लेखन का काम

लेखक और अच्छे लेखन के पीछे की प्रक्रियाओं को समझने के लिए अंकुर के प्रभात और शर्मिला के साथ एक बातचीत.

लेखन का काम
चित्रांकन: सुतनु पाणिग्रही
तीन दशकों से भी अधिक समय से, अंकुर संस्था दिल्ली में बच्चों, युवाओं, और हाशिए पर मौजूद मोहल्लों के समुदायों के साथ सीखने-सिखाने की पद्धति में नए-नए तरीकों को अपनाने से जुड़े प्रयोग कर रही है. दक्षिणपुरी, खिचड़ीपुर, सुंदरनगरी, LNJP कॉलोनी, सावड़ा घेवड़ा में इनके कई केंद्र (सेंटर्स) चल रहे हैं. इन केंद्रों ने कहानी के माध्यम से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के ज़रिए भविष्य के कई हिंदी लेखकों के विकास में मदद की है, जिनके लेख/कहानियां कई पत्रिकाओं, जर्नल और किताबों में प्रकाशित हुए हैं.

मगर कैसे किसी को कहानी के बारे में सोचना, उसको महसूस करना, समझना, सुनाना और अंत में लिखना सिखाया जाता है? इन सवालों के साथ हम पहुंचे अंकुर संस्था के शर्मिला और प्रभात के पास और उनसे उनके काम को लेकर उनकी सोच और उनके सीखने-सिखाने के तरीकों के बारे में जाना.

अंकुर और द थर्ड आई प्रस्तुत करते हैं ‘आती हुई लहरों पर जाती हुई लड़की’, जिसमें हर महीने ऐसी कहानियां दी जाएंगी जिन्हें दिल्ली के श्रमिक वर्ग के इलाकों/ मोहल्लों के नारीवादी लेखकों द्वारा लिखा गया है.

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आज तक, कई कहानियां और लेखक अंकुर केंद्रों (सेंटरों) के समूहों से निकले हैं. आपको क्या लगता है, वे कौन सी चीज़ें थीं जिन्होंने आपकी सोच को प्रेरित किया और उसे लागू करने के लिए बिलकुल सही साबित हुईं?

प्रभात: मुझे लगता है कि हमें इस चीज़ का बहुत ज़्यादा एहसास था कि हम कुछ नया करने की कोशिश में हैं. हम समुदाय में ये कहने नहीं गए कि हम उनकी मदद करना चाहते हैं. हम गए और हमने उनसे गुज़ारिश की : ‘क्या आप हमें एक प्रयोग करने के लिए पचास बच्चे और युवा दे सकते हैं?’ खुशकिस्मती से वे मान गए. हमने कहा अंकुर को एक ऐसी जगह बनाना है जहां कोई डर न हो. हम इसे तीसरी जगह कहते हैं जो न घर है, न स्कूल है. मगर इस जगह में क्या होने वाला है? यह एक ऐसी जगह है जो बच्चों और युवाओं को यह देखने में मदद करती है कि उनकी ज़िंदगी, उनके आस-पास की जगहें, कहानियों से भरी हैं.

हर देखने वाले के पास कहने को कुछ होता है, हर सुनने वाले के पास बोलने को कुछ होता है. हर इंसान में एक संभावना होती है. हमने कहा कि आपकी दुनिया में बहुत कुछ है जो दूसरों के पास नहीं है. ग़रीबी क्या कुछ सिखाती नहीं? मुझे लगता है कि कम आमदनी में कैसे जीते हैं, यह ग़रीबी सिखाती है.

कम जगह का कैसे इस्तेमाल करें? एक कमरा पूरे दिन में कैसे, कितनी बार बदलता है? जैसे हमने एक सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की – आप छोटी जगहों में कैसे चलते हैं? इन जगहों में रोशनी कैसे बदलती है?

चौकीदार को रात के वक़्त के बारे में क्या पता होता है? चौकीदार को हम कहते हैं – रात को जागने वाला बंदा. रात का उसे मूड पता है. कैसे पुताई करने वाला घर के पुराने पान के दाग़ों को ग़ायब कर देता है? इसे पलट कर देखें तो हर कोई आपको सिर्फ काम करने वाला नहीं मिलेगा बल्कि एक हुनरबाज़ मिलेगा. तो हमने चीज़ों को पलट दिया. इससे वे अपने आप को नई तरह की संभावनाओं में देख पाए. उनके बारे में सोचा जाता है कि वे कुछ ख़ास तरह के काम ही कर सकते हैं, जैसे मोटर मेकैनिक. हमने कहा तुम वही बनो जो दुनिया में इज़्ज़त और ओहदे के लिए ज़रूरी है – लेखक बनो, फोटोग्राफर बनो, ब्लॉगर बनो, यू टयूबर बनो.

एक ज़रूरी चीज़ हमने यह की कि परंपरागत पढ़ाने के तरीके को जिसमें ‘बताने’ का काम मुख्य होता है, ‘सुनने’ के तरीके में बदल दिया. हमने कहा कि हमारे पास किसी भी सवाल का जवाब नहीं है और सुनना हमारा पहला काम है.

शर्मिला: यह बात हमेशा हमारे ध्यान में रहती है कि समुदाय के साथ ज़्यादातर काम मुद्दों के आधार पर होता है. मगर लोगों की ज़िंदगी के बारे में मुद्दों के आधार पर बात करना, उनकी ज़िंदगी को एक तरह से मुद्दों में समेट कर रख देता है.

लोगों को ‘ग़रीब’, ‘हाशिए पर’, झुग्गी-झोपड़ियों’ आदि में फिट कर देने से, उनकी कल्पना में उनकी खुद की संभावनाएं घट जाती हैं. हम इसे खोलना चाहते थे और चाहते थे कि वह अपनी ज़िंदगी को सम्पूर्णता में देखें. यही हमारा मूल सिद्धान्त रहा है. इससे हमारा उनके साथ काम का स्वरूप बदल गया, क्योंकि उनकी तमाम तरह की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए सीखने-सिखाने की पद्धति का विकास होता गया.

मुझे लगता है कि एक विधा के रूप में ‘कहानी’ और कहानी को लिखने की प्रक्रिया – खोज करना और पता लगाना – इस भावना को आगे बढ़ाने की गुंजाइश रखती है कि ‘“मैं क्या लिखूं? मेरी ज़िंदगी में क्या ख़ास है, जिसे मैं लिखना चाहूंगी?“ यह उनको अपने आप पर, अपने आस-पास की जगहों पर, अपनी यादों पर और अपने मौहल्ले पर ध्यान केंद्रित करने और उनके साथ बात करने के लिए मजबूर करती है.

आप लोगों के बीच जाते हैं और उन्हें अपनी कहानी बताने के लिए राज़ी करते हैं. आप लगातार इस चीज़ के लिए कोशिश करते रहते हैं और जब आखिर में कहानियां शक्ल लेती हैं, वे समुदाय में वापस चली जाती हैं. यह इस प्रक्रिया का अंतिम पड़ाव है. यहां लिखने वालों की छवि में तो बदलाव आता ही है, साथ ही समुदाय अपने लिए जो छवि रखता है उसमें भी बदलाव आता है.

हमें किस तरह की चीज़ों पर ग़ौर करना है, हुनर सिखाने की प्रक्रिया के बारे में क्या आप बता सकते हैं? क्या इसके लिए ज़रूरी है कि उन ग़ौर करने के पलों के दौरान युवा अपने आपको वास्तविकता से अलग कर लें?

प्रभात: हम इसे रियाज़ कहते हैं. हम उन्हें बोलते हैं कि वे ऐसी जगहों पर जाएं, जहां काफी लोग आते-जाते हों, जैसे मदर डेरी या चाय की दुकान. वहां बैठें और अपनी पांचों इंद्रियों का प्रयोग करते हुए, ग़ौर करें. देखें उनके चारों ओर क्या हो रहा है. हां, मगर हम यह ज़रूर बोलते हैं, कि ग़ौर करने में आंखों का सबसे कम सहारा लें क्योंकि हम आंखों को बेटा मानते हैं और बाकि इंद्रियों से बेटियों जैसा सुलूक करते हैं. तो दूसरी इंद्रियों पर ज़्यादा भरोसा करें. सड़क कौन पार कर रहा है? कितनी तरह की आवाज़ें और बोलियां वे सुन सकते हैं? वे पास से आ रही हैं या दूर से? कौन सी आवाज़ें पसंद आ रही हैं और कौन सी नापसंद हैं? ये उनकी कहानियों को भर देंगे.

अपनी कहानी के मुख्य किरदार और आस-पास के लोगों का ब्यौरा/ जानकारी भरना शुरू करें. छोटी – छोटी बातें जैसे उनके चेहरे, उनके मूड, उनका मिजाज़. चेहरा पकड़ो! उदासी का क्या चेहरा है? थकान का क्या चेहरा है? खुशी का क्या चेहरा है? तो हम चेहरों की सूची बनाते हैं और जैसे शब्दों से रची तस्वीरें उतार लेते हैं. इसका हम लगभग एक-डेढ़ साल तक अभ्यास करते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विवरण अंदर से आना चाहिए, किसी किताब से नहीं.

शर्मिला: तो आप पूछ रही थीं कि क्या ग़ौर करने के लिए वास्तविकता से दूर जाना ज़रूरी है? जब आप अपनी इंद्रियों की बात सुन रहे होते हैं और आप कैसे चीज़ों पर ग़ौर कर रहे हैं इसे लेकर चौकन्ने होते हैं, तब कहीं न कहीं आप अपने से परे चले जाते हैं. आप वहां मौजूद होते हुए भी वहां नहीं होते. आपका ध्यान अपने से हट कर, जिसपर आप ग़ौर कर रहे हैं उसपर केंद्रित हो जाता है. तभी आप चीज़ों को संपूर्णता में देख पाते हैं.

ग़ौर करने से लिखने तक की क्या प्रक्रिया रहती है?

प्रभात : ग़ौर करने के बाद कहानी का पहला ड्राफ्ट बनना ज़रूरी है. हम कहानी की पहली पंक्ति की तलाश करते हैं. बच्चों और युवाओं की बातचीत से ही हम एक पंक्ति चुराकर, वापस उनको देते हैं. इस पंक्ति में उनकी कहानी की गूंज है. फिर देखते हैं कि किनकी कहानी तैयार हो गई है. पहले हम उनसे मौखिक कहानी सुनते हैं, जितनी ज़्यादा बार वे कहानी सुनाते हैं, उतनी ही ज़्यादा उस कहानी में संभावनाओं को ढूंढने की उनकी क्षमता बढ़ती है. हमें एहसास होता है कि इस कहानी में कुछ ख़ास है और फिर हम उन्हें लिखने का न्योता देते हैं. जब पहला ड्राफ्ट लिख लिया जाता है तो एक समूह (कलेक्टिव) को कहा जाता है कि वे उस पर अपनी टिप्पणी दें.

पहले समूह के साथ हमने चुपचाप डेढ़-दो साल काम किया. एक बार आपके पास 15-20 लेखक तैयार हो जाते हैं, तो उसके बाद के समूह बनाने में उतना समय नहीं लगता.

शर्मिला: ये समूह उस व्यक्ति की कहानी में शुरू से आखिर तक गहराई से शामिल रहता है. वे अभ्यास साथ करते हैं, साथ सुनते हैं, साथ लिखते हैं. इसमें सभी का सामूहिक योगदान होता है. कहानी में भले ही एक व्यक्ति का नाम जाए, मगर इसके पीछे कई लोग होते हैं जो कहानी को इस मोड़ तक पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं.

प्रभात: पहले ड्राफ्ट पर व्यक्ति समूह के साथ काम करता है. वे पहले एक पन्ना लिखते हैं, फिर दूसरा पन्ना, फिर तीसरा पन्ना ऐसे यह कुछ समय तक चलता रहता है. जब लगता है कि ड्राफ्ट अच्छा बन गया है, तब वे इन्हें आम जगहों पर ले जाते हैं और सबको सुनाते हैं.

लड़के-लड़कियां कुर्सी लेकर पार्क में बैठ जाते हैं या किसी दुकान के बाहर या मंगल बाज़ार में, किसी भी तरह की सार्वजनिक जगह पर. वे यहां उन सभी को अपनी कहानियां सुनाते हैं, जो इन्हें सुनना चाहते हैं.

फॉर्मूला अगर आप पूछें तो यह है कि कहानी बताने की काबलियत को लिखने की क्षमता में कैसे बदला जाए?

जैसा आप बोलते हैं, वैसा कैसे लिखेंगे? क्योंकि जैसे ही आप लिखना शुरू करते हैं, आपको ध्यान भी नहीं रहता और आप ‘स्कूल निबंध लेखन’ मे फंस जाते हैं. स्कूल में आपको एक ख़ास तरह से लिखना सिखाया गया है, शब्दों को सुंदर तरीके से गढ़ना, ज़बरदस्ती का सजाना. हम इस सब से दूर रहते हैं. जो आप बोल रहे हैं, उसे ही लिखने की दुनिया में ले जाएं. तभी एक नई ज़ुबान गढ़ी जाएगी, नई कहानी होगी, तभी हम हिंदी विभाग के बाकि लिखने वालों से अलग दिखाई देंगे.

शर्मिला: इसके साथ हमने लगभग 150-200 अभ्यासों के सेट बनवाए हैं. ये अभ्यास आपको अपने अंदर छिपी आवाज़ ढूंढने में मदद कर सकते हैं. जिससे आप कहीं अपनी कहानी में किसी और के दिए शब्दों और विवरण को ही न दोहरा दें. इन अभ्यासों पर अगर कोई चलता है तो उसके लिए देखने की दुनिया, सोचने की दुनिया, कहने की दुनिया खुल जाती है. उसके बाद तो बस सबका अपना सफ़र है.

जैसे-जैसे युवा एक लेखक के रूप में अपनी कहानियों को खोजते हैं, क्या कुछ ख़ास चुनौतियां हैं जो हर समूह के साथ बार-बार उभर कर आती हैं?

प्रभात: जैसे, शुरुआत में हमारे बच्चे “मैं”, “मैं” बोलते रहते हैं. ‘मैं’ शैली में बहुत लिखते हैं. मेरा मानना है कि एक-डेढ़ साल तक “मैं” को केंद्र में रखकर लिखना भी चाहिए. वे अपनी कहानियों के मुख्य किरदार बनना चाहते हैं और यह जगह उनको मिलनी चाहिए, क्योंकि अपनी खुद की ज़िंदगी में ही वे मुख्य किरदार नहीं होते. फिर “मैं” से “हम” में वे कैसे चले जाते हैं? फिर “वह”, में यानी किसी और के बारे में लिखना कैसे शुरू करते हैं? फिर कल्पना की दुनिया कैसे खोलते हैं? क्योंकि मेरा मानना है कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कल्पना करके लिखना सबसे कठिन काम है. आप रोज़मर्रा की ज़िंदगी को, कल्पना करके एक नया मोड़ देते हैं न? वह मुश्किल काम है.

हम अगले चरण में कल्पना पर ही ध्यान केंद्रित करने वाले हैं. हमारी अगली सीखने-सिखाने की पद्धति यही होगी.

बिना निर्देश दिए या सेंसर किए आप जेंडर, नैतिकता और यौनिकता के मुद्दों पर कैसे काम करते हैं? कहानियां उपदेशात्मक न बनें यह आप कैसे तय कर पाते हैं?

प्रभात: हम इस हकीकत को ध्यान में रखते हैं कि बच्चे और युवा नैतिकता के चक्कर में तभी फंसते हैं जब उनके आस-पास के व्यस्क उनके लेखन को नैतिकता की नज़र से देखते हैं. हम जिन लड़के-लड़कियों के साथ काम करते हैं वे किसी व्यस्क की कल्पना से कहीं आगे बढ़ जाते हैं और जेंडर और यौनकता को अलग-अलग संदर्भों में देख पाते हैं क्योंकि इन दोनों का कई अलग-अलग बिंदुओं पर जुड़ाव हो सकता है. कॉलोनी की लड़कियों के साथ हमने लेखन का विषय रखा था – ‘बचपन के लड़के दोस्त’. हमें पता नहीं था कि वे क्या लिखेंगी लेकिन तनाव तो दिख रहा था. हम बस इतना चाहते थे कि उनके लेखन में यह तनाव ज़ाहिर हो सके.

हमने उन्हें कहा कि टटोल कर देखो कि तुम्हारी जो पहचान है – एक लड़की का शरीर, वह तुम्हें कितना आगे जाने की अनुमति देता है, जैसे – मैं लड़की को कहूं कि लड़का बनकर रात को पुरानी दिल्ली घूमने के अनुभव लिखो तो? मुक्ति है इसमें, आज़ादी है.

कई बार कान से सुनी कहानी में हम अपने आप को उड़ेल लेते हैं. यह इच्छा और कल्पना का मिला जुला रूप है, जैसे टीना की कहानी को ही लें, अंसारी जी वाली. यह दक्षिणपुरी के एक व्यक्ति पर है जो हर सुबह अपनी छत पर आता है. वह मर्दानगी से भरा है, अधनंगा, बिना कमीज़. वह आता है और आस-पास की जितनी औरतें हैं सबको ताड़के वापस चला जाता है. उसकी एक बेटी है, जिससे वो बहुत प्यार करता है. एक दिन वह अपनी बेटी से कहता है, मैं तुम्हारे लिए दूल्हा ढूंढ कर लाऊंगा. इस पर बेटी कहती है, “पापा आप की तरह लाना”. वो इसके बाद क्या महसूस करता है?

…या हम ‘प्रीति, आई लव यू’ नाम की कहानी लें. एक दिन सुबह-सुबह स्कूल के दरवाज़े पर किसी ने लिख दिया – ‘प्रीति, आई लव यू’. यह देख प्रिंसिपल इतनी नाराज़ हो गईं कि पूरे स्कूल की सारी प्रीतियों को बुला लिया गया और उन्हें ज़लील किया गया. कई प्रीतियां थीं जो किसी को प्यार करती थीं, या नहीं भी करती थीं, सबको शर्म महसूस हुई. यह एक पेचीदा कहानी बन गई.

शर्मिला : देखिए, जब हम जेंडर पर खोजबीन करते हैं, तो हम ऐसा ज़्यादातर कुछ थीम्स के अंतर्गत करते हैं. ‘भेदभाव’, ‘मर्दानगी’, ‘औरतानापन’ (फेमिनिटी), ‘यौनिकता’, ‘हिंसा’ – ये सामान्य जेंडर पाठ्यक्रम के ढांचे हैं. दूसरा है – जीवन कौशल दृष्टिकोण (लाइफ स्किल एप्रोच). इसमें कुछ ख़ास कौशलों पर फोकस होता है. इसमें कौशलों की तो बात होती है मगर ज़िंदगियों की नहीं. साथ ही, यह यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पर बहुत केंद्रित होता है. यह एक युवा की ज़िंदगी को घटाकर उसे सिर्फ एक ‘सेक्सुअल बीइंग’ बना देता है. जो हमें लगता है कि लोगों की हक़ीक़तों से मेल नहीं खाता.

जेंडर और यौनिकता की थीम्स को आगे कैसे लेकर जाया जाए और इन पदों को उनकी अपनी ज़िंदगी को देखने के तरीके से कैसे जोड़ा जाए? कहानी एक ऐसा रूप है, जो सही-ग़लत से आगे बढ़कर हमें ज़िंदगियों को परतों में, काले-सफ़ेद के परे देखने में मदद करती है.

हम बारीकियों को देखना शुरू कर देते हैं और कोशिश करते हैं कि हमारा काम धारणाओं और नैतिकताओं से प्रभावित न हो.

बच्चे और युवा अपने रिश्तों में, अपने विचारों में खुलापन रखते हैं और इस खुलेपन को ही वे तलाशते भी रहते हैं. ऐसे में विरोध और असहमति के कई स्वर उनकी कहानियों और संवाद के ज़रिए सामने आने लगते हैं और वे कई अनपेक्षित चीज़ों की भी खोज कर लेते हैं – जैसे भाई और पिता जो नारीवादी हैं, जो उन्हें ताक़त देते हैं – या दादा जो बच्चों को मां की तरह पाल रहे हैं – ऐसी चीज़ें जो बाइनरी को तोड़ती हैं यानी सही-गलत/ हां-न जैसे विभाजनों को तोड़ती हैं, जिन पर जेंडर टिका है.

एक समस्या यह है कि काफी मात्रा में जेंडर पर काम समाज को दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करता है. मगर वह समाज, चाहे आपको पसंद हो या नहीं, आपके परिवार में दिखाई देता है, आपके पड़ोस में दिखाई पड़ता है लेकिन इसे लगातार खलनायक या विलन बनाए रखने से काम नहीं चलता.

लेखन का काम उन्हें इसे पलट देने में और जिस व्यवस्था में वे रहते हैं उसके बहुरंगों को देखने में मदद करता है, क्योंकि समाज सिर्फ एक विलन ही नहीं है, उसमें बहुत सारी ज़िंदगी भी है.

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आपका काम कैसे मुख्यधारा स्कूलों और शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाता है? क्या यह उनका विरोध करता है? आपने युवाओं में और उनके संबंधों में किस तरह के बदलाव देखे हैं?

प्रभात : हम हर तरह से मुख्यधारा शिक्षा का विकल्प हैं : उनका अनुशासन, उनका अंकों के आधार पर विभाजन, समय निर्धारण (टाइमिंग), फीस, उनकी सही-ग़लत या कम-ज़्यादा की धारणाएं, अक्लमंद होने या न होने का विचार, सफलता या असफलता… हम इस सब से आज़ाद हैं.

हमारे पास समय है, हमारे पास यह आराम है कि हमें हर साल अग्नि परीक्षा नहीं देनी पड़ती. हमारे छात्रों में वे शामिल हैं, जो स्कूली शिक्षा से छूट गए हैं और वे दृढ़ संवादक बन गए हैं.

हमारा सारा पाठ्यक्रम, हमारा पड़ोस है. सारे पाठ यहीं से निकलते हैं, लेखक यहीं से निकलते हैं और रूढ़ीवादी धारणाएं स्टीरिओटाइप भी यहीं टूटती हैं.

शर्मिला: हमारी सीखने-सिखाने की पद्धति का एक ख़ास सार है जिससे छात्रों को स्कूल की पाठ्य सामग्री को समझने में मदद मिलती है. कहानियां लिखने से किसी बात को समझने की क्षमता बढ़ जाती है.

आप बिना गाइड बुक की सहायता के, खुद कुछ लिख सकते हैं. इससे तर्क-वितर्क की शक्ति बढ़ती है. जैसे-जैसे ये क्षमताएं बढ़ती हैं, स्कूल के प्रति आपका नज़रिया बदलता है. जैसे-जैसे आपका लेखन मशहूर होता है, स्कूल का आपको देखने का नज़रिया भी बदलता है.

एक साथी ने हमें बताया – “जब से इनकी कहानियां किताबों में प्रकाशित हुई हैं, इनके स्कूलों ने इन्हें ‘हमारे बच्चे’ कहना शुरू कर दिया है. जो पहले नहीं था.”

बच्चों के साथ किए एक अभ्यास में, हमने चर्चा की कि ऐसे कौन से महत्त्वपूर्ण शब्द हैं जो स्कूलों द्वारा बोले जाते हैं? एक शब्द जो निकल कर आया वह था- नक़ल.

तब बच्चों ने नक़ल पर कहानियां लिखीं – उन्होंने कब नकल की, क्यों नक़ल की. उन्होंने स्कूलों से वे कहानियां साझा कीं क्योंकि किसी के बारे में मत नहीं बनाए जा रहे थे और उनमें रचनात्मकता शामिल थी.

सभी ने पूरी सच्चाई के साथ कहानियां लिखीं. एक लड़की ने कहानी लिखी कि किस तरह उसका दुपट्टा उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है – एक कहानी जिसमें ज़िक्र है कि उसका दुपट्टा उड़ जाता है तब उसे पड़ोसी कैसे देखते हैं. वह बच्ची स्कूल में थी. उसकी टीचर के उसके प्रति बहुत ही नकारात्मक विचार थे. मगर बच्ची की कहानी प्रकाशित हो गई. कहानी को क्लास में सुनाया गया, व्हाट्सएप्प पर साझा किया गया. उसके लिए, उसके स्कूल के लिए और हमारे लिए, जैसे कुछ बदल गया.  

अंत में, ऐसी कौन सी एक चीज़ है जिसे आप व्यक्ति के लेखन में ढूंढते हैं? एक ऐसी विशेषता, जिसे अन्य युवा लेखक अपने में विकसित कर सकते हैं? 

प्रभात : देखिए क्रिएटिव राइटिंग (सृजनात्मक लेखन) का विषय विश्वविद्यालयों और उनके विभागों तक ही केंद्रित है. मगर इस तरह तो पड़ोस, गांवों, नगरों और शहरों से कहानियां नहीं निकलेंगी.

एक स्पष्ट अंत, स्पष्ट संदेश या किसी संदेश की चाह से निकल कर, इस विचार के लिए खुलापन रखना होगा कि इनके बिना भी कहानियां लिखी जा सकती हैं.

हम एक ख़ास तरह के अधूरेपन को बढ़ावा देते हैं. कहानियों को उलझा रहने दो. एक अधूरेपन को महसूस करना… जैसे कहानी के किनारे पर अभी कुछ बाकी है कि कहानी अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंची है. चुपके से नए मोड़ों पर मुड़ते हुए, यह अब भी सफ़र कर रही है.

कार्यशाला

1.

इस कार्यशाला को किसी भी कमरे में बैठकर किया जा सकता है. यह सामूहिक गतिविधि है.
कमरे में सब अपने लिए एक स्थान चुन लें. वहां आप अकेले कम से कम बीस मिनट अपनी आंखें मूंद कर बाहर और भीतर से आने वाली आवाज़ों पर ध्यान दें. बीस मिनट के बाद इन आवाज़ों की एक लिस्ट बनाएं.

आपको इन आवाज़ों ने क्यों अपनी ओर आकर्षित किया? ये आवाज़ें आपको किन-किन चीज़ों की याद दिलाती हैं? ये आवाज़ें सुनकर आप क्या कल्पना करते हैं?

अब एक बार फिर इस प्रक्रिया को दोहराएं, लेकिन इस बार आपकी आंखें खुली होनी चाहिएं. एक बार फिर आपने जो महसूस किया उसे लिखें. क्या आंखें खोल कर आवाज़ों को सुनने का अनुभव अलग है?
अपने समूह के साथ आप अपने अनुभव साझा करें.

2.

यह कार्यशाला बाहर की जा सकती है. इसे आप अकेले करें.

किसी भी सार्वजनिक स्थान को चुनें. (जैसे बाज़ार, चौराहा, पार्क आदि) जहां आप चुपचाप बैठकर अपने आसपास हो रही प्रक्रियाओं पर ग़ौर कर सकें.

एक घंटे के बाद आपने जो भी देखा, सुना और महसूस किया है, उसे लिखें. इस कार्यशाला को कम से कम तीन दिन तक उसी स्थान, उसी समय पर दोहराएं.

कौन-सी कहानियां उभर कर आने लगती हैं? अपने लेखन को अपने समूह के साथ साझा करें.

3.

कल्पना कीजिए कि आप कोई और व्यक्ति हैं. ऐसे व्यक्ति जिनके बारे में आप ज़्यादा कुछ जानते नहीं (जैसे टैक्सी ड्राईवर, दुकानदार, ढाबा चलाने वाला). अब इनके बारे में ‘मैं’ शैली में कम से कम 500 शब्दों का लेख लिखिए.

इस लेख को अपने समूह में साझा करें. आपके लेख में किस तरह की अवधारणाएं छिपी हुई हैं? इनकी वजह क्या है? आपके समूह में जो चर्चा होती है उसके आधार पर इस लेख को दोबारा लिखें.

क्या आपकी सोच अलग दिशा में बढ़ने लगती है?

अंकुर संस्था द्वारा बनाई जा रही विरासत, संस्कृति और ज्ञान की गढ़न से तैयार सामाग्री की है. इसे उसके द्वारा निकाले गए प्रकाशनों में देखा जा सकता है. जैसे राजकमल प्रकाशन की किताब ‘बहरूपिया शहर’ (2007) और पेंगुइन/विकिंग द्वारा प्रकाशित इसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘ट्रिकस्टर सिटी’ (2010), वाणी प्रकाशन की ‘दस्तक’ (2012), आकार पत्रिका का प्रियामवद द्वारा संपादित विशेषांक अंक 37 (2013), खुद प्रकाशित किए गए संकलन – ‘गलियों से’ (2020) और ‘चश्मा नया है’ (2019).

अंकुर के कलाकारों/ लेखकों का लेखन पत्रिकाओं (साइकिल, चकमक, द वायर) और साहित्यिक जर्नलों के पन्नों तक पहुंच गया है. अंकुर के कलाकारों/ लेखकों ने फ़र्स्ट सिटी पत्रिका के रेगुलर कॉलम के लिए लिखा है. आजकल, वे हिंदी की मशहूर साहित्यिक पत्रिका हंस में ‘घुसपैठिए’ नामक रेगुलर कॉलम के लिए लिख रहे हैं.

शबानी हसनवालिया द थर्ड आई की संपादक हैं.

इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.

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