“मैं पागलपन की सर्वाइवर नहीं, मनोचिकित्सा की सर्वाइवर हूं.”

मानसिक स्वास्थ्य विषय पर शोध करने वाली एक शोधकर्ता एवं ज़मीनी कार्यकर्ता हमें बता रही हैं कि सामाजिक ढांचे पर बात किए बग़ैर मानसिक स्वास्थ्य की बात अधूरी है.

चित्रांकन: वैष्णवी वासुदेवन

पिछले कई महीनों से हम जन स्वास्थ्य के तमाम पहलूओं और उससे जुड़े विभिन्न मुद्दों पर लगातार विशेषज्ञों से बात कर रहे हैं. इसी क्रम में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर बात करने के लिए द थर्ड आई टीम ने मुलाक़ात की लेखक एवं शोधकर्ता जयश्री कलिथल से. जयश्री, भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात करने वाले शुरुआती कार्यकर्ताओं में से एक हैं जिन्होंने मानसिक तनाव एवं इससे जुड़ी परेशानियों के इर्द-गिर्द अपना कब्ज़ा जमा चुके मेडिकल मॉडल को अनुभवों एवं ज्ञान के स्तर पर चुनौती दी है.

साक्षात्कारकर्ता : निशा सुसान और शबानी हसनवालिया

साल 2015 की बात है. पत्रकारों की एक सभा में बात करते हुए मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने बताया कि वे डिप्रेशन से जूंझ रही हैं और पिछले एक साल से उनका इलाज चल रहा है. दीपिका ने कहा, “मैं बस सोना चाहती थी. वो मेरा बचाव का तरीका था- बस सोते रहना था और उठना नहीं था. हर दिन एक चुनौती थी. मुझे वो जगह ढूंढनी होती जहां मैं रो सकूं. आज तक मुझे अलार्म से डर लगता है.”

मुझे याद है कि इस घटना के बाद अचानक बहुत सारे काउंसलर और थेरेपिस्ट के नंबर इधर से उधर तैरने लगे थे. अपने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में दीपिका का इस तरह खुलकर सामने आना और इसपर बात करने ने, मानसिक तनाव से गुज़र रहे लोगों के लिए कई बंद खिड़कियों को अचानक से खोल दिया था. दीपिका की सच्चाई ने इसके पक्ष में समझ की ज़मीन तैयार की. लोग इसपर बात करने लगे. मेरे जान-पहचान में कितने ही दोस्तों ने, दफ़्तर के साथी, मां-बाप ने अपने क़रीबी की बात को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था.

जयश्री के साथ बातचीत में हमने इस घटना का ज़िक्र किया कि कैसे इस तरह की दख़लअंदाज़ी से आम लोगों के भीतर इसे लेकर एक सोच बनती है, चुप्पी का घड़ा फूटता है. इसपर जयश्री ने इस तथ्य को एक नए सवाल से जोड़ते हुए कहा, “मैं देखती हूं, आजकल हर कोई मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करना चाहता है, है ना? आप मशहूर हस्तियों को अपने निजी अनुभवों के बारे में बात करते हुए पाएंगे. लेकिन, ग़ौर करें कि वे क्या कह कर रहे हैं? उनकी बातों का सार यही होता है कि मानसिक तनाव है या डिप्रेशन महसूस हो रहा है तो मनोचिकित्सक के पास जाएं, दवाइयां लें, काउंसलर से बात करें. लेकिन, क्या ये मेडिकल मॉडल इन्सानी अनुभवों को समझने के लिए काफ़ी हैं? हमने अभी तक इसे आलोचनात्मक तरीके से देखना शुरू नहीं किया है.”

जयश्री ख़ुद को ‘मनोचिकित्सा की सर्वाइवर’ या उससे बचकर निकली हुई मानती हैं. ये बात मेरे लिए बिलकुल नई थी.

“दरअसल, मैं पागलपन या मानसिक बीमारी की सर्वाइवर नहीं हूं, बल्कि समाज और मनोचिकित्सा से जुड़े संस्थागत तरीकों से बचकर निकली हूं जो हम जैसे लोगों को पागल समझते थे.”

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े ख़ुद के अनुभवों को साझा करते हुए जयश्री ने बताया कि मनोचिकित्सा के विषय में शोध की तरफ़ उनका आना एक वक़्ती घटना है. साल 2000 के आसपास पांच अलग-अलग तरह के मनोचिकित्सिकों ने उनकी परेशानियों की जांच कर उन्हें पागल घोषित कर दिया था. “मेडिकल की भाषा में उन्होंने मुझे सिज़नोफ्रेनिया और मूड डिस्ऑर्डर का मरीज़ घोषित कर दिया. मैं दवाइयां खा रही थीं. 2001 आते-आते मैं इन सब से दूर चली जाना चाहती थी.”

जयश्री समझ नहीं पा रही थीं कि ये सब जो उनके आसपास हो रहा है इसका क्या मतलब है? क्यों उन्हें आवाज़ें सुनाई देती हैं? क्या किसी और के साथ भी ये होता है? उन्होंने आसपास मानसिक परेशानियों से जूंझ रहे और इस विषय में रूचि लेने वाले लोगों के साथ मिलकर एक स्टडी सर्किल- बहसों-विमर्शों की जगह बनाई जहां लोग अपने अनुभव और ज्ञान एक- दूसरे से साझा कर सकते थे. जयश्री इसे ‘अपने जैसे’ लोगों का समूह बुलाती हैं जिसने सच में उन्हें अपनी परेशानियों को समझने का रास्ता दिखाया.

2001 में उन्होंने मानसिक स्वास्थ्य पर आधारित भारत का पहला न्यूज़लेटर ‘आइना’ प्रकाशित किया जो पुणे के बाबू ट्रस्ट रिसर्च ऑन माइंड एंड डिस्कोर्स संस्थान से जुड़ा है. इस संस्था की शुरुआत भार्गवी दवर ने की थी. भार्गवी, पहली व्यक्ति हैं जिन्होंने उन लोगों के साथ जुड़कर इस मुहिम की शुरुआत की जिन्हें आज हम ‘मनो-सामाजिकता’ से ग्रसित मानते हैं. आइना, ने मनोविज्ञान एवं मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े हर तरह की मुद्दे को मुख़र होकर सामने रखा. जैसे, हमारी फ़िल्में और हमारा मीडिया इसे किस तरह दिखाता है?

जयश्री कहती हैं,

“असल में होता यह है कि, एक बार जब आपको मानसिक बीमारी होने का पता चल जाता है, तो इसका आसान समाधान यह है कि आप अपने मनोचिकित्सक के पास जाएं और अपनी चिकित्सा शुरू करें. बहुत सारे लोगों के लिए यह काम करता है. लेकिन क्या ये सभी के लिए उपलब्ध है?

इसे समझने के और भी तरीके हैं.”

यह सच है कि कानपुर जैसे छोटे शहर में भी आमतौर पर किसी थेरेपिस्ट से एक घंटे की बातचीत के लिए आपको 1000 रुपए देने पड़ सकते हैं. इसके बाद दवाइयों का ख़र्च अलग. मनोचिकित्सक को दिखाना और दवाइयां लेना एक उपाए है. थेरेपी सभी के साथ सही काम करे ज़रूरी नहीं, साथ ही यह बहुत महंगी भी होती है.

पर, जयश्री की बात से जो सवाल निकलकर आता है वो यह है कि, क्या मेडिकल मॉडल मानसिक तनावों के जड़ तक पहुंच रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं इस तरह हम एक ज़्यादा गंभीर मुद्दे को सिर्फ़ उसकी उपरी सतह पर खड़े होकर देखने की कोशिश कर रहे हैं?

“अगर हम घरेलू हिंसा के संदर्भ में डिप्रेशन को समझना चाहते हैं तो ज़रा सोचिए, घरेलू हिंसा की शिकार महिला डॉक्टर के पास जाती है. डॉक्टर, जांच कर बता देते हैं कि वह डिप्रेशन से पीडित है. ठीक होने के लिए डॉक्टर दवाइयां लिख देते हैं. उसके बाद क्या? उसे तो उसी घर में लौटना है जहां वो इसका शिकार हो रही है. तो फिर यहां उसकी मदद कैसे हुई?”
ज़रूरी है कि हम हिंसा के मूल कारणों को समझें, सामाजिक ढांचे के भीतर पितृसत्तात्मक सोच की नसों को पकड़ें. समझना होगा कि परिवार में और घर में महिला की भूमिका क्या है?

बात करना ठीक है, क्योंकि हिन्दुस्तान में ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य को पूरी दुनिया में किसी दोष या कलंक की तरह देखा जाता है. लेकिन, इसे एक समाज और उसके ढांचे के मूल से उभरने वाली परेशानियों की नज़र से न देखकर, सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति की बीमारी की तरह देखना बहुत ही शीघ्रता और जल्दबाज़ी में किया गया आकलन है.

समाज और उसके ढांचे के बारे में बात किए बग़ैर मानसिक स्वास्थ्य पर बात अधूरी है.

पांच साल पहले, हैदराबाद युनिवर्सिटी के एक दलित छात्र रोहित वेमुला ने यूनिर्वसिटी के एक हॉस्टल में फांसी लगाकर अपनी जान दे दी. अपने आख़िरी ख़त में रोहित ने लिखा, “इस पूरे समय में मेरे जैसे लोगों के लिए जीवन अभिशाप ही रहा. मेरा जन्म एक भयंकर हादसा था. मैं अपने बचपन के अकेलेपन से कभी उबर नहीं पाया. बचपन में मुझे किसी का प्यार नहीं मिला… आप जान जाएं कि मैं मर कर ख़ुश हूं जीने से अधिक.” यह कोई इकलौती घटना नहीं थी. मई 2019 में जाति-संबंधित भेदभाव का सामना करने के बाद एक आदिवासी मुस्लिम समुदाय की मेडिकल छात्रा पायल तड़वी ने आत्महत्या कर ली.

हम मानसिक स्वास्थ्य को एक व्यक्ति की परेशानी मानकर अक्सर उन्हें अलग-थलग कर देते हैं. हिन्दी के मशहूर लेखक स्वदेश दीपक अपनी आत्मकथा “मैंने मांडु नहीं देखा” में लिखते हैं, “मैं लगभग सात साल तक एक मनोरोग से ग्रस्त रहा. इस रोग से जुड़ी लोगों की कल्पनाएं डरावनी और प्रतिक्रियाएं हिंसक, नफ़रत भरी होती हैं. परिचित और पराए दोनों डंक मारते हैं, हौसला नहीं देते. समाज में विक्षिपत आदमी लांछन बन जाता है… पगला चुका समय दुख और अपमानों का कुल जमा होता है.”

सच यह है कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी असमानताओं पर बहस अभी शुरू भी नहीं हुई है. अभी भी इस पर सुविधासम्पन्न लोगों का कब्ज़ा है और पॉपुलर या मुख्यधारा सोच को ही हम सामान्य सोच मान रहे हैं. अभी तो हाशिए पर धकेल दिए लोगों की बात होनी बाकी है.

आंकडे बताते हैं कि भेदभाव और हिंसा भारत में डिप्रेशन और चिंता बढ़ाने में सहायक होते हैं.

भारत, विश्व के उन चुनिंदा देशों में से है जहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर क़ानून है. लेकिन, ये क़ानून अधिकार देता नहीं बल्कि मानसिक रूप से अस्थिर लोगों के अधिकार छीन भी लेता है. भारत में ज़मीनी कार्यकर्ताओं और वॉलिन्टियर्स के लगातार विरोध प्रदर्शन के बाद ब्रिटिश काल के इन क़ानूनों में बदलाव किए गए लेकिन अभी भी इसके मूल में बदलाव नहीं हुए है.

जयश्री ने इसे विस्तार से समझाते हुए बताया कि, “मानसिक स्वास्थ्य की बहसों को देखें तो लोग इसे किसी भी आम बीमारी जैसे ब्लड प्रेशर या डायबिटीज़ की कैटगरी में रखना चाहते हैं. अगर, यह आम बीमारी है तो ऐसे में मानसिक विकार से ग्रसित लोगों के अधिकारों को कोई कैसे छीन सकता है? उन्हें ज़बरदस्ती किसी कमरे में बंद कर देना, उन्हें हॉस्पिटल में बंद कर देना, ज़बरदस्ती दवाइयां देना, यहां तक कि प्रॉपर्टी ख़रीदने और कॉन्ट्रैक्ट साइन करने के अधिकार भी उनसे छीन लिए जाते हैं. बच्चे पर अधिकार छीन लेना भी इसमें शामिल है.”

भारत में मानसिक रोगियों के साथ होने वाली हिंसा और अमानवीय व्यवहार कोई नई बात नहीं है. अगर, यादों के जुगनूओं को जगाएं तो 1994 की वो घटना याद आती है, जब पुणे के ससून जनरल अस्पताल में 18 से 35 साल की मानसिक रूप से अक्षम महिलाओं के गर्भाशयोच्छेदन कर दिए गए थे. उन्हें वहां पुणे ज़िले के शिरूर तालुका में मानसिक रूप से मंद लड़कियों के लिए सरकार की ओर से प्रमाणित आवासीय स्कूल से लाया गया था. अधिकारियों का कहना था कि मासिक धर्म और महिलाओं के साथ किसी भी यौन शोषण के परिणामों से निपटने का यही एक तरीक़ा है.

बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा दिया गया यह पूरी तरह से अमानवीय और ग़ैर-क़ानूनी फ़ैसला था जहां बिना लड़कियों की इजाज़त के उनके शरीर के साथ सरकारी फरमान की कैंची चलाई गई थी. बाद में यह फैसला वापस ले लिया गया लेकिन तब तक लगभग 20 लड़कियों का ऑपरेशन किया जा चुका था.

यहां एक और घटना याद आती है जो क़ानूनी ज़्यादतियों की शिकार बनी थी. तमिलनाडु के इरवदा ज़िले के एक प्राइवेट देखभाल सेंटर में आग लगने से 23 मानसिक रोगियों की मौत हो गई थी. आग लगने पर वे भाग नहीं पाए क्योंकि उन्हें अपने बिस्तरों से चेन में बांधकर रखा जाता था. जब वे मदद के लिए चिल्ला रहे थे तो हॉस्पिटल स्टाफ ने यह समझकर अनसुना कर दिया कि चिल्लाना तो उनका रोज़ का काम है.

पिछले महीने इस घटना को 20 साल पूरे हो गए. आंकड़े बताते हैं कि इतने सालों बाद भी इस तरह के व्यवहार में ज़रा भी परिवर्तन नहीं आया है. क्या ऐसा संभव है कि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज की सोच में बदलाव आए? जयश्री कहती हैं कि ऐसा तभी संभव है जब समाज ख़ुद के भीतर झांक कर देखना शुरू कर दे, ख़ुद से सवाल करे तो शायद ये जीत की पहली सीढ़ी हो सकती है.

“मेरे जैसे बहुत सारे शोधकर्ता मानते हैं कि, संभव है मेरे और सामने वाले के अनुभवों में मतभेद हो. लेकिन, अगर मुझे कुछ दिखाई दे रहा है, पर कोई और उसे नहीं देख सकता तो इसका मतलब ये नहीं है कि मैं ग़लत हूं. मेरे लिए ये एकदम सामान्य स्थिति हो सकती है और अगर मैं इसमें किसी तरह की मदद न चाहूं तो ये दिक्कत की बात क्यों है?

अगर हम ऐसे समाज में रह सकते हैं जहां अलग-अलग तरह के लोग एक साथ रहते हैं तो ऐसा भी समाज हो सकता है जहां मानसिक रुप से अस्वस्थ व्यक्ति अपनी ज़रूरत के अनुसार मदद ले सकता हो.”

लेकिन, अक्सर हम अपनी बातों और हरकतों से यही समझाने की कोशिश करते हैं कि ‘मुझे पता है कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, तुम ज़रूरत में हो और अब मैं तुम्हारी ज़रूरत पूरी कर दूंगी.’ सच्चाई यह है कि यह उपकार जताने और दूसरे को कमतर कर देखने का ज़रिया है.

सोचिए, भारत में कोई धर्म गुरू या संत महात्मा कह दे कि उन्हें आवाज़ें सुनाई देती है या कुछ दिखाई देता है तो वो पूज्यनीय की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं. लेकिन, अगर मैं या आप ऐसा कुछ कहें तो वो मानसिक विकार या पागलपन है. ऐसा कैसे होता है?

जयश्री का कहना है, “जो लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्ति हैं उनके लिए बराबरी और समान स्वाथ्य सुविधा की लड़ाई में अचानक हमें अहसास हुआ कि ऐसा करके हम उन्हें वापस उसी व्यवस्था में धकेल रहे हैं जिसकी वजह से उनकी ये हालत हुई है. क्या ज़रूरी है सभी को एक ही तरह से कोल्हु के बैल की तरह जोत दिया जाए? मानसिक बीमारियों में ऐसे बहुत से स्तर होते हैं जहां किसी भी बाहरी मदद की ज़रूरत नहीं.”

ऐसे लोगों को अपनी भरोसेमंद जगह में रहकर जीने देना भी एक उपाय है. कभी, यह भरोसा ही काफ़ी होता है कि उनके सिर के ऊपर छत है, उनके जीवन पर उनका ख़ुद का अधिकार है.

“अगर, कोई मेरी बातों को नहीं समझ पा रहा तो क्या मेरे पास वो जगह है कि मैं बिना किसी को कुछ समझाने की कोशिश किए अपने आप में रह सकूं? बिना दवाइयों और डॉक्टर की मदद के, जो इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि मुझे ठीक कर वापस वहीं भेज दें जहां से मैं आई थी. दरअसल, हमें मेडिकल मॉडल की नहीं सोशल मॉडल की ज़रूरत है.”

जयश्री जिस सोशल मॉडल की चर्चा कर रही हैं उसे उन्होंने ज़मीनी स्तर पर खड़ा भी किया है जो उनके इसी नज़रिए पर टिका है.

केरल मेंटल हेल्थ एक्शन ट्रस्ट एक ऐसा उदाहरण है जहां मेडिकल मॉडल के साथ-साथ बहुत हद तक सोशल मॉडल की पहचान की जा सकती है. जयश्री ने अपने सहयोगी मनोज के साथ मिलकर इसकी स्थापना में आगे बढ़कर काम किया. यह ट्रस्ट ज़्यादातर गांव देहात के सबसे ग़रीब तबके के लोगों के साथ काम करती है. ज़ाहिर है कि रोज़ दिहाड़ी कमाने वाले लोगों के लिए अपना पेट पालना और इलाज करवाना, दोनों साथ-साथ करना मुश्किल है. ऐसे में ट्रस्ट, केरल में पहले से मौजूद देखभाल के दूसरे नेटवर्क के साथ मिलकर न केवल उनके खाने का इंतज़ाम करती है बल्कि उनके बच्चों को स्कूल भेजना, उनकी फ़ीस जमा करना और उनके लिए किताबें ख़रीदने का भी काम करती है. यह बहुत अच्छी बात है. एक ही परेशानी है कि समुदायों के साथ अपने रिश्ते को मज़बूत बनाने के लिए यह ट्रस्ट जिस “मैं हूं न” वाले भाव में काम करती है ठीक वैसा ही वो मानसिक स्वास्थ्य से ग्रसित लोगों के साथ भी करने लगते हैं. जिसमें सुधार की पूरी गुंजाइश है. सदियों से महिलाओं और हाशिए पर धकेल दिए लोगों की आवाज़ों को दबाया गया है. ज़रूरत है सामाजिक एवं सांस्थानिक ढांचे में मौजूद ग़ैर-बराबरी को दूर करने की.

दरअसल, हम किसी दूसरे की सोच-समझ या कुछ भी ऐसा जो हमें बेचैन कर दे, उसके अस्तित्व को स्वीकरने से इंकार कर उससे दूर भागने लगते हैं.

इतना मुश्किल क्यों है इस बात को समझना कि हमसे अलग लोग भी होते हैं. जो नहीं करते वैसा जैसा हर कोई कर रहा होता है. वो किसी भी तरह से अलग हो सकते हैं. यही, बात उनको ख़ास बनाती है. क्या हम ऐसे लोगों के लिए एक सुरक्षित जगह बना सकते हैं?

लेखक कुंवर नारायण के शब्दों में “ मैं कितना सुरक्षित हूं, यह मुझ पर उतना ही निर्भर करता जितना दूसरों पर, खासकर दूसरों की समझ पर, और अगर कोई एक इन्सान को इन्सान की हैसियत से न समझना चाहे तो उस इन्सान के दुर्भाग्य की कोई सीमा नहीं.”

संदर्भ

सुमन परमार द थर्ड आई में सीनियर कंटेंट एडिटर, हिन्दी हैं.

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