जब हमने नारीवादी नज़रिए से अपराध को देखने के बारे मे सोचा तो पहला सवाल यही था कि आखिर इसका मतलब क्या है? अपराध से हम क्या समझते हैं? हमारी मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणालियां – कानून, अदालतें और संस्थाएं – जो अपराध और न्याय की प्रक्रिया को परिभाषित करती हैं उनकी सीमाएं क्या हैं? क्या अपराध को देखने की अन्य कल्पनाएं भी हो सकती हैं? और किस तरह के विरोधाभास हमें दिखाई देते हैं?
इस संस्करण में हम हिंदी की मूल कहानियों के ज़रिए भी अवधारणाओं पर बात करने की कोशिश कर रहे हैं. इस कड़ी में पेश है दूसरी कहानी – दिल्ली की दीवार. इस कहानी के लेखक हैं प्रतिष्ठित एवं चर्चित साहित्यकार उदय प्रकाश. यह कहानी वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह – ‘दत्तात्रेय के दुख’ में संकलित है. यह कहानी अंग्रेज़ी सहित कई अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित हो चुकी है.
दिल्ली कल्पनाओं और जगमगाती रौशनियों का शहर. तमन्नाओं और चाहतों का शहर. विस्थापन के दंश के साथ जीता शहर, तो सपनों के टूटने और पूरे होने का शहर. आकर्षण और इससे दूर भागने की कशमकश, ये सब एक ही शहर के भीतर हैं. लेकिन शहर किसकी जुबान में बात करता है, किसकी परेशानियों का हल बनता है, किसे अपने घेरे से दूर हाशिए पर धकेल देता है और किसके लिए नए रास्ते खोलता है? दिल्ली की दीवार कहानी शहर की धमनियों में दौड़ते उन चेहरों की कहानी है जो शहर को ज़िंदा रखने का काम करते हैं लेकिन वो किसी को दिखाई नहीं देते. वो शहर से अचानक गायब हो जाते हैं और कोई उनके बारे में नहीं जानता, उनके पीछे उस जगह पर बस होती है – ‘थोड़ी सी गीली, नमी मिट्टी’.
यह कहानी दरअसल एक ओट है, जिसके पीछे छुपा हुआ मैं एक रहस्य के बारे में आपको बताना चाहता हूं. क्योंकि जैसी स्थितियां हैं, उसमें अफवाहें ही सूचनाओं की शक्ल में आप तक पहुंच रही हैं. और स्थितियां ऐसी भी हैं कि पता नहीं कब मैं अपने समय में अचानक अनुपस्थित हो जाऊं.
पान की दुकान से खुलती सुरंग की नागरिकता, फकीर के आंसू और थूक
मेरे फ्लैट से संजय चौरसिया के पान के ठेले की दूरी आधा किलोमीटर से भी कम थी. उसके ठेले के बगल में ही रतनलाल का चाय का ठेला था. संजय प्रतापगढ़ के पास के एक गांव बीसीपुरा से दिल्ली आया था और चाय वाला रतनलाल सासाराम से. दोनों की दुकानें ठेले पर इसलिए थीं कि अगर कभी म्युनिसिपैलिटी वाले इधर आसपास दिखें तो फौरन ठेला घसीटते हुए यहां से रफूचक्कर हो लिया जाए. हालांकि मोटरसाइकिल पर गश्त लगाते पुलिस वाले अक्सर उधर से निकलते रहते थे, लेकिन उनसे खतरा कम था क्योंकि उनका हफ्ता बंधा हुआ था. चाय वाला रतनलाल पुलिस को पांच सौ और संजय साढ़े सात सौ रुपये महीना देता था. ‘‘चैन है. कहीं पक्की दुकान लेते तब भी तो किराया देना ही पड़ता! है कि नहीं? जब आदमी दाल-रोटी खाता है, तो चार गस्से (कौर) कुत्ते को भी तो डालता है. है कि नहीं?’’ संजय मुस्कराते हुए कहता. लेकिन जीवन किसका कुत्ते जैसा है? यह मैं सोचने लगता.
वहां और भी रेहड़ीवाले थे. दस कदम हटकर साइकिल का पंक्चर लगाने वाला मदनलाल, उसके सामने सड़क की दूसरी ओर मोची देवीदीन, कुछ आगे जाकर स्कूटर और ऑटो की मरम्मत करने और पंक्चर लगाने वाला संतोष. संतोष सीतामढ़ी से चार साल पहले दिल्ली आया था. मदनलाल और देवीदीन पास से ही, हरियाणा के किसी गांव से, यहां तक आते थे. वे ज़मीन पर ही अपना ठीया जमाते थे. शाम होते-होते क्वालिटी आइसक्रीम वाला ब्रजेन्दर भी अपना बिजली और ग्लास फाइबर की बॉडी वाला, अंग्रेज़ी में लिखा, रंगीन ठेला लेकर वहां पहुंच जाता था. शाम को वहां उबले अंडे बेचने वाली राजवती अपने पति गुलशन और तीन बच्चों के साथ आ जाती थी. उसकी दुकान से कुछ पीछे ईंटों की दीवार का एक अहाता था. वह जगह सुनसान होती थी. रात में वहां कार वाले आ जाते और गुलशन से ह्विस्की या रम मंगाते. तब तक शराब की सरकारी दुकानें बन्द हो चुकी होती थीं इसलिए गुलशन साइकिल से जाकर कहीं से ब्लैक में अद्धा या पौवा लाता. कुछ ग्राहक उबले अंडे के अलावा चिकन टिक्का भी मंगाते. अगली लालबत्ती के पास सरदार सत्ते सिंह के ठेले में वह मिलता. गुलशन वह भी लाता. उसे टिप में थोड़ी-सी शराब और कुछ रुपए मिल जाते. राजवती उसको पीने से मना नहीं करती थी, क्योंकि फोकट में मिलने वाली अंग्रेज़ी शराब, अपने पैसे से खरीदकर मिलने वाले लोकल ठर्रे से लाख गुना अच्छी थी. ठर्रे के पाउच में मिलावट होती थी, जिसे पीकर कई बार लोग या तो अंधे हो जाते थे या मर जाते थे. उस जगह पर रिक्शे वाले भी सुस्ताने और सवारियों के इंतज़ार में आकर खड़े हो जाते थे. इसलिए वहां चहल-पहल लगी रहती. ज़्यादातर रिक्शे वाले बिहार और उड़ीसा के होते थे. कुछ दिनों तक अहाते के पास ही नालंदा से आया हुआ तुफैल अहमद अपनी सिलाई मशीन लेकर बैठने लगा था. तुफैल अहमद के रहने का कोई ठीक पता-ठिकाना नहीं था, इसलिए उसके पास सिलाई का कपड़ा कोई नहीं छोड़ता था. ज़्यादातर स्कूली बच्चों के बस्ते या मज़दूरों और रिक्शेवालों की तुरपाई और ‘आल्टर’ का काम ही उसके पास आता. इन दिनों लगभग पंद्रह-बीस दिनों से वह वहां नहीं आ रहा था. कोई कहता था वह बीमार है, कोई कहता वह नालन्दा लौट गया और किसी का कहना था कि यहां आते हुए रास्ते में वह किसी ब्लू लाइन बस के नीचे आ गया और मर गया. उसकी सिलाई मशीन थाने के पिछवाड़े पड़ी हुई है. इसी तरह राजवती के अंडे के ठेले के पास रात में उबला चना मसाला और दिन में छोले कुलचे बेचने वाली नत्थो और उसके पति मांगेराम का पता कई महीने से नहीं चल रहा था. किसी ने बताया था कि मांगेराम के पेट में कैंसर हो गया था, जिसकी दवा-दारू में नत्थो बरबाद हो गई और उसके मरने के बाद अपने दोनों बच्चों के साथ जमुनापार के किसी कुलचे वाले के पास चली गई.
यहां ऐसा ही होता था. यह किसी नियम जैसा था. यहां हर रोज़ आने वाला आदमी अचानक ही एक दिन अनुपस्थित हो जाता और फिर भविष्य में कभी नज़र न आता.
इनमें से अधिकांश लोगों का निश्चित पता नहीं होता था कि उनके बारे में कोई जानकारी हासिल की जाए. उदाहरण के लिए राजवती अपने पति गुलशन और बच्चों के साथ यहां से चार किलोमीटर आगे, बाइपास के करीब, एक सोलहवीं सदी की इमारत के खंडहर में रहती थी. करनाल और अमृतसर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग से कभी आपने अगर उत्तर की ओर नज़र दौड़ाई हो, जिस तरफ निकासी का गंदा नाला बहता है, तो उसके किनारे उस गोल गुम्बद वाली पुरानी इमारत को आपने ज़रूर देखा होगा. काई लगे मटैले पत्थरों और कत्थई पुरानी ईंटों वाली गुम्बददार टूटी-फूटी इमारत. कोई सोच नहीं सकता कि वहां कोई आदमजाद रहता भी होगा. दिल्ली से लाहौर यानी हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाने वाली मशहूर ‘सद्भावना’ बस इसी हाइवे से होकर गुज़रती है. उस खंडहर में और लोग भी रहते थे. लेकिन ज़्यादातर परिवार वाले ही थे. सिर्फ दो लोगों को छोड़कर. एक था रिज़वान, जिसका दाहिना पैर और दायां हाथ कोढ़ से गल गया था और दूसरा सनेही राम, जो इतना बूढ़ा हो गया था कि नाले के पास ही उगे एक नीम के पेड़ के नीचे दिन भर सोता रहता था.
सनेही राम को रामचरितमानस और सूरसागर पूरा याद था. ढोला-मारू की कथा और आल्हा वह ऐसे गले से गाता था कि सुनने वाले को रोमांच हो जाता था. उस खंडहर में रहने वाले परिवारों में से ही कोई न कोई उसे रोटी दे जाता था. रिज़वान सुबह-सुबह बाइपास की तरफ चला जाता, वहीं गोपाल धनखड़ के ठेले में चाय पीता, मट्ठी या बंद खाता और बस स्टॉप पर बैठ कर शाम तक भीख मांगता. भीख अच्छी मिल जाती थी. रिज़वान के चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी थी और उसका चेहरा देखकर फिल्म काबुलीवाला के बलराज साहनी की याद आती थी. सोलहवीं सदी के उसी खंडहर में राजवती की बहन फूलो, आज़ादपुर सब्ज़ीमंडी के निकास फाटक पर मूंगफली बेचने वाले जगराज की पत्नी सोमाली और लालकिले के आसपास चरस बेचने वाले मुस्ताक की फुफेरी बहन सलीमन, जो अब उसकी पत्नी भी थी, रहती थीं. वे तीनों धंधा करती थीं. सोमाली तो खंडहर में ही रहकर, वहां अक्सर आ जाने वाले स्मैकिए, तिलक, भूसन और आज़ाद के लाए हुए ग्राहकों को निपटाती थी लेकिन सलीमन और फूलो शाम को रिक्शा लेकर सड़क पर ग्राहकों की खोज में भी घूमती थीं. फूलो कभी-कभी ‘पार्टी’ में भी रात-रात भर के लिए बाहर जाया करती थी. फूलो कभी-कभी आज़ाद के साथ सोती भी थी, हालांकि इसके लिए उसकी बहन राजवती और बहनोई गुलशन ने मना कर रखा था. ‘घर के लोगों के साथ न धंधा, न उधारी’ यह गुलशन कहा करता था.
गुलशन, राजवती और फूलो इस खंडहर के निवासियों में सबसे अमीर थे और पिछले साल भर से, जब से फूलो गांव से यहां रहने आ गई थी और धंधा करने लगी थी, उनकी कमाई इतनी बढ़ गई थी कि वे लोनी बार्डर की तरफ घर बनाने के लिए प्लॉट देखने कई बार जा चुके थे.
‘‘अगर तू वहां गई, तो मैं भी उसी तरफ कोई काम पकड़ लूंगा’’-यह आज़ाद ने कहा था, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उसका शरीर लगातार कांपता रहता था और रात में वह ऐंठने लगता था. गुलशन ने कहा था, अब यह ज़्यादा दिन नहीं चलेगा. सारे स्मैकियों की यही गत होती है.
आज़ाद का चेहरा किसी बच्चे की तरह मासूम था. उसका रंग गोरा था. तिलक कहता था कि आज़ाद फतेहपुर के किसी ज़मींदार घर का लड़का है. मां-बाप मर गए तो भाई और भाभी ने सारी ज़मीन जायदाद पर कब्ज़ा कर लिया. भाई के साले ने ही साजिश के तहत उसे स्मैक की लत लगा दी फिर उसकी ऐसी हालत कर दी कि उसे अपने घर से भागना पड़ा. कहते हैं आज़ाद पहले किताबें बहुत पढ़ता था. मैंने आज़ाद से देर-देर तक बात की थी. वह बहुत साफ-सुथरी जुबान बोलता था. विदेशी परफ्यूमों और देशी इत्र तथा घोड़ों के बारे में उसकी जानकारी से मैं दंग रह जाता था. किससे कैसी बात की जाए, इसका पूरा इल्म उसे था. स्मैक की लत के अलावा उसके पूरे व्यक्तित्व में दूसरा कोई भी ऐब नहीं था. लेकिन अब पिछले कुछ दिनों से उसका शरीर इस तरह कांपने लगा था, जैसा मलेरिया के तेज़ बुखार में कांपा करता है. या जैसा परकिंसन रोग में.
मैं भीतर-भीतर अच्छी तरह जानता था कि एक दिन जब मैं उस खंडहर की तरफ पहुंचूंगा, तो फूलो, तिलक, भूसन या सलीमन में से कोई कहेगा, “पता है विनायक, चार दिन से आज़ाद नहीं दिख रहा. चार रोज़ पहले सवेरे-सवेरे गया था, फिर आज तक लौटा ही नहीं. तुमको तो नहीं दिखा कहीं?’’ यही होता है इन सबके साथ. आज़ाद अब कभी नहीं लौटेगा. लेकिन मैं? मैं विनायक दत्तात्रोय! मैं भी यहां कितना सुरक्षित हूं? मेरे हालात ऐसे हो गए हैं कि मैं एक डरावनी बेरोज़गारी में घिरा हुआ घंटों उसी पनवाड़ी के ठेले के पास बैठा रहता हूं. निकम्मा, बेचैन और बदहवास. तो, मैं दरअसल अब उसी जीवन का हिस्सा था. घर लौटने पर बेटे और बीवी की आंखों के ताब का सामना करने की हिम्मत मेरे भीतर नहीं बची थी. रात में जब मेरा बेटा रोटी के कौर मुंह में रखकर धीरे-धीरे चबाता तो मुझे लगता, वह किसी अंधेरे की सीढ़ियां उतर रहा है और मैं अब भविष्य में उसका चेहरा कभी नहीं देख पाऊंगा. मेरे भीतर की आत्मा जैसी चीज़ चुपचाप रोती. मैं इस दुर्भाग्य के लिए जितनी बार अपने भीतर कमियां ढूंढ़ने की कोशिश करता, यकीन मानिए, मुझे सारी खामियां इस समूचे तंत्र में दिखाई पड़तीं, जिसको बनाने में निश्चित ही किन्हीं शैतानों का हाथ था. यह तय था कि अचानक एक किसी दिन मैं भी इस नुक्कड़ पर दिखना बंद हो जाऊंगा.
जिन्नातों और दौलतमन्दों के इस शहर दिल्ली से ऐसे ही गायब होते हैं दरवेश, गरीब, बीमार और मामूली लोग. फिर वे कभी नहीं लौटते. वे कहीं नहीं लौटते. इस शहर में उनकी स्मृतियां तक नहीं बाकी रहतीं.
वे किसी बदकिस्मत फकीर के आंसू की तरह होते हैं, जो जब जाता है, तो उस जगह की ज़मीन पर, जहां उसका वजूद होता था, सिर्फ एक छोटी-सी नमी और थोड़ा-सा गीलापन छोड़ जाता है. यह नमी उसके वक्त के अन्याय के बरक्स उसके खामोश आंसुओं और थूक की होती है. इतिहास की खंडित मूर्तियां और कोरोनेशन पार्क से निकलता विशाल झुंड लेकिन लगता है, हम भटक गए थे.
बात मेरे फ्लैट से थोड़ी ही दूर, नुक्कड़ के संजय चौरसिया के पान ठेले की चल रही थी और हम इधर बाइपास के करीब 16वीं सदी के खंडहर तक आ पहुंचे. लेकिन असलियत यही है कि अगर आप अपने फ्लैट से बाहर निकल कर किसी भी नुक्कड़ की ज़िंदगी को गौर से देखें तो आप धीरे-धीरे एक ऐसी सुरंग में दाखिल हो जाएंगे, जहां एक बिल्कुल अलग ही आबादी बसती है. यहां एक अलग तरह की नागरिकता का निवास होता है. यहां के हादसों और घटनाओं की कोई खबर अखबारों में नहीं छपती. दरअसल अखबार होते ही इसीलिए हैं कि वे यहां की खबरों और हादसों को छुपाएं. अगर आप दिल्ली में हैं और कोई ऐसा जीवन जी रहे हैं, जिसमें अक्सर रात भर नींद नहीं आती और आप अचानक तीन या चार बजे उठकर सड़कों पर यों ही भटकने लगते हैं, तो आपने कभी-न-कभी ‘किंग्स वे कैंप’ से राजघाट की ओर जाने वाली सड़क का दृश्य ज़रूर देखा होगा. किंग्स वे कैम्प का नाम अब बदलकर विजयनगर कर दिया गया है. अगर आप विजयनगर चौराहे से अंदर की ओर, निरंकारी कॉलोनी या मुखर्जी नगर जाने वाली सड़क पर चलें, तो धीरे-धीरे उस उजाड़-सी जगह तक पहुंच जाएंगे, जिसे ‘कोरोनेशन पार्क’ के नाम से जाना जाता है.
हालांकि अब उसे एक खूबसूरत बड़े से पार्क में बदल दिया गया है, लेकिन यही वह जगह है, जिसके आधार पर यह इलाका ‘किंग्स वे कैम्प’ के नाम से जाना जाता है. कहते हैं कि अंग्रेज़ों के ज़माने में जब जॉर्ज पंचम या चार्ल्स, पता नहीं दोनों में से कौन, हिंदुस्तान आए थे, तो यहां की देशी रियासतों के राजा-रजवाड़ों के कैम्प इसी जगह पर लगे थे. वे विलायत के अपने सम्राट का स्वागत करने यहां इकट्ठा हुए थे. कहते हैं कि वह स्वागत कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा अभी कुछ साल पहले अमेरिका के प्रेसिडेंट बिल क्लिंटन का स्वागत था. इसी जगह पर देशी रियासतों के राजा-रजवाड़ों ने अपने अंग्रेज़ सम्राट का राज्याभिषेक किया था, जिसे अंग्रेज़ी में ‘कोरोनेशन’ कहते हैं और विलायती सम्राट ने यहां जो भाषण दिया था, उनके जाने के बाद उसे राष्ट्रीय अभिलेखागार में रख दिया गया था. भाषण की उस प्रति को हिंदुस्तान के इतिहास का एक अहम दस्तावेज़ माना जाता है. इसके अलावा, सम्राट की एक मूर्ति इंडिया गेट के बीचों-बीच एक खूबसूरत छतरी के नीचे खड़ी कर दी गई थी. बाद में, जब 1947 में अंग्रेज़ इंगलैंड लौट गए, तो वह मूर्ति, अंग्रेज़ हुक्मरानों की दूसरी तमाम मूर्तियों के साथ, इसी किंग्स वे कैम्प के कोरोनेशन पार्क में रख दी गई. आज़ादी के बाद के सालों में यह पार्क धीरे-धीरे भिखमंगों, पागलों, कोढ़ियों, लूले-लंगड़ों, नशेड़ियों और लावारिस अनागरिक मनुष्यों की आवारा आबादी का अड्डा बन गया. चूल्हा, चक्की, घन, हथौड़ा, सिल-बट्टा और पता नहीं किन-किन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इन लोगों ने सम्राट् समेत सारे अंग्रेज़ हुक्मरानों की मूर्तियों के अंग-भंग कर डाले. कोई सम्राट का सिर तोड़कर ले गया, कोई हाथ, कोई पैर. बाकी मूर्तियां भी अब सिर्फ डरावने धड़ों के रूप में यहां-वहां ज़मीन पर बेतरतीब उगी जंगली घास और झाड़ियों के बीच, बिखरी पड़ी थीं.
रात घिरते ही समूची दिल्ली के कोने-कोने से ऐसे लोगों की आबादी इस पार्क में सिमट आती और जगह-जगह बिखरी इन्हीं खंडित मूर्तियों के बीच सो कर, रात गुज़ारती.
तो, जैसा मैंने कहा कि अगर आप दिल्ली में हैं और एक ऐसी ज़िंदगी जीते हैं, जिसमें अक्सर आशंकाओं की कोई अंतहीन डरावनी फिल्म सारी रात आपके दिमाग के भीतर चलती रहती है और किसी बेचैनी और बदहवासी में घिर कर आधी रात या बिल्कुल तड़के आप यहां की सड़कों पर बेमकसद भटकने लगते हैं तो आपने किंग्स वे कैम्प के कोरोनेशन पार्क से निकलकर धीरे-धीरे मालरोड पर राजघाट की ओर रेंगते मनुष्यों के उस अपार झुंड को ज़रूर देखा होगा.
रात का अंधेरा अभी पूरी तरह मिटा नहीं होता, सुबह का कोहरा दृश्य में एक धुंधला रहस्य भरता रहता है और आप देखते हैं कि फेलिनी या अन्तोनियोनी की किसी फिल्म के किसी सुपरयलिस्ट शॉट की तरह टूटे-फूटे, विकलांग, अपाहिज, क्षत-विक्षत, आधे-अधूरे मनुष्यों का विशाल झुंड राजधानी की ओर चुपचाप बढ़ रहा है. लगता है पिछली सदी के किसी महायुद्ध में किसी शहर पर हुई भयावह बमबारी के बाद जीवित बचे घायल और विकलांग लोगों की आबादी उस संहार के मलबे से निकल कर किसी सुरक्षित जीवन की शरण की ओर बढ़ रही है. किसी अंतिम अरण्य की ओर. यहां से रेंगते हुए, वे सूरज के निकलते-निकलते, समूची राजधानी के कोने-कोने में बिखर जाते हैं. उन्हें आप स्टेशन, बस अड्डे से लेकर दरगाहों, मंदिरों और शहर के हर चौराहे और पटरियों पर देख सकते हैं. यह आबादी झुग्गियों में रहने वाली आबादी से बिल्कुल अलग है और उसकी जनसंख्या आज़ादी के बाद लगातार बढ़ती गई है. संजय चौरसिया के पान वाले ठेले के पास के नुक्कड़ पर कभी-कभार रंगीन कागज़ के फूल और हवा में घूमने वाली फिरकियां बेचने वाली कानी और सफेद कोढ़ से भरे चित्तीदार चेहरे वाली रुपना मंडल भी किंग्स वे कैम्प के उसी कोरोनेशन पार्क से आती है. उसके साथ-साथ कभी-कभी आने वाला बिना बांहों वाला सात-आठ साल का बच्चा सोहना भी उसी अनधिकृत आबादी का हिस्सा है.
तो देखा न आपने कि कैसे संजय चौरसिया के पान ठेले वाले नुक्कड़ से जो सुरंग शुरू होती है, वह बाइपास के खंडहर से होती हुई किंग्स वे कैम्प तक और फिर वहां से समूची राजधानी के कोने-कोने तक विस्तृत हो जाती है. अगर आप इस सुरंग में दाखिल हो जाएं और चुपचाप चलते चले जाएं, तो आप पाएंगे कि यह सुरंग ज़मीन के भीतर-भीतर पूरे मुल्क और समुद्र के भीतर-भीतर से गुज़रती हुई समूची दुनिया तक फैलती जाती है. यह एक अलग प्रकार का भूमंडलीकरण है, जो इतने अदृश्य और गोपनीय तरीके से हो रहा है कि इसके बारे में कोई भी समाजशास्त्री अभी ज़्यादा नहीं जानता. जो जानते हैं, वे चुप रहते हैं और आने वाले समय का इंतज़ार कर रहे हैं. लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि इस सुरंग की शुरुआत संजय चौरसिया की जिस दुकान से होती है, वह दुकान मेरे फ्लैट से बस कुछ ही कदमों की दूरी पर है. बिलकुल मुमकिन है कि आप अपने फ्लैट या अलग-थलग बने किसी मकान से बाहर निकलकर किसी ऐसे ही ठेले या रेहड़ी के पास के जमघट को गौर से देखें तो इस सुरंग का कोई मुहाना आपको भी मिल जाए.
रामनिवास से भेंट और रहस्य की शुरुआत
इसी नुक्कड़ पर मेरी मुलाकात रामनिवास पसिया से हुई थी. वह इलाहाबाद के हंडिया तहसील के एक गांव शाहीपुर से बीस साल पहले अपने पिता बबुल्ला पसिया के साथ दिल्ली आया था. बबुल्ला पहले रोहतक रोड के एक ढाबे में बरतन मांजने का काम करता था, फिर आगे चलकर उसने तंदूरी रोटी बनाने और दाल सब्ज़ी में तड़का लगाने का काम सीख लिया. पांच साल पहले उत्तर-पश्चिम दिल्ली के समयपुर बादली गांव की झुग्गी बस्ती में उसने भी अपनी एक झुग्गी डाल ली थी और इस तरह उसका परिवार दिल्ली का निवासी बन गया. हालांकि वह बस्ती, जहां उसकी झुग्गी थी, अनधिकृत बस्ती थी और कभी भी उस पर म्युनिसिपैलिटी का बुलडोज़र चल सकता था लेकिन पिछले साल चुनावों के बाद राशन कार्ड बन जाने के बाद यह उम्मीद बन गई थी कि अब उन्हें यहां से हटाया नहीं जाएगा.
रामनिवास पसिया की उम्र मुश्किल से सत्ताइस-अट्ठाइस साल की थी. इस इलाके के पार्षद रामलाल शर्मा की सिफारिश से उसे नई दिल्ली नगरपालिका में अस्थायी सफाई कर्मचारी का काम मिल गया था. उसकी ड्यूटी दक्षिणी दिल्ली के साकेत इलाके में लगी थी. सुबह आठ बजे एक झोले में वह प्लास्टिक की टिफिन के भीतर रोटियां रखकर डी. टी. सी. की बस से धौलाकुआं के लिए निकल जाता और फिर वहां से दूसरी बस लेकर साकेत पहुंचता. दफ्तर में हाज़िरी लगाने के बाद वह अपनी झड़ाई और सफाई का दूसरा सामान लेकर उस इलाके में पहुंच जाता, जहां उसकी ड्यूटी होती. दोपहर भूख लगती, तो किसी कुलचे वाले से दो रुपए के छोले लेकर घर से लाई रोटी के साथ भरपेट खा लेता. रोटियां उसकी पत्नी बबिया बनाती थी. बबिया से उसकी शादी तब हुई थी, जब उसकी उम्र सत्राह वर्ष की थी. अब वह दो संतानों का पिता बन चुका था. एक बेटा और एक बेटी. अगर एक बेटा मर न गया होता, तो यह संख्या तीन होती. रामनिवास से मेरी मुलाकात संजय के ठेले के पास ही हुई थी. हमारे इलाके में उसके अक्सर आने की एक खास वजह थी. दरअसल उसका सुषमा नाम की लड़की से कुछ चक्कर चल रहा था. सुषमा घरों में बरतन-कपड़े का काम करती थी और समयपुर बादली से रोज़ यहां आती थी. रामनिवास उसके साथ-साथ कई बार आ जाता और जब तक वह घरों में काम करती, तब तक वह संजय के ठेले से बीड़ी या सिगरेट खरीदकर सुट्टे खींचता या रतनलाल के ठेले पर चाय पीता. सुषमा की उम्र मुश्किल से सत्राह-अट्ठारह साल की रही होगी, यानी वह रामनिवास से कम से कम दस वर्ष छोटी थी.
सांवले रंग के रामनिवास का शरीर इकहरा था और अगर फिल्मी एक्टर जितेंद्र थोड़ा काला, दुबला और गरीब हो जाता तो वह बिलकुल रामनिवास की तरह ही दिखता.
सुषमा को कल भी मैंने देखा था. वह आज भी हमारे इलाके के कई घरों में काम करती है. वह अभी भी पहले की तरह ही हर रोज़ यहां आती है. लेकिन रामनिवास? रामनिवास कई महीने से इस नुक्कड़ पर नहीं दिखा. अब वह कहीं नहीं दिखेगा. सुषमा भी उसका कोई ज़िक्र नहीं करती. मैंने पहले ही बताया था कि यह एक ऐसा जीवन है, जिसमें कभी भी, हर रोज़ दिखाई देने वाला आदमी, एक दिन अचानक अनुपस्थित हो जाता है. फिर वह कभी नहीं दिखता. बाद में उसकी स्मृति भी बाकी नहीं बचती. अगर आप उसे खोजना भी चाहें तो उस ज़मीन पर, जहां कभी उसका अस्तित्व हुआ करता था, वहां पर थोड़ा-सा गीलापन, ज़रा-सी नमी भर आपको मुश्किल से मिलेगी, जो इस तथ्य का प्रमाण होगी कि इस जगह पर कभी न कभी एक मनुष्य का जीवन ज़रूर हुआ करता था, जो अब नहीं रहा. जो अब कभी नहीं होगा. मैं आपको उसी रामनिवास के बारे में संक्षेप में बताना चाहता हूं. यानी रामनिवास के न होने का साधारण-सा वृत्तान्त. और इसी में उस रहस्य का पहला छोर मौजूद है, जिसे जानना, इस समय हम सबके लिए, बहुत ज़रूरी है.
पिछले से पिछले साल की मई की पच्चीस तारीख थी. दिन था मंगलवार. उस रोज़ हमेशा की तरह रामनिवास सुबह साढ़े सात बजे अपने घर से तैयार होकर साकेत जाने के लिए निकला. उसके घर से साकेत की दूरी लगभग 42 किलोमीटर थी. उसकी पत्नी बबिया ने उसके झोले में आज रोटियों वाले प्लास्टिक के टिफिन डिब्बे के अलावा स्टील का एक डिब्बा और भी रखा था. उसमें आलू और छोले की मसालेदार सब्ज़ी थी, जो रामनिवास को बहुत पसंद थी. रामनिवास जब बस स्टॉप पहुंचा तो वहां सुषमा पहले से ही खड़ी थी. उसने आज अपना लाल चित्तियों वाला सलवार-सूट पहन रखा था और चेहरे पर क्रीम लगा रखी थी. वह सुंदर लग रही थी. पिछले हफ्ते, शनिवार के दिन वह रामनिवास के साथ पहली बार फिल्म देखने अल्पना सिनेमा गई थी और इंटरवल में दोनों ने बाहर चाट-पापड़ी खाई थी. सिनेमा हाल के भीतर और बाद में घर लौटते हुए बस में, रामनिवास उसके साथ लगातार सटा जा रहा था. वह उसे हामी भरने के लिए ज़िद कर रहा था. सुषमा लगातार टाल रही थी, लेकिन बस से उतरकर जब वह अपने घर जा रही थी, तो मोड़ पर रामनिवास ने कहा था कि अगर वह मंगलवार को सवेरे इस बस स्टॉप पर नहीं मिली तो सब खतम. मतलब कि वह रामनिवास को पसंद नहीं करती. आज मंगलवार ही था. हर रोज़ सुबह नहाने के बाद वह बबिया से रात की बची बासी रोटी मांग कर खा जाता था. आज उसके पेट में भूख की जगह एक अजब-सी बेचैनी भरी हुई थी, जिसे वह बबिया से छुपाने की लगातार कोशिश कर रहा था. घर से निकलते हुए उसका दिल डूब-सा रहा था. रामनिवास को अक्सर संदेह रहता था कि सुषमा उसको लेकर कई तरह की दुविधाओं से गुज़र रही है. इसीलिए आज उसे बस स्टॉप पर पहले से खड़ा देखकर वह इतना ज़्यादा खुश हुआ था कि सुषमा से बस की बजाय ऑटोरिक्शा से चलने की ज़िद करने लगा. बहुत ज़िद करने पर भी सुषमा इसके लिए तैयार नहीं हुई. ‘‘फालतू पैसा फेंकने और कमाई में आग लगाने से क्या फायदा? ऐसे ही चलते हैं.’’ ऐसा सुषमा ने कहा. रामनिवास इससे निराश हुआ क्योंकि उसका इरादा ऑटोरिक्शा की पिछली सीट पर सुषमा से चिपकने और उससे छेड़-छाड़ करने का था. इसके बावजूद चूंकि सुषमा ने आज बस स्टॉप पर आकर एक तरह से रामनिवास के लिए हामी भर लेने का सिग्नल दे दिया था, इसलिए उसका दिल बल्लियों उछल रहा था. वह सचमुच बहुत खुश था. उसे अपनी अब तक की ज़िंदगी बदली हुई लग रही थी. अपनी पत्नी बबिया से उसकी हर रोज़ चखचख होती रहती थी. वह बच्चों को संभालने और घर के काम से ही फुरसत नहीं पाती थी. दोनों बच्चों में से कोई न कोई हमेशा बीमार रहता था. बड़े वाले रोहन को तो उसने शायद ही कभी हंसते और खेलते-कूदते देखा हो. बबिया को रामनिवास की तनख्वाह भी कभी पूरी नहीं पड़ती थी. हालांकि इसमें दोष बबिया का नहीं, उनके परिवार की ज़रूरतों का था, फिर भी रामनिवास को गुस्सा बबिया पर ही आता, ‘‘तुम्हारे हाथ में बरकत नहीं है. गोपाल को देखो. चार बच्चे हैं. मां-बाप हैं. ऊपर से नाते-रिश्तेदार जमे ही रहते हैं. मुझसे कम तनख्वाह है लेकिन तब भी मज़े से गुज़ारा चलता है. और इधर तुम! दिन-रात हाय हाय, हाय हाय.’’ यह वह अक्सर बबिया से कहता. बबिया चुप रहते हुए ऐसी आंख से उसे घूरती, जो सारे दिन रामनिवास के दिमाग के भीतर चुपचाप सुलगती रहती. उसी आंख के कारण वह एक-एक पैसा अपने दांतों में दबाता. भूख लगती तो पेट मसोस लेता. चाय की तलब होती तो किसी के पास तरह-तरह से जुगाड़ जमाता. डी. टी. सी. में अक्सर बिना टिकट सफर करता. वह बबिया की, उसके दिमाग के भीतर हर पल सुलगती आंख ही थी, जिसके कारण रामनिवास कभी हंस न पाता.
उस मंगलवार को रामनिवास ने सुषमा से कहा कि आज वह ड्यूटी से जल्दी लौट आएगा इसलिए वह आज दो बजे तक संजय के ठेले के पास उसका इंतज़ार कर ले. दोनों साथ-साथ वापस लौटेंगे. सुषमा ने हालांकि पहले तो कहा कि वहां पर इंतज़ार करना उसे अच्छा नहीं लगता क्योंकि स्कूटर मेकेनिक संतोष उसके साथ ऐसी-वैसी बात करता है और संजय भी मसखरी करता है लेकिन बाद में वह इसके लिए तैयार हो गई. लेकिन आज पहली बार सुषमा ने रामनिवास से धीरे से यह कहा कि वह साकेत से लौटते हुए, अनुपम सिनेमा के पास से मिर्ची पकौड़ा ज़रूर ले आए. रामनिवास कई बार उससे वहां के मिर्ची पकौड़ा का ज़िक्र कर चुका था. सुषमा ने जब आज उससे ऐसा कहा तो रामनिवास को उसकी आवाज़ में उस पर हक जमाने जैसा अपनापन लगा, जो उसको अच्छा लगा. उसने, ‘‘हां-हां. देखूंगा-देखूंगा.’’ कहकर बड़ी मुश्किल से उस अच्छा लगने को सुषमा से छिपाया.
झाड़ई की मूठ, कोठी का जिम सेंटर और गुरु को घूरता मंगल
रामनिवास उस दिन काफी खुश था और फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ का गाना गा रहा था. उसने दफ्तर में अपनी हाज़िरी लगाने के बाद चोपड़ा साहब से कहा कि आज वह जल्दी घर चला जाएगा क्योंकि बीवी की तबीयत खराब है और उसे अस्पताल ले जाना है. चोपड़ा साहब उस दिन आसानी से मान गए थे, जबकि हमेशा वे इसमें चिखचिख करते थे और छुट्टी की अप्लिकेशन देने की ज़िद करते थे. ‘आज का दिन बहुत किस्मत वाला है.’ ऐसा रामनिवास ने मन में सोचा. वह एक कोठी का बड़ा-सा हॉल था, जिसमें वह झाड़ई लगा रहा था. इसमें झाड़ई लगाना उसकी ड्यूटी में शामिल नहीं था क्योंकि वह कोठी सरकारी नहीं थी लेकिन चोपड़ा साहब ने कहा था कि चूंकि उस कोठी में साहब लोग और उनके बीवी-बच्चे कसरत के लिए और अपना मोटापा कम करने के लिए रोज़ जाते हैं, इसलिए रामनिवास उसको भी साफ कर दिया करे. दरअसल वह एक जिम सेंटर था. उसमें पेट घटाने, चर्बी छांटने, कमर पतली और मोटापा दूर करने वाली तरह-तरह की मशीनें रखी थीं. साकेत में रहने वाले बड़े लोग और उनके परिवार के सदस्य उसमें सुबह-शाम आ जाते और वहां घंटों चहल-पहल रहती. इसी कोठी की पहली मंजिल पर एक ब्यूटी पार्लर और एक मसाज सेंटर भी खुल गया था. अधेड़ और अधबूढ़े रईस मसाज सेंटर में आकर अपनी मालिश कराते और कभी-कभी उनमें से कुछ लड़कियों को अपनी कार में बाहर भी ले जाते. उसने कई पुलिस अफसरों और नेता लोगों को भी यहां आते देखा था. सुनीला नाम की लड़की बाहर जाने का पांच हज़ार लेती थी, ऐसा सामने की नुक्कड़ के चाय वाले गोविंद ने बताया था, ‘‘पता नहीं साले, साहब लोग यहां क्या-क्या करते हैं. रात भर पार्टी चलती है. आसपास की कोठियों की कई लड़कियां और लड़के इसमें रात में आते हैं.’’ गोविंद ने बताया था. इस जिम सेंटर से उसकी आमदनी बढ़ गई थी क्योंकि रात में अक्सर पेप्सी और सोडा की मांग वहां से होती. वे लोग रात में वहां मौज-मस्ती करते और शराब पीते. यही वजह थी कि रामनिवास को सफाई के दौरान वहां के बाथरूम में कई बार ऐसी ऊटपटांग चीज़ें मिल जातीं, जिन्हें ठिकाने लगाना भी आसान न होता. ‘क्या ज़िंदगी है साहब लोगों की. खा-खा के फूल गए हैं और चर्बी ही छांटे नहीं छंटती. और कहां अपन! गंदे नाले की मछली खा लेने से एक बेटे की मौत हो गई. दूसरा दवाई के भरोसे सांस खींच रहा है.’ रामनिवास ने सोचा. तभी उसे सुषमा की याद आई. वह दो बजे तक संजय के ठेले पर उसका इंतज़ार करेगी. जल्दी-जल्दी सारा काम निपटाने के फेर में वह लग गया. रामनिवास जिम सेंटर के बड़े से हाल की फर्श पर झाड़ई लगा रहा था. झाड़ई की मूठ पर बंधी सुतली की कसान ढीली पड़ गई थी इसलिए झाड़ई की सींकें बार-बार खिसक जाती थीं. रामनिवास परेशान हो रहा था. उसने हॉल की दीवार पर, झाड़ई की सींकों को बराबर करने के लिए, उसकी मूठ को ठोंका तो चौंक पड़ा. उसने दीवार को दुबारा ठोंका तो उसका शक पक्का हो गया. अजब बात थी, ठोंकने पर दीवाल से खट्-खट् की नहीं धप्-धप् की आवाज़ आ रही थी. इसका मतलब था कि दीवार वहां पर खोखली थी. उसके भीतर पोल था, बस ऊपर से पलस्तर चढ़ा दिया गया था. जिस जगह वह दीवार थी, वहां दो कुर्सियां, एक मेज़ और जूट के दो बोरे रखे हुए थे. रामनिवास ने उन्हें खिसकाकर जगह बनाई और झाड़ई की मूठ को ज़ोरों से दीवार की उस जगह पर ठोंकने लगा.
जैसा कि होना ही था. पलस्तर में पहले दरारें पड़ीं फिर उसके चिलठे उखड़ने लगे. देखते-देखते एक बड़ा-सा छेद वहां खुल गया. फिनाइल या गैमेक्सिन की तेज़ गंध वहां से छूट रही थी. रामनिवास ने उसके भीतर झांककर देखा तो उसकी सांसें थम गईं. वह जड़ रह गया.
दीवार के भीतर का पोल बहुत बड़ा था. कोई लम्बी सुरंग जैसा खोखल उस दीवार के भीतर मौजूद था और उसमें दूर-दूर तक नोटों की गड्डियां भरी हुई थीं. यहां से वहां तक. आगे जहां अंधेरा गहरा होता जाता था, उसमें वे गड्डियां डूब रही थीं. अंधेरे की कालिख उन्हें अपने भीतर छुपा रही थी. रामनिवास का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा. उसने डरते हुए इधर-उधर नज़र दौड़ाई. आस-पास कोई नहीं था, सिर्फ वह था. अकेला. और साकेत की उस कोठी नम्बर ए-11/डीएक्स 33 के जिम सेंटर के बड़े से हॉल की वह दीवार उसके सामने थी, जिसमें एक ऐसा खोखल उसकी झाड़ई की मूठ की ठोकर से अचानक खुल गया था, जिसमें अनगिनत नोटों की गड्डियां भरी पड़ी थीं. काला धन, धन काला, काला, काला उसके कानों में जैसे कोई फुसफुसा रहा था. उसके शरीर का रोयां-रोयां सिहर रहा था. जिस चीज़ के बारे में वह सिर्फ सुना करता था, इस समय वह उसकी आंख के ठीक सामने, सांस भर की दूरी में, साक्षात् मौजूद थी. यह न कोई सपना था, न कोई किस्सा. यह एक सच्चाई थी, जो संयोग से उसकी आंख के सामने इस वक्त मौजूद थी. रामनिवास कुछ देर तक चुपचाप खड़ा सोचता रहा फिर उसने उत्तरी कोने की मेज़ पर रखा अपना झोला उठाया और इधर-उधर अच्छी तरह देखकर पांच-पांच सौ के नोटों की दो गड्डियों को उसमें डाल लिया. इसके बाद उसने उस खोखल को ढंकने के लिए वहीं पड़े जूट के बोरे को खिसकाकर सटा दिया और उसके सामने मेज़-कुर्सी लगा दी, जिससे किसी को उसके बारे में पता न चले. फिर उसने फर्श पर अच्छी तरह से झाड़ई लगाकर, पलस्तर की झाड़न और धूल-गर्द को साफ किया और इत्मीनान से बाहर निकलकर गोविंद की दूकान पर आ गया. वहां उसने एक कप कड़क चाय पी और दो मट्ठियां खाईं, ‘‘आज गर्मी कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई लग रही है. कल तो फिर भी ठीक था.’’ उसने गोविंद से कहा. गोविंद ज़्यादा बात करने के मूड में नहीं था क्योंकि तभी वहां एक जीप आकर खड़ी हो गई थी, जिसमें बैठे लोगों ने पांच चाय और पांच मट्ठी का ऑर्डर दिया था. जीप सरकारी थी. ‘‘गर्मी तो अभी और बढ़ेगी’’ गोविंद ने सिर्फ इतना कहा और पतीले में चाय उबालने लग गया. अभी तक सिर्फ साढ़े ग्यारह बजे थे और इस इलाके की सफाई का आधा काम अभी भी बाकी था. लेकिन रामनिवास वहां से सीधा अपने दफ्तर पहुंचा, झाड़ई जमा किया और यह कह कर कि बीवी की तबीयत काफी बिगड़ गई है, घर से फोन आया है, वह निकल गया.
नोटों के एक बंडल में दस हज़ार रुपए थे. यानी रामनिवास के झोले में इस समय बीस हज़ार रुपए मौजूद थे. इतने रुपए इकट्ठा उसने अपने जीवन में कभी नहीं देखे थे. वह डर रहा था इसलिए साकेत से रोहिणी तक की बस के सफर में उसने झोले को कसकर अपने पेट से चिपकाए रखा. अगर किसी भी व्यक्ति के पास थोड़ी फुर्सत होती और वह रामनिवास के चेहरे पर गौर करता तो जान सकता था कि वह कितनी घबराहट और तनाव की हालत में है. बस स्टॉप से रिक्शा लेकर जब वह संजय के ठेले पर पहुंचा तो सुषमा वहां खड़ी थी और स्कूटर मेकेनिक संतोष से हंस-हंस कर बात कर रही थी. रामनिवास को थोड़ा-सा गुस्सा आया लेकिन उसे देखते ही जब सुषमा ने कहा कि ‘‘कहां की तिजोरी हाथ लग गई? रिक्शे की ऐश हो रही है आज तो.’’ तो वह घबड़ा गया. सुषमा ने फिर पूछा, ‘‘तुमने तो दो बजे आने को कहा था. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे मिल गई? अभी तो एक भी नहीं बजा.’’ तो रामनिवास हंस पड़ा. सुषमा को देखकर और सम्भवतः उस जगह तक पहुंचकर उसे कुछ तसल्ली-सी हो रही थी. उसकी घबराहट अचानक कम हो गई थी.
स्वप्न में ऑटोरिक्शा और मज़ेदारी का अनोखा पेड़
‘‘भाग आया मैं जल्दी.’’ उसने कहा और सुषमा को देखकर हंसने लगा. सुषमा भी हंसने जा रही थी, लेकिन अचानक उसे लगा कि रामनिवास के ऐसा कहते ही संजय और संतोष उसकी ओर देखने लगे हैं, तो वह पहले की तरह ही रही, ‘‘चाय पियोगे तुम लोग?’’ रामनिवास ने जब संतोष और संजय से पूछा तो दोनों को ताज्जुब हुआ. ‘‘बात क्या है भाई आज तो! ओ.टी. मिला लगता है!’’ संतोष ने कहा. सुषमा को भी थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि रामनिवास को पैसे के मामले में वह मक्खीचूस मानती थी. चाय या बीड़ी के लिए जब वह लोगों के सामने तरह-तरह की हरकतें करता, तो उसे अच्छा नहीं लगता था. लेकिन रामनिवास ने उस दिन संजय और संतोष को ही नहीं, मोची देवीदीन और साइकिल वाले मदन को भी एक-एक स्पेशल चाय पिलाई. सुषमा ने बहुत मना किया कि पैसे में क्यों आग लगाते हो लेकिन रामनिवास नहीं माना. उसने एक ऑटोरिक्शा किराए पर लिया और सुषमा के साथ करोलबाग, कमला नगर, दीप मार्केट घूमता रहा. सुषमा को उसने पेप्सी पिलाई, चाट पापड़ी खिलाई, करोलबाग से उसके लिए एक लेडीज़ पर्स खरीदा और कमला नगर के कोल्हापुर रोड से उसके लिए पांच सौ का सलवार-सूट और एक जोड़ी चुन्नी खरीद कर दी. सुषमा को यह सब कुछ स्वप्न जैसा लग रहा था. जब-जब रामनिवास की ओर वह देखती या वह उसे छूता, खुशी का एक तेज़ झरना अचानक फूटकर उसको भीतर-बाहर से नहला डालता. कल तक का उदास और परेशान रामनिवास, जिसके बारे में कई बार वह सोचने लगती थी कि वह उससे मिलना-जुलना बंद कर देगी, आज किसी अविश्वसनीय, सुख और कई-कई रंगों से भरे, सपने के नायक में बदल गया था. हालांकि उसकी दाढ़ी अभी भी बेतरतीब बढ़ी हुई थी, ठूंठ उग रहे थे और मुंह से बीड़ी की तेज़ बास आ रही थी, लेकिन स्कूटर की पिछली सीट पर जब-जब वह उसे चूमता, सुषमा को लगता जैसे फूलों के किसी बगीचे ने उसे अपने भीतर समेट लिया है. सुषमा नहीं जान पाई कि रामनिवास में ऐसा आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ कैसे. उसे लगता आज मंगलवार को समयपुर बादली के बस स्टैंड पर आकर उसने एक अच्छा काम किया, जबकि आने न आने के बारे में वह रात भर सोचती रही थी. उसका फैसला आखिर ठीक ही निकला क्योंकि अब वह यही सोच कर खुशी से सिहर उठती थी कि दुनिया में कोई उसे इतना प्यार करने वाला मौजूद भी है. और इस समय वह उसी के साथ है. रामनिवास उसे बहुत भोला और उसके लिए किसी छोटे-से बच्चे की तरह व्यग्र लग रहा था. सुषमा जब कुछ दिनों के बाद रामनिवास के साथ सोने लगी और बाद में उसके बच्चा भी ठहरा, जिसे उन्होंने नाहरपुर के मित्तल क्लिनिक में गिरवाया, तब भी उस दिन की ऑटोरिक्शा की यात्रा उसकी स्मृति में हमेशा रही.
यह एक स्वप्न था, जिसमें सुषमा और रामनिवास दो साल पहले, मई महीने की 23 तारीख के उस मंगलवार को अचानक प्रवेश कर गए थे, जिस मंगलवार को रामनिवास को साकेत की कोठी नम्बर ए-11/डीएक्स 33 की दीवाल की खोखल में छुपे हुए रुपए मिले थे.
हर खुशी की जड़ नोटों में ही छुपी होती है, वहीं से मजे़दारी का पेड़ पनपता है, जिसमें सुख और मस्ती के फल लगते हैं. नोटों की गड्डियों में ही शायद आदमी की सारी अच्छाइयां भी बंद होती हैं.
रामनिवास अक्सर सोचने लगता. वह अब बिलकुल नया आदमी बन चुका था. उसके रहने-सहने का ढंग बदल गया था. पहले के गरीब, फटीचर और उदास जितेंद्र की जगह अब वह चमकदार, रंगीन और बातूनी गोविंदा नज़र आने लगा था, जिसके दांत हमेशा निकले रहते थे. उसके घर की भी हालत सुधर गई थी. उसकी पत्नी बबिया अब हमेशा खुश रहती. घर में अच्छा खाना बनता. हफ्ते में कम से कम दो बार वे मीट खाते. अंडा तो रोज़ ही, जब मन पड़ता, वह ले आता. बच्चे आइसक्रीम मांगते और पाते. कोई मेहमान आता, तो हल्दीराम की नमकीन, ब्रिटानिया के बिस्कुट बबिया तश्तरी में रखती और कहती, ‘‘भाई साहब, थोड़ा-सा तो लीजिए.’’ सोफा, टी.वी., वी.सी.आर., डबल बेड, फ्रिज वगैरह खरीद लिया गया था. रामनिवास पालिका बाज़ार से एक विदेशी सी.डी. प्लेयर भी ले आया था और कहता था कि जल्द ही बच्चों के लिए कंप्यूटर खरीद लाएगा. वह बताता था कि लोग कहते हैं कि आज के ज़माने में कंप्यूटर सीखे बिना कोई तरक्की नहीं कर सकता. अपने बच्चों रोहन और उर्मिला के लिए वह कंप्यूटर कोर्स के बारे में पता लगाता रहता. वह प्लान बनाता कि दोनों को वह अमेरिका भेजेगा, जहां वे किसी कंपनी में काम करेंगे और हर महीने कई लाख की तनख्वाह पाएंगे. रामनिवास के नाते-रिश्तेदार, जो कभी उसके पास फटकते नहीं थे, वे अब अक्सर सपरिवार उसके यहां आ जाते. उनको पहले के घुन्ने और फटीचर रामनिवास में अब संसार के सारे सद्गुण दिखाई देते, जिनका बखान वे बबिया और खुद उसी के सामने अक्सर करते. जात-बिरादरी में रामनिवास की पूछ बढ़ गई थी. शादी-ब्याह के मामलों में उसकी सलाह ली जाती. उसके पास चिट्ठियां और शादी-ब्याह के निमंत्रण आते. वह कहीं जाता, कहीं न जाता. जहां जाता, उसका खूब सत्कार होता. ‘‘सब अपने हैं भाई, मैंने सबको माफ किया.’’ वह अक्सर कहता और लोगों की मदद करता. मुहावरे में, संक्षेप करके कहें तो यह, कि अब रामनिवास के दिन फिर गए थे.
लेकिन रामनिवास इधर रोज़ पीने लग गया था. सुषमा के साथ उसका मिलना-जुलना रोज़ का काम हो गया था. बबिया उनके संबंधों के बारे में जान गई थी, लेकिन चुप थी. वह रामनिवास के स्वभाव को अच्छी तरह से जानती थी. उसे पता था कि चाहे कुछ भी हो, वह उसको और अपने बच्चों को छोड़कर कहीं नहीं जाएगा, इसलिए वह निश्चिंत थी. कई बार रामनिवास आधी रात के बाद घर लौटता. कई बार दो-तीन दिनों तक गायब रहता. उन्हीं दिनों सुषमा भी अपने घर से बाहर होती लेकिन बबिया को इससे कोई फर्क न पड़ता. मोहल्ले में रामनिवास का सम्मान और रुतबा बढ़ गया था. वह अब सीधे सुषमा के घर पहुंचता और उसकी अम्मा बिलाड़ी बाई, जो घरों में झाड़ई-पोंछा और बरतन मांजने का काम करती थी, के सामने ही उससे फिल्म देखने के लिए चलने की बात करने लगता था. सुषमा के पास कई जोड़े सलवार-सूट, सैंडिल और गहने हो गए थे. पहले वह रामनिवास से बराबरी के झगड़े कर लेती थी लेकिन अब वह उसकी कई बातें चुपचाप बर्दाश्त कर लेती. उसे डर लगता कि कहीं रामनिवास उससे नाराज़ न हो जाए. सुषमा की अम्मा कई बार उससे कहती, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा? तू उस पर अपना हक बना ले. लोग बात करने लगे हैं.’’ लेकिन सुषमा कहती, ‘‘अम्मा किसी दूसरी औरत का बना बनाया खोंता मुझसे उजाड़ा न जाता. वो भी बाल-बच्चों वाला. ऐसे ही चलने दे, जब तक चले.’’ भीतर-भीतर लेकिन उसे कहीं विश्वास था कि ऐसा हमेशा चलता रहेगा. जब तक वह और रामनिवास दोनों जीवित रहेंगे. लोग अगर रामनिवास से पूछते कि इतना पैसा अचानक उसके पास कहां से आया तो वह कहता कि वह साकेत में पांच लाख की कमेटी चला रहा है या कि वह आजकल सट्टे बाज़ारी की कमाई कर रहा है. किसी से वह कहता कि उसकी लाटरी निकल आई है. किसी-किसी से उसने यह भी कह रखा था कि मस्जिद मोठ के पास उसे ऐसे एक साधू महाराज मिले थे, जिन्होंने एक ऐसा मंत्र उसके कान में फूंका था कि सट्टे का खुलने वाला नंबर आंख मूंदने पर उसे साफ-साफ दिख जाता है. रामनिवास से कई लोगों ने वह मंत्र अपने-अपने कान में फुंकवाया लेकिन किसी को वह नंबर आंख मूंदने पर नहीं दिखा. रामनिवास कहता तुम लोगों का दिल साफ नहीं है इसलिए तुम्हें नंबर नहीं दिखता. किसी से डाह न करो, न किसी की चुगली खाओ, किसी का नुकसान न करो तो फिर देखो, सट्टे और लाटरी का नंबर अपने आप तुम्हारे दिमाग के परदे पर नाचेगा! जब भी उसका मन होता वह उस कोठी की दीवाल से नोटों की गड्डियां अपने झोले में भर लाता. ताज्जुब था कि इतने दिन हो गए थे, अभी तक न तो उसको किसी ने टोका या पकड़ा था, न उस खोखल से उन गड्डियों को इधर-उधर किया था. इतने दिन बेरोक-टोक उन रुपयों का इस्तेमाल करते रहने से रामनिवास अब बेफिक्र हो गया था. उसकी हिम्मत बढ़ गई थी. फिर भी कभी-कभी उसे आशंका सताती कि कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन उन रुपयों का असली मालिक आ जाए और वहां से अपनी छिपी हुई दौलत लेकर चल दे, इसलिए उसने समझदारी और दूरदर्शिता के साथ दो काम किए. एक तो उसने लोनी बॉर्डर में पांच सौ गज़ का एक प्लॉट अपनी पत्नी बबिया पसिया के नाम खरीदा और दूसरे, उसने तीन लाख रुपए की फिक्स्ड डिपॉज़िट तीन-चार बैंकों में अलग-अलग नाम से जमा कर दी. इनमें से पचास हज़ार की एक डिपॉज़िट सुषमा के नाम से भी थी, जिसने अब रामनिवास के साथ इसी तरह हमेशा रहने का मन बना लिया था.
ताजमहल में प्यार, ए.सी. रूम, बाज़ की आंखें और पुलिस
यह घटना सात-आठ महीने पहले की है. रामनिवास ने सुषमा के साथ आगरा और जयपुर घूमने और ताजमहल के सामने फोटो खिंचाने का प्रोग्राम बनाया. दो-तीन दिन वह मौज-मस्ती करना चाहता था. सुषमा इसके लिए तुरंत तैयार हो गई. दोनों ट्रेन से आगरा पहुंचे. स्टेशन से बाहर निकलते ही उन्हें एक टैक्सी वाला मिल गया. उससे रामनिवास ने किसी होटल ले चलने के लिए कहा. ‘‘कैसा होटल चलेगा?’’ ऐसा पूछते हुए उस टैक्सी वाले ने जिस निगाह से रामनिवास को घूरा, उससे रामनिवास को लगा कि वह उसे कोई भिखमंगा या मामूली आदमी समझ रहा है, ‘‘कोई भी अच्छा, टॉप का होटल. किसी सड़े गले, सड़क छाप में मत ले चलना.’’ रामनिवास ने कड़ी और रोबीली आवाज़ में कहा. टैक्सी वाले ने, जो देखने में चालीस-पैंतालीस साल का कोई खुर्राट लग रहा था, जिसकी आंखें भूरी थीं और उनमें किसी शिकारी बाज की आंखों की चमक थी, उसकी ओर मुस्कराते हुए व्यंग्य से देखा और कहा, ‘‘थ्री स्टार चलेगा? पास में ही है.’’ उसने सोचा होगा कि थ्री स्टार का नाम सुनते ही रामनिवास की गर्मी उतर जाएगी, लेकिन जब रामनिवास ने उससे ठंडी आवाज़ में कहा कि ‘‘ले चल मेरे भाई, जिधर भी तेरा दिल करे. थ्री स्टार-फाइव स्टार-सिक्स स्टार. लेकिन जल्दी कर. मेरे को अभी तुरंत नहाना है. गरम पानी में. और फिर उसके बाद बटर चिकन सूंटना है डबल प्लेट.’’ तो टैक्सी वाले खुर्राट ने उसे गहरी आंखों से देखा. इसके बाद उतनी ही चीरती हुई, चील जैसी नज़र उसने सुषमा पर डाली और इत्मीनान में थोड़ा-सा व्यंग्य मिलाकर बोला,‘‘चलता हूं मालिक! आप गीज़र में नहीं, गरम पानी के टब में नहाना. हम आपको ऐसे होटल में पहुंचाएंगे कि बटर चिकन ही नहीं, जो-जो आप मंगाओगे, सब मिलेगा.’’ उसकी इस बात पर हंसकर रामनिवास ने कहा ‘‘अब आ गए न लाइन में. अब चल. जल्दी गड्डी हांक.’
रास्ते में टैक्सी वाले ने फिर पूछा, ‘‘आना कहां से हुआ साहब जी?’’ ‘‘दिल्लीवासी हैं अपन. तुम हमें यू.पी का समझ रहे थे क्या या एम.पी.सेम.पी. का?’’ रामनिवास ने तड़ी मारी और विजेता की तरह सुषमा की ओर देखकर मुस्कराया. ‘‘और आगरा तो हम आते ही रहते हैं. आफिस की गाड़ी से. महीने-पंद्रह दिन में.’’ रामनिवास डरा कि अगर अब कहीं खुर्राट ने उसकी पोस्ट के बारे में पूछा तो वह क्या बताएगा? चतुर्थ श्रेणी, स्वच्छता कर्मी? झाड़ई लगाने वाला मेहतर? सफाई कर्मचारी? लेकिन खुर्राट ने आगे कुछ नहीं पूछा. होटल जब आ गया और रामनिवास टैक्सी की डिक्की से सामान निकलवा रहा था तो टैक्सी वाले ने कहा, ‘‘आप पहले जाकर पता तो कर लो कि रूम खाली है कि नहीं. नहीं तो फिर अगला होटल देखेंगे.’’ रामनिवास सुषमा को टैक्सी में ही छोड़कर अंदर गया और काउंटर पर जब कमरे का रेट पूछा तो उसका मन एक बार तो हुआ कि कोई दूसरा सस्ता-सा होटल देख ले लेकिन फिर उसने इरादा बदल दिया और पंद्रह सौ रोज़ के किराए वाला ए.सी. डबल बेड बुक करा लिया. काउंटर पर बैठे आदमी ने उसे रूम देखने के लिए ऊपर भेज दिया और होटल के एक लड़के को टैक्सी से सामान लाने रवाना कर दिया. सामान के साथ सुषमा जब आई तो वह थोड़ी घबड़ाई हुई लग रही थी.
‘‘कैसी जगह तुम ले आए? हर चीज़ कांच जैसी चक्क-चक्क चमकती है. लगता है किसी चीज़ को छुआ तो वो गंदी हो जाएगी. ये सामान लेकर आने वाला लड़का भी मेरे को सही नहीं लग रहा था.’’
सुषमा ने धीरे से उससे कहा. होटल का लड़का जब सामान रखकर और पानी का जग उठाकर चला गया तो रामनिवास ने सुषमा से कहा, ‘‘मस्त रह और फिकर न कर. जब तक टेंट में माल है तब तक डरने की क्या बात है!’’ इसके बाद उसने प्यार से कहा, ‘‘आजा, एक पुच्ची दे दे और झोले से बोतल निकाल.’’ रात को साढ़े दस बजे होंगे, जब किसी ने घंटी बजाई. इसके पहले दिन में रामनिवास सुषमा के साथ ताजमहल देख आया था, वहां अलग-अलग पोज़ में उसके साथ फोटो खिंचाई थी और रास्ते में अंटशंट खरीदारी भी की थी. सुषमा के लिए और चीज़ों के अलावा उसने फिरोज़ाबादी चूड़ियों के सेट भी लिए थे, जिससे वह बहुत खुश थी.
इतनी रात में कौन आ मरा. रामनिवास सोच रहा था. उसने रूम का दरवाज़ा खोला तो, दो पुलिस वाले वहां खड़े थे. उनमें से एक इंस्पेक्टर था, दूसरा सिपाही. ‘‘लड़की है साथ में?’’ इंस्पेक्टर ने डांटती हुई आवाज़ में रामनिवास से पूछा. ‘‘हां’’ रामनिवास ने कहा. इंस्पेक्टर और सिपाही रूम के अंदर आ गए. इंस्पेक्टर की वर्दी पर छाती की पॉकेट के ठीक ऊपर वी.एन. भारद्वाज की पट्टी लगी थी. वह जिस बेशर्मी से सुषमा को घूर रहा था, उससे रामनिवास को गुस्सा तो बहुत आ रहा था, लेकिन उसके भीतर डर भी था. सुषमा ने गुलाबी रंग की नाइटी पहन रखी थी, जो नाइलोन की थी, जिसके अंदर से कमला नगर से खरीदी गई काले रंग की ब्रेसरी साफ झलक रही थी. सुषमा का रंग भी गोरा ही कहा जा सकता था. ‘‘तुम्हारी बीवी तो नहीं लगती. कहां से उठा लाए?’’ इंस्पेक्टर ने पूछा. लगभग चौकोर चेहरे, मिचमिची काइयां आंख और खिजाब से बेतहाशा रंगे काले बालों और मोटी खाल वाला वह आदमी पहली ही नज़र में कोई घाघ चालबाज़ और लंपट लगता था. ‘‘हमारे पड़ोस में ही रहती है. साली लगती है साब.’’ रामनिवास ने कहा. उससे झूठ नहीं बोला जा रहा था. उसकी आवाज़ में घबराहट और शराफत के बीच से पैदा होने वाली कमज़ोरी थी. ‘‘बोतल भी है!’’ इंस्पेक्टर ने मेज़ पर रखे डिप्लोमैट के अद्धे को घूरा फिर भेदती हुई निगाह से सुषमा को देखते हुए कहा. ‘‘भगा के ला रहे हो इसे. देखने में तो नाबालिग लगती है.’’ ‘‘क्या उमर है तेरी?’’ उसने सुषमा से पूछा. ‘‘सत्रह साल.’’ सुषमा डर गई थी. जाने क्यों उसे लग रहा था कि कोई अनहोनी आज होने जा रही है, जिसमें वह और रामनिवास, दोनों बरबाद हो जाएंगे. ‘‘चलो थाने. तुम दोनों. मेडिकल से सब पता चल जाएगा कि कितनी मौज-मस्ती की है. तीन सौ पचहत्तर-छिहत्तर बनेगा.’’ इंस्पेक्टर ने कहा. इसके बाद कुर्सी खींच कर बैठते हुए उसने रामनिवास की ओर देखा, ‘‘पैसा कहां से उड़ाया? थ्री स्टार के ए.सी. कमरे में रुकने की औकात तो नहीं लगती तुम्हारी. कहीं सेंध मारी क्या? या किसी को चूना लगाया?’’ रामनिवास ने पी रखी थी. ऐसे में उसकी हिम्मत बढ़नी चाहिए थी लेकिन सुषमा ने अपनी उम्र सही बताकर उसे अनजाने में फंसा डाला था. अब वह खुद को पुलिस के जाल में उलझा हुआ महसूस कर रहा था. आखिर सोच-समझकर वह मुस्कराया, ‘‘क्या चलेगा साहब? अद्धा तो खाली हो गया?’’ ‘‘वो तो होटल से आ जाएगा. पर अभी तो दोनों थाने चलो. चलो तैयार हो जाओ. और क्या ये ऐसे ही चलेगी? अपनी बॉडी झलकाती हुई!’’ इंस्पेक्टर ने सपाट आवाज़ में कहा. ‘‘थाने का क्या है साब. वो तो जहां आप हो, वहीं थाना हुआ. यहीं निपटा लेते हैं.’’ हंसते हुए रामनिवास ने कहा. उसको अपने ऊपर ताज्जुब हुआ. अब तक कहां छिपा था, उसके भीतर का यह हुनर? उसने पलंग के पास खड़े सिपाही की ओर समर्थन जुटाने के लिए देखा. उसे पटाने के अंदाज़ में. सिपाही सुषमा को घूरने में लगा हुआ था. रामनिवास से आंख मिलने पर उसने थोड़ा-सा सिर हिलाया और मुस्कराया, ‘‘छोकरे हैं बेचारे भारद्वाज साब. ताजमहल देखने आए हैं. खाने-पीने दो. अपन भी ज़रा टाइम पास कर लेते हैं इनके साथ. बोल भाई, कोई एतराज़ तो नहीं तेरे को?’’ रामनिवास को सिपाही के इरादे ठीक नहीं लगे. उसे इस बेवजह की मुसीबत के बावजूद गुस्सा आ गया, ‘‘देखो, खाने-पीने की जहां तक बात है, भारद्वाज साब हुक्म करें, जो जो चाहोगे आप लोग, सब ऑर्डर हो जाएगा. लेकिन ये मेरी सच में साली लगती है साब. मेरा यकीन करो आप लोग. कसम से.’’ इंस्पेक्टर पहली बार हंसा, ‘‘क्यों भाई, ए.सी. कमरे में अपनी नाबालिग साली के साथ दारू का अद्धा सूंट कर भजन कर रहा था तू? अच्छा चल, आर. सी. की एक फुल बोतल और खाने के लिए चिकन-सिकन का आर्डर बोल के आ जा अच्छा तू ठहर, मैं यहीं से बोलता हूं.’’ ऐसा कहकर इंस्पेक्टर ने पलंग पर चढ़कर सिरहाने के इंटरकॉम से होटल के काउंटर को फोन किया और वहीं पसरकर बैठ गया. उसने अपनी बेल्ट ढीली कर ली. और फिर उसने पलंग के पायताने पर सिमटी बैठी सुषमा की ओर देखकर कहा, ‘‘और तू तो जाकर उस कोने की कुर्सी पर इधर पीठ फेर कर बैठ जा. दिमाग मत खराब कर. दारू चढ़ गई तो कंट्रोल हट जाएगा, फिर दोनों हमारे नाम को रोओगे. वैसे ही आगरा में फिरंगी टूरिस्टों को देख-देख कर दिल डोलता रहता है साला.’’ सिपाही इस बात पर हंसा. ज़ोरों से. डेढ़ घंटे में पूरी बोतल खाली हो गई. रामनिवास अद्धा तो पहले ही चढ़ा चुका था, तीन पेग पुलिस वालों के साथ और पी गया. उसे होश नहीं था कि वह नशे में क्या-क्या बोलता रहा.
इंस्पेक्टर भारद्वाज और वह सिपाही लगभग बारह बजे रात उसके कमरे से गए. पांच सौ रुपए पर बात टूटी. बाद में सिपाही ने भी सौ रुपए अलग से झटके. पुलिस वालों के जाते-जाते रामनिवास थक चुका था और नशा उसके दिमाग को भीतर से किसी चकरी की तरह घुमा रहा था. उसे चक्कर आने लगा. सुषमा उसे संभालकर बाथरूम तक ले गई कि उसके सिर पर ठंडा पानी डाल दे लेकिन रामनिवास वहीं फर्श पर बैठ गया और बेतहाशा उल्टियां करने लगा. उसके गले से सारा बटर चिकन, नान और पुलाव निकल रहा था. उल्टी करने के बाद जब उसने सुषमा को अपने पास खींचा तो उसकी आंखों को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वह सीधा बिस्तर पर औंधे मुंह गिरा और उसकी नाक और गले से तुरंत ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं, जैसे किसी मीलों के सफर में थके हुए घोड़े को दमे की सींक आ रही हो. सवेरे सुषमा ने जब उसे बताया कि वह रात में, नशे में पुलिस वालों को साकेत की किसी कोठी की दीवाल की खोखल में छुपे नोटों की गड्डियों के बारे में बता रहा था, तो रामनिवास के होश उड़ गए. कितनी होशियारी और समझदारी से उसने यह रहस्य अब तक छुपाए रखा था. यहां तक कि सुषमा और अपनी बीवी तक को उसने इसकी भनक नहीं लगने दी थी. आखिर कर दिया न दारू ने सारा गुड़ गोबर. उसने सुषमा से तबीयत बिगड़ने और दिल्ली में एक ज़रूरी काम का बहाना बनाया और जयपुर घूमने का प्रोग्राम कैंसिल कर अगली ही गाड़ी से दिल्ली लौटने का फैसला ले लिया.
बुद्ध जयंती पार्क, बिना नम्बर की एस्टीम और आखिरी बीड़ी
जैसा उसे संदेह था, अगले ही दिन सवेरे-सवेरे, जब वह ड्यूटी पर जाने के लिए घर से निकल रहा था, पुलिस की जिप्सी उसके घर आ गई. ‘‘ए.सी.पी. साहब ने बुलाया है.’’ उस इंस्पेक्टर ने कहा, जिसकी छाती की जेब के ऊपर डी. के. त्यागी लिखा हुआ था. रामनिवास ने जिप्सी के भीतर बैठे हुए ही समयपुर बादली के उस बस स्टॉप को देखा, जहां से हर रोज़ वह धौला कुआं के लिए बस लेता था. सुषमा वहां उसके इंतज़ार में खड़ी थी. सात-आठ महीने पहले, वह शायद मंगलवार का ही दिन था, उस दिन हल्के-हल्के बादल आसमान में छाए हुए थे और कभी भी बूंदा-बांदी हो सकती थी, संजय चौरसिया के उसी पान ठेले के पास रामनिवास से मेरी मुलाकात हुई थी. वह सुषमा से मिलने आया था. ऐसे मौसम में, जब बादल घिरे हों, बूंदा-बांदी के आसार हों और हवा भारी हो गई हो, रामनिवास कहा करता था, ‘‘आज तो लगता है मौसम सीटी बजा रहा है.’’ ऐसे में वह सुषमा के साथ ऑटोरिक्शा में घूमा करता था और दुनिया भर की ऊलजलूल चीज़ें उसे खिलाता रहता था. लेकिन आज वह बहुत परेशान दिखाई दे रहा था. आधा घंटे के भीतर-भीतर उसने तीन-चार सिगरेटें फूंक डालीं. बार-बार किसी बेचैनी में वह अपनी उंगलियां चटखाने लगता था. ऐसा लगता था, जैसे उसके भीतर कोई तेज़ उथल-पुथल मची हुई है. मैंने रतनलाल से दो स्पेशल चाय मंगवाई. रामनिवास कितना परेशान था, इसका अंदाज़ा मुझे तब हुआ, जब उसने लगभग खौलती हुई चाय सीधे अपने हलक में उंडेल ली, जिससे उसका गला और मुंह जल गया. उस समय दो-ढाई का वक्त रहा होगा, जब रामनिवास ने बहुत याचना भरी आंखों से मेरी ओर देखा और कहा, ‘‘विनायक जी, मैं एक बहुत बड़े जंजाल में फंस गया हूं. मुझे तुम किसी तरह इससे बाहर निकालो. जब तक ज़िंदगी रहेगी, तुम्हारा एहसान मानूंगा.’’ मैंने उससे पूछा कि आखिर बात क्या है तो उसने मुझे उस दिन जो कुछ बताया था, वही मैंने अब तक आपको ऊपर बताया है. उसकी बात खत्म हुई ही थी और मैं उसको वह उपाय बताने ही वाला था, जिससे वह इस जंजाल से बाहर निकलता, कि ठीक उसी वक्त सुषमा वहां आ गई. ‘‘अभी मैं चलता हूं. कल सवेरे तुमसे इसी जगह मिलूंगा.’’ रामनिवास ने मुझसे कहा और वे दोनों एक रिक्शे पर बैठकर चले गए. दोनों की जाती हुई पीठ रिक्शे पर जब तक दिखाई देती रही, मैं देखता रहा.
रामनिवास से मेरी वह आखिरी मुलाकात थी. वह फिर उस नुक्कड़ पर कभी नहीं लौटा. अब वह कभी नहीं लौटेगा. उसके बारे में आप यहां किसी से भी पूछेंगे, तो कोई कुछ नहीं बताएगा. न पान के ठेले वाला संजय चौरसिया, न चाय वाला रतनलाल, न मोची देवीदीन, न स्कूटर मेकेनिक संतोष और न साइकिल में पंक्चर लगाने वाला मदन.
आप अगर इस नुक्कड़ से चलकर बाइपास के उस सोलहवीं सदी के खंडहर तक भी पहुंचें और वहां सलीमन, सोमाली, भूसन, तिलक या रिज़वान से रामनिवास के बारे में पूछें, तो कोई कुछ नहीं बताएगा. रंगीन कागज़ की फिरकियां बेचने वाली कानी और सफेद चित्तीदार चेहरे वाली रुपन मण्डल या अपने पति गुलशन के साथ रोज़ शाम को उबले अंडे बेचने वाली राजवती भी आपके सवाल को टाल जाएगी. यहां तक कि हर सुबह समयपुर बादली से यहां आने वाली और इधर के फ्लैटों में बरतन-कपड़ा करने वाली गोरी, छरहरी सुषमा भी बिना कुछ बोले चुपचाप तेज़ चाल से आगे बढ़ जाएगी. आज कल वह स्कूटर मेकेनिक संतोष के साथ कई बार ऑटोरिक्शा में घूमती हुई दिखती है. दोनों को पिछले हफ्ते मैंने शीला सिनेमा के पास चाट पापड़ी खाते हुए देखा था.
यह जीवन ऐसे ही चलता है
अगर आप समयपुर बादली के गंदे नाले के पास बसी उस झुग्गी बस्ती तक पहुंचें और वहां किसी तरह उस टपरे का पता लगा लें, जिसे रामनिवास ने पक्के मकान में बदल दिया था और जहां उसकी पत्नी बबिया अपने बीमार बेटे रोहन और बेटी उर्मिला के साथ रहती है और उससे आप रामनिवास के बारे में पूछें, तो वह पत्थर जैसे भावहीन चेहरे के साथ कहेगी, ‘‘घर में नहीं हैं. बाहर गए हैं.’’ अगर आपने पूछा कि वे कब तक लौटेंगे, तो बबिया, ‘‘हमें पता नहीं है’’ कहकर घर के अंदर चली जाएगी. साकेत में, नई दिल्ली म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में, जहां रामनिवास काम करता था अगर आप चोपड़ा साहब या किसी कर्मचारी से इस नाम के आदमी के बारे में पूछें तो उनका जवाब होगा, ‘‘यहां डेली वेजेज़ पर काम करने वाले सैकड़ों लोग आते-जाते रहते हैं. हम किस-किस का नाम याद रखें.’’ यह सच है कि दिल्ली में अब रामनिवास के बारे में कोई कुछ नहीं जानता. अब वह कहीं नहीं है. उसका कोई चिन्ह अब कहीं शेष नहीं है. लेकिन रुकिए, मैं आपको रामनिवास के बारे में वह आखिरी सूचना देता हूं, जिसके भीतर वह रहस्य मौजूद है, जिसे आप तक पहुंचाने के लिए ही मैंने इस कहानी की ओट ली थी.
अभी इसी साल, यानी सन् 2001 के 27 जून का दिल्ली से निकलने वाला कोई भी हिंदी-अंग्रेज़ी का अखबार, ‘इंडियन न्यूज़ एक्सप्रेस’ ‘टाइम्स ऑफ मेट्रो इंडिया’ या ‘शताब्दी संचार टाइम्स’ उठा लीजिए और तीसरे पेज को खोलिए, वहीं जहां इस महानगर की स्थानीय खबरें छपती हैं. उस रोज़ इस पेज पर दाहिनी ओर दो कॉलम की चौड़ाई घेरता, एक छोटा-सा फोटाग्राफ छपा है और उसके नीचे एक संक्षिप्त-सी खबर. 20 पॉइंट बोल्ड में इस समाचार की हेडिंग है: ‘रॉबर्स किल्ड इन एनकाउंटर’ और इसके नीचे 16 प्वायंट में उपशीर्षक है ‘पुलिस रिकवर्स बिग मनी फ्रॉम कार.’ इस खबर को अखबार के स्थानीय क्राइम रिपोर्टर के हवाले से छापा गया है, जिसके अनुसार पुलिस ने कल रात राजधानी दिल्ली में, धौलाकुआं से राजेन्द्रनगर और करोलबाग जानेवाली रिज रोड पर बुद्ध जयंती पार्क के निकट, एक बिना नंबर प्लेट वाली एस्टीम कार को रोका. कार में सवार लोगों ने रुकने की बजाय पुलिस पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं. पुलिस की जवाबी कार्रवाई में दो अपराधी मौके पर मारे गए, जबकि तीन अन्य अंधेरे का फायदा उठाकर भागने में कामयाब रहे. मरने वालों में एक जालंधर का कुख्यात अपराधी कुलदीप उर्फ कुल्ला है. दूसरे की पहचान नहीं हो पाई है. पुलिस उप-अधीक्षक सबरवाल ने बताया कि पुलिस ने कार की डिक्की से तेईस लाख रुपए बरामद किए हैं. इसमें बड़ी मात्रा में पांच सौ के जाली नोट भी शामिल हैं. यह पिछले कुछ सालों में मिलनेवाली पुलिस की सबसे बड़ी सफलता है. पुलिस उप-अधीक्षक ने इस सिलसिले में आगरा पुलिस से मिली सूचनाओं को इस सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण माना है. अगर आप इस खबर के ऊपर छपे फोटोग्राफ को गौर से देखें तो पाएंगे कि बुद्ध जयंती पार्क के ठीक सामने वह कार खड़ी हुई है. उसके अगले और पिछले दरवाज़े खुले हुए हैं. कार के अगले पहिए के पास एक आदमी औंधा पड़ा हुआ है. उसके सिर पर पगड़ी है. और कार के पिछले दरवाज़े के ठीक सामने जो आदमी मरा पड़ा है, उसका सिर आसमान की ओर है. आप इस आदमी के चेहरे को गौर से देखें. अगर लेंस की मदद ले सकें या फोटो एनलार्ज करा सकें तो और बेहतर होगा. कार के पिछले दरवाजे़ के सामने, सड़क पर मरा हुआ आदमी, जिसका सिर आसमान की ओर है और जिसका मुंह खुला हुआ है, पैंट खिसक गई है और शर्ट के बटन खुले हुए हैं और जिसकी छाती पुलिस की गोलियों से लहूलुहान है, वह कोई और नहीं रामनिवास ही है. यही वह अपराधी था, जिसकी शिनाख्त आज तक नहीं हो पाई है. उसकी शिनाख्त अब कभी नहीं हो पाएगी, क्योंकि उसे अब कोई नहीं पहचानेगा.
रहस्योद्घाटन, सब्बल, कुदाल और औलिया की दरगाह
अब आप यह जानें कि उस दिन, जिस दिन यह मुठभेड़ हुई, उसके लगभग दो घंटे पहले क्या हुआ? साकेत की कोठी नम्बर ए-11/डीएक्स 33 के पास के नुक्कड़ पर चाय की दूकान चलाने वाले गोविंद ने बताया था कि उस रात लगभग दस बजे पुलिस की एक जिप्सी यहां आई थी. उसमें दो पुलिस वालों के अलावा तीन सादे कपड़ों वाले लोग भी थे. उन्होंने जिम सेंटर से लड़के-लड़कियों को निकाल दिया था और लौट गए थे. इसके एक घंटे बाद, जब वह अपनी दुकान बंद कर रहा था, तभी एक एस्टीम आकर वहां रुकी थी. उसमें कोई नम्बर प्लेट नहीं था उस गाड़ी में से मंझले कद के एक सरदार जी उतरे थे. पिछली सीट से उनके पीछे-पीछे उतरा था, रामनिवास. वे लोग उस कोठी के अंदर चले गए थे और लगभग डेढ़ घंटे तक वहां थे. वे दोनों अंदर से कोई चीज़ बार-बार ढोकर कार की डिक्की और पिछली सीट की जगह में भर रहे थे. सामने के मोड़ पर, जहां ‘खन्ना इंटरनेशनल ट्रेवल्स एंड कोरियर्स’ की दुकान है, उसके सामने एक लाल बत्ती वाली एम्बेसेडर उसी वक्त आकर खड़ी हो गई थी और एस्टीम के जाते ही उसके पीछे-पीछे चली गई थी. गोविंद ने बताया था कि बिना नंबर प्लेट की, काही रंग की एस्टीम, जब इस कोठी से लौट रही थी तो उस समय वह दुकान बंद करके घर जाने की तैयारी कर रहा था. एस्टीम ठीक उसके बगल में आकर रुकी और पिछली सीट पर बैठे रामनिवास ने उससे बीड़ी मांगी. गोविंद ने गणेश छाप बीड़ी का आधा, खुला हुआ बंडल, जो उसकी जेब में उस वक्त पड़ा हुआ था, उसे दिया. गोविंद ने बताया कि रामनिवास बहुत घबड़ाया हुआ और परेशान लग रहा था. उसकी आंखें ऐसी लग रही थीं, जैसी मुर्दों की आंखें होती हैं. वह उससे कुछ कहने की कोशिश कर रहा था कि एक झटके में एस्टीम आगे बढ़ गई. उसे वह सरदार चला रहा था. धौलाकुआं के चौराहे से, अगर आप रिंग रोड यानी महात्मा गांधी मार्ग की ओर न मुड़ें और उसकी अगली सड़क पर बाएं घूम जाएं, तो वही रिज रोड है. इसी सड़क पर बुद्ध जयंती पार्क के सामने वह घटना घटी, जिसका फोटोग्राफ और समाचार अखबार में छपा है. रामनिवास ने साकेत की कोठी नम्बर ए-11/डीएक्स 33 के जिम सेंटर वाले हॉल की दीवाल के खोखल के बारे में जो जानकारी दी थी, उसके मुताबिक उस खोखल का आकार काफी बड़ा होना चाहिए. मेरा अनुमान है कि गिरी से गिरी हालत में उसकी लम्बाई लगभग बारह फुट और ऊंचाई चार-साढ़े चार फुट होना चाहिए. रामनिवास ने बताया था कि वह जगह पांच सौ और सौ-सौ की गड्डियों से ठसाठस भरी हुई थी, इस लिहाज़ से मेरा अनुमान है कि उसमें कम से कम दस-पंद्रह करोड़ रुपए रहे होंगे. यह उन्हीं दिनों की बात है जब पिछली सरकार के एक केंद्रीय मंत्री के घर और दूसरे ठिकानों पर नई सरकार ने सी.बी.आई. के छापे डलवाए थे. उस मंत्री पर उच्च तकनीकी उपकरणों की खरीद और ठेके के संदर्भ में किसी विदेशी कम्पनी से कई सौ करोड़ रुपए का कमीशन लेने का आरोप लगा था. उसे कुछ दिनों के लिए जेल भी जाना पड़ा था. बाद में वह मंत्री उसी नई सरकार में शामिल हो गया था, जो उसके खिलाफ जांच कर रही थी. ज़ाहिर है, वह सारा रुपया, जिसे किसी ग्रह-नक्षत्र की विशेष स्थिति अथवा अपने भाग्य या फकत संयोग के चलते रामनिवास ने अपनी झाड़ई की मूठ की सींक ढीली हो जाने के कारण, वहां की दीवाल को ठोंकते हुए, उस खोखल को खोज निकालने पर अचानक ही उस दिन देख डाला था,
वह सारा रुपया सी.बी.आई. के छापों और इनकम टैक्स से बचने के लिए वहां छुपाया गया था. यानी वह सारी दौलत ऐसी थी, जिसका कोई आलेख कहीं नहीं होता. अन-अकाउंटेड मनी. इसी को काला धन कहते हैं.
संजय चौरसिया के पान वाले ठेले के दाहिनी ओर, साइकिल का पंक्चर जोड़ने वाले मदन के नज़दीक ही, पिछले कुछ दिनों से पटरी पर दरी बिछाकर बैठने वाले ज्योतिषी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय से मैंने अप्रत्यक्ष तरीके से इस बाबत बातचीत की. उनका कहना था कि अगर गुरु तीसरे घर में हों और मंगल को निहार रहे हों और छठे घर से मंगल शुक्र और गुरु को बारी-बारी से निहार रहा हो और अगर महीने का कृष्णपक्ष चल रहा हो तथा संयोग से तिथि चतुर्थी अथवा नवमी हो ऊपर से धनिष्ठा नक्षत्र लगा हो और विष्टिकरण से बनी हुई सिद्धि अकारण उपस्थित हो तो कुबेर की विशेष कृपा होती है और अपार धन अथवा गड़ी हुई तिजोरी मिलने की प्रबल सम्भावना होती है. पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जो बलिया से आए हुए हैं और नाहरपुर के नाले के पास एक टपरे में किराए पर रहते हैं, ने मेरे बारे में बता रखा है कि अभी मारकेस और साढ़े साती की शनि दशा चल रही है और राजकीय कोप का भाजन मुझे बनना पड़ेगा. मुझे लगता है पिछले साल 23 मई के मंगलवार को सम्भवतः रामनिवास के ऊपर ऐसी ही किसी दशा में कुबेर ने दृष्टि डाली होगी, जिसने उसके भाग्य को बिलकुल बदल डाला. वरना, आप खुद ही सोचिए, कि कूड़ा-कचड़ा और गंदगी साफ करने वाली एक मामूली झाड़ई की मूठ की सुतली की कसान ढीली पड़ जाने के कारण, घास के तिनकों की सींकों को बराबर करने के लिए एक निहायत साधारण-सी दीवाल को ठोंकते ही, उसे नोटों की गड्डियां इस तरह अचानक कैसे मिल जातीं? वरना वह कैसे, कुछ महीनों के लिए, अपने स्वप्नों और आकांक्षाओं के संसार में प्रवेश कर पाता? अपनी पत्नी बबिया, बेटे रोहन और बेटी उर्मिला को भर पेट खाने और मन पसंद पहनने का सुख दे पाता? और अपनी नाबालिग प्रेमिका सुषमा को तरह-तरह के रंगों से जगमगाते इंद्रधनुषों के उस लोक में कैसे ले जाता, जहां एक ताजमहल भी था और जहां दोनों ने एक-दूसरे के साथ कई मुद्राओं में फोटो खिंचाए थे? लेकिन ज्योतिषी जी का यह भी कहना है कि अगर ऐसे संयोग से मिलने वाला धन पाप का काला, अपवित्रा धन हो तो उसका परिणाम घातक होता है.
मेरा मानना है कि 26 जून 2001 की रात लगभग 12 बजकर 10 मिनट पर उसी पाप के घात से रामनिवास और उसके स्वप्नों का हिंसक अंत हुआ. लेकिन आप पूछेंगे कि आखिर वह रहस्य कौन-सा है, जो मैं इस कहानी की ओट के पीछे छुपकर आप तक पहुंचाना चाहता था? आप तो जानते ही हैं कि उस रात रामनिवास जब कुलदीप उर्फ कुल्ला के साथ रिज रोड पर मारा गया, तो बिना नंबर वाली एस्टीम से सिर्फ कुछ लाख रुपए ही बरामद हुए. उसमें भी पांच सौ के बहुतेरे नोट जाली थे. जबकि असलियत यह है कि उस दीवाल की खोखल से लगभग तेरह करोड़ रुपए निकले थे. जहां तक उस पुलिस अफसर की बात है, जिसकी निगरानी में ‘ऑपरेशन रामनिवास’ हुआ, वह बहुत सम्मानित और ताकतवर पुलिस अफसर है. उसकी कई कोठियां और फार्म हाउस हैं, जहां वह अक्सर पार्टियां देता रहता है. इन पार्टियों में नेता, अफसर, पत्रकार, दिग्गज बुद्धिजीवी और कई वरिष्ठ साहित्यकार आते हैं और शराब पीकर उसके कालीन में लोट जाते हैं. राजधानी से निकलने वाले अखबारों में उनका फोटो आप अक्सर देखते होंगे. ये लोग अब हमारी-आपकी तरह आदमी नहीं रह गए हैं. वे मिल-जुल कर एक-दूसरे को ब्रांड में बदल चुके हैं. अगर आप कविता-कहानी पढ़ते हों, तो आपने महसूस किया होगा कि आजकल उनके भीतर से शराब की बेतहाशा गंध आ रही है और उनके वाक्यों के नीचे मुर्गों, बकरों और निर्दोष मनुष्यों की हड्डियों का ढेर दिखाई दे रहा है. अगर आप अपनी झाड़ई की मूठ से समकालीन साहित्य को ठोंकें, तो वही खोखल आपको यहां भी दिखाई देगा, जिसके भीतर नोटों की गड्डियां भरी हैं. पाप का अपवित्रा काला धन. मैं लगभग चौथाई सदी से अपने देश की राजधानी दिल्ली में हूं और डरा हुआ हूं. मुझे संदेह है कि रामनिवास ने उस पुलिस अफसर को यह बता दिया है कि दिल्ली की दीवाल के खोखल का रहस्य उसके द्वारा मुझे पता चल चुका है. आप समझ सकते हैं कि फिलहाल मेरा जीवन कितने खतरे में है. इसके बावजूद जितने भी थोड़े बहुत दिन या महीने या साल इस बदहाल ज़िंदगी के बाकी हैं, मेरी आकांक्षा है कि मैं भी रामनिवास की तरह अपने स्वप्नों के संसार में किसी तरह एक बार प्रवेश कर जाऊं.
तो, इसीलिए आजकल हर रोज़ आधी रात, जब सारी दिल्ली नींद में डूबी हुई होती है, मैं काले कपड़े पहनकर, एक हाथ में कुदाल और दूसरे में एक सब्बल लेकर निकल पड़ता हूं और दिल्ली की दीवारों को अंधेरे में ठोंकता रहता हूं.
मुझे यकीन है कि दिल्ली की अधिकांश दीवालों में असंख्य खोखल हैं और वहां अकूत धन मौजूद है. ऐसा धन जो पूरी तरह अन-अकाउंटेड है. मुझे गहरा पछतावा इस बात का है कि मैंने अपने जीवन के पच्चीस साल फालतू बरबाद किए. पच्चीस दिन भी अगर मैंने यहां की दीवालों को ठोंकने में लगाए होते, तो अब तक मैं करोड़पति हो गया होता और एक सम्मानित जीवन जी रहा होता. अगर आप यह कहानी पढ़ लें तो सब्बल और कुदाल लेकर फौरन दिल्ली की ओर रवाना हो लें. करोड़पति बनने और छप्पर फाड़ कर आने वाली दौलत पाने का यही एक रास्ता अब बचा है. मेहनत, ईमानदारी, प्रतिभा, निष्ठा, लगन वगैरह के रास्ते पर चलकर आप जीना चाहेंगे, तो भूखों मर जाएंगे और पुलिस वाले आपके पीछे पड़ जाएंगे. आपको पता ही होगा, महाराष्ट्र के एक न्यायमूर्ति ने कहा था, भारतीय पुलिस गुंडों और अपराधियों का एक सुसंगठित कानूनी गिरोह है.
मैं फिलहाल किंग्स वे कैम्प के कोरोनेशन पार्क में, अंग्रेज़ सम्राट और दूसरे हुक्मरानों की टूटी-फूटी मूर्तियों के बीच, कोढ़ियों, भिखमंगों, स्मैकियों और लावारिस अनागरिकों के बीच सोता हूं. मैं खुद भी उन्हीं मूर्तियों की तरह खंडित हूं. रीढ़ की हड्डी गल चुकी है और अस्थि यक्ष्मा का रोग मुझे लग चुका है. कभी-कभी मौका लगता है तो दिल्ली के चिड़ियाघर के आगे, हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह के संगमरमर की फर्श पर घंटों बैठा रहता हूं और वही वाक्य दोहराता रहता हूं, जो औलिया ने दिल्ली के बादशाह गयासुद्दीन तुगलक से कहा था. और जिसके बाद बादशाह शराब और जश्न में डूबा, फकत एक शामियाने के ढह जाने से दिल्ली की सरहद पर ही मर गया था. वह जगह अब तुगलकाबाद के नाम से जानी जाती है. जहां पर औलिया की दरगाह है, वहीं पर अमीर खुसरो की मज़ार भी है. वही अमीर खुसरो, जो हिंदी खड़ी बोली के पहले कवि थे और जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में दिल्ली में ग्यारह बादशाहों, उनके दरबारियों और चाटुकारों का उठना और गिरना देखा था. आप अगर वहां जाकर सैयद निज़ामी का रजिस्टर देखें, तो मेरा नाम उसमें लिखा हुआ मिलेगा. यकीन मानिए, वहां मैं सिर्फ अपनी ही नहीं, आप सबकी और अपने प्यारे वतन की खैरियत की दुआ मांगता रहता हूं. भरोसा रखें, औलिया तक मेरी प्रार्थना ज़रूर पहुंच रही होगी. और जल्द ही, अगर पुलिस और दिल्ली के ताकतवरों ने मुझे किसी झूठे जुर्म में फंसा नहीं दिया, तो अपनी कुदाल और सब्बल के बल पर मैं दिल्ली की अनगिनती दीवालों की खोखलों में छुपी दौलत को एक दिन ज़रूर खोज लूंगा. आप भी अगर अपनी किस्मत सुधारना चाहते हों तो, जहां कहीं भी हों, दिल्ली के लिए फौरन रवाना हो जाएं. दिल्ली दूर नहीं है. विश्वास कीजिए, करोड़पति बनने का ही नहीं, दाल-रोटी चलाने का भी यही एक रास्ता अब शेष है. दूसरे रास्ते अखबारों और मीडिया द्वारा फैलाई गई अफवाहें हैं. और कुछ भी नहीं.