शब्दों की आड़ में

एक शिक्षक का सवाल है कि क्या अधिक शब्दों को जानना सोचने के कठिन श्रम से बचना है?

चित्रांकन: प्रियंका पॉल (@artwhoring)

मेरी एक छात्रा हुआ करती थी जो बहुत कम बोलती थी. बस उतना ही बोलती जितने की उसे ज़रूरत होती, वो भी काफी कम. ऐसा नहीं है कि उसे बोलने से डर लगता था या वह संकोची रही हो. बस अपने शब्‍दों को लेकर वह इतना सतर्क रहती थी कि जब तक समझ न आए क्‍या बोलना है, वह चुप रहती थी. बैठकों के दौरान वह मुस्‍कुराती, सिर हिलाती, किसी के बीच में कभी नहीं बोलती और अपनी बारी आने का इंतज़ार करती थी. इसीलिए जब वह बोलना शुरू करती तो बाकी सब चुप हो जाते थे. चूंकि अपने शब्‍दों को वह बहुत तोल कर चुनती थी, लिहाज़ा भाषा को लेकर उसकी दृढ़ता और चुने हुए शब्‍दों का वज़न उसके व्‍यक्तित्‍व में भी झलकता था. उसकी चाल-ढाल और लोगों को बरतने व निर्णय लेने में कोई अहं का भाव नहीं था, बल्कि एक दृढ़ता होती थी.

ऊपर की सारी बातें झूठ हैं. ऐसी कोई विद्यार्थी नहीं है मगर, मेरे दुस्‍वप्‍नों में यह छात्रा बिल्कुल वास्‍तविक है. वह उन तमाम चीज़ों का मूर्त रूप है जो मैं खुद नहीं हूं, मसलन मैं ढेर सारे शब्‍दों का इस्‍तेमाल करती हूं. उसके मुकाबले बहुत सारे शब्‍द. इतने, कि मेरे वजूद के कोनों से ये शब्‍द उफन कर अब बहने लगे हैं. मैं चुप रहती हूं तब भी शब्‍द छलक आते हैं. अपनी रोज़ी-रोटी के लिए मैं शब्‍दों को चबाती हूं और मौज के लिए उन्‍हें बाहर थूकती भी हूं. मुमकिन है कि शब्‍दों का इतना फ़ालतू इस्‍तेमाल करने के लिए ही मैंने शिक्षक/लेखक बनना चुना हो.

मुझे शिक्षण और लेखन दोनों में बहुत आनंद आता है लेकिन एक चीज़ का अहसास बेशक बेचैन करता है कि इन दोनों पेशों में हम जो कह नहीं पाते, वही बात सबसे ज़्यादा मायने रखती है. अध्यापन के अपने दसवें साल में इस बात को समझना मेरे लिए परेशानी का सबब है. मैं चाहती हूं कि एक डस्‍टर लेकर अपनी ज़िंदगी के ब्‍लैकबोर्ड पर लिखा वह सब कुछ मिटा डालूं जो मैंने कभी भी अतिरिक्त कहा हो, अपने तमाम ट्वीट भी.

ऐसा करने की चाह उस वक्त तेज़ हो गई जब एक दोस्त से मैं कुछ बहस कर रही थी और उन्होंने शब्दों के मामले में मेरी लापरवाही की ओर ध्यान दिलाया. उन्‍होंने कहा कि शब्‍दों के प्रयोग में मैं अनुशासित नहीं हूं. मैं थोड़ा हतप्रभ रह गई क्‍योंकि अनुशासन शब्‍द का प्रयोग इस संदर्भ में मैंने पहले कभी नहीं सुना था. तब से मैंने अकसर इस बारे में सोचा है, और हर बार थोड़ी और शर्मिंदगी महसूस की है.

इस पर मैं लगातार सोचती रही. फिर एक दिन अपनी क्‍लास में इस मसले को उठाया कि देखें छात्रों की क्‍या राय बनती है.

हमने ऐसे शब्‍दों (अंग्रेज़ी के) की सूची बनाई जिन्‍हें हम अनायास बोलते हैं.

कुछ शब्‍द ऐसे थे जिन्‍हें हमने जाने दिया, जैसे – बेसिकली, एसेंशियली, लाइक, मैडनिंग, अमेजिंग, इत्‍यादि. अभी तो हम सतह पर ही खुरच रहे थे. फिर कुछ और शब्‍द उभरे – ऐसे संजीदा शब्‍द जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ऐसे घुल-मिल चुके हैं और इनकी ध्‍वनि उतनी ही सामान्‍य हो चुकी है जैसे दूर कहीं कोई कुर्सी फर्श पर खींची जा रही हो. हमारे मन में फिर एक सवाल आया कि अंग्रेज़ी सुनने वालों के लिए अंग्रेज़ी बोलने वालों द्वारा बनाए गए एक बंद गुंजायमान कमरे के भीतर इन शब्‍दों के क्‍या मायने हो सकते हैं? जैसे – ट्रौमा, ट्रिगरिंग, टॉक्सिक, टॉक्सिक मेस्क्युलिनिटी, इंटरसेक्‍शनलिटी, पॉलिटिकल, सेल्‍फ-केयर, सेफ-स्‍पेस, अप्रोप्रिएशन, कमिंग आउट, प्रिविलेज, प्रॉब्‍लमैटिक, इत्‍यादि.

एक दिन हम लोग अर्जुन रेड्डी फ़िल्‍म पर बात कर रहे थे. हमने कोशिश की कि शुरुआती 20 मिनट के दौरान हम वे शब्‍द इस्‍तेमाल नहीं करेंगे जो ऊपर गिनाए गए हैं. ऐसा करने पर कुछ देर बाद लगा कि चर्चा किसी दिशा में जा रही है. फिर कुछ सवाल पैदा हुए:

अपनी ज़िंदगी में हम कितने अर्जुन रेड्डियों को जानते हैं? कुछ हाथ जवाब में उठे. कितनी प्रीतियों को हम जानते हैं? अबकी कई हाथ उठे.

फिर मैंने जब स्‍वीकार किया कि कभी मैं भी प्रीति हुआ करती थी, तो जवाब में और ज़्यादा हाथ हवा में उठ गए.

फिर हमने सोचा कि इक्‍कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में शहरों के कॉलेजों में जिस तरह का इश्‍क और रोमांस होता था, उसे जिस नज़र से देखा जाता था और जैसी स्‍वीकार्यता उसे हासिल थी, उस पर आज की तारीख में बात करना क्‍या स्‍वीकार्य होगा. एक छात्रा ने बताया कि फ़िल्‍म में उसके निजी अतीत की कुछ झलकियां हैं जिसे लेकर वह थोड़ी बेचैन थी. मेरी ही तरह वह भी कभी प्रीति हुआ करती थी. उसे भी अर्जुन रेड्डी की मादक (टॉक्सिक) मर्दानगी की कामना थी पर मौजूदा माहौल में इस बात को स्‍वीकार करने में उसे डर लगता है. अब भी हालांकि उसके भीतर एक कोना है जहां उस किस्‍म के रिश्‍ते की चाहत वह रखती है क्‍योंकि जब वह बड़ी हो रही थी तो इसी किस्‍म के किरदार उसके इर्द-गिर्द थे. क्‍या इस लड़की में कोई दिक्‍कत थी?

दो अन्‍य लड़कियों का जवाब था – हां. उनके मुताबिक पहले वाली लड़की ऐसी कामना को गवारा कर सकती थी क्‍योंकि उसके पास ऐसे अवसर (प्रिविलेज) थे. उसकी कामना (डिज़ायर) में दिक्‍कत (प्रॉब्‍लमेटिक) है. यह सुनकर पहले वाली लड़की चुप हो गई. उसे नहीं पता था कि इस पर वह क्‍या कहे. यह लड़की अंग्रेज़ी मीडियम में नहीं पढ़ी थी और केवल बोलचाल वाली अंग्रेज़ी जानती थी. लिहाज़ा बाकी दोनों लड़कियों को जब प्रिविलेज और प्रॉब्‍लमेटिक का कन्‍नड़ में अनुवाद करने को कहा गया (जिस भाषा से तीनों परिचित थीं) तो दोनों सकुचा गईं.

यहां मसला यह नहीं है कि अंग्रेज़ी बोलने वाले व्‍यक्ति की प्रिविलेज कैसी दिखती है या महसूस की जाती है. ऐसा भी नहीं कि वे दूसरी भाषाओं में सोच नहीं सकतीं. मामला बस इतना सा है कि इन शब्‍दों के प्रति हम थोड़ा लापरवाह होते हैं और सोचने में आलस कर जाते हैं. हम यह मानकर चलते हैं कि ऐसे शब्‍दों के दूसरी भाषाओं में समझे जाने वाले मायने को जानने की हमें ज़रूरत ही नहीं है. ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि हम ज़्यादातर समय अपने जैसे दिखने और बोलने वाले लोगों के संग बिताते हैं. आज ऐसे ही शब्‍द रूढ़ बन चुके हैं और साथ-साथ इनके प्रयोग से महफिल भी लूटी जा सकती है. इन शब्‍दों पर आपको तालियां मिलती हैं लेकिन संवाद को आगे बढ़ाने में यही शब्‍द बाधा भी बन जाते हैं.

हम ऐसे शब्‍दों का प्रयोग करते हुए खुद तो आलसी बने रहते हैं और सोचने का बोझ सामने वाले के कंधे पर डाल देते हैं.

ये शब्द हमें विचारों के दायरे में आलसी बनाकर हमारे लिए सोचने का ढोंग करते हैं.

मैं कभी-कभार क्‍लास में नागराज मंजुले की फ़िल्‍म फैन्‍ड्री दिखाती हूं ताकि जाति, बचपन, शैशव आदि पर कुछ बहस शुरू हो सके. फैन्‍ड्री में एक दलित युवा, एक ऊंची जाति से आने वाली लड़की से प्यार करने लगता है. दोनों एक ही क्‍लास में पढ़ते हैं. लड़के को लगातार अपनी पहचान से जूझना पड़ता है जो उसके प्रेम प्रसंग के आड़े आती है.

वह सपनों में लड़की की आंखों में अपने लिए प्यार और स्‍वीकार्यता ढूंढता है.

ऐसे सपनों में वह खुद को जींस पहने हुए लंबा और गोरा पाता है. मुझे जब कभी प्रेम पर बात करनी होती है तो क्‍लास में इसी फ़िल्‍म का सहारा लेती हूं.

दिलचस्‍प बात है कि यह फ़िल्‍म 2014 के वैलेंटाइन डे को रिलीज़ की गई थी. यह बात जब मैंने क्‍लास में बताई तो मुझसे पूछा गया कि इसमें तो एकदम साफ़ है कि लड़का लड़की को स्‍टॉक (पीछा) कर रहा है, फिर इसे प्रेम कथा क्‍यों कहा गया है? इससे भी ज़्यादा अहम यह है कि फ़िल्‍मकार ऐसी फ़िल्‍म को प्रदर्शित कर के युवाओं को क्‍या संदेश देना चाहता है कि वैलेंटाइन डे पर स्‍टॉकिंग जायज़ है. और हां, हो सकता है कि किसी लड़की को ऐसे ही स्‍टॉक किया जा रहा हो, तो इस फ़िल्म पर बात करने से पहले मैंने कोई चेतावनी संकेत (ट्रिगर वार्निंग) क्यों नहीं जारी की?

इन आपत्तियों को नादान कहकर एकबारगी नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, कि बच्‍चों को तो जाति के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लेकिन इन शब्‍दों के गलत संदर्भ में इस्‍तेमाल से एक किस्‍म की ‘अंग्रेज़ी मीडियम छाप’ ताकत तो बेशक आती है. यह प्रवृत्ति क्‍लासरूम में शिक्षण के माहौल में कोई मदद नहीं करती. शब्‍दों के यह बाण चला देना बस एक हास्‍यास्‍पद भ्रम पैदा करता है कि हमने तो अपना काम कर दिया जबकि ऐसी हरकत जाति के इर्द-गिर्द केंद्रित बहस को कहीं ज़्यादा नुकसान पहुंचाने का काम करती है. चाहे वह फ़िल्म हो अथवा कहानी, कोई अन्य पाठ या फिर क्‍लासरूम, जाति से गाफिल रहने के अधिकार का पूरा उपयोग करते हुए महज़ चुनिंदा चीज़ों के लिए चेतावनी संकेत की मांग करना अज्ञानता को पोषित करता है.

हर दिन हम जो शब्‍द इस्‍तेमाल करते हैं उनसे बेखयाल रहने की जो सुविधा हमें मिली हुई है वह सबको उपलब्‍ध नहीं है. इसीलिए यह सवाल अब पूछा जाना चाहिए कि ये शब्‍द किसी बदलाव के लिए बने हैं या दुनिया के साथ हमारे रिश्‍ते को और ठस बनाने के लिए? क्‍या इनका कोई योगदान है या फिर ये हमें सोचने के कठिन श्रम से बचाते हैं?

हम लोग फ़िल्मों और किताबों के साथ बहुत बेपरवाह किस्‍म का रिश्‍ता कायम करते हैं क्‍योंकि अपने काम के लिए हम कुछेक शब्‍दों के भरोसे बैठे हुए हैं. एक समीक्षा में आपने 15 बार ‘विषाक्त मर्दानगी (टॉक्सिक मेस्क्युलिनिटी)’ का प्रयोग करके यह कैसे मान लिया कि फ़िल्म और उसके दर्शकों के साथ आपका संवाद पूरा हो गया? इन शब्‍दों का प्रयोग करते वक्त हम किसको संबोधित कर रहे होते हैं? हम क्‍यों उम्‍मीद करते हैं कि फ़िल्में हमारी समीक्षाओं से बेहतर हों? किसी तेलुगु या तमिल फ़िल्म को अंग्रेज़ी में 10 बार प्रॉब्‍लमेटिक कह के उसके साथ संवाद कायम न करना क्‍या पर्याप्‍त है?

आखिरी वाक्‍य लिखते वक्‍त मुझे वो कड़वी याद आई कि कैसे मैंने कई बार खुद को अप्रिय हालात पर सोचने से बचाने के लिए ‘सवर्ण’ शब्‍द का प्रयोग किया है. हमारे इर्द-गिर्द की दुनिया भले ही मोटे तौर से जाति-संरचना के माध्‍यम से समझी जाती हो और कठिन हालात से बचने के लिए लोग अपनी सवर्ण पहचान या व्‍यवहार की चाहे कितनी ही ओट लेते हों, फिर भी मेरी खुद से यह पूछने की ज़िम्मेदारी बनती है कि आखिर कैसे और कब मैंने इस शब्‍द के अनायास प्रयोग को अपनी आदत बन जाने दिया.

***

अपनी आजीविका के लिए मैं पढ़ाती हूं. हर बार मेरा पाला जब किसी बिगड़ैल सवर्ण छात्र से पड़ता है, मैं उसे बिगड़ैल सवर्ण छात्र कह कर पल्‍ला नहीं झाड़ सकती. यह इतना आसान भी नहीं है. इससे न तो उसका कुछ भला होगा न ही मेरा. किसी बहस में अपनी ऊर्जा को खपाने से बचने के लिए सवर्ण अर्हता का राग अलाप कर मैं बात को वहीं विराम दे सकती हूं, पर एक शिक्षक के बतौर यह मेरे लिए ठीक नहीं होगा. इसके बजाय एक तार्किक, ठंडे और काव्‍यात्‍मक विकल्‍प की ज़रूरत है. जैसे अचानक लगा एक थप्‍पड़, जो तत्‍काल इस तरह मुक्‍त कर दे जैसे कि संविधान. ‘जाति का उन्‍मूलन’ और संविधान लिखने में ऐसा लगता है कि आंबेडकर ऐसे ही बेजोड़ संकल्‍प से भरे रहे होंगे. वैसी दृढ़ता हमारे विमर्श में गायब दिखती है. मेरे भीतर यही दृढ़ता उस वक्‍त गायब थी जब ट्विटर पर किसी ने, जो खुद सवर्ण नहीं थे, ने मुझसे कहा कि 500 बार सवर्ण… सवर्ण चिल्‍लाने से बेहतर है कि विरोधी को हराने के लिए एक तगड़ा तर्क दे मारा जाए. इसपर मुझे खीझ हुई, गुस्‍सा आया, अपमान भी महसूस हुआ. वह प्रसंग अब भी मेरे दिमाग से गया नहीं है लेकिन अब मैं देख पा रही हूं कि वह सलाह बुरी नहीं थी.

ऐसा कह कर मैं अपने ही खोदे गड्ढे में गिरने को अभिशप्‍त हूं जिससे बाहर निकल पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा, लेकिन मुझे वाकई संदेह है कि यह शब्‍द ‘सवर्ण’ मेरी ज़बान पर कितनी आसानी से बैठा हुआ है और पल भर की राहत मुझे देता है. जब कभी मेरे व्‍यवहार को कोई चुनौती देता है उसे समझने का मेरे पास कोई और तर्क नहीं होता. मैं आदतन ‘सवर्ण’ शब्‍द पर आकर टिक जाती हूं.

आखिर यह समस्‍या क्‍यों है? वैसे तो कोई खास समस्‍या नहीं है, पर समस्‍या तब बन जाती है जब मैं महसूस करती हूं कि बार-बार एक ही शब्‍द के प्रयोग ने कैसे मुझे अपने प्रति अंधा कर डाला है.

अमेरिकी एंथ्रोपॉलिजिस्ट क्लिफर्ड गीर्ज ने कहा था, ‘आप यदि बिना हिंसा के रहना चाहते हैं तो आपको यह अहसास करना होगा कि बाकी लोग भी आपकी ही तरह वास्‍तविक हैं. ‘मैं अकसर इस बारे में सोचती हूं, खासकर तब जब क्‍लासरूम में या सोशल मीडिया में किसी से बहस के दौरान उसे एक मनुष्‍य के रूप में न देखने का लोभ पैदा होता है. दुर्भाग्‍यवश, ऐसा सोचने से मेरा काम बहुत कठिन हो जाता है. मुझे यह बात याद रखनी चाहिए कि जब मैं क्‍लास में पेरूमल मुरुगन की एक लघुकथा पढ़ा रही होती हूं जिसमें एक कुर्सी को लेकर पति-पत्‍नी के बीच झगड़े का प्रसंग है, उस वक्‍त ट्रिगर वार्निंग की मांग करने वाली वह छात्रा (ट्रिगर वार्निंग के लिए ये एक विषमलैंगिक वैवाहिक रिश्ता है) उतनी ही वास्‍तविक होती है जितनी कि मैं – एक शिक्षक, जो हैरानी और चिढ़ से खुद ग्रस्त हो जाती है.

अमेरिकी लेखक फिलिप रॉथ के सन् 2000 में आए उपन्‍यास द ह्यूमन स्‍टेन की कथा में क्‍लासिक्‍स विषय (ग्रीक और लातिन सभ्यता के बारे में) के एक प्रोफेसर से नस्‍लभेद के आरोपों के चलते इस्तीफ़ा ले लिया जाता है. प्रोफेसर कोलमैन सिल्‍क, 14 छात्रों की कक्षा को पढ़ाते थे. छह सप्‍ताह बाद उन्होंने गौर किया कि दो छात्र ऐसे थे जो कभी क्लास में आए ही नहीं. उन्‍होंने क्‍लास में सबसे पूछा कि क्‍या वे इन दोनों को जानते हैं. “वे असल में हैं भी या बस भूत हैं?”

प्रोफेसर को बाद में पता चलता है कि वे दोनों छात्र काले हैं. नस्‍लभेद के आरोपों से हैरान प्रोफेसर ज़ोर देकर कहते हैं कि भूत कहने का उनका मतलब भी भूत से ही था. उनका बचाव यह नहीं था कि उन्‍होंने पहले कभी उन छात्रों को नहीं देखा (इसलिए भूत का प्रयोग नस्‍लवादी नहीं). सिल्‍क ने पॉलिटिकल करेक्‍टनेस की राह चुनने के बजाय ईमानदारी से अपना बचाव किया. वे इस बात पर अड़े रहे कि ‘मैंने भूत कहा था तो उसका मतलब भूत से ही था.’

‘हज़ारवीं बार कह रहा हूं: मैंने भूत कहा था तो मेरा आशय भी भूत होने से ही था. मेरे पिता एक शराबखाने के मालिक थे लेकिन मेरी भाषा में सटीकता पर वे बहुत ज़ोर देते थे. मैंने उनका मान रखा है. शब्‍दों के अर्थ होते हैं – इतना तो सातवीं तक पढ़े मेरे पिता भी समझते थे. अपने ग्राहकों से बहस से निपटने के लिए शराब के काउंटर के पीछे वे दो चीज़ें रखते थे – जुए के पत्ते और एक शब्‍दकोश.’

आज यदि आप अंग्रेज़ी के शब्द ‘स्‍पूक्‍स’ का अर्थ गूगल पर खोजें तो सिलसिलेवार ढंग से तीन अनौपचारिक अर्थ सामने आएंगे (पहला भूत, दूसरा जासूस और तीसरा एक क्रिया – ज़हरखुरानी) और उसके बाद स्‍लैंग (बोलचाल की भाषा) में अर्थ होगा – काले व्‍यक्ति के लिए एक नस्‍लभेदी गाली.

सिल्‍क ने जब भूत कहा तो उनका आशय नस्‍लभेदी गाली से नहीं था. और उन्‍हें यह पता नहीं था कि अनुपस्थित छात्र कौन हैं. जिस दृढ़ता के साथ वे एक आसान बचाव को दरकिनार करते हुए एक कठिन बचाव का रास्‍ता चुनते हैं (यानी शब्‍दों के सटीक मायने) जिसे कोई नहीं समझेगा, यही उनकी त्रासदी है. यह घटना हालांकि पाठकों को शब्‍दानुशासन का एक सबक ज़रूर दे जाती है जो आज के दौर में ऐसा लगता है कि बचा नहीं है.

उन्‍हें बदनाम करने के तमाम प्रयास किए जाते हैं, इस्तीफ़े के लिए भी बाध्‍य किया जाता है और उनके खिलाफ दुष्‍प्रचार अभियान चलाए जाते हैं फिर भी वे अपनी दलील से नहीं हटते. इसकी कीमत उन्‍हें अपनी पत्‍नी की मौत से चुकानी पड़ती है. इसके बावजूद कि उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा गोपनीय सच जो उन्‍हें इन आरोपों से बचा सकता था वो ये था कि वे खुद काले थे. लेकिन, उन्‍होंने इसे ज़ाहिर करने से इंकार कर दिया. काफी पहले उन्‍होंने अपनी यह पहचान छुपा ली थी और कसम खाई थी कि इस राज़ को कभी सामने नहीं आने देंगे.

इस घटना और इसमें बचाव की अपनी दलील से वे किसी क्षमादान की उम्‍मीद नहीं कर रहे थे बल्कि अपनी वह प्रतिष्ठा वापस पाना चाहते थे जो सटीकता के साथ शब्‍दों के प्रयोग के चलते उनसे छीनी जा चुकी थी. उनके पिता शब्‍दों को लेकर बहुत संजीदगी बरतते थे. वे गोरों की कॉलोनी में रहने वाले पहले काले आदमी थे. उन्‍होंने सिल्‍क और उनके भाई-बहनों को ऐसे अनुशासन के साथ पाला था कि अपनी पहचान और परिवार को त्‍यागने के बावजूद सिल्‍क उसके साथ समझौता नहीं कर सकते थे.

सिल्‍क के पिता अपने बच्‍चों की भाषा को लेकर बहुत सतर्क रहते थे. उनके बच्‍चे कभी भी कुत्ते को देखकर भौं-भौं जैसे शब्‍द नहीं बोलते थे. न ही कुत्ते को देख ये कहते कि देखो उस कुत्ते को. इसकी जगह वे कुत्ते की प्रजाति के नाम से उसे पुकारते, जैसे ‘देखो उस बिगल टैरियर को’. उन्‍हें संज्ञाओं में सटीक तरीके से भेद करना और उनके सही नाम लेना सिखाया गया था.

अपनी ज़िंदगी की शुरुआत में ही इन बच्‍चों ने उपयुक्‍त नाम बोलने की क्षमता अर्जित कर ली थी क्‍योंकि मिस्‍टर सिल्‍क अपने बच्‍चों को लगातार खुद अंग्रेज़ी सिखाते थे.

उन्‍होंने ऐसा इसलिए किया क्‍योंकि उनके बच्‍चे अगर अंग्रेज़ों की तरह अंग्रेज़ी बोलेंगे तो उन्‍हें कोई भी कुछ भी नहीं कह सकेगा या कर सकेगा. सिल्‍क मुक्‍केबाज़ बनना चाहते थे, पर पिता ने उन्‍हें नहीं बनने दिया क्‍योंकि वे शब्‍दों से ज़्यादा भरोसा किसी चीज़ में नहीं करते थे. लोगों से वे अपने भाषा-ज्ञान के बल पर निपटते थे. वे चॉसर, शेक्‍सपियर, डिकेन्‍स की भाषा बोलते थे. उन्‍होंने कभी भी गुस्‍से से प्रतिकार नहीं किया.

एक दिन मैं एक रंगकर्मी से बात कर रही थी. उनकी यह बात सुनकर मैं हैरत में पड़ गई कि देश भर के अंग्रेज़ी विभागों ने शेक्‍सपियर को ‘कब्‍ज़ा’ लिया है जबकि शेक्‍सपियर का अंग्रेज़ी शिक्षण से कोई लेना-देना नहीं क्‍योंकि वे थिएटर के आदमी हैं. इस बात पर एकबारगी मेरा मन हुआ कि पतली-ऊंची आवाज़ में हंस दूं. उस वक्‍त मुझे मिस्‍टर सिल्‍क की याद हो आई कि कैसे उन्‍होंने शेक्‍सपियर को अपनी ज़िंदगी में अपनाया था. वे तो सामान्‍य संवाद भी मार्क एंथनी (उनकी कहानी का एक पात्र) की वाक्-शुद्धता के साथ करते थे. शेक्‍सपियर के प्रति उनका ऐसा अगाध प्रेम था कि उन्‍होंने अपने बच्‍चों के नामों के बीच का शब्‍द जूलियस सीज़र के किरदारों पर रख दिया था.

शब्‍दानुशासन, जिसे कोलमन सिल्‍क ज़िंदगी भर बरतते रहे, उन्‍हें बचाने के काम नहीं आ सका. (“अगर मेरी मंशा यह कहने की होती, ‘क्‍या कोई उन्‍हें जानता है, या फिर आप लोग उन्‍हें इसलिए नहीं जानते क्योंकि वे काले हैं?’ – तो मैं यही कहता”)

मैंने पहली बार जब ह्यूमन स्‍टेन उपन्यास पढ़ा, तो मैं मिस्‍टर सिल्‍क और अपने पिता के बीच के साम्‍य को देखकर चौंक गई. जो ज़ोर देकर मुझसे अच्‍छी अंग्रेज़ी बोलने और लिखने को कहते थे ताकि वे अपने बच्‍चों को कॉन्‍वेंट में पढ़ा सकें, भले ही इसके चलते वे चाहे जितना गरीब हो जाएं.

साल भर पहले कार पार्किंग के मसले पर एक पड़ोसी से उनकी बहस हुई, जो पेशे से वकील हैं. वह कन्‍नड़ में गालियां देने के बाद अचानक अंग्रेज़ी में बरस पड़े. इस पर मेरे पिता ने कन्‍नड़ में चिल्‍लाकर कहा, “इंग्लिश निम्मापन माने आस्थी एल्ला” (इंग्लिश तुम्‍हारी बपौती नहीं है). आमतौर से लोग ये बात तब कहते हैं जब वे कहना चाह रहे होते हैं कि ‘मैं भी अंग्रेज़ी बोल सकता हूं’.

अंग्रेज़ी भाषा यहां एक दिलचस्‍प स्थिति में खड़ी दिखती है. एक तरीका तो यह है जब लोग महफ़िल लूटने के लिए इसका धाराप्रवाह प्रयोग करते हैं. दूसरा तरीका इसके विपरीत है जब अंग्रेज़ी एक हथियार की तरह बरतने के काम में आती है जिसके लिए इसे गहराई से सीखना होता है. इसका रेन एंड मार्टिन की अंग्रेज़ी व्‍याकरण वाली किताब से कोई लेना-देना नहीं है. सिल्‍क के पिता उन्‍हें लगातार कहते थे कि तुम्‍हारी अंग्रेज़ी तुमसे कोई नहीं छीन सकता. आंबेडकर भी शायद यही मानते थे. अपने काम में उन्‍होंने इसे दिखाया भी है.

***

शब्‍दों के साथ रिश्‍ता कायम करना और उसे बनाए रखना आज क्‍लासरूम के भीतर याद रखने लायक बहुत मुश्किल बात है. हम जब गुस्‍सा होते हैं तो इस बात का खतरा होता है कि हम समझ ही न रहे हों कि हम किस बात से या किस पर गुस्‍सा हैं. शब्दों के सही प्रयोग के लिए हमें खुद के साथ, अपने दिमाग के साथ रिश्ता बनाना होगा. इंटरनेट के युग में शब्‍दों के स्‍वच्‍छंद प्रयोग का वास्‍तविक खतरा है. यह बोलने की स्‍वतंत्रता या दूसरों को ठेस पहुंचाने के अधिकार की मेरी समझ में कोई निंदा नहीं है. यह तो बस एक अनुस्‍मरण है कि यह दशक कैसा रहा है और पहले के मुकाबले आज क्या हम कहीं ज़्यादा लापरवाही से शब्‍दों के प्रयोग में सुविधा महसूस कर रहे हैं.

इसका उलटा यह होगा कि हम सोचें, और जिसका मुझे डर है कि अब मैं ऐसा नहीं कर पाती. इसका उल्टा यह भी है कि हमें और मेहनत करनी चाहिए. मैं अब इतनी मेहनत भी नहीं कर पाती. यह अहसास हालांकि जितनी तेज़ी से आया उतनी ही तेज़ी से उड़ भी गया. इसी साल अप्रैल में मैं ‘वानम कला महोत्‍सव’ में एक मित्र से शिकायत कर रही थी कि अध्‍यापन आज कितना खिझाने वाला काम हो गया है. ऐसा लगता है कि क्‍लास में आप ऐसे ट्विटर समुदाय के साथ हैं जिसे म्‍यूट भी नहीं किया जा सकता. यह बात मैंने कही ही थी कि उद्घाटन में आए पी.ए. रंजीत ने कहा, ‘दलितों को मेहनत से डर नहीं लगता, डरना वे गवारा नहीं कर सकते.’

इसके बाद पूरा समय मैंने अपनी नज़रें झुकाकर गुज़ारा.

इस लेख का अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है.

विजेता कुमार बंगलोर के सेंट जोसेफ कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाती हैं. वो https://rumlolarum.com/ पर लिखती हैं. लड़कियों के साथ खिलखिलाती हैं और ठुकराए हुए के साथ खड़ी होती हैं.

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