समझौता

आप क्या चाहते हैं – समझौता या न्याय?

जब सौदे की बात आती है, तब दिमाग में अनगिनत महिलाओं की मौतें आ जाती हैं. क्योंकि समाज औरत के ज़िंदा होते हुए दहेज के नाम पर और उसके मरने पर लाश का सौदा करता है. महिला मरी नहीं कि गांव प्रधान, थाना, ससुराल वाले सभी के दिमाग में यही ख्याल आता है कि अब जो हो गया, वह हो गया, मामले को यहीं रफा-दफा करते हैं और बोली लगाते हैं.

हिंसा, श्रम और समझौता

किसी महिला की ज़रूरतों को केंद्र में रखते हुए उसकी काउंसलिंग करने का क्या मतलब होता है? निर्णय लेते समय महिला के सामने अनेक सामाजिक पहलू खड़े हो जाते हैं जिनमें वह फंसती है और निकलती भी है. कई सवाल सामने होते हैं. जैसे, ससुराल छूटा तो कहां रहूंगी? क्या करूंगी?

‘हम सिर्फ़ ससुराल वापस जाने का कोम्प्रोमाईज़ नहीं करवाते हैं.’

समझौता और इकरारनामा ये दो शब्द जेंडर आधारित हिंसा से जुड़ी शब्दावली में महत्त्वपूर्ण हैं. इकरारनामा का मतलब कोर्ट-कचहरी, थाना-पुलिस, पंचायत या मध्यस्थता केंद्रों द्वारा करवाए जाने वाले समझौतों से बहुत अलग है.

“वहां देखो, ज़िंदा होने पर एक बेटी के शरीर का सौदा, अब मरने के बाद एक लाश का सौदा! वाह रे समाज क्या खूब है…”

अपने आसपास की तमाम खबरों पर अगर नज़र दौड़ाएं तो किसी महिला की मौत का सौदा कितनी आम बात है. इस तरह के सौदे हमारे निजी रिश्तों की क्षणभंगुरता और उसके भुरभुरेपन पर पड़े पर्दे को उघाड़ कर रख देते हैं.

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