वे यहां आती ही क्यों हैं?

घरेलू कामगार औरतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करती, उत्तरी दिल्ली स्थित 'राष्ट्रीय घरेलू कामगार यूनियन' की संस्थापक, सुनीता रानी से बातचीत.

घरेलू कामगार

“सभी मालिक घरेलू कामगारों की पुलिस द्वारा जांच पड़ताल करवाते हैं, है ना? लेकिन मालिक की वेरीफिकेशन  का क्या? क्या किसी को किसी मालिक के घर बिना उसकी पुलिस की जांच कराए घुसना चाहिए?”

सुनीता रानी, उत्तरी दिल्ली स्थित ‘राष्ट्रीय घरेलू कामगार यूनियन’ की संस्थापक हैं, जो देशभर में फैले ऐसे कई समूहों’ में से एक है. इस यूनियन की शुरुआत उन्होंने अकेले की. इसके पीछे उनकी साधारण सी मंशा घरेलू कामगार महिलाओं को यह बताने की थी कि उनके द्वारा किया जाने वाला काम भी श्रम है. उनके इस प्रयास से पहले एक, फिर धीरे−धीरे सैकड़ों, हज़ारों महिलाएं जुड़ने लगीं. नतीजतन वे आज इस बड़े फैलते शहर के हाशिए पर खड़े होकर भी मालिकों की ज़्यादतियों और पुलिस की नाजायज़ गिरफ़्तारियों और ज़ुल्मों को चुनौतियां दे रही हैं. साथ−साथ अपनी जायज़ मांगों की सूची भी सामने ला रही हैं, जिसे हम सभी को अपने बुलेटिन बोर्ड पर लगाना चाहिए.

कल मैं फ़ील्डवर्क के सिलसिले में कहीं गई थी. बहुत सी बातें हुईं. वह अनाप-शनाप कुछ भी बोले जा रहा था. उसे बात ही समझ नहीं आ रही थी. “लड़कियां ख़राब होती हैं, वे दिल्ली क्यों चली आतीं हैं, वे यहां आती ही क्यों हैं?” वह पूछता रहा.
मैंने उससे पूछा वह कौन से राज्य का रहने वाला है. उसने कहा, उत्तर प्रदेश. इस पर मैंने कहा, उत्तर प्रदेश तो बहुत बड़ा है. अगर वहां रोज़गार कमाने के साधन उपलब्ध न हों तो नौजवान लोग कहां जाएं? लड़कियां कहां जाएं? वे तो शहरों का रूख़ करेंगे ही. सो ऐसे ही रोज़गार की तलाश में लोग प्लेसमेंट एजेंसियों की मदद से झारखंड से आते हैं.

ये प्लेसमेंट एजेंसियां क्या करती हैं? वे इन लोगों से काम दिलाने के बदले एक साल की तनख़्वाह के बराबर कमीशन लेती हैं. मालिकों से पचास हज़ार रुपए अलग से. कामगार लड़कियों के लिए जिस शख़्स के पास वे काम करने जा रही होती हैं, उनके बारे में कोई सत्यापन नहीं किया जाता… उसे ख़ुद पुलिस की वेरीफिकेशन की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है, लेकिन उसके मालिक को नहीं.

लड़कियां फंस जाती हैं. इस तरह दिल्ली में कितनी ही लड़कियां बुरे हालातों में फंसी हुई हैं. वे अपने गांव वापिस नहीं लौट सकतीं क्योंकि प्लेसमेंट एजेंसी की कांट्रेक्ट की यह शर्त होती है, जिसके चलते एजेंसी उनकी तनख़्वाह रोक लेती है. इस तरह एक कामगार महिला के क़रीब पचास हज़ार रुपए एजेंसी के पास हमेशा फंसे रहते हैं.

प्लेसमेंट

अब वह घर लौटना चाहती है. वो अपनी ज़िंदगी से परेशान है. मुझे मेरे गांव भेज दो. वह बार-बार बस यही रट लगाए रहती है. मुझे भेज दो, मुझे वापिस भेज दो. लेकिन वे उसकी एक नहीं सुनते. वे उसे अपनी जगह या एजेंसी के होस्टल में ले आते हैं. वह गुहार लगाती रह जाती है, मुझे मेरे गांव भेज दो. मुझे मेरे पैसे दे दो. लेकिन वे पचास हज़ार में से उसे कितना देते हैं? बीस−तीस वे अब भी अपने पास रखते हैं. इस बीच वह उनकी चुनी हुई जगह पर रहने के लिए मजबूर हो जाती है.

वे कोई नई कहानी गढ़ते हैं. कुछ दिन रुको. मैं इंतेजाम कर रहा हूं, पंद्रह-बीस दिन और रुक जाओ. वे फिर उसे एक महीने तक रोक कर रखते हैं. फिर वे उससे ठहराने का पैसा भी वसूलते हैं! मैंने तुम्हें खिलाया-पिलाया. खाने में मीट भी दिया. इस तरह वे उसकी सारी कमाई हड़प लेता हैं. वैसे भी वह उसकी कमाई पहले से ही खा रहा था. आख़िर में, जब जाने का वक़्त आता है तो उस बेचारी के पास धेला भी नहीं बचता.

घर

वह अपने गांव में अपने घर जा चुकी है. लेकिन ठहरो. वह वापिस लौटेगी. उसके गांव में बेहद बेरोज़गारी है. कमाने का कोई ज़रिया नहीं है. खेत हैं लेकिन खेत कितनों को रोज़गार दे सकते हैं? उसे शहर वापिस लौटना ही होगा. फिर दुबारा से प्लेसमेंट एजेंसी के चक्कर. फिर वही भूल-भूलैय्या. फिर वही गोल-गोल घूमने वाला हिंडोला. और फिर अगर किसी के यहां काम पर लगने पर प्लेसमेंट एजेंट उसकी ख़बर नहीं लेता तो उसके साथ कुछ अनहोनी हो जाती है, जैसे मालिक उसके साथ मारपीट करता है, उसे जला या मारकर फेंक देता है तो एजेंट की कोई ज़िम्मेवारी नहीं रहती. वह अपने को उसकी सुरक्षा की ज़िम्मेवारी से साफ़ बचा ले जाता है. चाहे वह कामगार महिला मर ही क्यों न जाए, लेकिन एजेंसी उसकी सुरक्षा की कोई ज़िम्मेदारी ख़ुद पर नहीं लेती.

इसी कारण हम पिछले बीस सालों से सरकार से मांग कर रहे हैं कि उसे घरेलू कामगारों के लिए क़ानून पारित करना चाहिए.

हमें एकजुट होने की ज़रूरत है. हमारा कोई संगठन नहीं है. सरकार को यह देखने के लिए कि लड़कियां काम करने के लिए कहां जा रही हैं, प्लेसमेंट एजंसियां उन्हें किन घरों में भेज रही हैं, इत्यादि को लेकर एक समिति का गठन करना चाहिए.

सरकार को प्लेसमेंट को क़ानून और इन एजेंसियों को अपने दिशानिर्देशों के दायरे में लाने की ज़रूरत है. अगर उनको रेगुलेट कर दिया जाए तो लड़कियों का शोषण मुश्किल हो जाएगा. प्लेसमेंट एजंसियां इसलिए भी फल-फूल रही हैं क्योंकि वे इन घरेलू कामगार लड़कियों और महिलाओं की पगार ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से हड़प लेती हैं.

पुलिस

अब इस मामले पर ग़ौर करें. वह एक घर में तीन सालों से काम कर रही है. उसने सिर्फ़ इतना ही पूछा था कि क्या आप मेरी तनख़्वाह बढ़ाएंगे, प्लीज़. मालकिन ने कहा, हां ज़रूर…कल. अगले दिन मालकिन ने उसके और उसके पति के ख़िलाफ़ थाने में चोरी का इल्ज़ाम लगा दिया. जो सरासर झूठा इल्ज़ाम था. फिर वही हुआ जो ऐसे मामलों में अक्सर होता है: दस पुलिस वाले उसकी बस्ती में आए, उन्होंने उसके घर में घुसकर तलाशी ली, आस पड़ोस में जांच की. इसके बाद मोहल्ले में उसकी क्या इज़्ज़त रह गई? उसका सम्मान उससे छिन गया. इतना सब हो जाने के बाद, लोगों को वह क्या मुंह दिखाएगी?

इसका विरोध करते हुए वह अपनी शिकायत दर्ज करने पुलिस थाने गई. लेकिन पुलिस ने उसकी शिकायत दर्ज करने से साफ़ इंकार कर दिया! थाना प्रभारी ने उससे क्या कहा? मैंने तुम्हें गिरफ़्तार नहीं किया. किया क्या? मैंने एकदम से नहीं मान लिया कि तुम चोर हो और न तुम्हें जेल में डाला. मैं तुम्हारे मालिक को लेकर क्या कर सकता हूं?

उन्होंने तुम्हें रंगे हाथों नहीं पकड़ा. हमें कुछ मिला नहीं. मामला रफ़ा दफ़ा हो गया. फिर तुम्हें दिक्कत क्या है?

वह अब अपने पड़ोस में काम कैसे ढूंढ पाएगी?

वह हमारी यूनियन की सदस्य थी. उसने हमसे संपर्क किया. हम उसके साथ थाने गए. हमने दिल्ली महिला आयोग में भी अर्ज़ी दी. हमने प्रदर्शन किया, रैली निकाली और पुलिस थाने का घेराव किया. एफआईआर दर्ज करो. उसकी बेगुनाही को लिखित में दो कि उसे बदनाम करने के लिए यह इल्ज़ाम लगाया गया था. और यह भी कि वह बिलकुल बेक़सूर है. इस कांड के बाद उसकी बात का कोई भरोसा नहीं करेगा!

इस काम में पूरा एक साल लग गया. दिल्ली महिला आयोग और थानेदार को ख़त लिखे गए. फिर हमने ख़ुद ही वो पत्र तैयार किया जिसमें उसे बेक़सूर घोषित किया गया था, जिस पर अंत में थानेदार ने दस्तख़त किए और मोहर लगाई. हमें इस बेबुनियाद इल्ज़ाम को उसके माथे से हटाने में पूरा एक साल लग गया. यह सिर्फ़ इसलिए मुमकिन हो पाया क्योंकि सरकार ने हमें मज़दूर अधिकार मुहैया नहीं करवाए हैं कि हमारा काम भी इज़्ज़त वाला है, जिसे क़ानूनी स्वीकृति दी जानी चाहिए.

हिंसा

जब कोई लड़की किसी घर में चौबीसों घंटे काम कर रही हो? जब वह एक प्रवासी हो? जब उसे हर वक़्त पीटा जाता हो?

इस तरह का मामला ठीक इस वक़्त गुड़गांव में है. वे उसे दिन-रात पीटते हैं और उसे घर में बंद करके रखा हुआ है. सबसे पहले किसी को उसे छुड़ाना होगा. एक संगठन है जो लड़कियों को छुड़ाने का काम करता है. हमने एफआईआर दर्ज कर दी है. लेकिन चूंकि मालिक पैसे वाला है और उसकी बड़े हलकों में जान पहचान है, इसलिए उस पर हाथ धरने की किसी की हिम्मत नहीं होती. उलटे उसने ही लड़की पर चोरी का झूठा आरोप लगाकर केस डाल दिया है.

हमें उस केस के ख़िलाफ़ भी लड़ाई लड़नी है. बिना पैसे, संसाधन और मीडिया के. मालिक के वक़ील अदालत में खड़े होकर कहते हैं कि यह लड़की ग़लत है. आप पूछ रहे हैं ग़लत लड़की का क्या मतलब हुआ? लड़की ग़लत है? वक़ील ने जज को बताया कि ये लड़कियां झारखंड से आती हैं. वे यहां जिस्म का धंधा करने के लिए आती हैं. वे ‘वेश्याएं’ हैं. हमें लगता है कि जज ने उनकी बात मान ली. अब केस लटका हुआ है. हमें नहीं पता यह किस तरफ़ रूख करेगा.
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एक्टिविस्ट बनने का सफर

हमारा परिवार बहुत गरीब था. मेरे पिता निर्मला नाम की एक महिला के साथ बस्ती में पढ़ाने का काम करते थे. मुझे उनका यह काम बहुत पसंद था. मैं भी उसी काम को करना चाहती थी…मैं अपने पिता की गोद में चढ़ जाती और हम किसी धरने या रैली में निकल पड़ते. इस तरह मैं उनके साथ, देश के कई हिस्सों में गई हूं. मुझे सभी गाने और नारे पता हैं. 16 साल की उम्र आने तक मैंने अपना भविष्य चुन लिया था. मुझे यह, काम जैसा काम नहीं लगता था. मैं रोज़ औरतों को काम पर जाते देखती थी. वे अमीरों की कोठियों में पार्ट-टाइम काम करतीं थीं. मैंने उनमें से कईयों को कहते सुना, “मुझे कोई छुट्टी नहीं मिलती…मालकिन मुझे पीटती है.” मुझे उस वक़्त पता नहीं था क्या किया जाए. मैं अकेली क्या कर सकती थी? क्या मैं अपने पिता जी से अलग काम करूं?

फिर मैं एक संस्था से जुड़ गई, जो एक बालवाड़ी थी. यह एक ‘प्लेसमेंट एजेंसी’ के रूप में भी काम करती थी. यह संस्था शहरों में घरेलू काम करने के लिए गांवों से आने वाली महिलाओं और लड़कियों का बीमा किया करती थी. वे कहतीं “मुझे अपनी तनख़्वाह नहीं मिली”. मैं उनसे पूछती कि किसने ले ली? वे कहतीं, “यहां है”. मैं कहती, “उन्हें पता है कि तुम भोली और मासूम हो. वे तुम्हारी बचत यहां करते हैं…तुम पूछती क्यों नहीं?” लेकिन वे पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं.

मुझे समझने में काफ़ी समय लगा कि आख़िर हो क्या रहा है. एक दिन मुझे बीमा करने वालों का नोटिस मिला: आपकी किश्त पिछले कई महीनों से नहीं भरी गई है. मैंने संस्था के लोगों से इसका कारण पूछा. उन्होंने मुझसे कहा, “भूल गए थे. आख़िरी तारीख़ निकल गई.” मैंने लड़कियों से उनके बीमा के बारे में पता किया. रक़म उनकी तनख़्वाह से बराबर काटी जा रही थी. तनख़्वाह के उस हिस्से को वे वैसे भी छू नहीं सकती थीं.

मैंने सोचा कितनी लड़कियों के साथ ऐसा किया जा रहा होगा? इस तरह उनका कितना पैसा लूटा गया होगा? मैंने उसी वक़्त नौकरी छोड़ दी. अपनी बक़ाया तनख़्वाह भी नहीं ली. बस छोड़ दिया. उसके बाद मैं लोकायन के साथ जुड़ गई और कुछ समय तक यातायात के मुद्दों पर काम किया. लेकिन मैं जिनके बारे में बचपन से सोचती आई थी उन महिलाओं और उनकी स्थितियों के पास बार−बार लौटती रही. 2006 में, मैं अकेले ही उनकी मदद के लिए निकल पड़ी.

मेरी तीन साल की बेटी प्रियांशी ने भी मेरे साथ पूरे देश मे सफर किया है. उसे फील्ड के सारे गाने और नारे पता हैं. उसे हर तरफ से जानकारी मिलती रहती है. मैंने उसे श्रमिक आंदोलन के बारे में बताया है, वैसे ही जैसे मेरे पिता ने इससे मेरा परिचय कराया था. जब भी मैं पुलिस थाने में होती हूं, अंधेरा होने से पहले घर आने पर ज़ोर देती हूं ताकि अपनी बेटी के साथ घर पर रह सकूं. नहीं तो वे आपको 5 बजे तक रोके रखते हैं. मैं बस निकल जाती हूं. मैं उनसे पूछती हूं कि आप मुझे यहां क्यों रोक रहे हैं?

यूनियन की पहली सदस्य से पहली हज़ार सदस्य तक

मैं महिलाओं से बातचीत करने के लिए वहां मई की तपती गर्मी में रोज़ अकेले जाती थी. मैंने उन्हें बताया कि यूनियनों का क्या काम होता है, उनके अधिकार क्या हैं, इत्यादि. एक महिला को अपने साथ जोड़ने में मुझे दस दिन का समय लगा. फिर धीरे-धीरे वे दस हुईं, फिर पंद्रह, सोलह. इस तरह पहले साल में हमने क़रीब सौ महिलाओं को अपने साथ जोड़ लिया. मुझे पहले से ही मालूम था कि हमें अपनी ताक़त में इज़ाफ़ा करना है. इस तरह के समूहों की ताक़त, उनकी संख्या और प्रतिनिधित्व की भिन्नता में है. रोहिणी का सेक्टर 3, इंदिरा जे.जे. कैंप, राजापुर गांव, सेक्टर 9…सभी जगहों पर महिलाओं को एकजुट होने की ज़रूरत थी. सब जगह.

सिर्फ घरेलू कामगार नहीं

संगठित होना, क्या आपको लगता है ये सिर्फ घरेलू कामगारों से संबंधित है? इसका संबंध बाकियों से भी है. जैसे-सड़क के किनारे फुटपाथ पर एक औरत फल बेचती है. एक चाय की दुकान लगाती है, एक फूलवाली है. कोई आदमी आकर उसे हैरान-परेशान करता है. पुलिसवाला आकर उससे बदतमीज़ी करता है, उसका ठेला उलट देता है, लूटमार करता है, क्योंकि वह बिलकुल अकेली है.

दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों को वह कहां से पैसा देगी? कहां से लाएगी पांच या दस हज़ार रुपए की रक़म जो वो उससे मांग रहा है? जो थोड़ा-बहुत पैसा वह कमाती है उस पर उसकी जीविका निर्भर करती है. किसी घरेलू नौकर, फूलवाली या सब्ज़ीवाली की जीविका ज़रूरी है. उन सभी को हमारी यूनियन में प्रतिनिधित्व मिलता है. इसलिए हमारी उनसे अपील है कि उन्हें हमारे साथ जुड़ना चाहिए.

यूनियन की स्थिति

हमारी सदस्यता में इज़ाफ़ा हो रहा है. लेकिन यूनियन का अब भी पंजीकरण नहीं हो पाया है. हम पूछते हैं, क्यों?
पटपड़गंज में लेबर अधिकारी ने हमें बताया कि हम ख़ुद को राष्ट्रीय नहीं बुला सकते. हम अपने प्रसार में राष्ट्रीय नहीं कहला सकते. उन्होने कहा ख़ुद को दिल्ली तक सीमित रखो. हमने उनसे कहा हम ऐसा क्यों करें? हम ऐसा कैसे करेंगे? जो महिलाएं दिल्ली में काम करती हैं, वे झारखंड, बिहार, बंगाल, उड़ीसा से आती हैं. इसका क्या मतलब है कि दिल्ली में ही काम करो? हमें एक व्यापक सामूहिक बातचीत चाहिए इस मुद्दे पर.

मगर एक और समस्या है जो आसान नहीं है. अब लोगों को एकत्रित करने के काम के लिए महिलाएं वक़्त नहीं निकाल पा रहीं! अगर उनको एक या दो दिन की छुट्टी मिल भी जाती है तो भी सभी के पास एक ही समय में वक़्त नहीं होता. हर दिन की छुट्टी के लिए उनका पैसा कटता है. उनके घर का किराया, खाना-पीना, बच्चों के स्कूल की फ़ीस, डॉक्टर की फ़ीस, सभी कुछ इस पर निर्भर करता है. इसलिए मुझे उन्हें बुलाना अच्छा नहीं लगता. लेकिन जब वे आ जाते हैं मैं उनसे कहती हूं कुछ भी कह देना, जैसे कोई मर गया था. जब-जब उनकी भागीदारी ज़रूरी होती है तो वे आतीं हैं.

उन महिलाओं के साथ भी ऐसा ही है जो घरेलू कामगार नहीं हैं. वे घरेलू कामगारों के अधिकारों के लिए दिए जा रहे धरने पर नहीं आएंगी. मगर ये सिर्फ घरेलू कामगार के अधिकारों से जुड़ा है ही नहीं!

सुरक्षा के साथ कमाने का अधिकार, काम की इज़्ज़त, सामाजिक सुरक्षा – ये महिलाओं के अधिकार हैं, कामगारों के अधिकार हैं. आवश्यकता इस बात की है कि असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले सभी कामगार खड़े हों और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाएं.

क्या घरेलू काम काम है? क्या एक्टिविज़्म काम है?

वे हमेशा एक ही सवाल बार-बार पूछते हैं. जो हम करते हैं वो एक काम है? कोई उस काम पर भी काम करता है? क्यों, क्या तुम्हें कुछ मिलता है? मुझे कुछ नहीं मिलता! और मुझे उन्हें समझाना पड़ता है कि उन्हें काम करना है – दूसरी औरतों को बुलाना, संगठित करना – पैसे के लिए नहीं बल्कि संस्था के लिए. इस क्षेत्र में, आपको काम के लिए काम करना है क्योंकि काम से आपको फायेदा मिलता है.

मुझे उन्हें बताना पड़ता था कि वे जो काम करती हैं - पूरे परिवार की देखभाल करती हैं, कभी-कभी तो उनके आर्थिक और सामाजिक जीवन को संभालने का काम भी, जो कि एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है.

यही कार्य जब एक ऐयर होस्टेस करती है तो उसके साथ लोग सम्मान से पेश आते हैं क्योंकि वह अंग्रेज़ी में बात कर सकती है, जबकि घरेलू कामगार को दो कौड़ी का नौकर माना जाता है. कई तो इस काम को करते हुए शर्मिंदा महसूस करती हैं और अपने इसके बारे में अपने परिवार को भी नहीं बतातीं. मैं उनसे कहती हूं जो काम वह करती हैं वह श्रम है, मेहनत का काम है. आप यह काम इसलिए करती हैं ताकि अपने परिवार का पेट पाल सकें, आप उनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें. अपनी मेहनत का मोल पाना आपका अधिकार है. आगे बढ़ो और अपनी आवाज़ उठाओ. अगर आप इस काम को अकेले नहीं कर सकतीं तो दस, पंद्रह, बीस महिलाओं के साथ मिलकर करो. बेहतर बर्ताव की मांग करो.

उन्हें ये बातें समझ में आती हैं. अब वे मालकिन से सही तनख़्वाह मांगती हैं, महीने में चार छुट्टियां दो नहीं तो जाने दो. वे कहती हैं मुझे बासी मिठाई मत दो. अगर नहीं देना है तो मत दो, लेकिन मुझे बासी खाना नहीं चाहिए. वे बिना डरे पुलिस वाले या थानेदार से पूछती हैं कि उसने एफआईआर क्यों दर्ज नहीं की. क्यों वे किसी महिला कामगार को बिना सबूत दोषी मान रहे हैं. वे धरने-प्रदर्शन में शरीक होने लगी हैं और अपनी बात सबके सामने रखने में झिझकती नहीं. वे सब की सब अपनी बात रखती हैं और एक ही बात कहती हैं: मुझे अपनी बात रखने का शऊर आ गया है; मुझमें अपने अनुभव साझा करने की हिम्मत आ गई है; मुझे अपने अधिकारों के बारे में पता चला है और उनके लिए आवाज़ उठाने के महत्त्व के बारे में भी.

सभी कामगार यूनियन में शामिल होने से पहले कहते हैं कि वे पहले इसमें शामिल होने से बहुत डरते थे. उन्हें डर लगता था कि कहीं उन्हें नौकरी से हाथ न धोना पड़ जाए, कि कहीं उन्हें पुलिस तंग न करे. मुझे बोलना नहीं आता था. मुझे नहीं पता था कि बोलते कैसे हैं.

अगर आप डर जाओगे तो कुछ नहीं कर पाओगे. अगर आप डरोगे नहीं तो सब कुछ कर सकते हो.

हक़

काम का अधिकार और उसके बदले सही मुआवज़ा, काम करने की जगह पर सुरक्षा, समाज में रहने की सुरक्षा — स्कूलों में ठेके पर काम करने वाली महिला कामगारों, 12-12 घंटे सफ़ाई करने वाली महिलाओं, 24 घंटे घरेलू काम करने वाली महिलाओं के लिए. मैं उनसे कहती हूं आपको कोई छुट्टी नहीं मिलती, आपको न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता. घरेलू कामगारों के संघर्ष आपसे अंजान नहीं हैं. सुरक्षा महिलाओं का मुद्दा है; जीविका महिलाओं का मुद्दा है. हमें इस संघर्ष में सभी को शामिल करना होगा.

हमें क़ानूनों और सामान्य हित मंच की ज़रूरत है. हमें अनियमित क्षेत्र के अन्य कामगारों के साथ सामान्य हित मंच की ज़रूरत है. और अगर सरकार इन चीज़ों को नहीं कर सकती है तो इस काम को उसे कलेक्टिव, संस्थाओं, संघों को दे देना चाहिए जो दशकों से इस काम को कर रहे हैं. उन्हें अनुभव है, उन्हें बस वैधता और बुनियादी ढांचे/ मूलभूत व्यवस्थाओं के लिए मदद की ज़रूरत है. वे तैयार हैं! मगर राजनीतिक इच्छा कहां है?

24 घंटे काम करती कामगार

जो तीन प्रकार की घरेलू कामगार महिलाएं शहरों में आती हैं, उनमें 24 घंटे वाली कामगार महिलाएं सबसे ज़्यादा ख़तरे में रहती हैं और उनका सबसे अधिक उत्पीड़न होता है. देश में कहीं भी जाने की निजता बहुत अच्छी चीज़ है. लेकिन एक महिला काम करने जा रही है. राज्य सरकारों को (झारखंड, उड़ीसा, इत्यादि) पता होना चाहिए कि उसे काम के लिए कहां भेजा जा रहा है. दिल्ली सरकार को पता होना चाहिए कि कौन से ज़िले, कौन सी कॉलोनी में वह नौकरी कर रही है. स्थानीय पुलिस थाने को भी इसकी ख़बर होनी चाहिए कि उसे कौन मालिक काम पर रख रहा है. इस संबंध में सब कुछ स्पष्ट होना चाहिए:
  1. क्या काम है
  2. कैसे काम किया जाएगा
  3. घरेलू कामगार महिला के कल्याण को जानने के लिए उसके साथ महीने में दो बैठकें होनी चाहिए. फ़िलहाल स्थानीय पुलिस को इसका बिलकुल पता नहीं रहता कि कौन कहां काम कर रहा है और किन हालातों में. और जब कभी उन्हें पता भी होता है तो वे मानते हैं कि उनका इस बात से कोई सरोकार नहीं है. ऐसा होना सामान्य बात है जब सरकार को ही उनकी कोई फ़िक्र नहीं है; प्लेसमेंट एजेंसी को तो पहले से ही उनकी कोई परवाह; बीट अफ़सर को लगता है वह क्यों बेकार मुसीबत पाले. उसे लगता है एक कीड़े-मकोड़े की ज़िंदगी जीने वाली बाई के चक्कर में ताक़तवर मालिक से क्यों उलझना.
  4. बैठकों में संतुलन बनाए रखने के लिए नियमित रूप से काउन्सलिंग होनी चाहिए.
  5. सरकार को नियम बनाने चाहिए कि कैसे प्रत्येक पुलिस थाना इस बात की ख़बर रखेगा कि प्रत्येक जिले में कितनी महिलाएं काम कर रही हैं और किन परिस्थितियों में.
  6. सरकार को स्वयं प्रत्येक ज़िले में घरेलू कामगार महिलाओं के कलेक्टिव बनाने चाहिए और समय-समय पर उनके साथ बैठकें और उनके लिए सामाजिक कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए.
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लॉकडाउन

लॉकडाउन की घोषणा हो गई. अचानक दिल्ली बंद हो गई. औरतों को अचानक कह दिया गया कि वे घर पर बैठें. उनको वेतन मिलना बंद हो गया. मालिकों ने वेतन नहीं दिया. यहां तक कि उन्हें भी जो 500 रुपए, 1000 रुपए कमाती थीं, उन्हें भी कुछ नहीं मिला. वे घरों का किराया कैसे देतीं? मालिक उन्हें बोलते थे वेतन लेने न आओ. दूर रहो. कुछ ही दिनों में औरतों के घरों में राशन ख़त्म हो गया. उनमें से कई घर में अकेली कमानेवाली हैं. पतियों की तो नौकरी चली ही गई थी. तो राशन बांटने के लिए यूनियन आगे आई.

मगर मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं. अगर मालिक बोल रहा है कि सितंबर, अक्तूबर, दिसंबर तक न आओ और मकान मालिक किराया नहीं घटा रहा है. तो वे कहां जाएंगी? और फिर जिन घरों में वे जाती हैं वे उनसे बोलते हैं एक ही घर मे काम करो – सिर्फ मेरे घर में. नहीं तो तुम एक घर से दूसरे घर में जाती रहोगी और अपने साथ वाइरस ले आओगी. वह बोलती है, “ठीक है, तो आप मुझे कितना दोगे?” “वही जो देते हैं”, उनका जवाब होता है. तो ऐसे में वह दिल्ली में रहने का खर्च कैसे उठाएगी? जहां वह पिछले 20 साल से रह रही है. कितनी ही घरेलू कामगारों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया क्योंकि वे फीस नहीं दे सकती थीं.

सरकार ने घरेलू कामगारों के लिए कुछ नहीं किया. उन्होंने प्रवासी मज़दूरों को पैसे दिए, ऑटो वालों को, ईरिक्शा के ड्राईवरों को, मगर उन करोड़ों औरतों को जो प्रवासी हैं, जो लोगों के घरों मे काम करती हैं, एक पैसा नहीं मिला. सरकार की तरफ से मालिकों को कोई ऑर्डर नहीं दिया गया कि उन्हें घरेलू कामगारों को उनका वेतन देना है. मालिकों को कोई डर नहीं था. उन्होंने अचानक वेतन देना बंद कर दिया. सरकार को औपचारिक ऐलान करना चाहिए था कि घरेलू कामगारों को वेतन दिया जाए.

सिर्फ एक चीज़ का उन्होंने ऐलान किया. 500 रुपए की जन धन योजना. 500 रुपए क्या होते हैं? और वे भी किसी को नहीं मिले. जन धन योजना किसी को भी नहीं मिली है. एक घरेलू कामगार को भी नहीं.

कितनी ही औरतें वापस अपने गांव चली गई हैं. उन्हें लगा कि हम दिल्ली में क्यों मरें? अगर हमें मारना ही है तो अपने गांव मे जाकर मरें. बस्तियां खाली हो गईं. आपको आकर देखना चाहिए.

उर्वशी वशिष्ट एक स्वतंत्र शोधकर्ता, टीचर, लेखक और संपादक हैं. वे दिल्ली में रहती हैं. उन्होंने विश्वविद्यालयों, प्रकाशन, और विकास क्षेत्र में काम किया है और इन दिनों वे जानवरों के अधिकारों, घरेलू हिंसा, और नॉन कमफरमेटिव जेंडरनेस पर काम कर रही हैं.

सहयोग TTE टीम

इस लेख का अनुवाद राजेन्द्र नेगी ने किया है।

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