‘तन मन जन’ – द थर्ड आई के इस ‘जन स्वास्थ्य व्यवस्था’ संस्करण में हम, भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के संभावित भविष्य पर स्वास्थ्य कर्मचारियों, अर्थशास्त्रियों, कम्यूनिटी लीडर और चिकित्सकों की व्यापक सोच एवं विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं.
क्लिफ्टन डी’रोज़ारियो मंथन लॉ, बंगलुरू से जुड़े एक अधिवक्ता हैं. वो अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियन परिषद (AICCTU) के राष्ट्रीय सचिव और सीपीआई (ML) लिबरेशन, कर्नाटक के राज्य सचिव हैं. डी’रोज़ारियो कर्नाटक में सफ़ाई कर्मचारियों से लेकर ग्रामीण श्रमिक संघों और खाद्य सुरक्षा कार्यकर्ताओं जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य के विभिन्न हितधारकों की एक विस्तृत शृंखला के साथ काम करते हैं. डी’रोज़ारियो ने द थर्ड आई से शिक्षा, खाद्य सुरक्षा या सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि के लिए आगे की नीति निर्माण की प्रक्रिया में समानता के संघर्ष को क्यों सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए के बारे में बात की.
क्या हम सार्वजनिक स्वास्थ्य के एक अंग के रूप में भोजन का अधिकार अभियान और खाद्य सुरक्षा के मुद्दे के बारे में बात कर सकते हैं?
भोजन का अधिकार अभियान भारत में व्याप्त कुपोषण और भूख की बुनियादी स्वीकृति है. इसने अदालतों को लगातार भूख का संज्ञान लेने के लिए बाध्य किया है. इस किस्म [प्रतीकात्मक राहत] के दृष्टिकोण के साथ मेरे मतभेद हैं: भोजन का अधिकार अभियान, मेरा मतलब है, क्योंकि अदालतें कभी भी वर्षों पुरानी और स्थाई ग़रीबी के कारणों का समाधान नहीं करने जा रही हैं. आपको राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना या भोजन की व्यवस्था आंगनवाड़ियों के माध्यम से मिलती है, लेकिन उनमें से कोई भी पर्याप्त नहीं है.
आपको उन कारणों को देखना होगा कि आज मेरी थाली में खाना क्यों नहीं है? थाली में खाना इस वजह से नहीं है कि मैं आलसी हूं? बल्कि ऐसा इसलिए है कि मेरे पास कोई काम नहीं है. या मेरे पास काम है और मैं भरपूर मेहनत करता/ करती हूं लेकिन मुझे काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलता है. मेरे पास नौकरी की या सामाजिक सुरक्षा नहीं है. अगर मैं बीमार पड़ता /पड़ती हूं, तो मुझे अपनी जान देकर भी भुगतान करना होगा.
अगर हमारे देश में कुपोषण इतना अधिक है, तो इसमें न तो बच्चों की ग़लती है और न ही उनके माता-पिता की. हमें लोगों के लिए संतुलित मज़दूरी और अधिक न्यायसंगत संसाधनों की ज़रूरत है.
पिछले वर्ष की घटनाओं ने हमारी खाद्य सुरक्षा नीति के बारे में क्या खुलासा किया?
जब आप चार घंटे की नोटिस पर पूरे देश में लॉकडाउन लगा देते हैं, तो इसका आख़िर क्या मतलब है? आप यह नहीं कह सकते कि आपको नहीं मालूम. आपको इस बात की परवाह ही नहीं है कि अगले दिन देश के अधिकांश लोगों के पास खाने के लिए भोजन नहीं होगा. और उसके बाद सरकार को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना लाने में 10 दिन से अधिक का समय लगा. दो महीने के लिए पांच किलो चावल और दो किलो चना. यह नीतिगत निर्णय बेहद अपमानजनक था और उसमें ज़मीनी हकीकत की समझ का अभाव था. जब आपने उनके कमाने का अधिकार छीन लिया, तो उनके पास नकदी नहीं थी. उनके पास खाना पकाने की गैस नहीं थी. वे तेल या मसाला नहीं ख़रीद सकते थे. ये ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें लोग साप्ताहिक आधार पर खरीदते हैं. दिहाड़ी मजदूरी करने वाले परिवार में रहने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता होगा. सिर्फ़ चावल और चना देकर आपको लगता है कि आप कुछ बढ़िया कर रहे हैं.
अब इस साल में आइए. कर्नाटक को ही लीजिए. अब हमें लॉकडाउन में रहते हुए लगभग तीन सप्ताह हो गए हैं. जब लॉकडाउन की घोषणा की गई, तो राज्य सरकार के पास खाद्य सुरक्षा से संबंधित ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोई नीति ही नहीं थी. इसके बजाय, अब उसने जो कहा है वह यह है कि इंदिरा कैंटीन के भोजन पैकेट गरीबों को दिन में तीन बार वितरित किए जाएंगे. वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में, ग्राम पंचायतें ज़रूरतमंद लोगों को खाने के पैकेट बांटेंगी. आपको उम्मीद है कि मज़दूर वर्ग हर दिन, दिन में तीन बार कतारों में खड़ा होगा. नीति की दृष्टि से राज्य सरकार ने पिछले साल के अनुभवों से क्या सीखा? कुछ भी नहीं.
हाल ही में,
कर्नाटक उच्च न्यायालय में [राज्य में कोविड -19 महामारी के प्रबंधन के संबंध में] एक मामले में बहस करते हुए मैंने कहा कि आप लोगों को भोजन के लिए हर दिन कतार में खड़ा नहीं कर सकते. यह लोगों का अनादर है; आप उनकी गरिमा को ठेस पहुंचा रहे हैं. हर दिन कड़ी मेहनत करने वाले इन लोगों पर आपने लॉकडाउन लाद दिया है. आपने उनसे मेहनत करने की उनकी यह क्षमता छीन ली है और अब आप उनसे भोजन की भीख मांगने के लिए हर दिन एक कतार में खड़े होने की उम्मीद करते हैं.
या आश्रय के अधिकार को देखें. लोगों के पास किराया देने के लिए पैसे नहीं हैं. पिछले साल केंद्र सरकार ने एक एडवाइज़री जारी की थी कि मकान मालिकों को लॉकडाउन की अवधि का किराया नहीं लेना चाहिए या देरी से भुगतान लेना चाहिए. बेशक इसे लागू नहीं किया गया था. इस साल वह मुखौटा भी नहीं था. राज्य दर राज्य ने लॉकडाउन घोषित किया है और आश्रय के अधिकार का कोई संरक्षण नहीं है. आप पहले से ही ऐसे लोगों की कहानियां सुन रहे हैं जिन्हें निकाल बाहर करने की धमकी दी जा रही है.
या कर्ज़ का मसला देखें. बैंकों के बारे में भूल जाइए. ज़रा एक नज़र स्वयं सहायता समूहों पर डालिए. पिछले साल हमने अपनी पार्टी की ओर से लॉकडाउन के बाद यह बहुत बड़ा कर्ज़ माफ़ी अभियान चलाया था. हम विशेष रूप से माइक्रोफाइनेंस संस्थानों को लक्षित कर रहे थे, क्योंकि [शर्तें] सनक भरी हैं. आप एक स्वयं सहायता समूह से कर्ज़ लेते हैं, यदि आप एक किस्त भी नहीं देते हैं, तो दस महिलाएं आपके घर के बाहर आकर आपसे यह पूछने लगेंगी कि क्या हो रहा है, बेहतर होगा कि आप अभी भुगतान कीजिए. बुनियादी रूप से यह मन-मर्यादा वो चीज़ है, जिससे वे खिलवाड़ करते हैं. पिछले साल के लॉकडाउन के कुल प्रभाव को देखें. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) की रिपोर्ट को देखें और आप बड़े पैमाने पर नौकरी के नुकसान, बढ़ती बेरोज़गारी दर, घटती मज़दूरी पाएंगे. लेकिन मज़दूर वर्ग को कर्ज़दारों से या किसी माइक्रोफाइनेंस संस्थान से कोई सुरक्षा नहीं है, कुछ भी नहीं. किसी भी तरह के नीतिगत बयान या वैज्ञानिक सोच को खोजना बहुत मुश्किल है.
आपकी राय यह है कि खाद्य सुरक्षा, आश्रय, वित्तीय जोखिम और अन्य कारकों को सुलझाए बिना सार्वजनिक स्वास्थ्य को, यहां तक कि अल्पकालिक तौर पर भी, ठीक करना संभव नहीं है. जब आप हाल ही में उच्च न्यायालय में बहस कर रहे थे तो कर्नाटक सरकार को आपकी क्या सलाह थी?
हम लोगों ने राज्य सरकार को जो सुझाव दिया है, उसमें गरीब परिवारों को इस मुश्किल वक़्त में मदद करने के लिए नकद सहायता दिए जाने की बात थी. हमने मुफ़्त राशन की सिफारिश की, जिसका अर्थ है मुफ़्त राशन किट – चावल, दाल, मसाला, खाना पकाने का तेल, रसोई गैस, जो भी ईंधन वे उपयोग कर रहे हैं, वे सभी चीजें.
हमने मांग की कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत एक आदेश पारित किया जाए, जिसमें किराए का भुगतान न करने पर किसी भी व्यक्ति को उसके घर से बाहर निकालने पर रोक लगाई जाए. हमने बिजली एवं पानी के सभी बिलों की माफ़ी और माइक्रोफाइनेंस संस्थानों, निजी ऋणदाताओं और निश्चित रूप से, राष्ट्रीयकृत बैंकों के सभी ऋणों में से किसी भी ऋण के पुनर्भुगतान पर रोक लगाने की मांग की.
हमने यह भी कहा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत, आंगनबाड़ियों के माध्यम से, सरकार छह साल से कम उम्र के बच्चों, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और किशोरियों की पोषण संबंधी ज़रूरतों को पूरा करे [और ये सब] उनके घर तक पहुंचाई जानी चाहिए. साथ ही, स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन भी. आप पूछ सकते हैं कि हमें इसकी अनुशंसा करने की ज़रूरत क्यों है, क्या इसके लिए एक वैधानिक आदेश नहीं है? लेकिन पिछले साल उन्होंने ऐसा नहीं किया. स्कूल बंद रहने के कारण कर्नाटक में स्कूली बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं दिया गया. आदेश था कि बच्चों को उतनी ही मात्रा में अनाज दिया जाएगा, ताकि वे उसे अपने घरों में पका सकें. हमारी सरकार ने कई महीनों तक [यह] नहीं किया. इसलिए हमें ऐसा करवाने के लिए अदालत का रुख करना पड़ा.
अगर आप एक बड़ी अवधारणा के तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में सोचते हैं, वर्तमान महामारी की स्थिति से परे, तो क्या कभी इसे हकीकत बनाने और इसके लिए नीतिगत संदर्भ में सोचने का प्रयास किया गया है?
[अगर आप महामारी को देखें] केरल मॉडल, निश्चित रूप में काफी हद कर अच्छा उदाहरण है. उनके यहां मरीज़ों की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन मौतें बहुत कम है. यह इस बात का संकेत है कि वहां कम से कम स्वास्थ्य तक पहुंच का ध्यान रखा जा रहा है. मैंने किसी के मरने की एक भी ऐसी रिपोर्ट नहीं सुनी कि उनके पास ऑक्सीजन नहीं था या उनके पास बिस्तर नहीं था. जिस क्षण उन्होंने लॉकडाउन की घोषणा की, उन्होंने हर घर के लिए पैक राशन किट पैकेज की घोषणा की. यह लोगों के साथ व्यवहार करने का एक बहुत ही सम्मानजनक तरीका है. मुंबई के ट्राइएज सिस्टम में शहरी मॉडल के कुछ संकेतक हैं. वे ऐसे तत्व हैं, जिसके बारे में लगता है कि अभी काम कर रहे हैं.
ग्रामीण इलाकों में जिस तरह से कोविड फैल रहा है, उसके मद्देनज़र अगर उत्तर प्रदेश को नज़ीर माना जाए, तो स्थिति से निपटने के लिए तैयार न होने के गंभीर परिणाम होंगे. हरेक ग्राम पंचायत में एक कोविड केंद्र होना चाहिए. गरीबी और बहुत छोटे घरों को देखते हुए आप लोगों से अपने घरों में खुद को क्वारंटीन करने की उम्मीद नहीं कर सकते. यह सुनिश्चित करने के लिए कि क्वारंटीन हो सकता है और जांच हो सकती है, गांवों में कोविड केंद्र होने चाहिए, और कम से कम ऑक्सीजन और दवाओं की बुनियादी आपूर्ति होनी चाहिए. बीमारी के बढ़ने के मामले में, गांव के लोगों को यह पता होगा कि वे कोविड केंद्र में जा सकते हैं और वहां एक डॉक्टर, आशा कार्यकर्ता और एएनएम (ANM) कार्यकर्ता होंगे जो यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि इस व्यक्ति को अस्पताल ले जाया जाए. यह सबसे बुनियादी चीज़ है जिसे करने की ज़रूरत है.
क्या इस महामारी की वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी कोई महत्त्वपूर्ण बहस परदे के पीछे से निकल कर सामने दृश्यपटल पर आ गई है?
अधिकांश लोग संकट की जिस स्थिति में हैं और जिस वजह से हम इस वक़्त आंदोलन नहीं कर सकते, उसे देखते हुए ये बहसें सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा नहीं बन पाई हैं. और मध्यम वर्ग को जानते हुए, वे अच्छी तरह से वापस वहीं जा सकते थे जहां वे थे. फिलहाल, वे निजी अस्पतालों में जाकर टीका लगवाने की कोशिश करने में ही ज़्यादा खुश हैं.
फिर भी, सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर ख़र्च की जाने वाली राशि के बारे में बात करने की कोशिश ज़रूर है. यदि आप सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों की स्थिति को देखें, तो यह पूरे देश में एक जैसी नहीं है. कुछ राज्यों में [वे] बेहतर हैं और कुछ जगहों पर वे पूरी तरह से चरमरा रहे हैं. बिना किसी संदेह के इस [सिस्टम] को अपग्रेड करने की ज़रूरत है.
दूसरी बात, जिस तरह से ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है और टोसीलिज़ुमैब एवं रेमडेसिविर जैसी दवाओं का पूरी तरह से केंद्रीकरण किया जाता है. केंद्र सरकार अब तय करती है कि किस राज्य को कितना मिलेगा. टीकाकरण के मामले में भी, सब कुछ केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाता है जिसने बुनियादी रूप से लाभ के लिए मॉडल बनाया है. हमारे जैसे संघीय ढांचे में यह चिंताजनक है. इस महामारी ने न केवल संघवाद पर हमले, बल्कि राज्य सरकारों के निर्णय लेने के अधिकार की असलियत का खुलासा किया है. ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों का सीमांकन बहुत गड़बड़ हो गया है. यह एक ऐसी बात है, जिसे जल्द से जल्द सुलझाना होगा.
तीसरी बात हमारी समझ से यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में कौन लोग काम करते हैं. आशा कार्यकर्ता और सफाई कर्मचारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के अभिन्न अंग हैं. सफाई कर्मचारियों को फ्रंटलाइन वर्कर कहा जाता है. आशा कार्यकर्ताओं को स्वास्थ्य कार्यकर्ता कहा जाता है. वे इस महामारी के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे हैं, लेकिन उनकी हालत देखिए.
देशभर में सफाई कर्मचारी ठेके पर काम करने वाले मज़दूर हैं, उन्हें न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती है और वे पहले से ही एक बहुत ही ज़्यादा शोषक प्रणाली में काम कर रहे हैं. और फिर इस महामारी का आगमन होता है. जिस घर में कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति होता है, वहां से आने वाले कचरे को बाकी कचरों की तुलना अलग तरह से निपटाना पड़ता है, नहीं तो कोविड फिर से फैलने लगेगा. सफाई कर्मचारियों को बुनियादी सुरक्षा तक पहुंच से भी वंचित रखा जाता है. वे कचरे को अपने नंगे हाथों से इकट्ठा करते हैं, खुद को इस महामारी के सामने परोसते हैं. बुनियादी सुरक्षा उपकरणों के अभाव के कारण [अन्य बातों के अलावा] बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारियों की मृत्यु हुई है.
और यहां यह सिर्फ एक वर्ग का सवाल नहीं है, बल्कि जाति और लिंग का भी सवाल है. यह इस बात से जुड़ा है कि सरकार स्वच्छता कार्यकर्ताओं या आशा कार्यकर्ताओं के बारे में कितनी गंभीरता से चिंतित है. यहां तक कि अस्पतालों के मामले में भी. अधिकांश नर्स अनिश्चित अनुबंध पर हैं. ग्रुप डी के कर्मचारी, जो मुख्य रूप से महिलाएं हैं; वार्ड बॉय, लिफ्ट ऑपरेटर, सफाईकर्मी, शौचालय की सफाई करने वाले, माली – ये सभी अनुबंध पर हैं. और फिर, वे सभी उसी दमनकारी कामकाजी परिस्थितियों के शिकार हैं और इस महामारी से लड़ने में सबसे आगे हैं. उनकी जान की परवाह किए बिना आज भी उनके साथ बेहद अपमानजनक व्यवहार किया जाता है. यह एक और बहुत गंभीर चिंता का विषय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि ये सब जल्द ही ठीक हो.
आपके हिसाब से सार्वजनिक स्वास्थ्य की नींव रखने के लिए हमें किन बदलावों की ज़रूरत है, जो इतने स्पष्ट नहीं हैं जब हम स्वास्थ्य के बारे में सिर्फ अस्पतालों और दवाओं के संदर्भ में सोचते हैं?
पहला, संतुलित मज़दूरी बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करेगी. हम अभी भी ऐसे समय में रह रहे हैं जहां हम न्यूनतम मज़दूरी के बारे में बात कर रहे हैं, जोकि भुखमरी वाली मज़दूरी के अलावा और कुछ नहीं है - 10,000 रुपये, 8,000 रुपये. संविधान वास्तव में संतुलित मज़दूरी के बारे में बात करता है. हमारे अनुमान के मुताबिक, इस समय न्यूनतम मज़दूरी भी लगभग 25,000 रुपए होगी. एक संतुलित मज़दूरी इससे बहुत ऊपर होगी.
दूसरा, श्रमशक्ति का यह पूरी तरह से सुनियोजित संविदाकरण और अनौपचारिकीकरण जो पिछले 30 वर्षों में हुआ है. अगर इसे पलटकर पहले वाली स्थिति में लाया जाता है, तो सभी किस्म की मज़दूरी अपने आप बढ़ जाएगी और वे नौकरी एवं सामाजिक सुरक्षा, कुछ हद तक आर्थिक सुरक्षा का भी आनंद ले सकेंगे. अगर किसी व्यक्ति को ऐसे जीवन की गारंटी दी जाती है जहां आपको आश्रय के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, एक सार्वजनिक वितरण प्रणाली जहां आपको भोजन के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है … मेरे लिए सभी क्षेत्रों में समानता सुनिश्चित करने का विचार, बहुत ही बुनियादी है. बहुत से लोग किन्हीं कारणों से काम नहीं कर सकते. हर एक परिवार के लिए एक मासिक गारंटीकृत आय यह सुनिश्चित करती है कि वे इंसान के रूप में रह सकें.
जहां तक स्वास्थ्य प्रणाली का सवाल है, मैं कहूंगा कि यह अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करने के बारे में है, खासकर ऐसे समय में. जैसे स्पेन ने 2020 में किया था. यदि आप ऐसा नहीं करने जा रहे हैं, तो आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत सरकार के पास आवश्यक संसाधनों को अपने कब्ज़े में लेने की शक्ति है. वे कह सकते हैं कि हम जिस तरह की स्थिति में हैं, इस संकट से निकलने तक स्वास्थ्य से जुड़ा हरेक संस्थान सरकार के अधीन रहेगा.
अगर हमें अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करने के लिए एक मध्यम अवधि की योजना बनानी हो, तो हमें कहां से शुरूआत करनी होगी? आप जानते हैं कि इसे पूरा करने के लिए मतदाताओं को किस तरह की चीज़ों की मांग करने की ज़रूरत है और नागरिकों को निगरानी करने की ज़रूरत है?
दरअसल, इसका जवाब आसान है. ऐसी स्थिति इसलिए है क्योंकि हमारे पास एक कार्यशील लोकतंत्र नहीं है और इसलिए हम इस किस्म की गड़बड़ी में हैं. कौन कर रहा है ये फैसले? अगर एक पूरी निर्वाचित व्यवस्था सिर्फ 10 उद्योगपतियों के एक झुंड के लिए काम कर रही है, तो यह लोगों की सरकार नहीं है. लोकतंत्र का मतलब महज़ चुनाव नहीं है. इसका मतलब है कि आपके पास एक बहुत मज़बूत विपक्ष है; आपको असहमति का अधिकार है, इसके कई और तत्व. देश की ओर से निर्णय लेने वालों को समाज के [हाशिए पर पड़े] वर्गों का प्रतिनिधि होना होगा. तभी कुछ बदलेगा, नहीं तो हम इसी किस्म के झंझट में पड़ जाएंगे.
अगर राष्ट्रीयकरण नहीं हो, तो क्या आपको लगता है कि स्वास्थ्य सेवा, नीतिगत मसलों और निर्णय लेने की प्रक्रिया के बड़े पैमाने पर विकेंद्रीकरण से हमें मदद मिलेगी?
मुझे लगता है कि यह होगा, लेकिन फिर से यह इस बात पर निर्भर करेगा कि ऐसा होता कहां पर है. अगर यह इस विशेष प्रणाली के तहत होने वाला है, तो यह काम नहीं कर पाएगा. केरल में, कुछ हद तक, एक बहुत मज़बूत विकेन्द्रीकृत किस्म की शासन संरचना है. वहां की पंचायतें सिर्फ रबर स्टैंप या मोहरा नहीं हैं. वे वास्तव में योजना बनाने से लेकर तमाम बड़े फैसले लेते हैं. विकेंद्रीकरण आवश्यक है लेकिन साथ में वित्तीय स्थिरीकरण भी होनी चाहिए. आप उत्तरी कर्नाटक जैसे गरीब इलाके के किसी गांव से ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते. आप उनसे यह नहीं कह सकते कि, ये तीन गांव, आप लोग जो चाहें करें, सब कुछ आपके हाथ में है. आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि वित्तीय स्थिरता हो, उनके पास अपने सभी निवासियों के लिए सभ्य जीवन सुनिश्चित करने के लिए संसाधनों तक पहुंच हो.
यहां बुनियादी सवाल यह है कि कोई इन संरचनात्मक असमानताओं और हमारे समाज में मौजूद संरचनात्मक दर्ज़ाबंदी से कैसे निपटता है. यह सच्चाई किसी एक नीतिगत निर्णय से दूर नहीं होने वाली.
शिक्षा प्रणाली को लीजिए, ठीक है ना? आप मूल रूप से वहां एक गैरबराबरी वाली नस्ल पैदा कर रहे हैं. समाज में समतावाद की भावना के बिना एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली समतावादी नहीं बन सकती.
इस लेख का अनुवाद जितेन्द्र कुमार ने किया है.