और भाषा में मौजूद है.
आंबेडकर का दर्शन इस दुष्चक्र में सेंध लगाने का न केवल हौसला देता है बल्कि यह विश्वास भी कि शिक्षा का असल काम सामाजिक विभेद की खाई को खत्म करना है और एक शिक्षक का काम इस रास्ते की दुश्वारियों को दूर करने का ज़रिया बन जाना है. बाबासाहेब की समग्र सुचिंतित दृष्टि ने एक शिक्षक के साहित्यिक के काम को आसान कर दिया है. इस दर्शन के आईने में मैं लगातार एक स्वतंत्र स्त्री व बेहतर मनुष्य होने की समझ विकसित कर रही हूं.