प्रीतियां

शक के दायरे में फंसी लड़कियां

प्रीतियां
चित्रांकन: ऐश्वर्या अइयर

इस कॉलम को अंकुर संस्था के साथ साझेदारी में शुरू किया गया है. अंकुर संस्था द्वारा बनाई जा रही विरासत, संस्कृति और ज्ञान की गढ़न से तैयार सामग्री और इसी विरासत की कुछ झलकियां हम इस कॉलम के ज़रिए आपके सामने पेश कर रहे हैं. ‘आती हुई लहरों पर जाती हुई लड़की’ कॉलम में हर महीने हम आपके सामने लाएंगे ऐसी कहानियां जिन्हें दिल्ली के श्रमिक वर्ग के इलाकों/ मोहल्लों के नारीवादी लेखकों द्वारा लिखा गया है.

अंदर ही अंदर लहराते अक्षर और बड़ी-बड़ी लहराती हुई लिखी लाईनें हर आती निगाहों का आर्कषण बनती जा रही थी. जैसे ही कदम गेट पर आकर टिकते तभी सामने दीवार पर लाल रंग के मार्कर से लिखी लाईनें नज़रों को चैका जाती हैं – जिसे देखो वही इन लाईनों को पढ़ते ही थम-सा जा रहा था, ‘‘आई लव यू प्रीति, फ्रॉम रंजीत.’’

गेट पर झुंड बनाए खड़े होकर कुछ पढ़ते हुए मुस्कुराकर बस्ते के बोझ की थकावट उतारने ऊपर क्लास में चल दिए. कुछ पढ़ते ही हल्ला काटने लगे, ‘‘ओए प्रीति आजकल तो तू भी फुल तरक्की कर रही है, भई किसने लिखा है? कौन है ये नया आशिक? आख़िर हम भी तो जाने कि कैसे हैं ये रंजीत जी? क्या हमसे नहीं मिलवाएगी?’’

देखते ही देखते सभी के बनते झुंड ने एक-दूसरे को छेड़ना शुरू कर दिया, ‘‘भई अब तो हमें भी पता चल गया, अरे हम तो वो इंसान हैं जो खंजर को बंजर बना दें. लोग क्या सोचते हैं कि बातें छुपाने से छुप जाएंगी. आख़िर सुर्खियां तो कानों से टकरा ही जाती हैं- भई कुछ तो है वरना ये नाम भला यहां मौजूद कैसे हो सकता है?’’

हंसी-मज़ाक करते हुए, एक-दूसरे को छेड़ते ये साथी झुरमुट बना चुके थे. बातें अब गेट तक ही नहीं बल्कि टीचरों के कानों का हिस्सेदार बन चुकी थीं. पूरे स्कूल में मंडराती एक ही लाइन सभी को नीचे की ओर खीचें चली जा रही थी.

‘‘ऐ पता है नीचे एक लड़के-लड़की का नाम लिखा है.’’
‘‘चल नीचे चलते है.’’
‘‘जा मत जा, तू तो यहीं पर रह ले.’’
‘‘मैं तो जा रही हूं मज़ा आएगा.’’

ये कहते हुए बस कदमों की रफ्तार नीचे जाकर थम जाती थी. प्रिंसिपल भी आ चुकी थीं. प्रिंसिपल ने माइक को थामते हुए अनाउंस किया, ‘‘बेटा, सारी क्लास ऊपर चली जाओ. बस जिन बच्चों का नाम प्रीति है वो यहां रुकेगीं. मुझे उनसे कुछ बात करनी है.’’

टीचर की ये बात सुनते ही सभी प्रीतियों के चेहरे की रंगत ही उड़ गई – ख़ामोश, डरा-सहमा चेहरा, आंखों से झलकते आंसू और सावधान सा टिका बदन. आसपास बच्चों की फुसफुसाहट के अलावा और कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था. जो नहीं जान रहे थे वे पूछ रहे थे, ‘‘ऐ क्यों रोका है मैडम ने प्रीतियों को? कहीं कुछ चक्कर तो नहीं? हमें तो भगा दिया फिर इन्हें क्यों रोक लिया? क्या इनाम देगी इन्हें? अगर हमको भी रोक लेती तो हम कौन सा कुछ बिगाड़ लेते?”

सभी क्लास की लड़कियां अपने में फुसफुसाती हुई ऊपर अपनी-अपनी क्लासो में चल दीं. यहां प्रीतियों के चेहरे अभी भी ज्यों के त्यों लटके हुए दिखाई पड़ रहे थे. डर के मारे कुछ प्रीतियों की कंपकपी छूट रही थी तो कुछ की तो जुबां पर ताले लग चुके थे.

‘‘क्या बत्तमीजी है ये? पढ़ने आते हो या आशिकी करने? क्या कभी सुधरना भी है या बस यहीं के लोगों की तरह कबाड़ी-बाज बनना है? क्यों, घरवालों को कहकर शादी करवा दूं? वैसे भी क्या औकात है तुम्हारी? इससे अच्छा तो स्कूल छोड़ो और कोठियों में काम कर लो, कम से कम मां को तो सहारा मिलेगा. ख़बरदार! जो आज के बाद दोबारा से ऐसी लाइनें लिखी हुई भी मिली.’’ ये कहते हुए प्रिंसिपल का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ चुका था. अब प्रिंसिपल इन प्रीतियों पर चांटें बरसाने लगी.

हमारी प्रिंसिपल, जिनका नाम सुनते ही दूर से ही कंपकपी छूटनी शुरू हो जाती है, उनका रौबीलापन पूरे स्कूल में अपनी दहशत फैलाए हुए था. आज के दिन बच्चे तो बच्चे टीचरें भी उनसे डरी हुई थीं. उस वक्त भी हमारी पूरी क्लास वहां से गायब हो चुकी थी. सब सीढ़ियों के नीचे छुपकर सुन रहे थे. वरना कानों को कहां नसीब होती ये बातें? लेकिन सच कहूं तो उस वक्त प्रीतियों का चेहरा देखने लायक हो रहा था. कुछ तो इतनी बुरी तरह से फूट-फूट कर रो रही थीं कि जैसे कोई छोड़कर चल बसा हो या कहे जिनका सब कुछ लुट गया हो. कुछ तो ऐसी कठोर थीं कि उनकी निडर आंखें अभी भी प्रिंसिपल को ताके जा रही थीं. चाहे जो भी हो प्रिंसिपल के ये दरदरे अल्फाज़ अभी भी मेरे कानों में चुभ रहे थे. ढेरों सवालों का जमघट अपने उफान पर खड़ा था.

एक नाम के पीछे सभी को क्यों घसीटा गया? क्या ज़रुरी है कि यहीं की प्रीतियों के लिए लिखा हो? क्या और प्रीती नहीं हो सकती? क्या हर प्रीति एक जैसी होती है? अगर स्कूल की दीवारों पर किसी का भी नाम लिखा जाएगा तो उसमें प्रीतियों की ही गलती क्यों होगी? ज़रूरी कोई है कि यहीं की प्रीतियों के लिए ही लिखा हो? क्या एक नाम ढेरों लोगों के नहीं हो सकते? आखिर एक लाइन के पीछे क्यों हर प्रीति को मुजरिम बनाया जा रहा है?

सवाल तो इतने थे कि जिनके जवाब प्रिंसिपल मैम भी नहीं दे सकती थीं. प्रिंसिपल मैम ने तो अपनी भड़ास निकाल ली थी पर ये प्रीतियां तो किसी से भी नज़रें नहीं मिला पा रही थीं. बेशक प्रिंसीपल मैम के लिए एक रोज़ का अनुशासन रहा होगा पर उन सारी प्रीतियों के लिए तो ज़िंदगी भर के तानों की बौछार बन गई थी. कुछ तो गम में डूबी ख़ामोश ही रहने लगीं, कुछ ने बोलना ही बंद कर दिया. अब हर दिन, जब भी क्लास में टीचरों की निगाहों से उनका सामना होता, सभी प्रीतियों की नज़रें नीचे को झुक जाती और चेहरे पर गंभीरता छा जाती. अब हर दिन उनका ये रूप उनके लिए एक नई सी भूमिका अदा कर चुका था. जहां सब प्रीतियों का ये हाल था वहीं मेरी क्लास की प्रीति भी सभी के तानों का शिकार बन रही थी.

‘‘उई मां, कितना गंदा पिटी थी तू. अब तो पता चल गया. उतर गया सारा फैशन? जा जाकर कोने में जाकर बैठ जा. मिल गया होगा चैन.’’

क्लास की हर साथी प्रीति को छेड़ती जा रही थी पर किसी पर भी उसकी उस ख़ामोशी का कोई असर नहीं था. प्रीति की ये ख़ामोशी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी. दिन भर दौड़ते कदम, मस्ती से खिलखिलाती पूरी क्लास को एनर्जी देते उसके ये खेल पकड़म-पकड़ाई, छुपन-छुपाई और पाली खेलता उसका गोल-मटोल सा चेहरा अब ख़ामोशी ओढ़े हुए था.

जब से ये दीवार पर लिखी लाइन का किस्सा आया, तब से तो प्रीति इतनी बदल गई कि जैसे कल ही दाखि़ला लिया हो. हमारी क्लास की प्रीति की ख़ामोशी कई क्लासों की प्रीतियों की ख़ामोशी को बयां कर रही थी.

‘‘ऐ पता है, नवीं क्लास की प्रीति बहुत रो रही है.”

आरती अग्रवाल ग्रेजुएशन कर रही हैं और दिल्ली के दक्षिणपुरी इलाके में रहती हैं। वे अंकुर संस्था के साथ 2005 से जुड़ी हैं। उनकी रचनाएं ‘फर्स्ट सिटी’ और ‘आकार’ पत्रिकाओं के साथ-साथ वेब पोर्टल ‘यूथ की आवाज़’ में प्रकाशित हुई हैं।

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