“डिजिटल, भला ये है क्या?”

क्या होता है जब आप उन औरतों के लिए महत्त्वकांशी डिजिटल साक्षरता पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं जो उत्तर प्रदेश में डेरी कोआपरेटिव चला रही हैं? 

डिजिटल भला ये है क्या?
डिजिटल इंडिया के संवाद में हम ‘किसी को भी पीछे न छोड़ने’ की शपथ लेते तो हैं, मगर इस डिजिटल युग में सत्ता तक पहुंच किसकी है?

गांव की एक असाक्षर महिला के लिए ‘कैशलेस इकॉनमी’ यानी प्लास्टिक कार्ड की दुनिया का क्या मतलब है? क्या डिजिटल माध्यमों का इस्तेमाल करना और एक स्वायत्त रूप से डिजिटल दुनिया में अपनी पहुंच बनाना एक जैसा ही है?

किसको हम पढ़ा-लिखा कहेंगे? इसके बदलते प्रतिमानों के जवाब में और हाशिए पर मौजूद समुदायों के सामने ‘डिजिटल’ नाम के रहस्य को खोलने के लिए उत्तरप्रदेश में डेरी कोआपरेटिव चला रही महिलाओं के साथ निरंतर द्वारा चलाया जा रहा ‘एप्लाइड डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम’ एक महत्त्वपूर्ण कदम है.

“जब हमने 2018 में उत्तरप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में औरतों से पूछा – आपको क्या समझ आता है, जब हम डिजिटल कहते हैं? उनमें से एक ने कहा – खेतों में उगतहोई बहिन? हमारे यहां नहीं उगता है ये.”

द थर्ड आई ने AppDil का निर्माण करने और लागू करने वाली टीम – पूर्णिमा, निशी, अनिता और कल्याणी से बात की, जो हमें डिजिटल इंडिया की दुनिया में ले गईं.

महिला साक्षरता पर आपके लगभग 3 दशकों के काम से, कैसे यह डिजिटल दुनिया का पाठ्यक्रम निकल कर आया?

पूर्णिमा : अगर हम इस पल के ऐतिहासिक महत्त्व को अपनी नज़र में रखें तो इसे तकनीक और शिक्षा की नई शक्ति-संरचना के रूप में देखना होगा. किसी भी अन्य संरचना की तरह यहां भी देखना ज़रूरी है कि इस संरचना में कौन हैं और किसका गुणगान हो रहा है?

ऐतिहासिक रूप से अगर हम साक्षरता को देखें, तो पाएंगे कि इसके रूप बदलते रहते हैं. एक समय था जब सिर्फ चिन्ह होते थे, आगे चलकर ये लिपि के रूप में विकसित हो गए. मगर जैसे-जैसे लिपि का विकास हुआ, इसमें औरतों को सहभागिता के मौके नहीं मिले और वे इससे बाहर होती चली गईं.

भाषा और लिपि एक ऐसा क्षेत्र बन गया जो ताकत, पहचान और संसाधन प्रदान करता था.

औरतों को पढ़ने-लिखने से दूर रखते हुए, हाशिए पर डाल दिया गया जिससे वे इन सबसे वंचित हो गईं.उनके इस हशियाकरण ने ही इस विश्वास और इस वाक्य को जन्म दिया कि – ‘औरतें ये नहीं कर सकतीं.’

आज का समय डिजिटल का समय है, जिसके कारण नए जेंडर डायनामिक बन रहे हैं, जिससे सारी भाषाएं, लिपियां और साक्षरता प्रतिमान प्रभावित हो रहे हैं.

अनीता: निरंतर ने हमेशा महिला साक्षरता को उसकी प्रसांगिक हकीकतो में समझा है. पिछले कुछ सालों से हम कई ऐसे नए क्षेत्रों को देख रहे हैं जिनमें साक्षरता की ज़रुरत महसूस होती है. इसे बैंकों के डिजिटलाइज़ेशन, एटीएम के प्रयोग, मेट्रो में सफ़र करने, इंटरनेट पर टिकटों की बुकिंग में आधार कार्ड के प्रयोग में देखा जा सकता है.

जब आपको अपने अंगूठे के निशान के बदले में राशन मिलता है, उसे तोलने वाली मशीन भी डिजिटल होती है. ऐसे में हम अपने आप से पूछते थे कि क्या ग्रामीण महिलाएं अपने पढ़ने-लिखने की क्षमताओं को, अपने चारों ओर मौजूद दुनिया से जोड़ पा रही हैं?

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निशी: हमने देखा कि जो नई योग्यताएं विकसित करने की ज़रुरत है, वह सिर्फ फॉर्म भरने तक सीमित नहीं हैं. NTLM कार्यक्रम और इसके कार्यान्वन का अध्ययन करने के बाद हमें एहसास हुआ कि लोगों को डिजिटल दुनिया में लाने के लिए राज्य द्वारा की जा रही कोशिशें बहुत सीमित हैं. वे केवल साक्षर लोगों पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. जिसका मूलतः मतलब यह है कि गांव की औरतों का एक बड़ा हिस्सा इससे छूट गया है.

हमारे स्थानीय समन्वयकों ने हमसे मोबाइल के बारे में बात करनी शुरू की और औरतों के साथ इसके तनावपूर्ण रिश्ते पर भी रोशनी डाली. उनके पास अपने मोबाइल नहीं हैं… वे मोबाइल का प्रयोग करते हुए झिझकती हैं–मिलता भी नहीं है.

मोबाइल मिलता इसलिए नहीं है क्योंकि लोगों को लगता है कि आपको इस्तेमाल करना आता नहीं है और आप ख़राब कर दोगी–

तो हमने सोचना शुरू किया. क्या हम साक्षरता को मोबाइल फ़ोन से जोड़ सकते हैं?

हमें ये एहसास हुआ कि अगर साक्षरता में डिजिटल दुनिया को शामिल न किया गया, तो सीखने-सिखाने के सारे परंपरागत तरीकों के बावजूद, आप असाक्षर ही रह जाएंगे.

कल्याणी: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मांग आ रही है, आपको पता ही है कैशलेस इकॉनमी की, फिर डिमोनेटाईज़ेशन हुआ और यह दावा किया गया कि हम कैशलेस इकॉनमी की तरफ जा रहे हैं. यहां तक कि सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) में भी. CTs, तकनीक और युवाओं पर बात करते हुए डिजिटल के ऊपर ज़ोर दिया गया. ऊपर से भी ज़ोर है और नीचे से भी मांग आई ही है.

मगर जैसाकि निशी बोल रही थीं, गांव की औरतों की ज़िंदगी में मोबाइल का स्थान बहुत रोचक है. यहां भी हमसे वही सवाल किया जाता है जो दशकों पहले जब औरतों को पढ़ाने की बातें उठीं तो लोगों ने मुड़कर पूछा- आख़िर, वे इसका क्या करेंगी?”

आप डिजिटल साक्षरता से साक्षरता के महत्त्व को नहीं नकार सकते क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर डिजिटल साक्षरता केवल स्काइप को खोलने–बंद करने, मोबाइल को खोलना-बंद करना सीखने आदि तक ही सीमित थी.

प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम को पूरी तरह से निकाल फेंका गया है. जैसाकि हमने देखा ही है, 2018 में साक्षर भारत को बिलकुल भी बजट और मानव संसाधन नहीं दिए गए हैं. इन्हें वहां से निकाल कर प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता योजना में लगा दिया गया है.

हमारा सवाल है कि क्या साक्षरता बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है? सिर्फ मोबाइल खोलना–बंद करना ही ज़रूरी है?

पूर्णिमा : सालों पहले जब हमने जनीशाला में पहला कंप्यूटर और वीडियो प्रशिक्षण दिया था, हमने देखा कि किस तरह कंप्यूटर पर लिखने ने युवा लड़कियों के लिए चीज़ों को बदल दिया. वे शायरी लिख रही थीं, अपनी सहेलियों को पत्र लिख रही थीं. वे यह सोचकर कि उन्हें पेन और कागज़ नहीं प्रयोग करना है बहुत खुश और उत्साहित थीं.

पेन और पेपर उन्हें आत्मविश्वास ज़रूर देता था, मगर कंप्यूटर ने उन्हें उससे बढ़कर कुछ और ही दे दिया था–

“अच्छा मैंने ये शब्द लिखा है और बिना कागज़ ख़राब किए मैं इसको मिटा भी सकती हूं.”

अब, यह एक नई तरह की ख़ुशी थी.

मिटा सकने की क्षमता ने गलतियां कर सकने के एक नए आत्मविश्वास को जन्म दिया. आपके पास कोई ऐसा काग़ज़ नहीं जो ख़राब हो जाएगा या ग़लत मात्राओं को बार-बार मिटाने से फट जाएगा – यहां तक कि आप अपनी ग़लतियों की कोई छोटी सी निशानी भी नहीं देखोगे.

तकनीक का प्रयोग करते हुए यह भावना जो हमने लड़कियों और महिलाओं में देखी कि वे अपनी पहचान बुन सकती हैं, इसको ही हम ताक़त देना चाहते थे. ये कुछ अपना होने का एहसास था : एक क्षमता, एक चीज़, एक एंट्रीपॉइंट. ये आज़ादी का एहसास जो सिर्फ ‘डिलीट’ बटन से ही आ सकता है.

असल में, एक सवाल जो हमसे बार-बार पूछा जाने लगा वह था – “हमने अपने बॉयफ्रेंड/ गर्लफ्रेंड से बात की है, अब हम इसे कैसे डिलीट कर सकते हैं?” या “हम फेक अकाउंट कैसे बना सकते हैं?” अब तक हम इन सवालों को साक्षरता से जोड़ने के लिए संघर्ष करते रहते थे.” इस तरह, जो (डिजिटल) पाठ्यक्रम हमने बनाए हैं वह गहराई से औरतों और लड़कियों की ज़िंदगी की हक़ीक़तों से जुड़ा है.

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अनीता: हमने प्रतापगढ़, ललितपुर, और सिरोही ज़िले में फील्ड सर्वे किया.

हमने औरतों से पूछा आप क्या समझती हैं जब हम ‘डिजिटल’ कहते हैं. कुछ ने हमसे पूछा कि जब लोग कहते हैं ‘पढ़ेगा इंडिया, बढ़ेगा इंडिया’ तो क्या उनका यही मतलब होता है? एक अन्य गांव में उन्होंने हमसे पूछा, “क्या ये खेतों में उगता है?”

मगर हमें चौंका देने वाली बात यह थी कि जिन शिक्षिकाओं से हम मिले वे खुद सार्वजनिक सेवाओं के डिजिटलाइज़ेशन से बहुत अधिक जूझ रही थीं.

30 शिक्षिकाओं में से, सिर्फ 2 को पता था कि ATM कार्ड कैसे इस्तेमाल करना है, और 28 के पास वो था तक नहीं.

किसी भी पाठ्यक्रम या अध्यापन के क्रियान्वयन का आधार शिक्षिकाएं ही होती हैं. तभी हमने डिजिटल प्रशिक्षण देने शुरू किए, जिनसे हमें वादों और पहुंच के बीच की दूरी दिखाई दी और हमने समझा कि इस सबका जुड़ाव जेंडर से किस तरह है.

जैसे- जब हमने पूछा, “क्या आप जिओ का नाम जानती हैं? इसके बारे में सुना है?” तो जवाब मिला, “हां, होंगे कोई, इनके बारे में सुना तो है, मगर कभी इन्हें देखा नहीं है.” जब हमने फेसबुक के बारे में बात करनी शुरू की तो हमसे पूछा गया, “फेसबुक होता तो है कुछ! मगर इसे क्यों मना किया जाता है? उन्होंने पूछा,

“पति, ईयरफ़ोन लगाने से क्यों मना करते हैं?” या “नंबर और फ़ोन तो दिए हैं, मगर इसमें इतना लॉक क्यों है?”

इन सवालों के जवाबों के इर्द-गिर्द ही हमने अपना पाठ्यक्रम विकसित किया है.

कल्याणी: हमारे नीड्स असेसमेंट (ज़रूरतों के आकलन) ने हमें एक केंद्रीय सवाल पूछने पर मजबूर किया – जब हम ‘डिजिटल’ कहते हैं, तो उससे हमारा क्या मतलब होता है? ये सिर्फ मोबाइल, कंप्यूटर, एटीएम नहीं है. आपका थर्मामीटर डिजिटल है, आपकी गर्भावस्था जांच किट (pregnancy kit) डिजिटल है, आपका कैलकुलेटर, आपकी घड़ी, आपके फ़ोन पर मौजूद कैलेंडर, ये सभी तो डिजिटल ही हैं .. जिन लोगों से हमने बात की उनके लिए डिजिटल कोई भी ऐसी मशीन का टुकड़ा था, जो यांत्रिक ढ़ांचे के बगैर था.

हम पहली बार प्रतापगढ़ डेरी महिला सहकारी समितियों (Dairy Women’s Collective – GVSS) से मिलने गए थे.वहां दूध संग्रह करने वाली जगह पर, जहां औरतें दूध जमा कर रही थीं, सारी व्यवस्था डिजिटल थी. वज़न करने की मशीन से लेकर उस मशीन तक जो उनको दूध में मौजूद NCF और फैट की मात्रा बताने के लिए लगी थी.
राष्ट्रीय साक्षरता सम्मेलनों में आप सुनते हैं कि पहले साक्षरता होनी चाहिए और फिर डिजिटल साक्षरता, जो ज़मीनी हकीकत के एकदम उलट है.

पूर्णिमा : हम इस नतीजे पर पहुंचे कि साक्षरता और डिजिटल साक्षरता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. आज की दुनिया में हम इन दोनों को अलग करके नहीं देख सकते. दोनों को साथ लेकर चलना होगा. इसलिए जो कार्यक्रम हम बनाते हैं उसमें ये सब शामिल होता है – अभिव्यक्ति के नए साधनों का उपयोग करते हुए तकनीक की भाषा और चिन्हों को औरतों की ज़िंदगी की हकीकतों से जोड़ना, पढ़ना-लिखना और नारीवादी नज़रिए को ध्यान में रखते हुए इनकी समझ विकसित करना.

हम उन औरतों के साथ काम कर रहे हैं जो डेरी सहकारी समितियां चलाती हैं और वे इस पाठ्यक्रम का बदलती दुनिया और अपनी जीविका तक पहुंच बनाने के लिए उपयोग करती हैं.

ये सब हमें बहुत उत्साहित कर देने वाला है. पिछले कुछ महीनों से हमें शिक्षिकाओं द्वारा बनाए गए वीडियोज़ मिल रहे हैं जिनमें औरतें SMS भेज रहीं हैं, अंग्रेज़ी भाषा को चिन्हों के रूप में समझ रही हैं.

उन्हें पता है, उनकी UID संख्या क्या है. उन्हें पता है उन्होंने कितना लीटर दूध बेचा है और असल में, वे दूध में मौजूद SNF और फैट की मात्रा भी लिख सकती हैं. वे अपने कारोबार से संबंधित दस्तावेज़ (business records) खुद तैयार कर रही हैं. ये चुनौतियों से भरा है, मगर साथ ही बहुत उत्साहित कर देने वाला भी है.

एक व्यक्ति या समुदाय का डिजिटल से परिचय करवाना बहुत उत्साह से भर देने वाला हो सकता है, मगर साथ ही कई चुनौतियां भी आती होंगी. ख़ासकर गांव की औरतों के सामने? क्या आप इनके बारे में बात कर सकती हैं? वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनसे नए-नए डिजिटल नागरिकों को मोल-भाव करना पड़ता है?

कल्याणी: पहला तो गोपनीयता (Privacy).जैसाकि हमने बताया ही कि उत्साह साफ़ दिखाई देता है. एक सीखने वाली ने अनीता से कहा, “तुम मेरेको डिजिटल में यूट्यूब सिखा दो, मैं तुम्हें पास्ता बनाना सिखा दूंगी.” हां, संभावना है, मौक़ा भी है, मगर इनके साथ ही ख़तरे भी हैं. जैसे नोएडा में हमने एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति से बात की, जिन्होंने कहा,

हम वॉयसमैसेज द्वारा बात करते हैं, हमें टेक्स्ट मैसेज लिखना सिखा दीजिए, ताकि हमें अपने निजी मैसेज, सार्वजनिक स्थानों पर न सुनने पड़ें. हमें टेक्स्ट की गोपनीयता चाहिए.

पूर्णिमा: जब हम औरतों की ज़िंदगी की हकीकतों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात करते हैं, तो हमारा यही मतलब होता है. दुनिया में अपने जेंडर से जुड़ी सीमाओं को समझे बिना, सिर्फ साक्षरता काफी नहीं. डिजिटल जितनी स्वतंत्रता देने वाला है, उतना ही नियंत्रित करने वाला भी है.

अगर मोबाइल औरतों के मनोरंजन या आनंद का साधन है, तो वही मोबाइल उसके परिवार द्वारा उसके नियंत्रण में भी मदद करता है. अगर वे फेसबुक सीखती हैं, नए दोस्त बनाती हैं, FB पर अपने फोटो डालती हैं, तो ये उनकी ज़िंदगी में हिंसा का कारण बन सकता है. जैसा हमारी एक शिक्षिका के साथ हुआ. उसने अपना एक फोटो, बिना घूंघट के अपलोड कर दिया तो उसके पति ने उसको बहुत मारा और उसका फ़ोन तोड़ दिया.

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अनीता: तो, हमसे महिलाएं कुछ ख़ास तरह के सवाल करती हैं. जैसे “आप मुझे ये बता दो कि ये कैसे छिपेगा, ताकि मेरा पति न देखे.” या “मुझे ऐसी सेटिंग करना बता दो कि मैं जो कुछ फेसबुक पर डालूं वो मेरे गांव के लोग न देख पाएं .” या वे हमें मोबाइल का पासवर्ड बदलने को कहती हैं, जिसके हो जाने से “अब देवर मेर पास आकर पासवर्ड मांगेगा.”

निशी: तो एक बड़ा संघर्ष जो हमारे सामने था, वह था कि जो सामग्री हम बना रहे थे और जो सूचनाएं दे रहे थे, उनमें गोपनीयता के तरीके कैसे शामिल करें? और ये कैसे बताएं कि लोग कितनी तरह से आपकी दी गई सूचनाओं का ग़लत इस्तेमाल कर सकते हैं. कैसे आपके विचार या जो आप महसूस करते हैं असली दुनिया में मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.

इन सब बातों को हम एक-साथ लाने की कोशिश कर रहे थे. जब तक मैं तकनीक के इर्द-गिर्द मौजूद नियंत्रण के विभिन्न ढांचों को न समझ जाऊं, तब तक वो तकनीक मुझे आज़ादी नहीं दिला सकती.

ये बार-बार दोहराया गया है, “तकनीक औरतों को आज़ादी देती है.” मगर हमें ये भी कहने की ज़रुरत है कि “तकनीक औरतों को नियंत्रित करती है.” तकनीक उस टीचर के लिए आज़ादी दिलवाने वाली नहीं थी जो अपने पति के साथ, हमारे प्रशिक्षण में आई थी, जिसके पति ने हमसे कहा “आप इसे जो कुछ भी सिखाकर शुरू करवाओ, उसमें लोकेशन एक्टिव कर देना.अगर जीमेल सिखाओ, तो उसमें भी लोकेशन चालू कर देना, ताकि सबको हर समय पता रहे कि ये कहां है.”

मोबाइल ख़ासतौर पर औरतों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए movement tracker का काम कर सकता है. हमने कोशिश की है कि इन सब तर्क-वितर्कों को भी अपने पाठ्यक्रम में शामिल करें.

कल्याणी: हमें सतर्कता और मौके के बीच संतुलन बनाना है .

पूर्णिमा: ये सच्चाई है कि निगरानी हर जगह एक हकीकत बन गई है. मगर यह भी ज़रूरी है कि हम डिजिटल तक पहुंच को, अधिकार के नज़रिए से देखें. महिलाओं को ये बता सकें कि डिजिटल दुनिया में मौजूद सारी सूचनाओं, अलग-अलग सफ़र और अनुभवों से वाकिफ होना उनका हक़ है.

इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि डिजिटल दुनिया, इसकी भाषा, अभिव्यक्ति सहित बहुत मरदाना है. ऐसे किसी भी बंदे को वह हाशिए पर डाल देती है जो दुनिया के बारे में, इसकी मरदाना परिकल्पना पर खरा नहीं उतरता.

हमारे लिए यह ज़रूरी है कि यहां होने वाली हर तरह की ट्रोलिंग, लैंगिक-जातिवादी, वर्ग आधारित तानों, धमकियों और टिप्पणियों (cyber bullying) के बावजूद इनसे अलग उठ रही आवाज़ों को शामिल कर पाएं. हम गांव की औरतों को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि आप बोलो, इसमें भाग लो क्योंकि ये आपकी भी दुनिया है.

मोबाइल और कंप्यूटर पर औरतों के मालिकाना हक़ के न होने से पाठ्यक्रम औरतों को सिखाना कितना मुश्किल हो जाता है?

निशी: सीखने-सिखाने से पहले हमने एक फैसला लिया. हमने औरतों से कहा कि अगर आपको कोई चीज़ सीखनी है, तो यह ज़रूरी है कि वह आपके पास हो. क्योंकि कैमरा, कंप्यूटर सिखाने के हमारे पिछले अनुभवों में लोग घर जाते ही जो कुछ सीखा था उसे भूल जाते थे.

ज़ाहिर है कि शिक्षिकाओं ने कहा कि ये बहुत महंगा है. मगर आगे होने वाली बातचीत में हमें पता चला कि कोई महंगी बाइक अभी ही पति ने खरीदी है या शादी पर बहुत पैसा खर्च किया गया है. तो हमें उन्हें प्रेरित करना पड़ा कि वे अपने-आप को भी कुछ महत्त्व दें और अपने पर खर्च करने में कोई बुराई नहीं है.

आज कुछ महीनों बाद, सभी शिक्षिकाओं के पास अपने मोबाइल फ़ोन हैं और वे इन्हें सेंटर भी लाती हैं.

हमें ज्ञान और संसाधनों को एक साथ देखना होगा. जब आपके संसाधन आपके नियंत्रण में होते हैं और जब आपमें उन संसाधनों को लेकर एक नज़रिया और समझ होती है, तब आपका अपनी ज़िंदगी पर असली नियंत्रण होता है. आप चुनाव कर सकते हैं. मुझे अपनी तस्वीर घूंघट में या इसके बिना अपलोड करनी चाहिए? मैं इस SMS का जवाब क्या दूं? जब औरतों के पास अपने संसाधन होते हैं, तो वे अपने चारों ओर मौजूद ढांचों के साथ ज़्यादा अच्छी तरह मोल-भाव कर पाती हैं.

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पूर्णिमा: हमारा काम औरतों तक यह बात पहुंचाना है कि ज्ञान उनका अधिकार है. ज्ञान के साथ नई-नई चीज़ों को जानने और अपनी आजीविका कमाने व अपनी ज़िंदगी बनाने की क्षमता आती है. आप समझते हैं कि कैसे आवाज़ उठाई जाए और लोगों तक पहुंचाई जाए?

आपको अपनी बात कहनी आ जाती है.. आप अपने विचार साफ़ तौर पर रख सकते हैं. ऐसे में, आप आज़ाद होते हैं, ये पूरी दुनिया आपकी होती है.

अगर आपके हाथ में फ़ोन है और अगर आप अपने आनंद के लिए कुछ भी देखना चाहते हैं तो आप आज़ाद हैं ऐसा करने के लिए.

आगे बढ़ते हुए, ऐसे कौन से तरीके हैं जिनसे आपका पाठ्यक्रम विकसित हो सकता है? ऐसे और कौन से तर्क–वितर्क हैं जिन्हें आप गांव की औरतों की ज़िंदगी में लाना चाहेंगे?

हमें यह अच्छी तरह से पता है कि जिस पल आप डिजिटल दुनिया में घुसते हैं, आप डाटा बन जाते हैं.यह एक ऐसा तथ्य है जिसके बारे में हम सबको सोचना चाहिए. अगर आप 2019 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को भी देखें, तो पाएंगे कि यह कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस) की बात करती है. कृत्रिम बुद्धिमत्ता को कई बार मशीनी बुद्धिमत्ता भी कहा जाता है. मनुष्य और जीव-जंतुओं के कार्य करने की क्षमताएं जब मशीनों में आ जाती हैं तब वह इंसानी दिमाग की तरह ही अलग-अलग किस्म के काम करने लगती हैं. सीखना और समस्या निवारण को कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है.

साथ ही यह भी कि छात्र/छात्राओं का डाटा राष्ट्रीय अभिलेख में जमा किया जाएगा, ताकि विश्वविद्यालयों की श्रेणी और विद्यार्थियों के लिए सिफारिशें निर्धारित की जा सकें. तो, आपके शैक्षिक डाटा और मार्कशीट का राष्ट्रीय कोष बनेगा.

अब, इस ज़रुरत के नुकसान सोचे जाने चाहिएं. इससे पूरी ज़िंदगी चलने वाला डिजिटल भेदभाव शुरू हो सकता है, जिससे जाति–वर्ग–जेंडर पर आधारित मौजूदा भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा. हम सोच रहे हैं कि कैसे हम अपने पाठ्यक्रम के ज़रिए, इस पर लोगों को एक नज़रिया दे सकते हैं.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.

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