कोविड महामारी ने पूरे देश में जन स्वास्थ्य व्यवस्था की चरमराती स्थिति हमारे सामने लाकर खड़ी कर दी. ऐसे में पहली नज़र में ये मिशन जन स्वास्थ्य के लड़खड़ाते-गिरते सिस्टम को खड़ा कर पटरी पर लाने की एक ज़ोरदार पहल मालूम होता है. अलग-अलग अस्पतालों की जांच रिपोर्ट एवं काग़ज़ात साथ लेकर घूमने से आज़ादी, मरीज़ के स्वास्थ से जुड़ी हर जानकारी का ऑनलाइन उपलब्ध होना और उसे हॉस्पिटल, डॉक्टर, दवा दुकानों एवं फार्मा कंपनियों से आसानी से साझा किए जाने की सुविधा, साथ ही ऑनलाइन दवाइयां मंगवाने की सुविधा भी इसमें शामिल है, ताकि लोग अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था का लाभ उठा सकें.
लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था में इस चमक-धमक वाले डिजिटल तारे की परछाईं के नीचे बहुत सारे सवाल हैं जिन्हें पूछा जाना ज़रूरी है. रोहिन का कहना है,
“ये अजीब है कि जब देश महामारी की मार झेल रहा है, लोग घरों के अंदर रहने को मजबूर हैं, भूखे मर रहे हैं, वहीं देश के प्रधानमंत्री की प्राथमिकता में एक डिजीटल कार्ड क्यों हैं?”
किसी व्यक्ति की निजी सूचनाओं को हासिल करना
ये सिर्फ़ एक कार्ड या नंबर भर नहीं है. इसमें किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़ी अहम जानकारियां शामिल हैं. हेल्थ कार्ड के ज़रिए मेरा नाम, लिंग, जाति, धर्म, स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े, बायोमैट्रिक और जेनेटिक डेटा, ये सारी जानकारियां सरकार आसानी से प्राप्त कर सकती है. सवाल ये है कि क्या सरकार इन जानकारियों को गोपनीय रख पाएगी? क्या इनका दुरूपयोग हो सकता है? अगर हां, तो कैसे? और क्या इसका इस्तेमाल जन कल्याण के लिए ही होगा?
कुछ दिन पहले मेरे पास एक अनजान नंबर से फ़ोन आया. फ़ोन करनेवाला मुझे नई पिज़्ज़ा कंपनी के कूपन फ्री में देना चाहता था. मैंने इंकार कर, फ़ोन रख दिया. आधे घंटे बाद उसी व्यक्ति ने मुझे वाट्सएप्प पर मेरी ही वाट्सएप्प डीपी भेजकर मेसेज लिखा ‘आप बहुत सुंदर हैं.’ कुछ सेकेंड के लिए मेरी धड़कने रूक गईं. मैंने मेसेज डिलीट कर नंबर ब्लॉक कर दिया. डरी हुई मैं, यही सोचती रही कि मेरा नंबर उसे कैसे मिला? उसी दिन देर शाम मुझे पता चला कि डॉमिनोज़ पिज़्ज़ा के कम्प्यूटर से 3 करोड़ लोगों के नाम, उनका फ़ोन नंबर, उनका पता, क्रेडिट कार्ड डिटेल्स किसी ने चुरा कर, उन्हें इंटरनेट पर डाल दिया है. उनमें मेरा नंबर भी शामिल था. साथ ही मेरे घर, दफ़्तर और दोस्तों के घर का पता भी!
वैसे तो फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम के ज़रिए हम ख़ुद ही अपनी तस्वीरें और आसपास से जुड़ी चीज़ें साझा करते हैं. लेकिन, ऑनलाइन फ्रॉड आज सोशल मीडिया का दूसरा पहलू बन गया है. कुछ लोग इसका फ़ायदा उठाकर ग़लत (फ़ेक) प्रोफाइल बना लेते हैं और धोखे से पैसे मांगते हैं या ज़हरीली ख़बरों को फैलाने का भी काम कर रहे हैं.
आज के समय में हमारे जीवन से जुड़ी हुई बातें- जैसे हम क्या खाते हैं, क्या ख़रीदते हैं, कितना कमाते हैं. कहां रहते हैं, कौन से बैंक में पैसे रखते हैं, ये तमाम जानकारियां सोने-चांदी से कम महत्त्व नहीं रखतीं. तकनीकी भाषा में इन्हें ‘डेटा’ कहा जाता है. आज जिसके पास डेटा है, वही शक्तिशाली है. बड़ी-बड़ी कंपनियां भी इस डेटा की लगातार ख़रीद-फरोख़्त करती रहती हैं.
कंपनियों द्वारा डेटा का इस्तेमाल हर तरह के उत्पादन की बिक्री के लिए किया जाता है. उदाहरण के लिए, यहां फ्लैट्स बिक रहे हैं, क्या आप लोन लेना चाहते हैं? स्वास्थ्य का बीमा करवा लीजिए या कपड़ों की नई दुकान खुली है – ऐसे तमाम अनजान फोन कॉल्स और एसएमएस हमारे पास इसलिए आते हैं क्योंकि उनके पास हमारे बारे में ज़रूरी जानकारियां हैं. कभी-कभी इसका फायदा उठाते हुए लोग ब्लैक मेल भी करते हैं.
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि व्यक्ति के जीवन से जुड़ी जानकारियों का बिना उनकी सहमति के इस्तेमाल करना ग़लत है और इसे निजता के अधिकार से जोड़ते हुए, मौलिक अधिकार की श्रेणी में शामिल किया. साथ ही इसके ग़लत इस्तेमाल को असंवैधानिक करार देते हुए सरकार से जवाब मांगा कि वह लोगों की जानकारियों से जुड़े डिजिटल दस्तावेज़ों की सुरक्षा कैसे कर रही हैं?
सरकार ने आश्वस्त करते हुए कहा कि आधार से जुड़ी डिजिटल जानकारियां बिल्कुल सुरक्षित हैं और उन्हें एक बड़े से गोदाम में कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता है.
लेकिन, जब इंडेन गैस की वेबसाइट से 67 लाख लोगों की आधार से जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक हो जाती हैं और तमिलनाडू के पीडीएस के कम्प्यूटर से लगभग 50 लाख लोगों के मोबाइल नंबर, परिवार से जुड़ी संवेदनशील जानकारियां लीक हो जाती हैं, तो ये दावे खोखले नज़र आते हैं.
मेरी राय या रज़ामंदी का महत्त्व
डिजिटल हेल्थ कार्ड में मेरी राय या रज़ामंदी का कोई प्रश्न ही नहीं है, कम से कम इतना तो होना चाहिए कि मुझे बता कर, मेरी मर्ज़ी से कोई मेरे डेटा का इस्तेमाल करे. मान लीजिए मैं एलजीबीटी समुदाय से हूं और मैं नहीं चाहती कि हर किसी को मेरे बारे में पता चले, तो मेरे पास ये अधिकार होना चाहिए कि मैं अपनी इस पहचान को सीमित रख सकूं. जो ये पॉलिसी मुझसे छीन लेती है.
रोहिन कहते है,
“जिन लोगों ने कोरोना वैक्सीन के रजिस्ट्रेशन में आधार कार्ड का इस्तेमाल किया है उनकी अनुमति के बिना ही उनका हेल्थ आईडी कार्ड बना दिया गया. वे अपना हेल्थ आईडी (UHID) वैक्सीन सर्टिफिकेट पर देख सकते हैं.”
हेल्थ कार्ड व आधार कार्ड में समानताएं
“विदेशों का उदाहरण लें तो ऑस्ट्रेलिया में इससे मिलती-जुलती व्यवस्था है. केरल में भी इस तरह की पहल की गई थी लेकिन मरीज़ के संपूर्ण स्वास्थ्य की जानकारी होने के बावजूद भी डॉक्टरों द्वारा सिर्फ़ 10 से 15 प्रतिशत डेटा का ही इस्तेमाल किया जा सका. फ़िर इतने सारे डेटा की क्या ज़रूरत है? परिस्थितियां इस ओर इंगित करती हैं कि इसका इस्तेमाल लोगों पर ऩज़र रखने के लिए या फ़िर किसी तरह के मुनाफ़े के लिए किया जा सकता है.”
हाल ही में देश के कई राज्यों में आशा वर्कर्स ने सड़क पर उतरकर आंदोलन किया. हरियाणा की आशा वर्कर्स की कई मांगों में यह भी शामिल था कि वे राज्य सरकार द्वारा दिए गए फ़ोन का इस्तेमाल नहीं करेंगी. रोहिन के अनुसार, “नेशनल हेल्थ मिशन के अंतर्गत हरियाणा में 22 हज़ार आशा वर्कर्स ने सरकार द्वारा दिए गए मोबाईल फ़ोन को वापस कर, एमडीएम एप्प को डाउनलोड करने से मना कर दिया. वे इसके खिलाफ़ आंदोलन भी कर रही हैं. एक तरफ़ दूसरी लहर में फ्रंटलाइन पर खड़े होकर काम करते हुए भी उन्हें अपनी सुरक्षा से जुड़े मास्क और सैनिटाइजर तक सही से नहीं दिए गए वहीं, एप्प के ज़रिए सरकार आशा वर्कर की लोकेशन, यहां तक कि कब वे शौच करने के लिए बाथरूम जाती हैं इसकी जानकारी तक रखना चाहती है.”
रोहिन बताते हैं, “इसी तरह चंडीगढ़ में नगर निगम द्वारा सफ़ाई कर्मचारियों को जीपीएस ट्रैकिंग वाली घड़ी (जिसमें हर साल 2.24 करोड रुपए का खर्च आएगा) पहन कर काम करने पर मजबूर किया जा रहा है ताकि उनके हर कदम की निगरानी रखी जा सके. सोचिए, सफ़ाई कर्मचारी जिनकी जान की सुरक्षा के लिए मास्क और ग्लव्स पर ख़र्च तक नहीं किया जाता उनपर जीपीएस के ज़रिए निगरानी का काम हो रहा है.”
आधार कार्ड में इससे जुड़े पैन कार्ड, बैंक अकाउंट के अलावा कई अन्य जानकारियां भी पहले से मौजूद हैं. इसमें हेल्थ कार्ड के ज़रिए स्वास्थ्य पर जानकारियां भी जुड़ जाएंगीं. इस तरह सब कुछ एक कार्ड में, एक ही जगह उपलब्ध होगा.
सरकार ने इन कार्ड्स को एक नागरिक के रूप में हमारे वजूद का हिस्सा बना दिया है. अगर, ये डिजिटल कार्ड ग़लत हाथों में पड़ जाएं तो क्या होगा? अगर, कोई स्वास्थ्य के नाम पर मेरे ऊपर निगरानी रखने की कोशिश करे तो मैं क्या कर सकती हूं?
नेशनल डिजिटल स्वास्थ मिशन की घोषणा के वक़्त यही कहा गया था कि ये स्वैच्छिक है, मतलब नागरिक अपनी इच्छा से इसमें रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं. लेकिन, कैरावन पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार इसमें रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए डॉक्टरों पर दवाब बनाया जा रहा है.
“चंड़ीगढ़ पीजीआईएमआर (PGIMR) में हमने देखा कि स्थानीय एडमिनिस्ट्रेशन ने नोटिस जारी कर सभी डॉक्टरों के लिए इसमें रजिस्टर करना ज़रूरी कर दिया. पुदुचेरी में स्कूलों के ज़रिए बच्चों एवं उनके अभिभावकों का हेल्थ आईडी कार्ड बनवाना बच्चे के एडमिशन का ज़रूरी हिस्सा बना दिया गया. इससे किसे फ़ायदा हो रहा है?” रोहिन कहते हैं.
यहां तक की कोरोना वैक्सीन के लिए भी आधार कार्ड को अनिवार्य किया जा रहा है. भले ही आधिकारिक तौर पर रजिस्ट्रेशन के समय अन्य आईडी ऑप्शन भी मौजूद होते हैं, लेकिन, वैक्सिनेशन सेंटर पर आपसे आधार कार्ड ही मांगा जाता है.
क्या हेल्थ कार्ड के ज़रिए प्राइवेट कंपनियों का फायदा पहुंचाया जा रहा है?
दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर राहुल शर्मा के दांत में तेज़ दर्द होता है. वे सिविल लाइंस के एक प्राइवेट हॉस्पिटल जाते हैं जहां दांतों के इस्पेशलिस्ट बताते हैं कि उनकी अक्ल दाड़ बराबर के दांत की मांसपेशियों को नुकसान पहुंचा रही है इसलिए उन्हें दर्द हो रहा है. वे राहुल को सुझाव देते हैं कि वे सर्जरी द्वारा अक्ल दाड़ को निकलवा लें और दर्द से हमेशा के लिए छुट्टी पा ले. इसके लिए 30 हज़ार रुपए देने होंगे. इस बीच राहुल एक्स-रे और फ़ीस में 2500/- रूपए ख़र्च कर चुके हैं.
अब राहुल अपने भाई के ज़रिए एक डॉक्टर दोस्त से संपर्क करते हैं. उसने एक्स-रे देखने के बाद कहा कि अक्ल दाड़ को निकलवाने की ज़रूरत नहीं. डॉक्टर दोस्त ने पेन किलर के साथ गर्म पानी से गरारा करने की सलाह दी. दोस्त ही सलाह से 7 साल बाद भी राहुल के दांतों में कोई दर्द नहीं है और अक्ल दाड़ सही सलामत उनके मुंह में चमक रही है.
प्राइवेट सेक्टर सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए काम करता है. हॉस्पिटल और डॉक्टर्स लोगों से मनमानी फ़ीस वसूलते हैं. कोविड महामारी के दौरान लोगों पर बढ़ते इलाज़ के ख़र्चे ने लाखों परिवारों को आर्थिक तंगी की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है. आंध्र-प्रदेश में एक मरीज़ ने इलाज का पूरा ख़र्च न दे पाने की वजह से अस्पताल के कॉरीडोर में फांसी लगा कर अपनी जान दे दी. कई परिवार भयंकर कर्ज़ में डूबे हुए हैं.
सरकार द्वारा प्राइवेट सेक्टर में किसी भी तरह के रेगूलेशन को लेकर कोई रोक-टोक नहीं है. क़ानून होने के बावजूद भी उसे सही से लागू नहीं किया जा रहा. ऐसे में किसी हॉस्पिटल को अपना या परिवार के स्वास्थ्य का पूरा डेटा सौंपना ख़ुद ही जाकर बड़ी मछली के मुंह में फंसने जैसा है.
नेशनल हेल्थ स्कीम में प्राइवेट सेक्टर भी इसका एक बड़ा हिस्सा है. वर्तमान में पॉलिसी के नियमों को देखकर ऐसा लग रहा है कि ये प्राइवेट सेक्टर को फायदा पहुंचाने के लिए लागू किया जा रहा है क्योंकि इसके पूरे ढांचे में लोगों की निजता को बचाए रखने के प्रति कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है.
कोई भी मेरी निजी जानकारियों को आसानी से हासिल कर सकता है. यहां गोपनियता को महत्त्व नहीं दिया जा रहा. यहां तक की जानकारियों के दुरूपयोग को लेकर भी कोई ठोस व्यवस्था नहीं हैं.
रोहिन कहते हैं, “ज़रा सोचिए पहले से ही इलाज़ की मार झेल रही मिडिल क्लास के साथ, दवाई कंपनियां क्या कहर ढाह सकती हैं. मुझे किसी दवाई की ज़रूरत है और फ़र्मा कंपनी मेरे डेटा के ज़रिए जानती है कि मेरे लिए ये दवाई बहुत अर्जेन्ट है, तो ज़ाहिर है कि वो मुझे ज़्यादा कीमत पर दवा बेचेगी. ऐसे में ये ब्लैक मार्केट को लीगल करने का माध्यम बन सकता है. ग़रीब तो पहले ही सुविधाओं से दूर थे, वे और भी दूर होते जाएंगे. मतलब ये वो अंधा कुंआ है जिससे निकलना आसान नहीं होगा. हम आधार का उदाहरण अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं.”
दूसरे उदाहरण में आयुष्मान भारत योजना को ही ले लें. हॉस्पिटल और डॉक्टर्स को पता है कि रजिस्टर्ड ग़रीब परिवार के पास पांच लाख का बीमा है. पेट में दर्द की वजह से परिवार वाले अपने बच्चे को अस्पताल लेकर जाते हैं. जांच में गैस की मामूली परेशानी सामने आती है लेकिन अस्पताल पेट की बड़ी बीमारी का नाम बताकर इलाज और दवाई के नाम पर हज़ारों रुपए का बिल बना देते हैं. आयुष्मान भारत योजना की ऐसी धोखाधड़ी देश में हर जगह देखने को मिल रही है, ख़ासकर गांवों में आशा वर्कर्स का कहना है कि पैसे वसूलने के चक्कर में बिना ज़रूरत लोगों की सर्जरी तक कर दी जा रही है.
क्या तकनीक के ज़रिए स्वास्थ्य तक पहुंच से संबंधित असमनाताओं को दूर किया जा सकता है?
“इसमें कोई शक नहीं कि मानव इतिहास में इंटरनेट के आगमन ने बहुत बड़ी क्रान्ति ला दी है. आज हम तमाम तरह की सुविधाएं मिनटों में हासिल कर लेते हैं जिसकी कल्पना भी हमारे पुरखों ने नहीं की होगी. इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन में हम ख़ुद तकनीकी आज़ादी की पैरवी करते हैं, ताकि इससे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का फायदा हो सके ना कि इसे तोड़-मरोड़ कर लोगों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ किया जाए.” रोहिन बताते हैं.
लेकिन, तकनीक और भूख, सोच कर देखिए कि किसी ग़रीब के लिए ये कैसा भंवर है! तकनीक इंसान को नहीं डिजिटल कोड को पहचानती है और इसमें एक छोटी सी गड़बड़ी हमें गहरी खाई में धकेलने के लिए काफ़ी है.
झारखंड के सिमडेगा में भूख से एक बच्ची की मौत हो गई. कारण, राशन कार्ड से आधार का लिंक न होना. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 3 करोड़ लोगों के राशन कार्ड इस बुनियाद पर ख़ारिज कर दिए गए कि वे आधार से लिंक नहीं थे.
भारी सामान ढ़ोने या कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूरों के उंगलियों के निशान घिस जाने की वजह से आधार बायोमेट्रिक में उनकी उंगलियों के निशान मैच नहीं कर रहे और वे राशन से वंचित हो रहे हैं. इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों द्वारा की गई तकनीकी ग़लती से आधार नंबर किसी और के नाम से जुड़ जाना, या लिस्ट से अचानक नाम ग़ायब हो जाना, या आधार कार्ड के खो जाने की वजह से भी लोग राशन और पेंशन की सुविधाओं से वंचित हो रहे हैं.
ग़रीबों के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना बहुत मुश्किल काम है. उन्हें ठीक से नहीं पता होता कि किस तरह के डॉक्यूमेंट की ज़रूरत है या कहां जाकर वे अपनी परेशानी बता सकते हैं. ऊपर से वर्तमान में हमारी सरकारी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि उससे गुज़रना अपने आप में एक सज़ा है.
सरकारी बाबू कह देते हैं कि ये – मशीन की ग़लती है. वे इसमें कुछ नहीं कर सकते. और मशीन की एक ग़लती के सुधार में महीनों-सालों बीत जाते हैं.
हेल्थ कार्ड में ऐसी एक ग़लती किसी की जान ले सकती है या फ़िर उन्हें सरकारी सुविधाओं से बाहर करने का आधार भी बन सकती है.
“कोविड की दूसरी लहर के दौरान गुड़गांव के अस्पताल में एडमिशन के लिए ज़रूरी था कि आप गुड़गांव के निवासी हों और आपके आधार में गुडगांव का पता हो. एक ऐसा शहर जहां एक बड़ी आबादी अप्रवासी मज़दूरों की है, वहां महामारी के दौरान इलाज के लिए वहां के निवासी होने का सबूत मांगा जा रहा था और न होने पर ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित कर दिया गया था.” रोहिन बताते हैं.
वैक्सीन और सांप-सीड़ी का खेल
लूडो के इस गेम में सौ से एक अंक भी कम हुआ नहीं कि आपको सांप काट लेगा और आप वापस दो पर आ जाएंगे. भारत की वैक्सीन पॉलिसी जिसे सौ प्रतिशत से कम नहीं होना था, इसी निन्यान्वे के फेर में लटकी हुई है.
बात ये है कि डिजिटल पर इतना भरोसा क्यों? क्या तकनीक अकेला वो रामबाण है जिसके ज़रिए अमीर और ग़रीब के भेद-भाव को मिटाया जा सकता है? सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के अभी के ढांचे को देखते हुए क्या यह संभव है कि राज्य सरकार दूर-दराज़ के गांवों के लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियों को डिजिटल कर सके?
सरकार ने पोलियो, डीपीटी जैसे वैक्सीन लगाने के परंपरागत तरीकों को छोड़कर डिजिटल कोविन एप्प के ज़रिए लोगों को वैक्सीन लगाने की शुरुआत की.
“वैक्सीन को डिजीटल करने से साफ़ जाहिर था कि जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं हैं उन्हें वैक्सीन नहीं मिलेगी. इसी तरह 18-45 की उम्र के लोगों के लिए जब वैक्सीन की बारी आई तो सरकार ने स्लॉट बुकिंग का ऑप्शन रख दिया. अब न सिर्फ़ आपको स्मार्ट फोन चाहिए, इंटरनेट चाहिए आपको ख़ुद भी इतना स्मार्ट होना पड़ेगा कि आप एक सेकेंड में ख़त्म हो जाने वाले स्लॉट (कोवैक्सीन की बुकिंग से संबंधित) की मारामारी में अपने लिए एक बुकिंग कर सकें.
आलम ये था कि लोग 14-15 किलोमीटर की यात्रा कर रहे थे कि कहीं वैक्सीन मिल जाए. यात्रा भी वही कर सकते हैं जिनके पास अपनी कार हो या इतनी दूर जाने के लिए टैक्सी का किराया हो.” अपनी बात रखते हुए रोहिन आगे कहते हैं, “इसके साथ ही वैक्सीन को लेकर जानकारी का अभाव भी बहुत गहरा है. लोगों को ठीक से पता ही नहीं कि उनके आसपास कहां वैक्सीन लगाई जा रही है. गांवों में अफवाहें और डर बुरी तरह से फैले हुए हैं”.
डब्लूएचओ का कहना है कि कोरोना वायरस से बचाव तभी संभव है जब सभी लोग वैक्सीनेटेड हों. एक वायरस अपने ख़तरे से दुनिया में बराबरी को प्रोत्साहित कर रहा है. “यहां मामला लोगों की जान से जुड़ा है. सरकार को भी समझ आ गया कि एप्प के ज़रिए वैक्सीन से उन्हें रिज़ल्ट नहीं मिल रहा. ज़ाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से कहा कि वे सभी के लिए वैक्सीन उपलब्ध करवाए आख़िरकार उन्होंने एप्प पर रजिस्ट्रेशन रद्द कर सभी के लिए वैक्सिन सेंटर पर जाकर वैक्सीन लगवाने की सुविधा खोल दी.”
हेल्थ कार्ड : एक कदम आगे या दो कदम पीछे?
“नेशनल हेल्थ मिशन को पूरा करने के लिए एक बहुत बड़े सरकारी तंत्र को इसमें लगना पड़ेगा. फ़िलहाल महामारी की मार झेल रही जनता जो भूख़, गरीबी और बीमारी से मर रही है. ऐसे में उचित होता कि इस रिसोर्स को लोगों तक खाना पहुंचाने और रोज़गार की सुविधा उपलब्ध करवाने में लगाया जाता.”
इसके अलावा, सबसे पहले सरकार को चाहिए कि नेशनल हेल्थ मिशन जैसी अच्छी योजना में सुरक्षा एवं तकनीक से जुड़ी बारीकियों को लोगों के सामने रखकर उनके सवालों का जवाब दे. इस मिशन में नागरिकों के भरोसे एवं उनकी भागीदारी का इसकी सफलता पर सीधा असर हो सकता है.
धीरे-धीरे लोग अब ज्यादा संख्या में इस डिजीटल इको सिस्टम में लाए जा रहे हैं. ऐसे में उन्हें अपने डिजिटल अधिकारों के बारे में पता होना चहिए. साथ ही डेटा और निजता के अधिकार की सुरक्षा से जुड़े क़ानूनों का होना भी बहुत ज़रूरी है.