महिलाओं और किशोरियों के साथ उनकी साक्षरता पर काम करते हुए मुझे कुछ 20 साल से भी ज़्यादा समय हो गया है. चिट्ठी लेखन मुझे आज भी साक्षरता और शिक्षा कार्यक्रम की सीखने-सिखाने की पद्धति के रूप में एक महत्त्वपूर्ण साधन या टूल लगता है. इन बीस साल की साक्षरता और शिक्षा की यात्रा में मुझे महिलाओं और किशोरियों की लिखी सैकड़ों चिट्ठियां मिली. इनमें से कुछ चिट्ठियां ऐसी हैं जो हमेशा मुझे इस बात की याद दिलाती हैं कि महिलाओं और किशोरियों को पढ़ना-लिखना सिर्फ इसलिए नहीं चाहिए कि वे ठीक से घर संभाले या अपने बच्चों की पढ़ाई में मदद कर पाएं. बल्कि इसलिए पढ़ना-लिखना चाहिए कि वह उनका अधिकार है और वे यह तय करें कि उनको अपनी साक्षरता के हुनर का इस्तेमाल नौकरी के लिए करना है, किताबों को पढ़ने के लिए करना है या फिर अपने दिल की बात लिखने के लिए.
महिलाओं और किशोरियों की ऐसी ही तमाम चिट्ठियों में से एक चिट्ठी है सुखबती की. लगभग 20 साल की सुखबती, महरौनी (उत्तर-प्रदेश) ज़िले के कुसमाड गांव की रहने वाली है. सुखबती, 2002 में ललितपुर में होने वाले महिला साक्षरता कैम्प के पहले कैम्प में आई थी. जब निरंतर ने ललितपुर में महिला साक्षरता और सशक्तीकरण का काम शुरू किया था. करीब 1 साल बाद ही हमें लगा कि महिलाओं के लिए आवासीय साक्षरता कैम्प करना चाहिए क्योंकि महिलाएं गांव के साक्षरता केंद्र में रोज़ाना समय नहीं दे पा रही थीं.
उनका कहना था कि इतने काम के बीच पढ़ने-लिखने के लिए हर दिन 2 या 3 घंटे देना मुश्किल है. हमें लगा कि अगर उन्हें 10 दिन के लिए कैम्प में लाएं तो समय भी देंगी और जल्दी सीख भी पाएंगी. निरंतर ने नब्बे के दशक में उत्तर-प्रदेश के बांदा और चित्रकूट में ‘महिला समाख्या कार्यक्रम’ के तहत साक्षरता कैम्प महिलाओं के लिए पहले भी सफलतापूर्वक चलाए थे. जिसमें महिलाएं पढ़ने के लिए समय देती थीं और सीखती भी थीं.
महिलाओं को साक्षर करने की तमाम गतिविधियों में से चिट्ठी लेखन निरंतर के लिए एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि थी. इसी सोच और अनुभव के साथ हम सभी जुट गए महिलाओं को कैम्प में लाने के लिए. करीब 6 महीने की कवायद के बाद कुछ 30-35 महिलाओं के नाम आए जिन्होंने कैम्प में आने की उत्सुकता दिखाई. इन्हीं में से एक थी सुखबती. सुखबती थोड़ी पढ़ी-लिखी भी थी. उसे कैम्प में हम इसलिए लेकर आए थे क्योंकि उसकी साक्षरता को मज़बूत कर उसे साक्षरता केंद्र के लिए टीचर बनाया जा सके. सुखबती की साक्षरता का पता मुझे तब चला जब मैंने उसकी चिट्ठी कैम्प की आम सभा में पढ़ी.
मुझे आज भी याद है साक्षरता कैम्प की वह आम सभा. हम बारी-बारी से सभी की चिट्ठी को देख और पढ़ रहे थे. चिट्ठी पढ़ने के इस क्रम में अचानक मैंने पढ़ा –
‘‘दीदी! मेरी छोटी बहन की शादी एक बूढ़े आदमी के साथ हो रही है और मेरी बहन अभी 15 साल की ही है.’’
मैं उस समय चिट्ठी को ज़ोर से पढ़ रही थी लेकिन जब चिट्ठी खत्म हुई तो मुझे लगा कि मैंने ठीक से नहीं पढ़ा. मैंने वो चिट्ठी फिर से पढ़ी. मैंने और आरती ने एक दूसरे को देखा. हमें लगा कि कुछ करना चाहिए. फौरन हमने सुखबती से अलग से बात की और मैं और मीना शादी रुकवाने उसके गांव निकल गए. हालांकि हम शादी रुकवाने में कामयाब नहीं हुए. उलटे हमें ही अपनी जान बचा कर उसके गांव से निकलना पड़ा.
यह बात 2003 की है. तब मुझे महिलाओं की शिक्षा और साक्षरता पर काम करते हुए कोई एक-आध साल ही हुआ था. मेरे भीतर भी महिलाओं की शिक्षा और साक्षरता को लेकर वही समझ थी, जो आमतौर पर किसी भी सामान्य व्यक्ति की होती है – ‘महिलाओं को पढ़ना-लिखना इसलिए चाहिए ताकि वे बस के नम्बर पढ़ सकें या फिर बच्चों को उनके गृहकार्य में मदद कर सकें.’
निरंतर की कुछ ट्रेनिंग में महिला साक्षरता और शिक्षा के उद्देश्यों पर चर्चा हुई थी –
साक्षरता महिला सशक्तीकरण का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है, जिससे वे अपने हक और अधिकार के लिए आवाज़ उठा सकती हैं
आदि. हालांकि मैं इससे कुछ ज़्यादा सहमत नहीं थी. लेकिन जब मैंने सुखबती की चिट्ठी पढ़ी तो एक झटके में यह समझते देर ना लगी कि चुपचाप रहने वाली सुखबती के लिए चिट्टी में दो या तीन लाइन में यह बात लिखना कितनी बड़ी बात थी. जो शायद सुखबती कभी भी किसी से नहीं कह पाती. उसे पूरा विश्वास था कि उसकी बात हम तक पहुंचेगी और जो वह चाहती है उस पर कुछ पहल ज़रूर होगी.
जब मीना और मैं सुखबती के गांव से किसी तरह जान बचा कर वापस कैम्प में पहुंचे तो सुखबती के चेहरे पर एक सुकून था. जो इस एहसास को जता रहा था कि उसने ऐसा कुछ किया जिसे वह शायद गांव या परिवार में रह कर नहीं कर पाती. सुखबती ने इसके बाद कभी भी हमसे सवाल नहीं किया कि उसकी बहन की शादी क्यों नहीं रुक पाई. लेकिन उसके लिए यह बात महत्त्वपूर्ण थी कि वह अपनी बात हम तक पहुंचा पाई, क्योंकि चिट्ठी ने उसे मौका दिया. यहां मैं अपने अनुभव से कहना चाहूंगी कि मैंने तमाम औरतों की चिट्ठियां पढ़ी हैं जो पहली बार पढ़ना-लिखना सीख रही थीं या सीख रही हैं और इसमें से 80 से 90 फीसदी महिलाओं ने अपनी इच्छाओं, चाहतों, गुस्सा, घर के अंदर हो रही हिंसा और गैर-बराबरी के बारे में लिखा.
कुछ ने यह भी लिखा कि उन्होंने क्या सीखा, उनको किस तरह की जानकारी मिली. लेकिन ज़्यादातर महिलाओं ने अपने दिल की बात लिखी जो वे महसूस कर रही थीं जिससे वे जूझ रही थीं.
ऐसी ही कई चिट्ठियों में एक चिट्ठी थी – अनीता की. उसकी उम्र भी सुखमती के बराबर की ही थी और वो उसी के गांव से थी. वह सुखबती के साथ साक्षरता कैम्प में आई थी. चिट्ठी लेखन में अनीता का कोई सानी न था. वो कैम्प में सत्र छुटते ही तुरंत कागज़ मांगने आ जाती और बैठ जाती चिट्ठी लिखने. उसका चिट्ठी लिखना रात के करीब 2 बजे तक चलता. कभी-कभी तो हममें से कोई उसे डांटता – ‘‘सो जाओ बहुत रात हो गई है. सुबह उठकर चिट्ठी लिख लेना.’’ लेकिन अनीता लगी रहती. अनीता की चिट्ठियां 2 या 3 पेज से कम की न होतीं. चिट्ठी की शुरुआत मां संतोषी या मां शारदा देवी के संबोधन से होती और खत्म होती कैम्प में पढ़ाने वाली सभी दीदियों के नाम और एक माफ़ीनामे के साथ कि अगर उससे कोई गलती हो तो उसको माफ़ कर दिया जाए.
अनीता, चिट्ठी में अपनी स्थिति के बारे में, अपने पति के बारे में और पति के द्वारा की जा रही हिंसा के बारे में लिखती. हम अक्सर आम सभा में अनीता की चिट्ठी नहीं पढ़ते. सिर्फ यह कहते कि अनीता ने बहुत लम्बी चिट्ठी लिखी है और फिर उससे बाद में बात करते.
जब हमने अनीता से अलग से बात की तो पता चला कि उसका पति पढ़ा-लिखा नहीं है और वह अनीता को बहुत मारता है. अनीता ने यह भी बताया कि उसका मायका एक अच्छा खाता-पीता परिवार है और ससुराल में गरीबी है. वह देखने में इतनी दुबली थी कि कई बार हमें डर लगता कि उसके पति की मार-पिटाई से उसकी जान ही ना चली जाए. एक बार अनीता को जब दूसरे कैम्प में आना था तो उसके पति ने कुल्हाड़ी से उसपर वार किया. उसका घुटना बुरी तरह से कट गया. वो उसी स्थिति में कैम्प में आई. अनीता की यह हालत देख हमने तय किया कि उसके पति से बात करेंगे. लेकिन वह इस बात से बहुत डर गई थी. उसका कहना था कि जब वह कैम्प से वापस जाएगी तो उसका पति और पिटाई करेगा. अनीता के मना करने पर हमने उसके पति से बात नहीं की. लेकिन अनीता को समझाते रहे कि मार-पिटाई ठीक नहीं है.
अनीता चुपचाप हमारी बात सुन लेती और अपने 2 साल के बच्चे को छाती से लगाए तल्लीन रहती लिखने में. उसकी साक्षरता बाकी महिलाओं से थोड़ी बेहतर थी. दिन में साक्षरता के सत्रों में वह गंभीरता से अपनी क्षमता पर काम करती और रात चिट्ठियां लिखने में गुज़ारती.
अनीता के लिए चिट्ठी लिखना एक थेरेपी की तरह था. वह इतना लिखती कि उसकी पेंसिल भी जल्दी खत्म हो जाती.
उसकी लम्बी चिट्ठियों से लगता कि वह जिस तकलीफ़ से गुज़र रही है उसको वह बस किसी के सामने उगलना चाहती है. मुझे कभी-कभी लगता कि यह चिट्ठी उसकी सहेली है. ऐसी सहेली जिससे आप अपने मन के हर दुख-दर्द को बांट सकें, उसे साझा कर सकें.
अनीता हमारी बात बस सुनती रहती और कहती –
‘‘दीदी! तनक जी हल्को हो जात है लिखबे से! ई तो आप सबन के कहबे से हम कैम्प में आ पाए नहीं तो कोउ से नहीं कह पाते!’’
एक तरफ सुखबती के लिए चिट्ठी ज़रिया बनी अपनी बात हम तक पहुंचाने की तो वहीं अनीता चिट्ठी इसलिए लिखती थी कि मन हल्का हो सके. यही महिलाओं के लेखन की सबसे बड़ी खूबी है. जो वे काम करती हैं, जो महसूस करती हैं, वह हू-ब-हू खत में भी लिखने की कोशिश करती हैं.
यह बात मुझे झारखंड की महिलाओं से और समझ में आई. लगभग 35-37 साल की लालदेवी जब झारखंड से दिल्ली कार्यशाला में आई तो उसने दिल्ली आने का अनुभव तो लिखा ही, साथ ही जिस समय वह दिल्ली में है तो गांव में क्या हो रहा होगा, यह भी लिखा. वह लिखती है –
‘‘आजकल रोपा-रोपने का मौसम है लेकिन मैं अपने बच्चे और सब छोड़ कर दिल्ली आई हूं…. यहां आकर बहुत कुछ सीखने को मिला है. मैं सेंटर में जाकर अपनी सहेली को बताउंगी. बस ‘‘जोहार!’’
यानी लालदेवी का मन पूरी तरह से अपने गांव में लगा है चूंकि जिस समय वह दिल्ली आई थी ठीक उसी समय गांव में धान को रोपने का काम चल रहा था.
ऐसी ही एक चिट्ठी जोबा मार्डी की हमें मिली. जोबा ने धान की खेती और धान को लगाने से लेकर उसे साफ करने और उसका पिठा बनाने तक की बात को अपने खत में लिखा. जोबा लिखती है –
‘‘…मेरे खेत में धान पक गया है. अभी धान की कटाई होगी. फिर धान बांधेंगे और जमा करके फिर बैल गाड़ी लाएंगे. फिर मीसिम (यानी कि मशीन) में झाड़ेंगे. पंखा से उड़ा कर साफ करेंगे और धान पिसा कर पिठा बना के मेहमान को खिलाएगें.’’
जोबा के खत की बात बहुत ही साधारण सी बात है जो उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होने वाले तमाम काम का एक अंग हैं. लेकिन इन चार लाइन में जोबा वही लिखती है जो वो हमेशा से करती आई है.
‘चिट्ठी’ लेखन भाषा को सीखने की प्रक्रिया में एक कारगर तरीका रहा है. इसलिए सभी महिलाओं को प्रेरित किया जाता है कि वे लिखें, वे चित्र बनाएं, अगर उन्होंने अपना नाम लिखना सीखा है तो अपना नाम ही लिखें. इसका एक खास मकसद होता है कि महिलाओं को लिखने का अभ्यास हो और पेंसिल या कलम पकड़ने की आदत पड़े. अक्सर जब भी महिलाओं को उम्र के इस पड़ाव में खासतौर पर ग्रामीण महिलाओं को मैंने चॉक, पेंसिल या कलम पकड़ते देखा तो उनके चेहरे के भाव को भी मैं देखती हूं कि वे क्या महसूस कर रही हैं.
घर, खेती और मज़दूरी के कारण उनके हाथ कठोर और रेखाएं घिस गई हैं. इन सबके बीच चॉक, कलम और पेंसिल पकड़ में ही नहीं आते हैं. महिलाएं कभी हंसतीं तो कभी खीजती हुई कहतीं –
‘‘तुम अब हमें इस उम्र में क्या पढ़ा रही हो! हंसिया दे दो इन हाथों को, फिर देखना एक घंटे में खेत काट देंगे. लेकिन देखो, यहां दो दिन से हम अपना नाम नहीं लिख पा रहे. पेंसिल सरक-सरक जा रही है.’’
लेकिन टीचर्स लगी रहती हैं महिलाओं को सिखाने में. उनको पेन और पेपर को पकड़वाने के अभ्यास में. इस सबके बीच चिट्ठी जैसे कोई जादू का काम करती. दिनभर की जद्दोजहद के बाद शाम में अपनी चिट्ठी में वे अपने दिल की बात उकेरने लगतीं.
महिलाओं की इन चिट्ठियों में मुझे एक खास बात लगी उनकी भाषा. बहुत साधारण और स्पष्ट. ज़्यादातर इन चिट्ठियों में हिंदी और उनकी भाषा का मिलाजुला रूप दिखा. वे जैसे बोलती हैं वैसे ही लिखती हैं. इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं करतीं कि उनकी भाषा का मज़ाक उड़ाया जाएगा.
ऐसी ही एक चिट्ठी है लक्ष्मी की. लक्ष्मी ललितपुर ज़िले के सेमरखेडा गांव की रहने वाली थी और उसकी उम्र 17 साल की थी. लक्ष्मी, जनीशाला* में पढ़ने आई थी. जनीशाला में इतिहास की समझ बनाने के लिए एक एक्सपोज़र विज़िट की जाती थी. जिसमें उनको दिल्ली, झांसी या आगरा ले जाया जाता था. लक्ष्मी की पहली यात्रा दिल्ली की थी. इस यात्रा के दौरान हम नेहरू प्लैनेटोरियम गए. जब प्लैनेटोरियम के अंदर सत्र शुरू हुआ तभी कुछ देर बाद सुनीता की 2 साल की बेटी ने शौच कर दिया. लक्ष्मी ने इस पूरे अनुभव को अपने पत्र में लिखा –
‘‘… जब कारियेकरिम शुरू हुआ तो हमें डर लगने लगा, फिर अच्छे-अच्छे चित्र दिखाई देने लगा. कुछ लड़कियां सो गई, तभी सुनीता के बेटी ने टट्टी कर दी. सुनीता ने उसको मारा तो वो जोर-जोर से रोने लगी…!’’
भाषा की बात हो और मैं ग्यासी, हल्ली और झारखंड की महिलाओं की बात न करूं, यह हो ही नहीं सकता. ग्यासी, अनीता की ही तरह पढ़ी-लिखी थी लेकिन कैम्प में वह अपनी साक्षरता मज़बूत करने आई थी. उसकी उम्र 20 साल के आसपास की थी और वो मेहरौनी के खटौरा गांव की रहने वाली थी. 6 महीने की गर्भवती ग्यासी, जब सत्र में बैठकर थक जाती, तो लेट जाती और लेटे-लेटे ही लिखती. ग्यासी अपनी चिट्ठी में कैम्प में उसने क्या सीखा उसको ही लिखा करती थी और फिर सब पढ़ाने वाली दीदियों को नमस्ते लिखती. लेकिन अक्सर उसमें बुंदेली शब्दों की भरमार रहती. हो भी क्यों ना, उसकी पहली भाषा बुंदेली जो ठहरी. वह समय को टेम लिखती और नमस्ते को नबस्ते.
इस तरह के
कई शब्द हमें स्थानीय भाषा में मिलेंगे. जो किसी और भाषा से आए हैं या फिर वहां की बोली की वजह से उनके बोलने में बदलाव नज़र आता है. जैसे ललितपुर में ‘न’ हमेशा ‘ल’ का रूप लेता है, ‘नीलम’ हमेशा ‘लीलम’ बोला जाता है और ‘ब’,’ व’, ‘भ’ में भी हमेशा उलटपुलट हो जाता है.
वैसे, भाषा का मामला इतना आसान भी नहीं है. मुख्यधारा की भाषा और आम बोलचाल की भाषा के बीच हमेशा तनातनी बनी रहती है. अक्सर इसमें जीत मुख्यधारा की होती है और स्थानीय भाषा गौण हो जाती है. सीखने वाली की भी चाहत होती है कि वह मुख्यधारा की भाषा ही सीखे क्योंकि यह भाषा भद्र लोगों की मानी जाती है. पर वह कितनी भी कोशिश कर ले, उसके लेखन में स्थानीय भाषा का रंग आ ही जाता है.
भाषा की राजनीति को हम बखूबी हल्ली के एक खत से समझ सकते हैं जो उसने जनी पत्रिका के लिए लिखा था. 30-32 साल की हल्ली, महरौनी के पथराई गांव से आई थी. उसका चेहरा मुझे आज भी याद है जब उसने अपना दिल्ली जाने और ट्रेन पकड़ने का यह किस्सा सुनाया. कैसे चटखारे लेकर अपनी बात बता रही थी. हमने फौरन उसे कहा लिख डालो.
हल्ली ज़ोर से हंसी और बोली – ‘‘हमें तो बुंदेली ही आउत है वोई मा हम लिखें.’’ फिर जब हल्ली ने लिखकर दिया तो पूरा किस्सा हिंदी में था. हल्ली से जब मैंने कहा – ‘‘हल्ली ये तो हिंदी में लिखा है. तुम तो बुंदेली में लिखने को कह रही थीं.’’ हल्ली का जवाब था – ‘‘हमें तो तुमने जैई भाषा लिखने को सिखाई तो कैसे बुंदेली लिखें?’’ हल्ली की बात सुनकर मेरी हंसी निकल गई और फिर हल्ली और हम भिड़ गए उसके दिल्ली के किस्से को बुंदेली में लिखने को. लेकिन हल्ली के इस खत ने हमें और भी सोचने पर मजबूर किया कि हल्ली सही तो कह रही है पूरी किताब तो हिंदी में है. क्या सीखने-सीखने की पद्धति में कुछ बदलाव हो सकता है?
कई बार हमें औरतों की इस तरह की चिट्ठियां मिलती थीं कि हमें समझ में ही नहीं आता था कि उन्होंने क्या लिखा है. ऐसी ही चिट्ठियां थीं मूला (लगभग 35-37 साल, खटौरा गांव) और फुंदाई (लगभग 40-43 साल, लोहरा गांव) की. चिट्ठी में थे कुछ अक्षर, कुछ फूल और कुछ आड़ी तिरछी लकीरें. हम उनसे पूछते कि क्या लिखा है तो वे हंसती और फिर गोल-गोल आंखें मटका कर कहतीं –
‘‘काए तुमें पढ़ने नई आत? तुम तो पढ़ी लिखी हो, पढ़ो क्या लिखा. हमने तो लिख दओ हमें जो लिखने तो!’’
और फिर सब हंस पड़ते. मुझे इन महिलाओं के आत्मविश्वास पर बहुत आश्चर्य होता. वे कैसे हम ‘‘पढ़े लिखे लोगों’’ को चुनौती देतीं उनकी सांकेतिक भाषाओं को पढ़ने में.
चिट्ठियों ने महिलाओं को अपने से सहज होने और टीचर्स के साथ एक रिश्ता बनाने में मदद की. क्योंकि टीचर की अपनी सत्ता होती है और हमारी शिक्षा प्रणाली ने शिक्षक की जो छवि बनाई है उसमें शिक्षार्थी को अपने बारे में विषय से हटकर बात करने या रखने की कोई गुंजाइश ही नहीं होती है. वैसे ही टीचर्स के लिए चिट्ठी पढ़ना सीखने को बढ़ावा देने के लिए महत्त्वपूर्ण था. चिट्ठी पढ़ना और उसपर बात करना – यह एक तरीका है महिलाओं की क्षमताओं और प्रगति को आगे बढ़ाने का.
शारदा (सिमरिया, मंडावर ब्लॉक) की चिट्ठी इन बातों का सबूत है. शारदा की उम्र कोई 14 या 15 साल की थी वह स्कूल जाती थी लेकिन जब उसने जनीशाला के बारे में सुना तो उसे लगा कि यहां आना स्कूल जाने से बेहतर होगा और वह 8 महीने के लिए जनीशाला आ गई. चूंकि उसकी साक्षरता बेहतर थी तो वह दिन में करीब 5-6 चिट्ठियां लिखती, सभी टीचर्स के लिए अलग-अलग. उसकी एक चिट्ठी जो उसने मुझे लिखी थी –
‘‘पूर्णिमा दीदी! मैं बहुत मेहनत से जनीशाला आई हूं. मैंने कटाई के समय जो गेंहू काटे थे उसको बेचकर जनीशाला की फीस दी है. मैं आगे पढ़ना चाहती हूं. आप मुझे जनीशाला से कभी मत निकालना.” इसके बाद शारदा ने अंत में शायरी लिखी – “लाल मिर्च हरी मिर्च, मिर्च बड़ी तेज़, देखने में भोली-भाली लेकिन दीदी बड़ी तेज़’’!
बार-बार हमने पाया कि जब भी महिलाओं को मौके मिले और जब भी उनको प्रेरित किया गया है उन्होंने जी खोलकर लिखा.
यह संभव इसलिए भी हो पाया क्योंकि महिलाओं की साक्षरता को एक नारीवादी नज़रिए से बुना गया और शिक्षण पद्धति के केंद्र में महिलाओं के संदर्भ को रखा गया.
महिलाओं से संबंधित उन तमाम मुद्दों पर चर्चा की गई जिसे मात्र महिला होने के नाते यह समझ लिया जाता है कि यह तो उनकी नियति है. मुझे याद है जब कैम्प में हमने शाम के सत्र में ‘‘बेटा किसका?’’ कहानी सुनाई तो जलेब ने जितने भी अक्षर और मात्राएं सीखी थीं उनको जैसे चिट्ठी में उडेल दिया उसने लिखा –
‘‘दीदी! मुझे मेरे पति ने घर से निकाल दिया और मेरे बेटे को अपने पास रख लिया. कहता है तुम गंवार हो, पढ़ी-लिखी नहीं हो. पर हकीकत तो यह है कि उसका रिश्ता भाभी के साथ है. मैं गोरी हूं, मेरे बाल सोने जैसे हैं. बस मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं. मैं पढ़-लिख कर उसे चिट्ठी भेजूंगी.’’
जलेब की बात में कोई बदला लेने के बू नहीं थी. वह सिर्फ चिट्ठी लिखकर अपने पति को जताना चाहती थी कि वह गंवार नहीं. जलेब इस पितृसत्तात्मक ढांचे को बखूबी जानती थी. वह यह भी जानती थी कि इस पितृसत्तात्मक समाज में सुंदरता के क्या मायने हैं. इसलिए वह अपने गोरे रंग और बाल के बारे में बात करती है. वह यह भी पहचानती है कि पढ़ा-लिखा होने की क्या अहमियत है और अपने हाथ से चिट्ठी लिखकर पति को भेजने के क्या मायने हैं. जलेब की यह बात कोई 2 दशक पहले की है जब मोबाइल, इंटरनेट का इतना बोलबाला नहीं था. तब चिट्ठी ही एक माध्यम थी दूरदराज़ के इलाके में संदेशों को पहुंचाने का. उस समय जब औरतों से हम पूछते थे कि वे पढ़ना-लिखना क्यों चाहती हैं तो कुल मिलाकर यह दो-तीन चीज़ें ज़रूर बोलती थीं –
‘‘अब नौकरी तो मिलने से रही. लेकिन हां, अगर कहीं आ-जा रहे हों तो बस का नंबर पढ़ सकें.” या फिर वे बोलतीं – “बाज़ार में जब सौदा लेने जाएं तो कोई ठग न ले” या फिर वे यह कहतीं – “ससुराल में कोई दिक्कत हो तो अपने मां-बाप को चिट्ठी लिख सकें.” औरतें यह कितना कर पाईं या कर पा रही हैं यह तो एक बड़ा सवाल है लेकिन साक्षरता कैम्प और केंद्र में महिलाओं और किशोरियों ने जी भर के चिट्ठियां लिखीं.
लेकिन जब हम भागवती की चिट्ठियों को देखते हैं तो पाते हैं कि उसने लिखा है कि जब उसने अपने अधिकारों की मांग की तो उसे किस तरह के संघर्ष करने पड़े और कौन सी सफलताएं मिलीं.
भागवती लिखती है –
“मेरा नाम भगवती सहरिया गौना गांव की रहने वाली हूं. सहरिया समाज के 30 पुरूष और 20 महिलाएं इकठे होमन कर टेकट में बैठ कर ललितपुर डियम साहब के पास जाकर डियम से कहे कि हमारी कुछ महिलाओं को विधवा पेसिल और समाज वाली पेसिल की मांग मांगने आए सो डियम साहब ने कहा कि इतनी सारी महिला पुरूष यहां कहे को आए हो. हम गौना गांव की औरतने कहीं विधवा पेसिल और समाज पेसिल. हम सभी अपने अपने गांव वापिस आए. महीने दो महीने के बाद सभी औरतों को पेसिल मिल लगी और कुछ लोगों को परिमिट भी मिल लगे.”
यहां यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि कहां, किसको और किस तरह की बात चिट्ठी में लिखी जाएगी और उसका प्रभाव किस तरह से होगा.
महिलाओं की चिट्ठियों में एक और ज़रूरी चीज़ होती है – वह है सजावट. जितने लगन से वे इन चिट्ठियों को लिखती हैं उतनी ही लगन से वे इनको सजाती भी हैं. कभी फूल-पत्ती तो कभी अल्पना (रंगोली) तो कभी आड़ी-तिरछी लकीरें ही बना देती हैं.
समय के साथ आज के इस मोबाइल और इंटरनेट के ज़माने में कागज़ पर चिट्ठी लिखना अप्रचलित और खत्म हो चुकी विधा है. लेकिन अभी भी महिलाओं और किशोरियों के साक्षरता कार्यक्रम में औरतें और लड़कियां मुस्तैदी और लगन से खत लिखने बैठ जाती हैं.
दिल्ली के पेस सेंटर (स्कूल ड्रॉपआउट लड़कियों के लिए लर्निंग सेंटर) में पढ़ने वाली गुलनार अपनी इच्छाएं, आसपास क्या हो रहा है, उसको किस बात पर गुस्सा आता है – सब कुछ चुपचाप चिट्ठी में लिखती है और फाइल में लगा देती है. गुलनार कहती है कि ऐसा करके उसे तसल्ली मिलती है कि उसने चिट्ठी में यह बात दर्ज कर दी है.
*जनीशाला उत्तर प्रदेश के ललितपुर ज़िले के महरौनी ब्लॉक में एक आवासीय स्कूल था, जिसे 2008 में शुरू किया गया था. जनीशाला में स्थानीय संदर्भ को जोड़ते हुए पढ़ाया जाता था. यहां पढ़नेवाली लड़कियों की उम्र 14 से 25 साल के बीच थी. इनमें से कुछ लड़कियां कभी स्कूल नहीं गई थीं और कुछ की कम उम्र में शादी की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी.